अपूर्वा सोचती है कि कैसा विचित्र है उसका भारतीय समाज !इसमें स्त्री और पुरूष के लिए दुहरे मानदंड हैं।स्त्री बाल -विधवा भी हो तो उसे संन्यासिनी हो जाना चाहिए।मात्र ईश्वर ही उसके जीवन का दूसरा पुरूष हो सकता है।पर विधुर अस्सी की उम्र में भी दूसरा या तीसरा विवाह करे तो सहानुभूति में कहा जाता है--बेचारा अकेला था।
पुरूष को हर हाल में स्त्री चाहिए।जवानी में यौन सम्बन्धी जरूरतों के लिए तो बुढापे में हारी -बीमारी में देखभाल और सेवा के लिए।पर स्त्री को उसकी किस्मत से आंका जाता है और उसी के भरोसे उसे छोड़ दिया जाता है।आज भी सधवा भाग्यवती और विधवा अभागी मानी जाती है।आज जबकि स्त्री के पक्ष में तमाम कानून बन गए हैं। सती प्रथा,बालविवाह पर रोक व विधवा विवाह ,तलाक का समर्थन है।एक तिहाई समाज की सुई पन्द्रहवीं शताब्दी में ही रूकी पड़ी है।
सीमा विधवा है इसलिए सोसाइटी के लोगों को उसके घर एक जवान पुरूष का आना अच्छा नहीं लगता।उसका नौकरी करना,रंगीन आधुनिक कपड़े पहनना यहाँ तक कि सुंदर दिखना भी मानो उसका अपराध है।सोसाइटी के पुरूष तो कम पर ज्यादातर स्त्रियाँ उसकी ताक- झांक में लगी रहती हैं।उस पर टिप्पड़ी करती हैं।उनकी कोई भी बातचीत सीमा की चर्चा के बिना पूरी नहीं होती।वे अपूर्वा को भी उससे सम्बन्ध रखने को मना करती हैं।उनके लिए सीमा चरित्रहीन है,पर अपूर्वा के लिए सीमा एक सामान्य स्त्री है।वह उसे समझती है।वह यह मानती है कि अनिकेत का सीमा की जिंदगी में होना कोई अपराध नहीं है ।विधवा होने के बावजूद उसका प्यार करना भी गलत नहीं है।प्यार में देह का शामिल हो जाना भी नैचुरल है। स्त्री पुरूष के बीच सिर्फ वायवीय प्रेम भी होता है पर वे भी जब एकांत में करीब होते हैं तो उनकी देह जाग जाती है। प्रकृति में भी नर और मादा मिलते हैं जुड़ते हैं प्यार करते हैं।उनमें मनुष्य समाज की तरह विवाह -प्रथा नहीं है,जिसमें दो विपरीत लिंग को प्यार करने की मान्यता दी जाती है।मनुष्य समाज में भी कहाँ थी यह प्रथा!वह तो मनुष्य की भावनाओं को नियंत्रित करने, समाज को व्यवस्थित करने तथा अन्य जीवों से खुद को विशिष्ट,सभ्य सुसंस्कृत दर्शाने के लिए यह प्रथा बनाई गई।वरना मनुष्य सृष्टि के अन्य जीवों की तरह अपने मनपसंद किसी भी विपरीत लिंग को प्यार कर सकता था,उससे अलग हो सकता था।सब कुछ नैचुरल था।देह सम्बन्ध अनैतिक,पाप नहीं माना जाता था ।सब कुछ सहज था... सुंदर था क्योंकि मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा था और उसी के नियमों पर चलता था।उसे अन्य चीजों का ज्ञान नहीं था।सभी स्त्री पुरूष स्वतंत्र थे ।अपने पर निर्भर थे।अपना भोजन खुद अर्जित करते थे।देह की भूख और पेट की भूख उनके लिए अलग नहीं थी।अपने साथी का चयन करने की सबको स्वतंत्रता था।
बाद में कुछ होशियार मनुष्यों को स्त्री का स्वतंत्र होना खलने लगा।वे उसे अपने लिए आरक्षित रखना चाहते थे पर इस तरह का कोई नियम नहीं था क्योंकि कोई समाज नहीं था।उन्होंने समाज बनाया,नियम बनाए और इस तरह स्त्री पुरुष की यौन स्वच्छन्दता को नियंत्रित किया।मनुष्य जंगली से सभ्य बना। स्त्री को जिस पुरूष के लिए आरक्षित किया गया,उसे स्त्री के भरण -पोषण की जिम्मेदारी सौंपी गई। घर बना पुरुष ने आर्थिक मोर्चा संभाला स्त्री ने घर।फिर नए -नए नियम बनते गए।चूंकि पुरूषों ने ही नियम बनाए ,इसलिए उन्होंने पुरूष की सुख -सुविधाओं का ध्यान ज्यादा रखा।उसके लिए लचीले नियम बनाए ,स्त्री के लिए कठोर ताकि वह संयमित और नियन्त्रित रहे।धर्म के नाम पर तमाम व्रत- उपवास,पूजा- पाठ उससे कराया जाने लगा ताकि उसकी यौन -भावनाएं उसपर हावी न होने पाएं।
पुरूष आदि काल से आज तक स्त्री की यौन -भावना से डरता आया है।उसे लगता है कि स्त्री में उससे आठ गुना अधिक यौन -भावना है इसलिए उसको कमजोर बनाए रखना जरूरी है ।साथ ही अन्य चीजों में उसे उलझाए रखना भी।
चौबीस करोड़ देवता यूँ ही नहीं गढ़े गए।घर -परिवार,नात- रिश्ते,पर्व -त्योंहार,तीज- व्रत की तमाम जिम्मेदारियां स्त्री के सिर यूं ही नहीं लादी गई हैं।
साज- श्रृंगार,जेवर -कपड़ों में ऐसे ही नहीं उलझाया गया।शिक्षा,नौकरी,बाहरी दुनिया से दूर रखने के पीछे भी मकसद यही था ।तुलसीदास यूं ही नहीं लिख रहे थे कि "स्वतंत्र होकर स्त्री बिगड़ जाती है"-वे उसी समाज की अगुवाई कर रहे थे जो स्त्री की काम -भावना से भयभीत था।जो एक तरफ तो पुरुष की काम- शक्ति को बढ़ाने के लिए भस्म -चूर्ण ,गोलियां और जाने क्या -क्या बनवा रहा था।कामसूत्र और मस्तराम लिखवा रहा था।दूसरी तरफ स्त्री के लिए रोज नए देवी -देवता गढ़ रहा था।पुराने के साथ नए- नए व्रत- उपवास ईजाद कर रहा था।जो स्त्री के मस्तिष्क की इस तरह कंडीशनिंग कर रहा था कि वह अपने लिए कुछ सोचे ही नहीं ।अपने को कुछ माने ही नहीं।जिसके लिए उसका पुरुष ही परमेश्वर हो।जिसके होने से उसका अस्तित्व हो और न होने पर वह खुद को मृत देह- मात्र समझे।
स्त्री की जैसी कंडीशनिंग की गई वह वैसी ही हो गई है।गाहे- बगाहे कोई स्त्री बगावत करती है,तो उसे कुलटा मान लिया जाता है।समाज के नैतिक ठेकेदार उस पर कोड़े बरसाना चाहते हैं,पर स्त्री को मिले कानूनी अधिकारों के आगे बेवश हो जाते हैं।तब वे उसके बहिष्कार का सहारा लेते हैं और यह काम वे उन स्त्रियों के माध्यम से करते हैं,जो पूरी तरह अनुकूलित हैं।