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मै तो ओढ चुनरिया - 38

मै तो ओढ चुनरिया

38


विजय दीदी की शादी के बाद सात महीने बीते होंगे कि उनसे चार साल छोटी मनोरमा जीजी की शादी भी तय हो गयी । परिवार बहुत अच्छा था और जीजाजी संस्कारी । शादी का मुहुर्त एक महीने बाद का ही निकला और एक सादे से समारोह के बाद यह जीजी भी दुल्हन बन कर अपनी ससुराल जा बसी । अब माँ को मेरी शादी की चिंता सताने लगी । वे अक्सर अपने भाइयों से मेरी शादी पर बात करती नजर आती । अक्सर वे किसी न किसी मामा के साथ भावी वर को देखने भी जाती । पिताजी का समाज में सम्मान था । ऊपर से माँ की दूर दूर तक फैली रिश्तेदारियाँ तो हर रोज ही कोई न कोई रिश्तेदार आ टपकता और नया लङका बता जाता पर कहीं बात जम नहीं रही थी । मैं अब सत्रह साल की हो चुकी थी और अट्ठारहवें में चल रही थी । तो हर रिश्ते की बात के साथ मन में कई सुनहरे सपने जन्म लेते और एक दो सप्ताह में बिखर जाते ।
मैं बी. ए करके आजकल खाली घर में बैठी थी । दुकान में भी आजकल मैं कम ही बैठा करती । और नयी पुरानी कल्याण पढा करती । कभी कभी पिताजी लिफाफे बनाने के लिए या पुङिया बाँधने के लिए रद्दी खरीदते तो उस रध्दी में से कोई अच्छी पुस्तक मिल जाती । बाकी टाईम बाहर की चादरें तकिये , साङियाँ निकाला करती । मुझे सिलाई कढाई सिखाने के लिये भेजा जाने लगा । हालांकि मैं गुजारे लायक सिलाई कर लेती थी और कढाई में निपुण हो गयी थी । पर माताजी को धुन लगी कि बिटिया के पास डिप्लोमा या सर्टिफिकेट तो होना ही चाहिए । रायवाला में उन दिनों ऊषा सिलाई मशीन वालों की ओर से एक सिलाई शिक्षा केंद्र चलाया जा रहा था । वहां तीन सिलाई मशीने थी और एक बहनजी सिलाई सिखाने आती । यह सेंटर हमारे घर से कोई पाँच किलोमीटर से क्या कम दूर होगा । इससे पहले मैं कभी इतनी दूर अकेले पैदल नहीं गयी थी । तो सोचा था कि मां जब इतनी दूरी देखेंगी तो खुद ही मना कर देंगी । तो भई तैयार होकर हम पहुँचे सिलाई सेंटर । वहाँ दस बारह लङकियाँ , औरतें मौजूद थी । कोई अखबार पर पैंसिल से कुछ बना रही थी । कुछ सुई धागा लेकर कुछ सिल रही थी । दो लङकियाँ मशीन पर काम कर रही थी । हम लोग बहनजी से मिले । समय और फीस तय की गयी । माँ ने तुरंत रूमाल में बंधे नोट निकाले । बहनजी को गिनकर बीस रुपये दिये और मुझे वहीं छोङकर लौट गयी । मुझे ये सारे हालात समझने में दस मिनट लगे । यह क्या हो गया । बीस रूपये उस जमाने में बहुत ज्यादा होते थे और माँ ने इतने सारे रुपये यूँ ही दे दिये । मैं गुमसुम सी बैठी सोच रही थी कि बहनजी ने पुकारा ।
यहाँ आओ । आज मैं तुम्हें जांघिया अखबार पर काटना सिखाती हूँ । कल से अखबार सुई धागा , कैंची , पैन्सिल और कोई साफ सा पुराना कपङा लेकर आना । ठीक है ।
उस दिन पूरे दो घंटे मैं अखबार पर जांघिये बना बनाकर काटती रही । दो घंटे बाद छुट्टी हुई तो घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल हो गया । माँ पर गुस्सा भी बहुत आया कि मुझे यहाँ फंसाकर खुद चली गयी पर घर तो जाना ही था तो राम राम जपते हुए चलना शुरु किया । मैं चल रही थी पर रास्ता खत्म होने में ही नहीं आ रहा था । तेज चलने से मेरी साँस फूल गयी थी । घर पहुँच कर साँस में साँस आई । मुझे आज भी याद है , मैं तुरंत तीन गिलास पानी पी गयी थी । माँ चिल्लाती रही थी – दो मिनट रुक तो सही । बाहर से आकर गरम शरीर में यूँ पानी नहीं पीते । सरद गरम हो जाएगा पर मुझे कुछ सुना ही नहीं । मैं एक के बाद एक गिलास पानी पीती रही ।
वह रात बङी बेचैनी से बीती । मैं पूरी रात यही सोचती रही कि अगले दिन पाँच मौहल्ले पार करके मैं सिलाई सीखने अकेली कैसे जाऊँगी । वह सारी रात घबराहट के मारे मैं एक मिनट के लिए भी सो नहीं पायी थी । खैर अगले दिन जाना तो था ही । आखिर बीस रुपयों का सवाल था । इसलिए मैं अकेले गयी भी और वहाँ से अकेली लौटी भी । फिर तो यह आना जाना रोज का काम होगया । मेरे दो घंटे वहाँ लोगों से बातचीत करके सिलाई करते हुए बीतने लगे । वहाँ मेरा मन लगने लगा था । एक बात मैंने नोट की । ये बहन जी आते ही थैले से पाँच छ कपङे निकालती । अपनी बङी सी मेज पर रख कर काटती और अलग अलग फोल्ड करके रख लेती । बीच बीच में कभी किसी औरत को पकङाती - लो यहाँ सिलाई मार दो । किसी दूसरी से बोलती - जरा सिलना इसे । या फिर किसी को कहती - यहाँ कच्चा कर दो । इसे तुरपाई करना तो । और दो बजते तक वे सारे कपङे सिल कर तैयार हो जाते ।
अभी सिलाई केंद्र जाते हुए तीन महीने बीते होंगे कि एक दिन खत मिला । पिताजी के चाचा के बेटे के लिए रिश्ते वाले आने वाले थे । ये चाचाजी पिताजी से बहुत छोटे थे । करीब चौबीस साल छोटे । मुझसे छ साल बङे रहे होंगे । ये मोगा के किसी सरकारी बैंक में क्लर्क थे । माँ बाप दोनों ही मर चुके थे कई साल पहले ही । तो सगे संबंधियों के नाम पर एक माँ और पिताजी थे और दूसरे बुआ जी और फूफा जी तो हम सब यानि कि माँ , पिता जी , बुआ और फूफा जी लङकी देखने पटियाला गये । जो लङकी इनके लिए पसंद की गयी , वे एम फिल कर रही थी । साँवली सलोनी सी तीखे नयननक्श वाली यह लङकी हम सब को पहली नजर में ही भा गयी । पिताजी ने लङकी के हाथ में इक्यावन रुपये और नारियल दिया और रिश्ता पक्का कर दिया । सबको चाची के घर से पाँच पाँच रुपये मिले थे और चाचाजी को सौ रुपये या शायद एक सौ एक । दो महीने बाद की शादी तय हुई । शादी हमारे पुश्तैनी घर कोटकपूरा से ही होनी थी ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...

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