मैं तो ओढ चुनरिया - 37 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • Devil I Hate You - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • दरिंदा - भाग - 12

    इस तरह अचानक अशोक अंकल को अपने सामने खड़ा देखकर अल्पा समझ ही...

  • द्वारावती - 74

    74उत्सव काशी में बस गया था। काशी को अत्यंत निकट से उसने देखा...

  • दादीमा की कहानियाँ - 4

     *!! लालच बुरी बला है !!*~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~*एक बार...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 54

    अब आगे रूही रूद्र को गुस्से में देख रही थी रूद्र ‌रूही के इस...

श्रेणी
शेयर करे

मैं तो ओढ चुनरिया - 37

 

मैं तो ओढ चुनरिया

 

37

 

धीरे धीरे मेरी सारी सहेलियाँ शादी करवा कर अपनी ससुराल चली गयी थी और येन केन प्रकारेण अपनी ससुराल में सैट होने की कोशिश में लगी थी । यह वह समय था जब लङकियों की शादी पंद्रह साल से अट्ठारह साल के बीच कर दी जाती थी । वर का मात्र कुल गोत्र देखा जाता था या खानदान की प्रतिष्ठा । वर की आयु , आय या शिक्षा का कोई महत्त्व्र न था । यह मान लिया जाता था कि खानदानी लोग है । वहाँ लङकी को खाने पहनने की कोई कमी नहीं होगी । लङकियों को होश सम्भालते ही समझाया जाता था कि एक बार शादी हो जाय तो ससुराल से अरथी पर ही बाहर आना होता है । ससुराल की कोई भी बात मायके में आकर नहीं बतानी है ।सास ससुर की मन लगाकर सेवा करनी चाहिए । घर का काम करो ताकि किसी को शिकायत का मौका न मिले सो मेरी सहेलियाँ भी इसी समझाइश का पालन कर रही थी कि अचानक बाला ने इस रीत को तोङ दिया ।
उसकी शादी दो मुहल्ले छोङकर यहीं शहर में हुई थी । लङका सुरीला था । अक्सर देवी के जागरण में भेंटे गाता देखा जाता था । उनका अपना फर्नीचर बनाने का काम था जिसे उसके बाबा , पिता और बङा भाई सम्हालते थे । यह छोटे महाशय मौज मस्ती में लगे रहते और भेंटें गाकर मिले इनाम से अपना खर्च चलाते थे । बङे भाई की शादी दो साल पहले हो चुकी थी । छोटा सा अपना घर था जिसमें बाबा , दादी , माँ पिताजी , तीन भाई और भाभी रहते थे । छोटा भाई आठवें में पढ रहा था और ये मझले दसवीं की परीक्षा से पहले ही पढाई छोङकर भाग खङे हुए थे ।
बाला ने भी पङोस में हुए एक जागरण में भावी दूल्हे को गाते सुना तो आवाज पर फिदा हो गयी । हमेशा उस भजन की टेक गुनगुनाती देखी जाती । बसंत पंचमी को उसकी भाँवर पङी और वैशाख बीतते न बीतते वह अपना संदूक उठाए पैदल ही मायके चली आई । माँ ने उसे इस तरह अकेले लौटे देख अपना सिर पीट लिया । शाम को घर के मर्द काम से लौटे तो उसको डाँट भी पङी , जी भर कोसा गया । पर वह सारी समझाइश के बावजूद ससुराल जाने को तैयार ही न हुई और ससुराल वाले भी अपनी मुँहजोर बहु को ले जाने से इंकार कर गये ।झगङे का कारण था वही जागरण जिसकी यह लङकी तारीफ करती न थकती थी । वर महाशय अपनी नवोढा को घर छोङकर जागरण में हर रोज भाग जाते थे ।
पंचायत बैठी , वर ने अपने परिवार का अपमान कराने वाली लङकी को साथ ले जाने से इंकार कर दिया तो बाला ही कहाँ जाना चाहती थी । आखिर दोनों परिवारों की सहमति से रिश्ता खत्म हो गया । समाज ने इस लङकी का बायकाट कर दिया । सब लङकियों को सख्ती से मना कर दिया गया कि इस लङकी से कोई बात नहीं करेगा । शर्म के मारे कई दिन तक परिवार का कोई भी सदस्य घर से बाहर नहीं निकला । दुकान पर ताला जङा रहा । आखिर एक महीने बाद मर्द सुबह मुँह अधेरे बाहर निकले । एक दुहाजू तीन बच्चों का बाप ढूँढा गया और उसके साथ बाला को चुनरी ओढाकर भेज दिया गया । जाते हुए उसे बार बार हिदायत दी गयी कि पहले मरद को नामर्द बताकर आ गयी थी अब यह तीन बच्चों का बाप है तो अब इसे निभा लेना । अगर अब भाग कर आई तो मार कर घर में गाङ देंगे ।
सोलह साल की बाला की बङी बेटी उस समय नौ साल की थी , उससे छोटे सात साल और पाँच साल के दो बेटे थे । घर में गाय भैंसे थी । खेती बाङी थी । एक बूढी विधवा सास थी जो उसे हमेशा पहली असफल शादी को लेकर ताने देती रहती और बेहद सख्ती से पेश आती पर अब शिकायत किससे करती क्योंकि अब शिकायत सुनने वाला कोई न था । न ही कोई मायके आने के लिए कहने वाला । सिर्फ उसकी माँ जब तब ठंडी साँस भर कर आँखों में आँसू ले आती – पागल लङकी ने अपने आँचल में खुद कांटे भरे हैं । अच्छा खासा बीस साल का लङका ढूँढकर धूमधाम से शादी की थी । अब बत्तीस साल के बुडढे के साथ जिंदगी काट रही है । पर अपने सारे संताप के बावजूद मर्दों के खिलाफ जाकर किसी तीज त्योहार पर भी बेटी को घर बुलाने का हौंसला वह नहीं कर पायी । उसकी यह नियति मेरे लिए बहुत बङा सदमा थी ।
इस बीच मेरी ग्रैजुएशन पूरी हो गयी थी । अब फिर से मेरी शादी के लिए वर की तलाश जोर शोर से शुरु हुई । हर महीने कोई न कोई सज्जन अपने बेटे केलिए रिश्ता लेकर आते । लेकिन योग्य वर नहीं मिल रहा था । एक महाशय का बेटा दसवीं पास था और लाटरी बेचने का स्टाल चलाता था । कोई खेती बाङी वाला था । किसी की छोटी मोटी दुकान थी । एक सज्जन खुद सरकारी अधिकारी थे पर बेटे ट्रक चलाते थे । भाग्य से जिस दिन वे मुझे देखने आए , उसी दिन मेरे फूफा जी की लम्बी चौङी चिट्ठी आई । इस चिट्ठी में उन्होंने बेटी के जन्म को सबसे बङा दुर्भाग्य बताया था । वर की खोज को असाध्य काम बताते हुए तीन बेटियों का पिता होना पूर्व जन्म के पाप का फल बताया था । जीजी मुझसे आठ साल बङी थी । बीँए करके शादी का इंतजार करते हुए उन्हें सात साल हो गये थे । फूफाजी जैसे तैसे लङका खोज कर उन्हें निपटाने का प्रयास भी करके देख चुके थे पर कहीं बात सिरे चढ ही नही रही थी ।
अब यह अंकल जी जब अपने बेटे की बात छेङ बैठे तो पिताजी ने अपनी भानजी की चर्चा चलाई । अंकल जी लङकी देखने के लिए मान गये । लेकिन जाते जाते अपने बेटे की फोटो छोङ गये कि अगर वहाँ बात न बनी तो आप रिश्ते के लिए तैयार रहिएगा । मैंने उन दिनों में कौन कौन से देवी देवता याद किये , अब गिनना मुश्किल है लेकिन दस दिन बाद जब अंकल जी और फूफा जी के खत एक साथ मिले तो सबसे ज्यादा मैं खुश हुई थी । उन लोगों को जीजी पसंद आ गयी थी और अगले बारह दिन बाद का शादी का मुहुर्त निकला था । माँ और पिताजी भात की तैयारी में लग गये थे । नियत दिन एक सादे से समारोह में जीजी की शादी सम्पन्न हो गयी ।

 

बाकी कहानी अगली कङी में ...