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जेन ऑस्टिन - 2

अध्याय- 2


गांवों की तरह छोटे कस्बों की भी ख़ासियत यही होती है। कि मोहल्ले जातियों के आधार पर बटें होते हैं। किसी एक मोहल्ले में एक जाति का और दूसरे में दूसरी का वर्चस्व पाया जाता हैं। लेकिन जब कोई कस्बा अम्बेडकर नगर नीति में आ जाता हैं तो वहाँ के लोगों द्वारा बड़ा दिल रखते हुए थोड़ा बदलाव किया जाता हैं। लेकिन बदलाव का मतलब ये नहीं होता कि पंडितों के मोहल्ले में कुम्हार, नाई, धोबी, को बसा दिया जाता हैं। बल्कि बदलाव का मतलब ये होता हैं कि पंडितों के मोहल्ले में किसी उच्च जाति वाले को ही बसने दिया जाता हैं।

जब माँ के दुलार, पिता की डांट, भाइयों का डर और ऑस्टिन के उपन्यासों की नायिकाओं की रोमानियत में खोए हुए निशा का वक़्त बीत रहा था। उसी वक़्त में उसका कस्बा भी अम्बेडकर नगर बदलाव नीति के रथ पर सवार हो गया था। और उसी रथ में बैठकर निशा के सामने वाले घर में पंडित रघुनाथ शर्मा डेरी वाले किराएदार के रूप में रहने आए थे।

पंडित रघुनाथ ने डेरी का काम तो बाद में शुरू किया था। इससे पहले वे, कानपुर की एक छोटी सी कंपनी में मशीन ऑपरेटर के रूप में काम करते थे।

एक बार उनकी कंपनी में रात की पाली कर रहे कुछ कर्मियों पर चोरी का इल्ज़ाम लगा था। जिसके जवाब में उन कर्मियों ने हड़ताल शुरू कर दी थी। जिस कारण कंपनी का काम होना बंद ही गया था। और जो कर्मी चोरी के इल्ज़ाम से अछूते थे। उनमें से कुछ कर्मी, उन हड़ताली कर्मियों के साथ इसलिए मोर्चे बंदी पर थे कि आज जो इनके साथ हो रहा हैं। कल शायद हमारे साथ भी हो, इसलिए ऊपर के मालिकों को सबक सिखाने का यहीं एक तरीका हैं। इसलिए, अब वक़्त आ गया हैं। ये बताने का, कि अब मजदूर अपने ऊपर मालिकों की मनमानी नहीं चलने देंगे बस इसी वजह से पंडित रघुनाथ भी हड़ताली मोर्चे की पहली पंक्ति में अपने भविष्य के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। पर शायद भविष्य को कुछ और ही मंजूर था।

शीत युद्ध में सोवियत संघ द्वारा भले ही समाजवाद को कितना भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया हो, कि समाजवाद आने वाला भविष्य हैं। अगर हम इसके साथ नहीं हैं। तो मानवजाति तहस-नहस हो जाएगी उसका अस्तित्व मिट जाएगा। पर अंततः जीत पूंजीवाद की ही हुई थी। वो बात अलग हैं बाद में समाजवादियों ने जगह-जगह प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ये कहना शुरू किया भले ही आज समाजवाद बिखर गया पर उसके सिद्धांत आने वाले समय में पूंजीवाद को रास्ता दिखाएंगे।

अब शीत युद्ध की तरह ही पंडित रघुनाथ को भी लग रहा था कि उनकी ये समाजवादी क्रांति कंपनी की रूपरेखा बदल देगी, पर उन्हें क्या पता था। कि पूंजीवादी मालिक क्रांति को एक सप्ताह के भीतर ही खत्म कर देंगे।

क्रांति इससे पहले हिंसा में बदलती कंपनी के अधिकारियों ने हड़ताल करने वाले कर्मचारियों को तीन भागों में बांट दिया। पहला भाग उन कर्मचारियों का था। जिन पर चोरी का इल्ज़ाम था। दूसरा भाग उनका जिन पर इल्ज़ाम नहीं था। लेकिन वो चुपचाप सहयोग दे रहे थे। और तीसरे भाग उनका जो भविष्य की आकांक्षाओं को लेकर चिंतित थे। और सबसे ज्यादा शोरगुल कर रहे थे। इसी तीसरे हिस्से में पंडित रघुनाथ शामिल थे।

बस फिर क्या था? पहले भाग पर कंपनी ने अपने आधिकारों का उपयोग करते हुए। उन्हें सीधा बाहर निकाल दिया। और दूसरे व तीसरे भाग वालों को बीस-बीस हजार रूपए देकर बाहर का रास्ता दिखा दिया। यानि कि एक बार फिर मार्क्सवाद हाशिए पर खड़ा होकर खुद के लिए ज़मीन तलाश रहा था।

नौकरी छूटने के थोड़े दिन तक तो पंडित रघुनाथ ने घर पर बैठ कर खाया। लेकिन फिर बाद में कंपनी से मिले पैसों से दूध का काम शुरू कर लिया और रहने के लिए कानपुर से चालीस किलोमीटर अंदर की तरफ जहां निशा रहती थी। उस कस्बे में अपने परिवार के साथ, जिसमें उनकी एक पत्नी और एक लड़का जो कानपुर यूनिवर्सिटी से b.com कर रहा था।, साथ लेकर रहने के लिए चल गए थे।

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