पुस्तकें - 7 - गवाक्ष - एक दृष्टि Pranava Bharti द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

पुस्तकें - 7 - गवाक्ष - एक दृष्टि

जो भी रचनाएँ जितनी बड़ी होती हैं उन्हें उतने ही भिन्न-भिन्न तरह से
व्याख्यायित किया गया है। अलग अलग पाठक उन रचनाओं के अलग-अलग
अर्थ निकालकर उसकी सकारात्मकता की पुष्टि करते रहे हैं और यह बात ही
रचना को बहु आयामी बनाती है। गवाक्ष एक ऐसा ही उपन्यास है। इसे पढ़कर
लोग इसमें से भिन्न-भिन्न बातें ग्रहण करेंगे और इसे अपने अपने ढ़ंग से
व्याख्यायित करेंगे।
मैंने पढ़ते हुए इस उपन्यास से जो ग्रहण किया यदि उसे एक पंक्ति में कहूँ
तो यह मनुष्य के वाह्य जगत से अंतर्भुवन की ओर की एक यात्रा है। यह
यात्रा करवाता है गवाक्ष का सूत्रधार कॉस्मॉस। कॉस्मॉस वास्तव में मुझे
मनुष्य की अंतरात्मा का प्रतीक लगा। इस उपन्यास में समाज के हर वर्ग का
प्रतिनिधित्व करने वाले की अंतरात्मा को कॉस्मॉस के माध्यम से खटखटाया
गया है या यूँ कह लें की हर किसी को उसकी अंतरात्मा के सम्मुख लाकर खड़ा
किया है। जिस पल मनुष्य स्वयं से सच्चाई से मिलता है उस पल उसे बहुत ही
शांति की अनुभूति होती है।
यही बात इन पंक्तियों में दृष्टिगोचर होती है‌‌-
“आश्चर्य इस बात का था कि सत्यव्रत जिन बातों को लेकर असहज थे,
कॉस्मॉस से वार्तालाप करने के पश्चात सहज होते जा रहे थे। एक दूसरी
दुनिया का व्यक्ति जो उनके समक्ष था और स्वयं को मृत्युदूत बता  रहा
था, अनजाने ही उन्हें एक शीतलता का अनुभव कराने लगा था।“ 
यह उपन्यास रूपक शैली में लिखा गया है जिसमें अनेक दृष्टांत पिरोये गए
हैं। भिन्न-भिन्न पात्रों के माध्यम से सम्पूर्ण जीवन-दर्शन को समझने के प्रयत्न के
साथ साथ सत्य तक पहुँचने की चेष्टा की गई है। इसमें जन्म, मृत्यु, अच्छाई,
बुराई, भ्रम, भटकाव, ऊहापोह इत्यादि समस्त विषयों को सम्बोधित किया
गया है।      
उपन्यास में एक ओर आदर्श को चित्रित किया गया है तो वहीं दूसरी ओर
यथार्थ को भी उकेरा गया है। साथ में व्यवहरिकता और संदेश भी है। जैसे
पह्ले दृष्टांत में देखिये, जिसमें राजनीति को लिया गया है -

"राजनीति एक पवित्र कार्य -क्षेत्र है जो हमारी कार्य क्षमता को उन्नत
करता  है ,विविधता को बढ़ावा देता  है। संपर्क के माध्यम से हमें प्रगति की
ओर अग्रसर करता है। वास्तव में राजनीति वैराग्य की भावना का मंच है।
स्वीकारोक्ति की क्षमता देकर यह हमारी सहनशक्ति बढ़ाती है।“
यह तो हुआ राजनीति का आदर्श स्वरूप्। किंतु वहीं यथार्थ क्या है !-
“और किसीको क्या कहें उनके अपने पुत्र ही उनसे ऐसे  कार्य करवाना
चाहते थे जिनके लिए उनका हृदय  कभी तत्पर न होता, यदि वे इंकार करते
तो उनके पुत्र  किसी और के माध्यम से  अपने कार्य निकलवाने की चेष्टा में
संलग्न हो जाते। “
यथार्थ ऐसा क्यों है, वहाँ आती है व्यवहारिकता –
इसके बहुत से कारण होते हैं जिनमें अपने राजनीतिक दल को जीवित
रखने के लिए धन की  व्यवस्था करना, उसका ध्यान रखना तथा व्यय
को संभालना बहुत बड़ा कारण है। एक बार किसी भी प्रकार का स्वार्थ आया
कि मनुष्य के अपने स्वार्थ सबसे आगे आ खड़े हुए। यह केवल राजनीतिक क्षेत्र
की बात नहीं है,क्षेत्र कोई भी हो सबमें सन्तुलन की आवश्यकता है।
अंत में संदेश भी है-
"जीवन चंद दिनों का है जिसमें  मनुष्य के भीतर पलने वाला 'अहं' उसको
कभी भी खोखला बना सकता है, कभी भी उसको समाप्त कर सकता है। अहं
को छोड़कर यदि मनुष्य सरल, सहज रह सके, उस समाज के लिए कुछ कर
सके जिसका वह अंग है तभी  जीवन की सार्थकता है।“
इसी तरह उपन्यास के भिन्न-भिन्न पात्रों और चरित्रों के भिन्न-
भिन्न अपने जीवन-दर्शन हैं। जैसे एक नृत्य और संगीत के
कलाकार की दृष्टि से देखें -
 “साधना की कोई सीमा नहीं है। यह ऎसी प्रक्रिया है जिसके
लिए स्वयं को निरंतर केंद्रित करना होता है। दो चार राग
गुनगुनाने अथवा थोड़ा-बहुत हाथ पैर मारने से कोई नृत्य व संगीत
में प्रवीण नहीं हो जाता। ये आध्यात्मिक विकास की बातें हैं इनकी  जब
तक निरंतर साधना न की जाए तब तक इनका परिणाम वही होता है जो कच्चे
मिट्टी के बर्तन का। जब तक मिट्टी का बर्तन पूरी प्रकार से पककर पक्का न

हो जाए,वह थोड़ा सा पानी डालते ही  टूट जाता है। इसी प्रकार  कलाओं को
भी  निरंतर साधना की भट्टी में पकाने की आवश्यकता होती है।“
इसी तरह सत्यव्रत, सत्यनिधि, सत्य शिरोमणि और सत्याक्षरा से होते हुए
कॉस्मोस प्रोफेसर सत्यविद्य श्रेष्ठी तक पहुँचता है। प्रोफेसर श्रेष्ठी के माध्यम से
मनुष्य की समस्त जीवन-यात्रा, ऊहापोह, भूल-भुलैया, भटकाव इत्यादि को
सम्बोधित किया गया है।
प्रोफेसर श्रेष्ठी द्वारा लिखे जा रहे पुस्तक “अनवरत” के भिन्न-भिन्न अध्यायों
में प्रत्येक मनुष्य के मन में उठने वाले अनेक प्रश्नों पर चर्चा की गई है ।
जैसे पुस्तक का आरम्भ होता है-
सत्य  एवं असत्य, हाँ या ना के मध्य वृत्ताकार में अनगिनत वर्षों से
घूमता-टकराता मन आज भी अनदेखी ,अनजानी दहलीज़  पर मस्तिष्क
रगड़ता  दृष्टिगोचर होता है। 
अस्तित्व शीर्षक में लिखा गया -
'जीवन एक सत्य, मृत्यु एक सत्य, सत्य है केवल आवागमन। सत्य है केवल
पल, सत्य है केवल खोज में लगे रहना अनवरत…सत्य है प्रतीक्षा… केवल
प्रतीक्षा…. एक अनवरत प्रतीक्षा ।
यह उपन्यास गहन चिंतन से उपजा है। अतः पढ़ते समय चिंतन और मनन
करने पर भी विवश करता है। इसमें जीवन, मृत्यु और जीवन की सार्थकता से
जुड़े शाश्वत प्रश्नों पर गहनता से मंथन किया गया है।
अंत में इस उपन्यास की कुछ सारगर्भित महत्वपूर्ण पंक्तियाँ-
जन्म लेते ही मनुष्य अपने साथ जाने का बहाना  लेकर आता है फिर भी
जीव प्रत्येक वस्तु, क्षण, बदलाव की परिधि में चक्कर  काटते हुए किसी न
किसी स्थान पर अटक जाता है, ठिठक जाता है।
धरती पर जन्म लेने से  ही इस चक्कर का प्रारंभ है....और अंत? क्या दैहिक
मृत्यु ही पूर्णरूपेण अंत है? यह सारी स्थिति सत्य से प्रारंभ होकर सत्य पर ही
समाप्त होती है। 
इस सृष्टि  के जन्म से हम सूत्रधार से मिलने, उसे जानने -पहचानने के लिए
केवल अटकलों पर  गोल-गोल घूम रहे हैं - 'सूत्रधार कौन?' और सूत्रधार है
कि कभी नज़र ही नहीं आया, पकड़ा ही नहीं गया। वह तो अपना काम करके
ऐसे जा छिपता है जैसे सूरज ऊर्जा तथा रोशनी देकर  जा  छिपता है। काम
वह पूरी मुस्तैदी से करता है लेकिन मुट्ठी में किसी की कैद नहीं होता। प्रतिदिन
अपनी दिनचर्या में बिना किसी व्यवधान के संलग्न  रहता है, उसके साथ अन्य
सभी प्राकृतिक स्थितियाँ अपने हिस्से के कर्तव्य पूरे करती हैं और चलती
रहती है यात्रा! यह यात्रा अनवरत है ---क्या कोई कह सकता है कि वह इस
यात्रा व सूत्रधार से परिचित है ,अथवा उसके कार्य-कलापों में बदलाव  ला
सका है?

 

प्रताप नारायण सिंह

प्रतिष्ठित साहित्यकार