यही सच्चाई है   Ratna Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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यही सच्चाई है  

ढाई वर्ष का चिंटू भूख से तड़प कर रो रहा था। "माँ भूख लगी है," कह कर बार-बार बिमला के आँचल में जाने की कोशिश कर रहा था। बिमला ने उसे आँचल में लेकर दूध से तो लगा लिया किंतु अंदर कुछ होता तो निकलता ना।


भूख से बिलखते हुए बंटी जो चार वर्ष का था, उसने भी रोते हुए कहा, "माँ भूख लगी है"


बिमला ने बच्चों को रोता देख डब्बे में हाथ डाल कर टटोलना शुरू किया। डब्बे के तले को टटोलती उंगलियाँ खाली ही बाहर निकल आईं। वहाँ भी कुछ होता तभी तो मिलता ना। आठ साल के वैवाहिक जीवन में चार बच्चे और पांचवाँ गर्भ में, लाइन लगी हुई थी बच्चों की।


लगातार 7 साल से बच्चों को दूध पिला-पिला कर बिमला सूखी टहनी की तरह दिखाई देती थी, जिसमें कहीं कोई ताज़गी नहीं थी। बच्चों की सारी पसलियाँ दिखाई देने लगी थीं।


बिमला ने परेशान होकर अपने पति विष्णु से नाराज़ होते हुए कहा, "संयम तो नाम मात्र के लिए भी नहीं है तुम्हारे अंदर। लाइन से बच्चे पैदा करते जा रहे हो। मेरा शरीर तो तुमने तोड़ कर ही रख दिया है। बच्चे भूखे मर रहे हैं। आज कल काम-धंधा कुछ है नहीं, जितना जोड़कर मैंने रखा था, महीनों से चली आ रही इस महामारी में सब ख़त्म हो गया। मुझे बार-बार गर्भवती कर देते हो। इतनी छुट्टियाँ लेती हूँ इसलिए कोई भी मुझे काम पर नहीं रखता। मेरे सारे काम छूट गए हैं। अब तो जान पर बन आई है। मोंटू भी 7 साल का ही तो है, भूख कैसे बर्दाश्त करेगा। हम तुम कर सकते हैं लेकिन हम भी कितने दिन भूखे रह सकते हैं। जाओ विष्णु बाहर जाकर काम ढूँढो ? कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ तो मिल ही जाएगा।"


विष्णु अपनी पत्नी की सच्चाई से भरी बातें चुपचाप सुनता रहा। फिर उठ कर बिना कुछ बोले बाहर चला गया। काम की तलाश में इधर-उधर भटकता विष्णु जिस इमारत को देखता सब उजड़े हुए खंडहर की तरह दिखाई दे रही थीं। कहीं कोई मज़दूर दिखाई नहीं देता। सारी अधूरी इमारतें मानो इंतज़ार कर रही हों कि कब कोई आएगा और उनकी आधी अधूरी काया को पूरी करेगा। सारे ऑफिसों में ताले लगे हुए थे। गलियाँ सुनसान थीं, बाज़ार वीरान थे। काम ढूँढें तो ढूँढें कैसे? विष्णु ने हमेशा इमारतों की दीवारों और छतों को बनाने का ही काम किया था। उसके अलावा उसे और किसी भी काम का अनुभव नहीं था।


भटकते हुए उसे शाम हो गई। वह निराश होकर अपने घर की तरफ़ लौट रहा था। भूख से बिलबिलाते बच्चों के रोने की आवाज़ें उसके कानों में गूँज रही थीं । वह आवाज़ें उसे बेचैन कर रही थीं। तभी एक बंगले के सामने कुछ रोटियाँ पड़ी हुई उसे दिखाई दीं। शायद कुत्तों के लिए बाहर रखी गई थीं। उन रोटियों को देखकर विष्णु उस तरफ़ लपका। वह रोटी उठाने ही वाला था कि तभी एक कुत्ता उस तरफ़ आता हुआ उसे दिखाई दिया। विष्णु ने लपक कर रोटियाँ अपने हाथों में ले लीं। कुत्ता उसे देखकर दुम हिलाता हुआ इस उम्मीद में खड़ा हो गया कि उसे कुछ तो ज़रूर मिलेगा।


विष्णु भूख के एहसास को अच्छी तरह जानता था। इंसान हो या जानवर भूख का एहसास सबके लिए एक जैसा ही होता है। उसने देखा छः रोटियाँ हैं, उसने अपने हिस्से की एक रोटी उस कुत्ते को दे दी। कुत्ता ख़ुश होकर रोटी लेकर भाग गया। दूर खड़ा होकर वह रोटी खा रहा था और विष्णु उसे देखकर ख़ुश होता हुआ आगे बढ़ गया। अपने पूरे जीवन में इस तरह सड़क से रोटियाँ उसने पहली बार उठाई थीं। इसलिए उठाई हुई उन रोटियों को देखकर उसकी आँखें नम हो गईं। मन में यह विचार भी आ रहा था कि आज उसने कुछ भूखे कुत्तों का हक़ छीन लिया है, परंतु मरता क्या न करता।


विष्णु धीरे-धीरे अपने घर की ओर चल पड़ा। विष्णु के घर पहुँचते ही बिमला ने पूछा, "क्या हुआ जी? कहीं कोई काम-धंधे का जुगाड़ हुआ क्या?"


"नहीं बिमला कहीं कोई दिखाई नहीं देता। सारी इमारतें खाली खंडहर की तरह पड़ी हैं। उन्हें देखकर यूँ लग रहा था, मानो वह मुझे बुला रही थीं," कहते हुए विष्णु ने अपने हाथ की रोटियाँ बिमला को दीं।


रोटी देते वक़्त विष्णु की आँखों से आँसू टपक कर उन रोटियों पर जा गिरे। रोटियाँ लेते वक़्त बिमला बिना पूछे ही सब कुछ समझ गई। उसने कुछ भी पूछ कर विष्णु को शर्मिंदा नहीं किया। बच्चे रोटियाँ देखकर ख़ुश हो गए। सब ने एक-एक रोटी ले ली, नमक के साथ ही सही उन रोटियों ने भूखे तन और मन को मानो स्वर्गीय सुख का एहसास करवा दिया।


मोंटू छोटा ज़रूर था पर अपने माँ-बाप की भूख का एहसास उसे भी था। उसने जब देखा कि एक ही रोटी बची है, तब उसने अपनी रोटी में से आधी रोटी तोड़ कर विष्णु को दी।


विष्णु ने कहा, "नहीं बेटा तुम खा लो।"


बिमला ने अपने पास से आधी रोटी विष्णु को देते हुए कहा, "अजी अनाज के दो दाने भी पेट को मिल जाएँगे तो हमें जीने का कुछ समय और मिल जाएगा, लो खा लो।"


बिमला विष्णु को टूटता हुआ नहीं देखना चाहती थी। वह जानती थी कि विष्णु कितना अच्छा इंसान है, मेहनती भी है पर भगवान की दी हुई समय की मार के आगे किसका जोर चलता है। विष्णु को कोई गंदी आदत भी नहीं थी। ग़लती उसकी सिर्फ़ इतनी थी कि उसने कभी भी परिवार नियोजन पर ध्यान नहीं दिया और एक के बाद एक बच्चे पैदा करता चला गया।


बिमला जानती थी कि विष्णु टूट गया तो पूरा परिवार टूट जाएगा। वह उसे आत्म बल दे रही थी। उसने अपनी पूरी हिम्मत बटोर कर विष्णु को विश्वास दिलाया, "यह दिन हमेशा ऐसे थोड़ी रहेंगे। समय बदलेगा, रोती इंतज़ार करती इमारतें हँसेगीं और तुम्हें बुलाएँगी ज़रूर।"


रात को बिस्तर पर जाने के बाद बिमला ने विष्णु से कहा, "विष्णु देखो हमारे बाजू वाली पार्वती भाभी के सिर्फ़ दो ही बच्चे हैं। काम धंधा तो उनका भी बंद है, फिर भी उन्हें भूखों मरने की नौबत नहीं आई। हमारे तो चार हैं पांचवाँ आने की तैयारी में है। विष्णु वह इस दुनिया में आकर भी क्या करेगा, ऐसे ही भूखा मरेगा। अब तो छाती से दूध भी नहीं निकलता। मैं सोच रही हूँ उसे निकलवा ही दूँ।"


"यह क्या कह रही हो भागवान? हमें कोई हक़ नहीं इस तरह से उसकी जान लेने का। हमारी ग़लती, नहीं-नहीं मेरी ग़लती थी। मेरी ग़लती की सज़ा उस नादान को क्यों देना चाहती हो। मैं चार के बदले पाँचों को किसी न किसी तरह से पाल लूँगा। मेरा यक़ीन मानो इसके बाद यह ग़लती दोबारा कभी नहीं होगी। आज समय ने हमें यह बता दिया कि इतनी औलादें पैदा करना हर तरह से ग़लत है। ना हम उनका सही ढंग से लालन-पालन कर पा रहे हैं और ना ही उनका पेट भर पा रहे हैं। पार्वती और रामअवतार के दो ही बच्चे हैं, तंदुरुस्त दिखते हैं, सुखी है उनका परिवार। काश हमने भी सोच समझ कर अपना परिवार बढ़ाया होता तो आज हमें यह दिन नहीं देखना पड़ता।"


तीन दिनों से भूखी बिमला उस बच्चे को अब जन्म नहीं देना चाहती थी। भगवान ने शायद उसकी आवाज़ सुन ली और उसे उसी दिन गर्भपात हो गया। इस घटना से बिमला की आँखों से आँसू तो अवश्य बह निकले किंतु मन में ख़ुशी थी कि एक और बच्चे को इस तरह कष्ट देने से अच्छा है भगवान ने ही उसे वापस बुला लिया। विष्णु भी दुःखी था पर हालात ऐसे थे कि बार-बार उनके मन में यह विचार आ रहा था कि भगवान जो भी करता है अच्छे के लिए ही करता है।


उसने बिमला से कहा, "बिमला यदि मैंने अपने परिवार को सीमित रखा होता तो आज हमारे बच्चे भी पेट भर के खा रहे होते। कम से कम भूखे पेट तो कभी नहीं सोते। इस महामारी के दरमियान भी हमारी बचाई हुई पूँजी, छोटे परिवार में अधिक समय तक चलती।"


उसके बाद दूसरे दिन सुबह विष्णु ने सरकारी अस्पताल में जाकर परिवार नियोजन के तहत अपना ऑपरेशन करवा लिया। विष्णु को जहाँ इन काले बादलों के छँट जाने का इंतज़ार था, फिर से पुराने वक़्त जैसा वक़्त आने का इंतज़ार था। वहीं बिमला को एक बंगले में काम मिल गया। भगवान को उन पर दया आ गई और भाग्य ने साथ दे दिया, उनकी रोज़ी-रोटी चलने लगी।


जब हताश निराश विष्णु जो हर रोज़ काम ढूँढने के बाद खाली हाथ घर लौटता। तब बिमला उसकी हिम्मत बँधाती। उसे कहती, "विष्णु अब तो मुझे काम मिल गया है। तुम चिंता मत करो, अब हमारे बच्चे कभी भूखे नहीं सोएँगे। यह समय ही तो है विष्णु, गुज़र जाएगा।"


विष्णु और बिमला चाहते थे कि उन्होंने अपने जीवन में जो ग़लती करी वह उनके बच्चे कभी ना करें। इसलिए उन्होंने शुरू से अपने बच्चों को छोटे परिवार का महत्त्व समझाया। चार बच्चों को आधा पेट खिलाने के बदले दो को भरपेट खिलाओ, यह सिखाया। तभी बच्चे भी चैन और सुकून से रह सकेंगे और माता-पिता को भी तनाव मुक्त जीवन जीने को मिलेगा। यही सच्चाई है और इस सच्चाई को सभी को मानना ही चाहिए। इसी में परिवार के साथ-साथ देश की भी भलाई है।



रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक