मैं तो ओढ चुनरिया
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हमारी गली में हमारे घर से चार घर छोङ कर रहती थी मेरी सहेली संतोष । उसकी एक बहन थी कमली और एक भाई चंदन । उसके बाऊजी को मैं मामाजी कहती और माँ को मामी । मामाजी सीधे सादे सज्जन थे । सब्जी की रेहङी लगाते । जो भी बचता , उसी से घर का गुजारा चलता । तीनों भाई बहन पाँचवी तक पढे थे । उसके बाद पढने की गुंजाइश ही नहीं थी । दोनों बहने सलाइयां और ऊन या कोई तकिया लेकर माँ से नमूना सीखने आ जाती । माँ तो घरके काम में व्यस्त रहती , वे मेरे पास अपनी बुनाई , कढाई में लीन रहती । एक दिन मामाजी का कोई दोस्त उनकी रेहढी पर आया तो मामाजी ने उससे कई दिन गायब रहने का कारण पूछा । उस आदमी ने मेरठ के पास किसी आश्रम का वर्णन किया और मामा से भी एक बार चलने का आग्रह किया । पहले तो मामाजी ने इंकार किया फिर मान गये । रविवार को जाने का तय करके जाने का वादा करके वह आदमी चला गया । घर वालों को भी उनके एक बार आश्रम जाने पर क्या ऐतराज होता सो मामाजी गये आश्रम । वहाँ प्रवचन , लंगर , रहन सहन की व्यवस्था सब देखकर अभिभूत हो गये । महात्माजी से मिलकर वे इतने प्रभावित हुए कि बेटे को भेंट करने का संकल्प ले लिया । घर लौटकर उन्होंने जब अपना संकल्प सबको बताया तो घर में रोना पीटना शुरु हो गया । इकलौता बेटा वह भी बारह साल का अबोध बालक । मामी कैसे जाने देती । इस बात पर बहुत क्लेश हुआ । आखिर बेटे और घर के भविष्य का सवाल था । क्लेस का यह परिणाम हुआ कि मामी को हार्टअटैक आ गया । सारे रिश्तेदार आये तो सबने मामी का ही पक्ष लिया । मामा ने हार मान ली । मामी की हालत सुधर गयी । वे घर लौट आयी ।
फिर एक दिन मामा ने कमली को पता नहीं क्या कहा कि वह जाने के लिए तैयार हो गयी । मामी को इसका पता तब चला जब मामा और कमली रिक्शा पर बैठ कर जाने लगे । मामी रोती रह गयी । मामा कमली के साथ पंद्रह दिन आश्रम में रहे और एक दिन जैसे गये थे वैसे ही अकेले लौट आये इस उम्मीद के साथ कि उनकी बेटी को मुक्ति मिल जाएगी ।
अभी इस बात दस दिन भी नहीं बीते होंगे कि एक दिन चीखों से सारा मौहल्ला जाग उठा । लोग चारपाई छोङकर देखने के लिए गलियों में निकल आए । पता लगा कि आश्रमवाले कमली को घर छोङ गये है । कमली पागल हो चुकी थी । उसे नींद का इंजैक्शन देकर सुलाया गया । अगले दिन अमृतसर के पागलखाने में दाखिल करवा दिया गया । मामी को दिल का दूसरा दौरा पङा जो जानलेवा साबित हुआ जब तक उन्हें डाक्टर के पास ले जाया जाता , प्राण पखेरु उङ गये ।
इसे मामा ने अपने गुरु की कृपा समझा । जिसने उन्हें मायामोह के झंझट से उबार लिया था । वे खुद घर बार त्याग कर आश्रम चले गये । मामी की सारी क्रियाएँ मौहल्लेवालों ने पैसे इकट्ठे करके की । संतोष और चंदन को उनके मामा आकर ले गये । इस तरह एक हँसता खेलता परिवार अंधविश्वास और पाखंड की भेंट चढ गया ।
दूसरी घटना मेरी एक और सहेली रेणू की कहानी है । रेणू का घर और मेरा घर एक दूसरे से पीठ जोङे खङे थे । हो सकता है यह एक ही प्लाट रहा हो । जिसे दो लोगों ने खरीद लिया हो । शर्मा ताऊजी रेलवे में गार्ड थे । रेलवे से रिटायरमैंट के बाद मिले पैसों से उन्होंने यहाँ मकान बनवाया था । रेणु मेरी हमउम्र थी । छत पर हम जब भी आते , ढेर सारी बातें करते । खरबूजे के मगज निकालते , सिवैया तोङते । सलाइयाँ बुनते । रेणु जब आठवीं मे पढ रही थी कि एक राजपूत लङके भँवर के प्रेम के भँवर में फँस गयी । पर यह प्रेम कागज की पुर्जियों पर एक दो वाक्य में एक दो शेर लिखकर भेजने तक ही सीमित था । दोनों ही जानते थे कि उनकी बात दोनों में से किसी के घर में भी सुनी नहीं जाएगी फिर भी भँवर साहब एक दो चक्कर हमारी गली के जरूर लगाते और जिस दिन रेणू की एक झलक पा लेते निहाल हो जाते ।
जिस दिन मामी के फूल चुने गये , उसी दिन रेणु की बुआ की बेटी की तेहरी थी । ताऊजी भानजी की ससुराल गये । दामाद की कई बीघा खेती थी । बङी सी हवेली । दो गाय दरवाजे पर बंधी थी । क्या हुआ अगर दो बच्चों का बाप था । ताऊजी रेणु का रिश्ता उसी दामाद से पक्का कर शगुण का रुपया पकङा आये । साथ ही महीने बाद की ब्याह की तारीख भी पक्की कर आये । शाम को लौटकर तायी को बताया तो तायी की तो आँसुओं की नदियाँ बह गयी । हे भगवान मेरी फूल सी बच्ची के भाग में यह क्या लिख दिया रेणु के बापू । दामाद इससे पूरे पंद्रह साल बङा होगा । ऊपर से दो दो बच्चों का बाप । न जी मैं ना होने देने की ये शादी । शादी क्या बरबादी है ये तो ।
चल चुप कर । मरद की उम्र कौन देखता है । कितनी जमीन जायदाद है । बहनजी ने इतना दहेज दिया था , वह भी रेणु का हुआ ।
बस तीस लोगों को रोटी खिलानी है । कोई दान दहेज नहीं । कोई खरच नहीं । कहीं और ढूँढने जाते तो जूतियाँ टूट जाती लङका ढूढते ढूँढते ।
यह जो ढूँढा है यह लङका कहाँ से है , आदमी है । अपनी रेणु के इस सावन में पंद्रह पूरे होंगे और वो तीसपैंतीस से कम क्या होगा ।
देख , अब ज्यादा तू मैं तो करे मत । जुबान देकर आया हूँ । उससे पलट नहीं सकता । तेरे लिए यही ठीक है कि ब्याह की तैयारी शुरु कर ।
रात को रेणु छत पर आई तो लगातार रोने से उसकी आँखें लाल होकर सूजी पङी थी ।
आते ही उसने रो रोकर सारी बात कह सुनाई – यार उसकी शादी में मैं तीन साल की थी । जीजी उस आदमी के साथ सोलह साल ब्याहता जिंदगी गुजार गयी । दो बच्चे है उसके । एक बारह साल की बेटी जो मेरे से दो ही साल छोटी है और दस साल का बेटा । मैं उसके साथ शादी । उफ सोच कर ही घिन आती है ।
पर इस सब के बावजूद उसका जीजा उसे ब्याहने आया और वह अपने ससुराल चली गयी । साल के भीतर भीतर उसे टी बी हो गयी और चार साल बीमार रहकर वह एक दिन दुनिया से चली गयी ।
अगली कहानी अगली कङी में ...