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वेश्या का भाई - भाग (२०)

माई की कहानी सुनकर सबका मन द्रवित हो आया और तब रामजस बोला....
तो ये है आपके विजयलक्ष्मी से भाड़ लगाने वाली माई तक के सफर की कहानी,महलों में रहने वाली ऐसे दर-दर की ठोकरें खाती रही और इस पापी समाज को जरा भी दया ना आई,वो पति जिसके सहारे एक औरत अपना सबकुछ छोड़कर उसके पास आती है और वो गैरों की बातों में आकर उसका निरादर करके घर से निकाल देता है,यहाँ तक जन्म देने वाले बाप से भी एक बार बेटी का दर्द पूछा ना गया,छी...घिन आती है ऐसे लोगों पर जो समाज की दुहाई देते रहते हैं और खुद पराई औरतों के पल्लू में अपनी रातें गुजारते हैं,
वें दूसरों को पदभ्रष्टा कहने वाले क्या कभी अपने गिरेबान में झाँककर देखते हैं कि वें कितने दूध के धुले हैं,उनको लगता है कि उनकी दौलत उनकी चरित्रहीनता और निर्दयता को ढ़क देती है लेकिन ऐसा नहीं है,जमीन पर रहने वाला इन्सान चाहे भले ही उसके अवगुणों को अनदेखा कर दें लेकिन वो ऊपरवाला सब देखता है और उसके कर्मों की सजा भी निर्धारित करके रखता है....
तुम सही कहते हो रामजस! मंगल ने रामजस की बात का समर्थन करते हुए कहा....
लेकिन बेटा! सब कुछ खतम हो जाएं उसके बाद न्याय मिले तो ऐसे न्याय का क्या फायदा? माई बोली।।
बात आपकी सही है लेकिन देर-सबेर कर्मो का हिसाब तो देना ही पड़ता है,रामजस बोला।।
सही कहा तुमने,मंगल बोला।।
वो तो अब राम ही जाने,चलो बेटा! अब तुम दवा खाकर आराम करो,मैं भी थोड़ी देर लेट जाती हूँ,माई बोली।।
ठीक है और मैं तब तक बरतन धो लेती हूँ,शकीला बोली।।
चलो मैं बरतन धोने के लिए कुएँ से पानी भर देता हूँ,मंगल बोला।।
और फिर शकीला सारे बरतन उठाकर बाहर आ गई और तब तक मंगल कुएँ से दो बाल्टी पानी भर लाया...
शकीला बरतन धोने बैठ गई तो मंगल भी वहीं बाड़े में पड़ी चारपाई पर बैठ गया तब शकीला बोली...
बहुत बहुत शुक्रिया तुम्हारा,
शुक्रिया किस बात के लिए मोहतरमा! मंगल ने पूछा।।
परिवार का सुख दिलाने के लिए,शकीला बोली।।
मैनें कुछ नहीं किया,तुम ने हिम्मत दिखाई हम लोगों के साथ आने के लिए,मंगल बोला।।
तुमने मुझे हिम्मत दी तभी तो मैं वहाँ से निकल पाई,शकीला बोली।।
तो अब अच्छा लग रहा है यहाँ,मंगल ने पूछा।।
आजादी किसे प्यारी नहीं होती ,पंक्षी चाहें लाख सोने के पिंजरें में कैद रहें लेकिन उसे पेड़ की डाली ही भाती है,शकीला बोली।।
तो अब आजाद होकर क्या करोगी आगें? मंगल ने पूछा।।
अभी तो नहीं सोचा,लेकिन मन में एक बात जरूर आती है,शकीला बोली।।
वो क्या भला? मंगल ने पूछा।।
कि काश कोई भला लड़का मिल जाता तो उससे शादी करके उसका घर सँवारती,उसके लिए खाना बनाती और जब वो थकाहारा घर आता तो उसके पैर दबाती,उसका सिर दबाती और उससे उसके सारे दर्द बाँट लेती,शकीला बोली।।
तो क्या तुम मेरे दर्द बाँटने को तैयार हो बोलो?मंगल ने पूछा।।
मतलब क्या है तुम्हारा? शकीला ने पूछा ।।
यही कि क्या तुम मुझसे शादी करोगी? मंगल ने पूछा।।
क्या सच में मेरा ये सपना पूरा हो सकता है?शकीला बोली।।
सच! बोलो! क्या मैं तुम्हें पसंद हूँ? मंगल ने पूछा।।
लेकिन मैं एक तवायफ़ हूँ,शकीला बोली।।
तवायफ़ थी,अब नहीं हो,बोलो थामोगी मेरा हाथ,बनाओगी मेरे लिए खाना,मंगल ने पूछा।।
उन दोनों की बातें कुशमा खड़ी होकर सुन रही थी तभी वो शकीला से बोली....
सोचती क्या है?हाँ बोल दें,तू ही तो कहती थी कि तुझे मंगल भइया बहुत पसंद हैं,
अब मैं क्या बोलूँ? शकीला बोली।
हाँ! बोल दे पगली!ऐसा मौका फिर ना मिलेगा,कुशमा बोली।।
और फिर "हाँ" कहकर फौरन ही शकीला झोपड़ी के भीतर भाग गई।।
उसे देखकर कुशमा हँसते हुए बोली....
देखा! भइया! कैसे शरमा गई।।
आजा पहले तुझे सीने से लगा लूँ,जी भर कर देख तो लूँ अपनी बहन को,ये कहते कहते मंगल की आँखे़ आँसुओं से भर आई....
और फिर भइया कहकर कुशमा,मंगल के गले लग गई,तब मंगल बोला....
कहाँ-कहाँ नहीं ढ़ूढ़ा तुझे,अब जाकर मिली है,अब तुझे कहीं भी ना जाने दूँगा,कभी भी अपनी आँखों से ओझल ना होने दूँगा,
तब कुशमा ने मंगल से पूछा....
भइया! मुझसे तो कहा गया था कि तुम और माँ-बाबा मर गए हैं।।
फिर मंगल ने उस रात की आपबीती कुशमा को बताई,दोनों बहन-भाई काफी देर तक अपने सुख-दुःख बाँटते रहे,दोनों ने रोकर अपने मन का दर्द हल्का कर लिया।।

दोपहर से साँझ होने को आई थी,सूरज ढ़ल चुका था,तब माई बोलीं....
चलो बच्चियों खाने की तैयारी कर लेते हैं,दोनों बोली ठीक है माई...
तब शकीला ने पूछा....
माई! क्या बनाएं खाने में?
माई ने पूछा....
क्या तुम सबको कढ़ी पसंद है?
सबने कहा,हाँ!
तो माई बोली,कल का छाछ रखा और कल ही तो सुबह मैनें चकरी से बेंसन पीसा था,तो कढ़ी-पकौड़ी बना लेते हैं।।
लेकिन मुझे तो कढ़ी बनानी नहीं आती,कुशमा बोली।।
और मुझे भी नहीं आती,शकीला भी बोली।।
तो मुझे तो आती है,मैं कढ़ी-पकौड़ी बनाए देती हूँ ओर तुम दोनों फुलके सेंक लेना,थोड़े चावल पडे़ हैं वो भी पका लेगें,माई बोलीं।।
ठीक है तो मैं तब तक सिलबट्टे में कुछ मिर्च और हल्दी पीस लेती हूँ,शकीला बोली।।
ये ठीक कहा तुमने शकीला बहन!जब तक कढ़ी चटपटी ना हो तो मज़ा नहीं आता,रामजस बोला।।
अच्छा लगता है जब तुम मुझे बहन बुलाते हो,शकीला रामजस से बोली।
मुझे भी तुम्हें बहन बुलाते अच्छा लगता है,रामजस बोला।।
और फिर शकीला की आँखें छलछला आईं और वो अपनी आँखों को छुपाते हुए,मिट्टी की छोटी सी मटकी से मसाले निकालने लगी और सिलबट्टे के पास आकर पीसने बैठ गई,तब मंगल बोला....
तब तक मैं सभी खाली घड़े कुएं से भर लेता हूँ और कुशमा आटा गूंथने बैठ गई,सभी अपने अपने काम में लग गए थे,ये देखकर माई बोली.....
आज ये झोपड़ी घर जैसी लग रही है,सब इन्सानों की माया है,अभी यही झोपड़ी कल तक मुझ अकेली को काटने दौड़ती थी।।
और झोपड़ी से बाहर तक हँसने और बोलने की आवाज़े आ रहीं थीं...
मंगल ने कुएं से पानी ला लाकर सभी घड़े भर लिए थे और तब तक माई की कढ़ी-पकौड़ी भी तैयार हो चुकी थी,वो अब हरी मिर्च तल रही थीं,जब उन्होंने मिर्चें तल लीं तो वें बोलीं....
चलो अब तुम दोनों फुलके सेंकना शुरू कर दो।।
कुशमा ने माई,मंगल और रामजस की थालियाँ परोस दीं और फुलके सेंकने बैंठी,वे दोनों गरम गरम फुलके सेंक सेंककर सबको परोसतीं जा रहीं थीं,कुछ ही देर में सबका खाना हो गया तो कुशमा और शकीला खाने बैठ गईं....
खाना खाने के बाद शकीला बोली....
चल मैं बाहर से बरतन धो लाती हूँ,
तब कुशमा बोली....
सुबह के बरतन तो तूने धोए थे ,अब मैं धो लेती हूँ और फिर कुशमा बाहर बरतन धोने आ गई,बाहर चारपाई पर रामजस बैठा था,वो चाँद-तारों को निहार रहा था,जब कुशमा बाहर आई तो वो उसे देखने लगा....
चाँदनी रात थी चाँद की रोशनी एक अलग ही छटा बिखेर रही थीं,चाँद की रोशनी में कुशमा का रूप और भी निखर कर आ रहा था,जब कुशमा जोर लगाकर बरतन रगड़ती तो उसकी एक लट उसके चेहरें पर आ जाती,वो उसे पीछे करती तो वो फिर सामने आ जाती,ये देखकर रामजस को हँसी आ गई....
तब कुशमा बोली....
ए...तुम हँसते क्यों हो?
बस! यूँ ही ,रामजस बोला।।
अपनी बत्तीसी जरा सम्भालकर रखो,कुशमा बोली।।
लोगों से अपने बाल तो सम्भाले नहीं जाते और मुझे मेरी बत्तीसी सम्भालकर रखने का ज्ञान दिया जा रहा है,रामजस बोला।।
क्या बोले तुम? कुशमा ने पूछा।
जी! कुछ नहीं! मैं तो कह रहा था कि चाँद कितना खूबसूरत है,रामजस बोला।।
हाँ...हाँ...मुझे सब पता है,कुशमा बोली।।
क्या पता है आपको?रामजस ने पूछा।।
कुछ नहीं,चुप रहो,कुशमा बोली।।
ये कैसा जवाब हुआ भला?रामजस बोला।।
खाना खा चुके हो ना!पेट तो भर चुका है ना! कुशमा ने पूछा।।
जी! हाँ! खा चुका हूँ,पेट भी भर चुका है,रामजस बोला।।
तो फिर मेरा दिमाग़ क्यों खाते हो? कुशमा ने पूछा।।
आपके पास दिमाग़ है भी,रामजस ने पूछा।।
तुम घड़ी भर चुप नहीं रह सकते,कुशमा बोली।।
जी !तो आपके कहने पर चुप हो जाता हूँ,रामजस बोला।।
और फिर रामजस चुप हो गया....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....


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