हमनशीं । - 8 Shwet Kumar Sinha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

हमनशीं । - 8

.....शाम होते ही रफ़ीक़ कार लेकर सुहाना के घर पहुंचता है और सभी को लेकर समारोह में आ जाता है। आज सुहाना अपने परंपरागत लिबास में इतनी फब रही थी कि रफ़ीक़ की आँखें उससे हटने का नाम ही न ले रही थीं। तभी रफ़ीक़ की कानों में धीरे से ख़ुशनूदा कुछ कहकर निकल जाती है जिसपर झेंपते हुए रफ़ीक़ अपनी नज़रें नीची कर लेता है। सुहाना को देखते ही चिंटू भागकर उससे लिपट जाता है।

ख़ुशनूदा सभी मेहमानों से सुहाना का परिचय कराती है। पर, सुहाना की नजरें तो आज एक अंजान चेहरे पर टिकी थी, जो अभी-अभी रफीक़ की छोटी बहन ज़ीनत के साथ उसके कमरे से निकल कर बाहर आयी थी और सबसे घुलमिल कर हंस-हंस के बातें कर रही थी। उस लड़की का हाथ पकड़ रफ़ीक़ उसे सुहाना के नज़दीक लेकर आता है और सुहाना से उसका परिचय कराता है।

“आज मैं तुम्हें एक नए मेहमान से मिलाता हूँ। यह है – अफसाना। मेरी बचपन की बेस्ट फ्रेंड। हमसभी साथ-साथ ही खेलते-कूदते बड़े हुएँ। बहुत दिनों से ये मैडम दिल्ली में छिप कर बैठी थीं। आमिर भाईजान ने इसे ढूंढकर निकाला। और अब ये यहीं रहेंगी।” – अफसाना को चिढ़ाते हुए रफ़ीक़ ने उसका परिचय दिया।

रफ़ीक़ की इस छेड़खानी पर मुस्कुराकर ख़ुशनूदा ने सुहाना को पूरी सच्चाई से अवगत कराया। सुहाना रफ़ीक़ के शरारती अंदाज़ से भली-भांति परिचित थी। वह भी मुस्कुराए बिना न रह सकी।

सभी ने पार्टी को खूब एंजॉय किया। समारोह में मौजूद मेहमानों ने सुहाना और रफ़ीक़ को उनके भावी दांपत्य जीवन के लिए ढेर सारी बधाइयाँ भी दी। रात काफी होने की वजह से सुहाना भी अब घर लौटने को बोल रही थी। पार्टी खत्म होते ही रफ़ीक़ ने सुहाना और उसकी अम्मी को उनके घर पहुँचा आया।

अगले दिन, शाम में।

ऑफिस से वापसी के वक़्त रफ़ीक़ सुहाना के घर पहुंचता है और उसे बताता है कि – “ऑफिस वाले तुम्हें काम पर वापस लौटने के लिए बोल रहे हैं। क्या सोंचा है? कब से जॉइन करना है?” यह कहते हुए वह ऑफिस की तरफ से भेजी एक चिट्ठी सुहाना की तरफ बढ़ा देता है। चिट्ठी पढ़ने के बाद सुहाना अपने कमरे में जाती है और हाथों में एक लिफाफा लिए रफ़ीक़ के पास वापस आती है। उस लिफाफे में उसका इस्तीफा था, जो उसने पहले से ही तैयार कर रखा था। लिफाफे को रफीक़ की तरफ बढ़ाते हुए सुहाना बताती है कि उसे अब इस नौकरी की कोई जरुरत नहीं।

नौकरी छोड़ने का कारण पुछने पर सुहाना अपने तेवर कड़े करते हुए बोली – “मेरा इस नौकरी में जी नहीं लगता। इसीलिए मुझे अब ये नौकरी नहीं करनी। इससे और ज्यादा तुम्हें बताना मैं जरूरी नहीं समझती।”

“ये तुम किस लहजे में बात कर रहीं हो आजकल मुझसे। बर्दाश्त करने की भी एक हद होती है, सुहाना। तुम्हें नौकरी नहीं करना है, न करो! लेकिन, बात करने का सलीका सीखो।” – सुहाना के कड़े तेवर में जवाब सुन रफ़ीक़ बिफर पड़ता है।

“अब मुझे बात करने का सलीका भी तुमसे सीखना पड़ेगा। इतने बूरे दिन नहीं आए मेरे।” – सुहाना बोली। सुहाना की बातों पर बिना कुछ कहे रफ़ीक़ वहाँ से निकल पड़ा। रफ़ीक़ की समझ में नहीं आ रहा था कि सुहाना को आखिर हो क्या गया है। एक तो उसका बर्ताव भी पहले जैसा नहीं रहा और उसपर से ऐसी बातें बोल देती है, जिससे मन तड़प उठता है। फिर भी अपने मन को झूठा दिलासा देते कि निकाह के बाद सब ठीक हो जाएगा- रफ़ीक़ घर लौट आता है।

इस तरह से कुछ और दिन गुजरे। सुहाना का व्यवहार सुधरने के बजाए दिन-प्रतिदिन और सख्त होता चला गया, जिसे अब रफ़ीक़ के साथ-साथ उसके घरवाले भी महसूस करने लगे थे। पर रफ़ीक़ को बुरा न लग जाए, इसलिए कोई भी इस बारे में खुल कर चर्चा न करता।

एक दिन। बात-बात में सुहाना रफ़ीक़ पर बरस पड़ी। बात केवल इतनी सी हुई कि सुहाना ने रफ़ीक़ से पूछ लिया कि जब वे दोनों पहली बार बीच सड़क पर मिले थे तो उसने कौन सा ड्रेस पहन रखा था। जब रफ़ीक़ यह बता न पाया तो सुहाना ने यहाँ तक कह दिया कि रफ़ीक़ उससे मोहब्बत नहीं करता, बल्कि सिर्फ दिखावा करता है। बढ़ते-बढ़ते बात यहाँ तक पहुँच गई कि गुस्से में सुहाना ने रफ़ीक़ पर अफसाना के साथ नाजायज़ संबंध का इल्ज़ाम तक लगा डाला। गुस्से में रफ़ीक़ का भी हाथ उठ गया। बड़ी मुश्किल से सुहाना की अम्मी ने बीच-बचाव कर दोनों को शांत कराया।

“तुमसे निकाह करने का फैसला करके शायद मैंने ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल की है। मुझे इस बारे में फिर से सोचना पड़ेगा।” – गुस्से से कांपती हुई सुहाना ने रफ़ीक़ से कहा। उसकी बातें सुन रफ़ीक़ के मन को काफी ठेस पहुँची और बिना कोई जवाब दिए आँखों में आंसू लिए वह घर लौट आया।

घर लौटने पर रफ़ीक़ की डबडबाई आँखें देख उसकी भाभी ख़ुशनूदा को समझते देर न लगी कि जरूर आज दोनों के बीच कुछ खटपट हुई है। पर, उस वक़्त उन्होने कुछ भी कहना ठीक न समझा। थोड़ी देर बाद वह रफ़ीक़ के कमरे में आयीं और काफी ज़ोर देकर पुछा तो रफ़ीक़ फूट-फूट कर रो पड़ा। अपने दिल की सारी बातें उसने भाभीजान को बता डाली जो पिछले कुछ समय से सुहाना के बदले स्वभाव की वजह से वह झेले जा रहा था।

“पिछले कुछ दिनों से सुहाना के बर्ताव में तब्दीली तो हमसब भी महसूस कर रहे हैं। पर तुम्हें बूरा न लगे, इसलिए सभी चुप थे। पर अब उस बदलाव से तुम्हें परेशानी झेलनी पड़ रही है, इसका मतलब यह है पानी अब सिर के ऊपर जा चुका है। तुम चिंता न करो। एकबार मैं खुद से सुहाना से बात करूंगी कि आखिर बात क्या है? आखिर क्यूँ वह ऐसा कर रही है।” – ख़ुशनूदा ने रफ़ीक़ को दिलासा देते हुए कहा।

“हाँ भाभीजान। प्लीज़, आप एकबार बात करके देखें। मैं सुहाना से बेइंतहाँ मूहब्बत करता हूँ, पर वह समझती ही नहीं। आज तो उसने अपनी सारी सीमाए लांघ डाली – यहाँ तक कह दिया कि मुझसे निकाह करना उसकी ज़िंदगी की सबसे बडी़ भूल है।” – बुझे हुए मन से रफ़ीक़ बोला। उसे दिलासा देती हुई ख़ुशनूदा उसके कमरे से चली आती है।

बिस्तर पर पड़े-पड़े रफ़ीक़ सुहाना की यादों में गुम था कि तभी अफसाना ने कमरे में प्रवेश किया और बोली – ““रफ़ीक़, तुम तो अब बिलकुल बदल गए हो। याद है, पहले हमलोग अलग-अलग घर में रहने के बावजूद भी दिनभर साथ गुजारा करते थे। और अब देखो, एक ही छत के नीचे होने के बावज़ूद भी तुमसे कितनी कम बातें हो पाती हैं।”

“अफसाना, प्लीज़! बेहतर होगा कि तुम अभी मुझे मेरे हाल पर ही छोड़ दो।” – सुर्ख चेहरा लिए रफ़ीक़ अफसाना को कमरे में अकेला छोड़ देने का आग्रह करता है। अफसाना भी रफ़ीक़ के दिल के हालत को भली-भांति समझ रही थी। बिना कुछ कहे वह कमरे से बाहर चली आयी।

अगले दिन, शाम को ऑफिस से छुटते ही रफ़ीक़ अपनी कार तेज भगाता हुआ घर लौटा। उसे यह जानने की बेसब्री थी कि सुहाना से मिलने गई भाभी ख़ुशनूदा आखिर क्या खबर लेकर लौटी है। पर भाभी के उदास चेहरे को देख उसे समझते देर न लगी। खु़शनूदा से रफीक़ को इशारे से बताया कि वह अपने कमरे में जाकर इंतज़ार करे, थोड़ी देर में वह आती है।

“सुहाना के साथ तुम्हारी निकाह नहीं हो सकती। वह तुमसे मोहब्बत नहीं करती और न ही तुम उसे पसंद हो। ऐसा सुहाना ने कहा। मैं आज सुहाना से मिलकर आ रही हूँ।” – ख़ुशनूदा बोली।

“उसने यहाँ तक कह दिया कि शायद वह इस परिवार में ऐडजस्ट न कर पाए और हमारे ही परिवार में खोट निकाल रही थी। पता है, उसने कहा कि चिंटू को बचाने के एवज़ में हमलोगों ने क्या दिया उसे! दूसरा परिवार होता तो उसे पलकों पर बिठाए रखता।” – बोलते-बोलते ख़ुशनूदा का गला रुँध हो गया।

“बस.....भाभीजान... बस! अब बहुत हुआ। अब मैं उस लड़की के बारे में एक शब्द भी सुनना नहीं चाहता। उसने जो भी कहा – सब भूल जाओ। उसकी गुस्ताखी के लिए माफी मांगता हूँ। मुझे नफरत है उसके नाम से भी, अब!”- गुस्से से तमतमाया हुआ रफ़ीक़ बोला।

उसे शांत कर ख़ुशनूदा कमरे से बाहर चली गई। आज रफ़ीक़ ने खाना भी नहीं खाया। खाने के मेज़ पर जब आमिर ने अपने छोटे भाई के बारे में पूछा तो ख़ुशनूदा ने सबके सामने सुहाना की सारी बातें खुल कर रखीं। रफ़ीक़ के लिए सबको बहुत बूरा लग रहा था। साथ ही, इस बात का भी दुःख था कि सबने सुहाना को समझने में कितनी बड़ी भूल कर दी।

“पर, अम्मीजान। मुझे तो उन बदमाश अंकल से सुहाना टीचर ने ही बचाया था। वह गंदी कैसे हो सकती है?” – चिंटू के ऐसा बोलने पर सभी चुप हो जाते हैं। उसे पुचकारते हुए अफसाना अपने गोद में लेकर उसके कमरे की तरफ चली जाती है।

रफ़ीक़ अपने कमरे में लेटा सुहाना के गम में खोया था। चाहकर भी वह सुहाना को अपने यादों से ज़ुदा नहीं कर पा रहा था। उसे कुछ भी नहीं भा रहा था। सुहाना के पहले दिन मिलने से लेकर निकाह के लिए मना करने तक की हरेक बातें रफ़ीक़ के दिमाग में घूम रही थीं। उन यादों से निकल कर सोने को आँखें मूँदता तो सामने सुहाना का चहरा दिख जाता। सारी रात उसने इसी उपापोह में बितायी।

काश! मैं तुम्हे समझा सकता।
थोड़ा डांटता और फिर मना सकता।
क्यों रूठती हो इतना,
जानती हो जब कि बार-बार,
तुम्हारी खींची लकीरों को मैं नहीं मिटा सकता।
बिना कारण के शक़ करना,
ठीक है मुहब्बत तुमने भी किया था,
पर बार-बार खुद को इतना,
नीचा मैं दिखा नही सकता।
इक बार तो मिस कॉल ही दे देती,
वो अलग बात है कि,
मैं तुम्हारा कॉल अब उठा नही सकता।
प्यार दोनो ने किया था,
पर किस्मत की इन ज़ुदा लकीरों को तो,
चाहिए बस इक बहाना,
कह दो उनसे कि हमें न रोके,
और न बहकाए इक दूज़े के खिलाफ।
एकबार दिले बयान किया था तुमसे कभी प्यार का।
थोड़ा गुस्सा ही सही,
दिखा कर माफ कर दो इस आशिक़ को,
सच कहूं तो मुझे भी अब,
तुम्हारे बिना तन्हा जिया नही जाता।.....

मूल कृति : श्वेत कुमार सिन्हा ©