बागी स्त्रियाँ - (भाग तीस) - अंतिम भाग Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी स्त्रियाँ - (भाग तीस) - अंतिम भाग

मीता ने तो कृष्ण -भक्ति में अपना सकून ढूंढ लिया था पर अपूर्वा बेचैन थी।अपने अनुभवों से वह इतना तो समझ गई थी कि प्रेम -प्यार का रास्ता उसके लिए नहीं बना है।शायद इसके लिए जिस काबिलियत की जरूरत होती है ,वह उसमें नहीं है।वह सीधी -सच्ची है ।प्रेम में पूर्ण समर्पण चाहती है शायद तभी उसे पूर्णता का आभास होगा,पर उसके जीवन के सारे पुरुष आधे- अधूरे पर चतुर -चालाक थे।समर्पण उनकी फितरत नहीं थी।इसलिए वे उसके लिए गिनती -संख्या बनकर रह गए।एक -दो तीन -चार -पांच।वे सब मिलकर एक हो जाते तो एक पूरा पुरूष बनता,जिसकी चाह थी उसे ,पर वे सब अलग थे।द्रोपदी के पांच पतियों की तरह।अलग -अलग खूबियों वाले,पर उनमें कोई एक वह नहीं था जो द्रोपदी चाहती थी।द्रोपदी उनमें कृष्ण जैसा सखा चाहती थी,जो उसको उसी रूप में समझता है,जैसी वह है।द्रोपदी के पतियों ने उसे वस्तु समझा, जिसे मिल -बांटकर खाया जा सकता है,जिसे दांव पर लगाया जा सकता है,जिसे भरी सभा में निर्वसन होते देखा जा सकता है।जिसके होते भी दूसरा -तीसरा विवाह किया जा सकता है,बिना उसकी अनुमति के बड़े से बड़ा निर्णय लिया जा सकता है।उससे उत्तपन्न सन्तानों को बलि का बकरा बनाया जा सकता है।
द्रोपदी बस एक मायने में उससे अलग थी कि उसके पास कृष्ण थे जो हमेशा उसके रक्षण को तत्पर रहे। मित्र उसके भी रहे हैं पर अकेले में प्रणय- निवेदन करने वाले और समाज के सामने चोरों की तरह छिप जाने वाले!प्रेमी भी बहुत रहे ,जो पहले या बाद में दूसरी स्त्रियों के आगोश में छिप जाते रहे।फिर भी उस पर पूर्ण अधिकार चाहने ,मानने और जताने वाले और उसकी बेरूखी पर उसे बेवफा कहने वाले।उसे द्रोपदी कहकर अपमानित करने वाले।वे सोचते हैं कि द्रोपदी शब्द उसे दुःख देगा पर अपूर्वा को गर्व है कि उसकी तुलना द्रोपदी से की जाती है।द्रोपदी जैसी तेजस्विनी,विदुषी,भविष्य -द्रष्टा व स्वतंत्र सोच वाली स्त्री न भूतो न भविष्य:।वह तो उसकी पासंग- भर भी नहीं है।
लोग उसे भक्ति की शरण में जाने की सलाह देते हैं।वह देखती है कि 90% महिलाएं किसी न किसी पूजा -पाठ,व्रत- उपवास,नियम -संयम ,देवी -देवता, गुरू-गुरूवाईन में खुद को समर्पित किए रहती हैं और इसमें उन्हें शारीरिक कष्ट तो होता है पर मानसिक संतोष भी मिलता है।वे ये सब कुछ अपने पति- बच्चों,घर -परिवार के लिए करती हैं ,अपने लिए नहीं ।ठंड में नहाकर एकवस्त्रा स्त्रियों को आस -पास के मंदिरों में नंगे पांव पूजन करने जाती देख वह कांप जाती है।आखिर किसलिए वे अपनी जान जोखिम में डालती है।उन्हीं पति -बच्चों के लिए जो गर्म कमरे में रजाई ताने सो रहे हैं।मंदिर से लौटकर वह उनके लिए गर्मा-गर्म चाय- नाश्ता तैयार कर लेगी तब वे उठेंगे।बच्चे स्कूल- कॉलेज और पति काम पर इस तरह जाएंगे, जैसे उस पर अहसान कर रहे हों।जैसे उसी के लिए उन्हें इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है। कभी स्त्री बीमार होकर देखे चीख -पुकार मच जाती है।घर की सारी व्यवस्था धराशायी हो जाती है। ऊपर से कहा जाता है --'करती ही क्या हो?'
नहीं ...नहीं ,न तो ऐसा परिवार उसे शांति दे सकता है न ऐसा धर्म,जो स्त्रियों से ही सारी अपेक्षाएं रखता है।
तो वह कहाँ जाए क्या करे?अब तो उसके पास नौकरी भी नहीं,जिसमें उसको खुद को अभिव्यक्त करने का पूरा अवसर था।बच्चों को पढ़ाने में उसे दिली खुशी मिलती थी। कोर्स की किताबों के अलावा वह उनसे दुनिया-जहान की बातें करती।उन्हें अभिनय सिखाती।उनकी समस्याएं सुनती,उसका समाधान करती।इन सब में ही वह इतना थक जाती कि घर -बाहर के दूसरे काम दूसरे स्थान पर रहते।
पर अब सब कुछ बदल गया है।सबका बदलता है।पर यह बदलाव बहुत भारी है।अब उसे अकेलापन खलता है।अब वह नौकरी नहीं करना चाहती ।कुछ ऐसा करना चाहती है,जिससे उसे सुकून और शांति के साथ आनन्द की अनूभूति हो।जीवन से उसके जीवन से जैसे हँसी -खुशी ही गायब हो गई है।
कोविड 19 ने जैसे लाखों के जीवन को प्रभावित किया,उसका भी किया है।पर उसने एक अच्छी बात यह की कि रिश्तों की हकीकत सामने ला दी। वह तो खैर पहले भी किसी से उम्मीद नहीं रखती थी,पर इतना तो मन में था ही कि जीवन के सांध्य -पहर में सबके साथ रहेगी।पर सबने पहले से ही खुद को अलग कर लिया है।अब इस उम्र में किसी सच्चे प्यार के आने की न उम्मीद है न पुराने प्यार के लौटने की। उसे अकेले ही जीना होगा।पर जीने के लिए खुद को व्यस्त रखना होगा पर कहाँ ...कैसे?लेखन कार्य तो चलता रहेगा पर गोष्ठियों /सेमिनारों से भी उसका मोहभंग हो चुका है।
तो अब......एकाएक उसकी आँखों के सामने अनाथलाय के वे बच्चे डोलने लगे,जो दो साल पहले एक समारोह में अपना टैलेंट दिखा रहे थे।ऐसे बच्चों को प्यार और सहारे की जरूरत होती है।वह ऐसे बच्चों को पढ़ाएगी ...उन्हें हँसाएगी अपना शेष जीवन उन्हें समर्पित कर देगी।
अनाथाश्रम,वृद्धाश्रम और भी ऐसे आश्रम हैं,जहां उसके श्रम,प्रेम और सेवा की जरूरत है। मंदिर -मंदिर भजन गाने,पूजा -पाठ करने से या किसी रिश्तेदार के घर आश्रित का जीवन जीने से अच्छा होगा यह।
उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने उसे सही रास्ता दिखा दिया।हूँ... तो ..आखिर इस द्रोपदी के साथ उसका सखा कृष्ण आ ही खड़ा हुआ।भले ही अदृश्य रहकर ही।
वह आज की द्रोपदी अब सेवा- मार्ग पर चलेगी।मानवता की सेवा करेगी।अब पूरा संसार उसका परिवार होगा।
अपूर्वा के चेहरे पर सुख -संतोष की आभा आ गई।
(समाप्त)