बसंती की बसंत पंचमी - (अंतिम भाग) Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बसंती की बसंत पंचमी - (अंतिम भाग)

श्रीमती कुनकुनवाला भी सब कुछ जान लेने के बाद अब हल्के- फुल्के मज़ाक के मूड में आ गईं।
उन्हें इस बात की हैरानी हो रही थी कि बच्चों ने देखो कितना दिमाग़ दौड़ाया। कहां से कहां की बात सोची। सच में, उस समय किसी को ये सब सोच पाने की फुरसत ही कहां थी? सबका कलेजा डर से मुंह को आया हुआ था। न जाने कब क्या हो जाए? कब कौन सी मुसीबत टपक पड़े।
और ये बच्चे भी देखो, किस शरारत में लगे पड़े थे!
वे बोलीं- अच्छा, मगर ये फ़िल्म का क्या चक्कर था? ये कौन लोग थे जो फ़िल्म की बात चला रहे थे? ये किसकी शरारत थी?
श्रीमती कुनकुनवाला किसी मासूम बच्ची की तरह भोलेपन से पूछ रही थीं।
अपनी मित्रमंडली की ओर गर्व से देख कर जॉन बोला- उस दिन जो प्रोड्यूसर और डायरेक्टर आए थे वो एक तो हमारे कॉलेज मैस का कैशियर है, और दूसरा पार्किंग का ठेकेदार था। उन्हें हम ही लाए थे।
- अरे पर क्यों? ये नाटक करने की क्या जरूरत थी? श्रीमती कुनकुनवाला हैरानी से बोलीं।
जॉन ने ज़रा गर्दन को खम देकर खुलासा किया, बोला- दरअसल मम्मी, ये आपकी सहेलियां हैं न, ये अपनी- अपनी "बाई" की पगार आसानी से दे नहीं रही थीं। रोज़ टालमटोल, रोज बहाने... अभी नहीं हैं, पूरे नहीं हैं, बाद में देंगे... लड़कियां रोज़- रोज़ इन्हें फ़ोन करके थक गईं। तब हमने ये चाल चली। बसंत पंचमी आ रही थी। इस मौक़े पर लॉन्च करने के लिए "बसंती" नाम की एक बाई की मशहूर कहानी ही चुनी और आपको उकसा कर फ़िल्म बनाने का ये चक्कर चला दिया, ताकि किसी को शक भी न हो, और आपकी ये कंजूस सहेलियां किसी लालच में अपनी अंटी ढीली करने के लिए भी तैयार हो जाएं... सबने बसंत पंचमी मनाने और फ़िल्म शुरू करने के लिए अपना- अपना योगदान देने के लिए हामी भर दी। हमने भी सोचा कि सीधी उंगली से घी नहीं निकल रहा तो अंगुली टेढ़ी करनी ही पड़ेगी। बस, ये चक्कर चला दिया। आपकी ये सब सहेलियां हमारी बातों में आ गईं। क्या करते, इनसे पैसे तो निकलवाने ही थे न! हमारी मित्र मंडली ने महीनों तक इंतजार जो किया था। तो बस, जैसे ही इन सब ने अपने- अपने हिस्से का अमाउंट दिया...
जॉन की बात अधूरी ही रह गई। बीच में ही श्रीमती कुनकुनवाला फ़िर से जॉन की ओर बढ़ीं और उसके गाल पर एक ज़ोरदार झन्नाटेदार थप्पड़ खींच कर जड़ दिया।
बोलीं- नालायक, सारी दुनियां कष्ट और दुख से घिरी पड़ी थी, लोगों का काम- धंधा चौपट हुआ पड़ा था, घर परिवार को बचाने के लिए लोग अपने अपने घर में सांस रोक कर समय काट रहे थे, और तुम लोगों को ऐसा मस्ती- मज़ाक सूझ रहा था। शर्म नहीं आई?
मम्मी के तेवर देख कर जॉन और उसके सभी दोस्तों को वास्तविकता का अहसास हुआ।
सब ने वैसे ही तालियां बजाईं जैसे किसी पार्टी में केक कटने पर बजती हैं। जॉन के सारे दोस्त इस तरह आइना दिखा दिए जाने पर मन ही मन लज्जित हो रहे थे।
मौसम तो बसंत ऋतु का था पर शरारती- खुराफ़ाती जॉन का गाल बसंती नहीं, बल्कि सुर्ख लाल हो गया! उसे ये अहसास हो गया था कि दुनिया के सुख- दुःख मज़ाक करके एक दूसरे का जीना दूभर करने के लिए नहीं, बल्कि एक दूसरे के साथ मिल- जुल कर रहना सिखाने के लिए आते हैं।
सारा माहौल बसंत ऋतु के फूलों की तरह खिल गया।
(समाप्त)