अनोखी प्रेम कहानी - 6 Sangram Singh Rajput द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अनोखी प्रेम कहानी - 6

अंगमहाजनपद के मुख्य केन्द्र चम्पा नगरी से पश्चिमोत्तर बीस कोस की दूरी पर बहुरा गोढ़िन के आधिपत्य में बखरी सलोना बसा था।

तांत्रिक मच्छेन्द्रनाथ के अनुयायियों ने अपने गुरु की स्मृति में जिस सम्प्रदाय को, अपनी पूरी शक्ति और भक्ति से सक्रिय रखा था, उसका नाम था-नाथ सम्प्रदाय। चम्पानगरी में नाथ सम्प्रदाय के तंत्र-साधकों ने अपना अलग गढ़ ही स्थापित कर लिया था। चम्पानगरी का यह गढ़ नाथनगर के नाम पर समस्त अंग में विख्यात था।

गौतम बुद्ध की निर्वाण प्राप्ति को सदियां व्यतीत हो गई थीं और इस अवधि में एक के बाद एक बौद्ध धर्म की कई शाखाएँ, कई सिद्धांत आते गए.

बहुरा गोढ़िन ने जब बखरी सलोना का आधिपत्य सम्हाला, उस समय समस्त अंगजनपद नाथ सम्प्रदाय के साधुओं, सिद्धों, कापालिकों और बौद्ध धर्म के तत्कालीन स्वरूप, सहजयान के तंत्र साधकों से भरा था।

पौराणिक कथाओं के अनुसार यह सम्पूर्ण क्षेत्र मालिनी नाम से जाना जाता था। मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के पिता राजा दशरथ के मित्र राजा रोमपाद इस मालिनी के राजा थे। बाद में उनके पुत्र चतुरंग और पौत्र पृथुलाक्ष ने अपने अंग राज्य को और भी सुगठित किया। राजा चतुरंग के पुत्र चम्प जब राजा हुए, उन्होंने अंग की राजधानी का नाम अपने नाम पर 'चम्पा' कर दिया।

राजा चम्प के पश्चात् इस अंगजनपद को महाभारत काल में पुनः दानवीर कर्ण ने गौरवान्वित किया।

इस कालखण्ड तक अंगमहाजनपद में सनातनधर्मी हिन्दुओं के पांच सम्प्रदाय थे गाणपत्य, सौर, वैष्णव, शैव और शाक्त। बाद में भगवान गणेश और सूर्य की पूजा के गौण हो जाने पर शेष तीन सम्प्रदायों का ही प्रभाव रहा-वैष्णव, शैव और शाक्त।

परन्तु, काल हमेशा परिवर्तनशील रहा है और महाभारत काल के समापन के पश्चात् सनातन धर्म में जो सबसे बड़ी क्रांति हुई-वह थी गौतम बुद्ध का आविर्भाव।

उन्होंने हिन्दू धर्म को नई दिशा दी। करुणा और त्याग को धर्म में स्थापित किया। वर्ण-व्यवस्था के तब तक घृणित हो चुके स्वरूप को उन्होंने ध्वस्त कर दिया, जिस कारण सवर्णों को छोड़कर बाकी विशाल जनसमुदाय ने बुद्ध के मार्ग को अपनाया।

महात्मा बुद्ध योग और सिद्धि के चमत्कारों से भिज्ञ थे। उन्होंने स्वयं आस्फानक योग (स्वयं को विस्तृत करना) सिद्ध किया था। परन्तु, उसकी निन्दा ही की थी।

बुद्ध के परिनिर्वाण को पाँच सौ वर्ष भी न बीते कि उनके अनुयायी स्वच्छंद हो तंत्र-मंत्र मार्ग की ओर इतनी तीव्रता से अग्रसर हुए कि बहुरा गोढ़िन के काल तक बौद्ध धर्म में तंत्रमार्ग की प्रमुखता हो गयी।

वाममार्गी साधु, कापालिक और वज्रयानी सिद्धों का आतंक जनता पर छा गया। ऐसी स्थिति में वैष्णवों का भू-भाग सहज ही विशेष आक्रांत था।

राज भरोड़ा, चूँकि बखरी सलोना के पूरब में मात्र दस कोस की दूरी पर बसा वैष्णवों का भू-भाग था, इसीलिए बखरी सलोना की स्वामिनी बहुरा गोढ़िन की आँखों में कांटे की तरह चुभता था।

राज सत्ता के अधिपति महाराजा का दरबार भी वज्रयानी सिद्धों-तांत्रिकों से भरा था। हजारों सिद्ध-कापालिक महाराज की छत्र-छाया में स्वच्छंद पल रहे थे। नाथ-सम्प्रदाय के सिद्धों को भी राज्याश्रय प्राप्त था और तांत्रिक बहुरा गोढ़िन ऐसी ही राजनैतिक-सामाजिक स्थिति का लाभ अपने पक्ष में उठा रही थी।

बखरी सलोना अंचल में नदियों की पाँच उप-धाराएँ बहती थीं। व्यापार के लिए जलमार्ग का उपयोग दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा था। भूमि मार्ग में कई संकट थे। रास्ते के जंगलों में हिंसक पशुओं से डर और मैदानों में लुटेरों से। साथ ही भूमि मार्ग में समय भी ज़्यादा लगता था और जानवरों की पीठ पर अथवा बैलगाड़ियों में ज़्यादा सामग्री भी ढोई नहीं जा सकती थी।

इन कारणों से नदी मार्ग ही सबसे सहज-सुगम और सुरक्षित था। नदी किनारे के घाटों के अधिपतियों को व्यापारिक नौकाओं से इतनी चुंगी प्राप्त होती थी कि वे स्थानीय राजा ही कहलाते थे।

बहुरा अब शांत थी। भरोेड़ा राज से उसने अपना ध्यान पूरी तरह हटा लिया था। निरंतर रानी गजमोती पर लगे रहने के कारण उसके दैनिक क्रियाकलाप अस्त-व्यस्त हो गए थे। नौकाओं से चुंगी की राशि या तो ठीक प्रकार ली नहीं गई थी या घाटों पर नियुक्त कर्मचारियों ने आपस में ही बंदर-बाँट कर लिया था।

बखरी सलोना के अंतर्गत तीस ग्रामों के समूह थे। पूरे क्षेत्र से होकर पाँच उपनदियां प्रवाहित होती थीं, जिनसे होकर व्यापारिक नौकाएँ गंगा की मुख्य धारा में पहुँचती थीं।

बहुरा ने अपने अंचल की नदियों पर कई घाटों का निर्माण कराया था और कई घाटों का पुनरुद्धार भी किया था। बहुरा द्वारा नियुक्त कर्मचारी घाटों से होकर जाने वाली व्यापारिक और परिवहन नौकाओं से चुंगी उगाहकर बहुरा की ड्योढ़ी में जमा करवाते थे।

ड्योढ़ी के कोषाधिकारी नित्य जमाराशि का विवरण अपनी स्वामिनी को बताया करते। परन्तु, विगत वर्ष बहुरा अपनी कापालिक साधना में इतनी व्यस्त रही कि कोषाधिकारी को उसने पूर्री तरह भुला दिया और बहुरा की उदासीनता ने कोषाधिकारी के मन में लोभ उत्पन्न कर दिया। बड़े सुनियोजित ढंग से घाटों के कर्मचारी और ड्योढी के कोषाधिकारियों ने संकलित राशि के वृहत् अंश की बंदरबाँट शुरू कर दी थी।

राज भरोड़ा से ध्यान हटाकर बहुरा जब सांसारिक दायित्वों की ओर उन्मुख हुई तो सर्वप्रथम उसने कोषाधिकारी को बुलवाया। उसे आश्चर्य हुआ। पूरी प्रशासनिक व्यवस्था ही शिथिल हो गई थी। कर्मचारीगण अपने कर्त्तव्य के प्रति उदासीन हो गए थे। बिना चुंगी चुकाए मालवाही नौकाओं का आवागमन प्रारंभ हो गया था।

'यह क्या देख रही हूँ, वरणावत?'-आश्चर्य और क्षोभ से भरी बहुरा ने अपने कोषाधिकारी से कहा-'हमारे कर्मचारी कर्त्तव्यच्युत होकर उन्मुक्त हो गए. चुंगी-संग्रह दिन-प्रतिदिन घटता गया और तुमने मुझे कभी सूचना तक नहीं दी?'

कोषाधिकारी वरणावरत का भय समाप्त हो गया। मालकिन का संदेह उसपर नहीं है, जानकर उसकी जान में जान आई.

'मौन क्यों हो वरणावत?' बहुरा ने इस बार सक्रोध पूछा-'हमारे कर्मचारी कर्मच्युत हो गए अथवा व्यापारियों ने अपने मार्ग बदल दिये? चुंगी के Ðास का क्या कारण हुआ? ...तुम मौन क्यों हो?'

'मैं क्या कहूँ स्वामिनी! ...मैं स्वयं चिन्तित था और आपसे मिलकर मन्त्राणा हेतु आतुर भी था। परन्तु वर्ष भर आप अपनी साधनाओं में इतनी व्यस्त थीं कि आपके दर्शन दुर्लभ थे। ...क्या करता मैं?'

अपनी बात कहकर वरणावत, दोनों हाथ कमर के पीछे बांधे सादर मौन खड़ा रहा।

बहुरा चिन्तामग्न हो कुछ क्षण सोचती रही। वरणावत पर उसे पूर्ण विश्वास था। भूल उसी की थी। भरोड़ा राज की रानी गर्भ धारण न करे-मात्र इसी एकसूत्री उद्देश्य-प्राप्ति में वह इतनी लीन हो गई कि अंचल के प्रशासन तक का उसे स्मरण नहीं रहा। उसे स्वयं पर ग्लानि हुई. उसे सब भूलकर अपने प्रशासन को सुदृढ़ करना होगा, अन्यथा दूसरों के नाश की अभिलाषा में वह खुद कंगाल हो जाएगी।

'ठीक है वरणावत...अब तुम जाओ! मैं सोचती हूँ क्या करना है।'

वरणावत को विदाकर बहुरा अपने आसन पर बैठ गई. कई विचार एक साथ उसे उद्वेलित करने लगे। काकी के परामर्श को उसने सिरे से नकार दिया था। नहीं बनना था उसे अवधूतिनी। अपने अंदर के जिनसुप्त चक्रों को जाग्रत करने हेतु उसे पुरुष से सहवास करना पड़े, उसे ऐसी शक्ति नहीं चाहिए.

अपने जिस मोहक सौंदर्य और सुगठित तन पर उसे इतना गर्व है, उसे क्या यों ही वह किसी कुरूप-भद्दे और घृणित अवधूत पर न्यौछावर कर दे...कदापि नहीं। उसके चिर-सिंचित इस अपूर्व कौमार्य का पान कोई अवधूत नहीं कर सकता।

बहुरा ने चक्र-सिद्धि हेतु इस विचार को अपनी चेतना से बाहर कर, प्रशासनिक व्यवस्था पर विचार करना चाहा। परन्तु, काकी ने उसकी सुप्त यौन-भावना को अपरोक्ष रूप में जाग्रत कर दिया था। चक्रों की सिद्धि तो चेतना से बाहर हो चुकी थी, परन्तु काम की कोमल लहरें सम्पूर्ण चेतना में इस तरह व्याप्त होकर उसे स्पंदित करने लगीं कि वह व्याकुल हो उठी।

उसका वीर-भाव समाप्त हो गया। वीरा! यही नाम था उसका। वामाचार की साधना में मनुष्य की तीन श्रेणियों का निर्धारण किया गया था। गैर साधकों को पशुतुल्य माना जाता था, जबकि साधकों को 'वीर' कहा जाता था। रूपमती ने अपने मार्ग के अनुसार अपनी बेटी का नाम रखा था-वीरा! उसकी इच्छा थी कि वीरा बड़ी होकर वाममार्ग की साधना के द्वारा दिव्यावस्था में पहुँच कर 'कौल' की सर्वोच्य स्थिति तक जा पहुँचे।

वीरा को उत्तराधिकार में बखरी सलोना का आधिपत्य देकर माता तो मृत्यु को प्राप्त हुई और वाममार्गियों की क्षत्रछाया में वीरा ने कई औघड़-सिद्धियां प्राप्त कर बखरी सलोना की व्यवस्था सम्हाल ली।

उन्नीस वर्षीया वीरा का यौवन अक्षत था। आज तक उसे अपने कापालिक कृत्यों से ही कभी अवकाश नहीं मिला तो काम-वासना पर ध्यान क्या जाता परन्तु काकी ने सुप्त शक्ति-चक्रों को जागृत करने की विधि बताई तो चक्रों के स्थान पर उसके अंतस् में अब तक सुप्त काम-वासना की उद्दाम शक्ति ने अंकुरित होना प्रारंभ कर दिया।

अब उसे पुरूष की बलिष्ठ भुजा, चौड़ी माँसल छाती और पुष्ट कंधे पूरी तीव्रता से अपनी ओर खींचने लगे। कापालिक क्रियाओं से तो यों भी इन दिनों वह विरक्त थी, परन्तु जब कभी ध्यान में उतरने का प्रयरत्न करती तो बहुधा असफल हो जाती।

उसे स्वयं पर क्रोध आता। क्या हो गया है उसे? इतनी दुर्बलता कहाँ से आ गई उसमें? उसने तो बचपन से ही प्रण ले रखा था कि आजन्म कुंवारी रहेगी। जीवन का एक ही ध्येय उसने निर्धारित किया था-शाक्त-धर्म का प्रचार और प्रसार। यह अचानक काम-विषयक दुर्बलता ने उसे क्यों घेर लिया?

अचानक वह अपने आसन से उठकर खड़ी हो गयी। उसकी दृढ़ इच्छा-शक्ति ने उसके अंतःकरण से कहा-वह अपने कौमार्य को हमेशा अक्षत रखेगी।

अपने कक्ष से वह बाहर आयी। द्वार पर कई प्रहरी खड़े थे। उसे आते देख वे सावधान हो गए. वह ज्यों ही पास आयी, उन्होंने कमर तक झुक कर उसका अभिवादन किया।

'पीताम्बर!' वीरा ने प्रहरी प्रमुख से कहा-'सुन्दरी को लाओ, मुझे अविलम्ब जाना है।'

'जो आज्ञा स्वामिनी!' पीताम्बर ने कहकर तत्परता से प्रथान किया। वीरा की व्यक्तिगत घोड़ी का नाम था सुन्दरी। बचपन से वह इसके संग खेलती आई थी। इन वर्षों में सुन्दरी भी उसकी तरह जवान होकर पुष्ट हो गई थी। उसका शरीर स्वच्छ सफेद था। सफेद कंधों और पूँछ पर रेशमी भूरे बाल युक्त 'सुन्दरी' की पीठ पर जब वह बैठती तो उसके पैरों में पंख लग जाते।

उसे देखते ही सुन्दरी प्रसन्नता से हिनहिनायी और उसके बैठते ही कुलांचे भरती क्षणभर में ही आँखों से ओझल हो गई.

प्रहरियों ने देखा-आज बहुत दिनों बाद उसकी मालकिन ड्योढी से बाहर घूमने निकली है।

बखरी सलोना की व्यवस्था देखते ही देखते चुस्त-दुरूस्त हो गई. नाविकों से वसूली गई चुुंगी की सम्पूर्ण राशि एकत्र होने लगी। भैरवी साधना की व्यवस्था भी वीरा ने सुधारी। बाँस-बल्लों से निर्मित साधना स्थल को फिर से सुसज्जित कर बहुरा ने उसे नया नाम दिया-'भैरवी मण्डप'।

बहुरा अब बीस वर्ष की होने वाली थी। तीनों डाकिनियों के नष्ट होने के उपरांत उसकी शक्ति में जो अचानक Ðास आया था, उसकी क्षतिपूत्तर््िा में उसने कई नई सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं। परन्तु पोपली काकी का कहना था कि बिना कुण्डलिनी चक्रों को जाग्रत किए औघड़ पंथ की दिव्य अवस्था में नहीं पहुँचा जा सकता और कुण्डलिनी जागरण की जो तांत्रिक प्रक्रिया काकी ने बतायी थी, वह बहुरा को कदापि स्वीकार्य नहीं थी।

आज पुनः पोपली काकी ने कहा-'पुत्री तुमने प्रणय-समाधि को, लगता है, तुच्छ संभोग-क्रिया मात्र समझकर, उसका तिरस्कार कर दिया है। ठीक ही है, यदि तुम्हारी प्रगति को अवरूद्ध ही होना है तो ऐसा ही हो। ऐसी दशा में मैं अब कोई परामर्श नहीं दूंगी।'

बहुरा ध्यान से काकी की बातें सुन रही थी। उन्होंने संभोग क्रिया को इस बार नया सम्बोधन दे दिया-'प्रणय-समाधि' , जबकि पहली-पहली बार उन्होंने 'संभोग' शब्द का ही प्रयोग किया था। बहुरा ने विभिन्न कोणों से काकी के परामर्श पर विचार किया। बहुरा को यह भी आशंका थी कि किसी शक्तिशाली सिद्ध को कहीं यह उपकृत तो नहीं करना चाहती। इस विचार ने उसे झकझोर दिया। परन्तु, तुरन्त ही उसने काकी के प्रति आए घृणित भाव को झटक दिया। नहीं, काकी ऐसा क्यों करेंगी? यह संभव नहीं।

'तुम्हारा ध्यान कहाँ है पुत्री?'-काकी ने आक्रोश में कहा तो बहुरा चौंक गई.

'क्षमा करना काकी! मस्तिष्क में विचारों के रेले चलने लगे थे। उसी में उलझ गयी थी मैं। परन्तु आज मैं बिना कुछ छिपाए अपने अंतस् की बात प्रकट करना चाहती हूँ, काकी! फिर आप जो सलाह देंगी, वही मानूंगी।'

काकी सामान्य हो गयी। उन्होंने शांत भाव से कहा-'कहो!'

'काकी!' बहुरा ने कहा-' आपने जब पहली बार मुझे, पुरूष-संभोग के माध्यम से अपनी सुप्त शक्तियों के जागरण की बात कही थी, तभी से मैं अशांत हो गयी हूँ। मेरी साधना बाधित होने लगी है। एकाग्रता भंग होने लगी है। सम्पूर्ण तन-मन में काम-वासना का स्पंदन होने लगा है। आज तक जिसे मैंने घृणित समझा, उसी में आकर्षण अनुभव करने लगी हूँ। कभी-कभी तो मुझे यह भी डर लगता है कि कहीं मैं सारे बंधनों को तोड़कर अपनी काम-पिपासा को शांत न करने लगूं। ...हाँ काकी, मैं सत्य कह रही हूँ...ये साधना, ये सिद्धियां और भैरव चक्रीय नृत्य कभी-कभी मुझे बंधन प्रतीत होते हैं। समस्त शक्तियाँ व्यय कर, अपनी दृढ़ इच्छा की सहायता से मैंने, किसी प्रकार कामेच्छा से स्वयं को बचाकर रखा है और तुम कहती हो कि मैं प्रणय-समाधि के माध्यम से सुप्त चक्रों को जाग्रत करूँ, नहीं? काकी नहीं...मुझसे संभव नहीं है। मैं स्खलित हो जाऊँगी, काकी...अनियंत्रित होकर कामावेग में बहक जाऊँगी...क्षमा करो मुझे, मुझसे नहीं होगा यह सब! '

काकी ने बहुरा को प्यार भरी नजरों से निहारा और अचानक उसे हृदय से लगा लिया। काकी की आँखें सजल हो गयीं। बहुरा को आलिंगन से मुक्त कर काकी ने कहा-'सदा ऐसी ही रहना पुत्री! ...स्वच्छ और निर्मल! तुमने इतनी सहजता से अपनी भावनाएँ स्पष्ट कर दीं, अपनी दुर्बलता को निःसंकोच स्वीकारा। तुममें कोई साधारण आत्मा नहीं है।'

बहुरा समझ न सकी, पोपली काकी क्या चाहती हैं। उसे तो लगा था उसकी कमजोरियों पर काकी फटकारेगी, क्रोधित होगी। परन्तु... अब क्या चाहती है काकी? वह निर्निमेष पोपली काकी को देखने लगी।

पोपली काकी ने पुनः कहा-' मुझसे भयंकर भूल हुई, मैं स्वीकार करती हूँ। मैं तुम्हें मात्र एक तंत्र-साधिका मान बैठी थी। तुममें यौवन का उत्ताप-ताप भर चुका है, इसे मैं भुला बैठी थी। विस्मृत कर दिया था उसे। परन्तु कोई चिन्ता नहीं। स्मरण है, मैंने तुम्हें सुषुम्णा जाग्रत करने की विधि बतायी थी? समयाभाव तथा विपरीत परिस्थितियों ने तुम्हें प्राणायाम साधना पूर्ण न करने दिया, अन्यथा तुम्हारे अंदर ऐसी दुर्बलता नहीं आती। तुम्हें सर्वप्रथम सहजोली नामक एक साधना समझाऊँगी। सहजोली सिद्ध होने से नारियां अपनी योनि एवं गर्भाशय के संकोचन में सिद्ध हो जाती हैं। तुम्हें मैंने पूर्व में उड्डीयन बंध की शिक्षा दी थी। फिर से सिद्धासन में उसका अभ्यास करना होगा, परन्तु इस बार यह अभ्यास बहिर्कुम्भक के साथ होगा। मैं तुम्हें बताऊंगी, यह बहिर्कुम्भक क्या है। फिर इसी अभ्यास को वज्रासन तथा कौवे जैसी शारीरिक स्थिति में भी सिद्ध करना होगा। फिर तो जालन्धर बंध तथा मूलबंध स्वतः ही होने लग जाएँगे। निरंतर इस साधना के फलस्वरूप शरीर के वांछित बिन्दु पर एकाग्रता की क्षमता उत्पन्न होगी। मेरी बात ध्यान से सुनना, पुत्री। तुम्हारी एकाग्रता का बिन्दु होगा गर्भाशय मुख के ठीक पीछे स्थित मूलाधार चक्र। मैंने जितनी बातें कही हैं, उन्हें सिद्ध करना अत्यंत कठिन है और साधारण नारियों को इस साधना में वर्षों लगते हैं। परन्तु तुझ-सी साधिका और मुझ-सी प्रशिक्षिका हो तो छह महीनों में ही यह सम्भव है। मेरी इच्छा है तुम मेरे निर्देशानुसार आज से ही इस साधना का प्रारंभ करो। इस साधना के साथ ही तुम्हारी कामुकता का भी निदान हो जाएगा। इसे सिद्ध करने के पश्चात् कुछ साधनाएँ शेष रहेंगी, जिन्हें मैं बाद में बताऊंगी। इसके पश्चात् भी यदि तुम्हारी इच्छा नहीं हुई तो मैं तुम्हें विवश नहीं करूंगी। अब कहो!

'मुझे स्वीकार है, काकी! आप जैसा चाहती हैं, वैसी साधना हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। परन्तु अपने वचन को याद रखना। इच्छा के विपरीत मैं कदापि कुछ न करूंगी।'

बहुरा की बात पर पोपली काकी ने पुनः मुस्कुराते हुए उसे अपने अंक में भर लिया।