Vaishya ka bhai - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

वेश्या का भाई - भाग(१९)

सबको दवाखाने से लौटते-लौटते दोपहर हो चुकी थी,सबके मन में हलचल भी मची थी कि माई अंग्रेजी में गोरे डाक्टर से क्या गिटर-पिटर कर रही थी ?क्योकिं चारों में से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था,किसी को ना तो हिन्दी पढ़नी और ना ही हिन्दी लिखनी आती थी अंग्रेजी तो दूर की बात थी,बस शकीला और कुशमा को ऊर्दू इसलिए आती थी कि उन्हें गुलनार ने ऊर्दू पढ़ना सिखवाया था एक मदरसे के मौलवी साहब से,चूँकि दोनों को गजलों की किताबें पढ़नी होतीं थी इसलिए....
सभी झोपड़ी में दाखि़ल हुए,सबसे पहले कुशमा ने सबको घड़े का ठण्डा पानी पिलाया फिर सब सुस्ताने जा बैठे,तब मंगल ने बड़ी हिम्मत करके पूछा....
माई! जो तुम गोरे डाक्टर से अंग्रेजी में गिटर-पिटर कर रही थीं तो ऐसा देखकर लगता है कि तुम बहुत ही ऊँचे घराने से ताल्लुक रखती हो,पता नहीं कौन से हालातों ने तुम्हें यहाँ लाकर पटक दिया जो तुम्हें भाड़ लगाकर जीवन-यापन करना पड़ रहा है...
बस,मंगल बेटा !हालातों की मारी हूँ,ऊपर से पति के घर से निकाली गई औरत,इस दुनिया में औरत का कोई मोल नहीं फिर वो चाहें कितनी भी काबिल क्यों ना हो?माई बोली।।
माई! हमें नहीं बताओगी अपनी आपबीती,शकीला बोली।।
क्या करोगें जानकर तुम सब? माई बोलीं।।
माई! मन की बात कहने से मन हल्का होता है,रामजस बोला।।
मन मे पड़े पुराने छालों को फोड़ने से दर्द कम नहीं होता बढ़ जाता है,माई बोली।।
शायद हम आपके पुराने छालों पर मरहम लगा सकें,मंगल बोला।।
बेटा!पुराने छाले हैं,अब उन पर कोई भी मरहम असर करने वाला नहीं,माई बोली..
माई!हर दर्द की दवा होती है,शायद तुम्हारे जख्मों की भी कोई दवा मिल जाएं,कुशमा बोली।।
तुम लोंग इतनी जिद़ ही कर रहे हो तो लो सुनो मेरी भी कहानी सुन लो और फिर माई ने अपनी रामकहानी शुरू की....
मैं विजयलक्ष्मी एक क्षत्रिय परिवार में दो बड़े भाइयों के बाद जन्मी,मेरे दादा-परदादा खानदानी रईस थे,मेरे पैदा होते ही मेरी माँ चल बसी,तब से कभी भी मेरे पिता ने मेरा चेहरा नहीं देखा,वें मुझे मनहूस कहते थे क्योकिं मेरे पिता मेरी माँ से बहुत प्यार करते थे और मेरे पैदा होते ही उनकी पत्नी उनसे दूर हो गई थी इसलिए इस सबका कारण वें मुझे ही मानते थे,पिताजी को सबने दूसरी शादी करने के लिए कहा लेकिन वें नहीं माने।।
मुझे मेरी दादी हीरामनी ने माँ का प्यार दिया,उन्होंने ही मुझे पालपोसकर बड़ा किया,मेरी सभी इच्छाओं की पूर्ति की,मुझे उन्होंने घर के काम भी सिखाएं और पिता का प्यार मुझे मेरे दादा अष्टभुजा सिंह ने दिया,दोनों का सानिध्य पाकर मैं बड़ी हो रही थी।।
फिर दादाजी ने मुझे मेरे बड़े भाइयों के तरह ही कान्वेन्ट स्कूर में दाखिला दिलवाया,जबकि मेरे पिता भानसिंह ये नहीं चाहते थे कि मैं पढ़ू लेकिन दादा जी की वजह से उनकी एक ना चल सकी,मैं पढने में बहुत होशियार थी,कोई भी सबक यूँ चुटकियों में याद कर लेती थी और जब मैं आठवीं में थी तो तब मेरी दादी बीमारी से चल बसीं...
मैं बहुत उदास रहने लगी दादी के जाने बाद दादा जी भी दादी के ग़म में भीतर ही भीतर घुलने लगे,उनकी मनोदशा अच्छी ना थी,जिस साल मैंने हाईस्कूल पास किया तो दादा जी भी हृदयाघात से चल बसें,अब मैं बिलकुल अकेली पड़ गई थी,दोनों भाइयों को पिताजी ने पढ़ने के लिए विलायत भेज दिया था।।
और मेरे पिता ने मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए मेरा ब्याह तय कर दिया,मुझे कुछ भी पता नहीं था कि मेरा ससुराल कैसा है? वहाँ के लोंग कैसें हैं? और सबसे बड़ी बात की मेरा पति कैसा है?बस उनका नाम पता था कि उनका नाम चन्द्रेश प्रताप सिंह है ,मेरे पिता ने मेरे भाइयों तक को नहीं बताया कि वें मेरा ब्याह कर रहे हैं और सोलह साल की उम्र में मुझे उन्होंने विदा करके ससुराल भेज दिया।।
वहाँ पहुँचकर मैं मोटर में अपने दूल्हे के साथ गठरी बनी बैठी थी,तभी कुछ औरतें आईं और मुझे मोटर से उतार कर ले गईं और कुछ नेगचार निभाने के उपरांत मुझे नौकरानी के साथ मेरे कमरें में भेज दिया गया,कुछ ही देर में एक दूसरी नौकरानी मेरे लिए जलपान लेकर आ गई और तभी दरवाजे से एक औरत ने प्रवेश किया,जो कि बानारसी साड़ी और गहनों से एकदम लदी हुई थी,मुँह में पान दबा था पान की वजह से उनके होंठ बसंती रंग के हो चुके थे और मुझसे आकर बोली.....
मैं तुम्हारी सास अरून्धती हूँ.....
मैं उन्हें देखकर आश्चर्यचकित थी कि मेरी सास और इतनी जवान,तभी वें बोलीं....
मैं तुम्हारी सौतेली सास हूँ,तुम्हारी असली सास तो कब की स्वर्ग सिधार चुकीं हैं, जल्दी से ये जलपान गृहण करो,फिर मुँहदिखाई की रस्म करनी है,वैसे चाँद का टुकड़ा हो तुम,भगवान ने रूप तो झोली भरकर दिया है तुम्हें,अब मुझे ये नहीं पता था कि वो ताना था या मेरी तारीफ़....
मुँहदिखाई की रस्म हुई तो सभी औरतें बोलीं....
बहु तो लाखों में एक है,स्वर्ग की परी लगती है।।
लेकिन मेरी सौतेली सास बोली....
अभी नई नई जवानी है,इसलिए ज्यादा खिल रही है,अभी चन्द्रेश की मुट्ठी में आएगी तो एक ही रात में मसल कर रख देगा,सब अरमान और खूबसूरती धरी की धरी रह जाएगी इतना आसान नहीं है इस खानदान की बहु बनना।।
मैनें सोचा कि मेरे पति चन्द्रेश प्रताप सिंह क्या इतने बुरे हैं?जैसा कि मेरी सौतेली सास कह रहीं हैं,लेकिन जब मेरी मेरे पति से पहली मुलाकात हुई तो सौतेली सास की बातें सच्ची लगीं,जैसा उन्होंने कहा था वें उससे भी ज्यादा बततर थें,शराब के नशे में वें कमरें में आएं और......
अब मैं इसके आगें नहीं कह सकती,मैनें उन सबको अपनी नियति मान किस्मत से समझौता कर लिया और उस परिवेश में ढ़लने का प्रयत्न करने लगी,लेकिन मैं जितने भी समझौते करती जाती तो मेरे ऊपर और भी सबकुछ हावी होता जाता।।
मुझे अपनी जिन्द़गी से कोफ्त सी होने लगी थी,बस कभी थोड़ा बहुत दिलासा मिलता तो आजी सास से,वें मेरे सिर पर हाथ रखकर कहतीं....
घबरा मत बेटी!तू जहन्नुम में फँस गई हैं और यहाँ तेरी मदद करने जन्नत से कोई फरिश्ता नहीं आएगा,तुझे आप ही अपनी मदद करनी होगी।।
मेरे ससुर और मेरे पति अव्वल दर्जे के अय्याश किस्म के इन्सान थे,ससुर जी ने इस उम्र में दूसरी शादी की थी और मैनें कई बार अपनी सौतेली सास को अपने आशिक से मिलते देखा था,लेकिन मैं सब अनदेखा कर रही थी,मैनें सोचा मुझे क्या लेना देना? मेरी जिन्द़गी कौन सी बहुत अच्छी चल रही है हफ्तों हो जाते हैं मेरा पति मेरे कमरें में नहीं आता,मैं कभी सिलाई-बुनाई करती तो कभी बेल-बूटे काढ़ती,जितनी किताबें घर में थी तो उन्हें कई बार पढ़ चुकी थी और नई किताबें लाने वाला कोई नहीं था।।
तभी एक रोज विलायत से मेरे पति के दोस्त घनश्यामदास लौटे और हमारे घर मिलने आएं उन्हें दावत पर मेरे पति ने बुलाया था और उस दिन मेरे पति ने हिदायत दी कि आज रात का सारा खाना तुम बनाओगी,खाना बहुत ही उम्दा और जायकेदार होना चाहिए।।
उस रात मैनें सारा खाना बनाया घनश्यामदास जी ने खाना खाया और खाने की तारीफ़ों के पुल बाँधते हुए कहने लगें....
खाना बहुत ही उम्दा बना है चन्द्रेश! अपने जैसा खानसामा मेरे लिए भी ढूढ़ दो।।
यार! ये खाना तो तेरी भाभी ने बनाया है,मेरे पति चन्द्रेश बोले।।
यार! तूने शादी कब कर ली बताया ही नहीं?घनश्यामदास बोले।।
बहुत जल्दबाजी में शादी हुई,इसलिए बुला नहीं पाया,चन्द्रेश बोले।।
तो भाभी से तो मिलवा दे,घनश्यामदास जी बोले।।
मेरे पति मुझे भीतर से बुलाकर ले गए और मेरा घनश्यामदास जी से परिचय करवाया,घनश्यामदास जी ने बड़े आदर के साथ मेरा परिचय पूछा तो मैने सब कुछ बिना हिचके बता दिया,तब वें बोले...
बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर...
मुझे भी आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई,मैं बोली।।
फिर उन्होंने पूछा....
भाभी! क्या आप पढ़ने का शौक रखती हैं?
मैनें कहा,जी! मुझे पढ़ना बहुत पसंद है....
तब मेरे पति बोले....
बस, यार! हो गई ना तेरी भाभी से मुलाकात,अब कुछ बातें मुझसे भी कर ले ,इतने दिनों बाद मिला है,
और मुझसे उन्होंने इशारे से कहा कि तुम भीतर जाओ।।
और फिर उस दिन के बाद घनश्यामदास जी यदा कदा घर आने लगें और कोई ना कोई किताब मेरे पढ़ने के लिए ले आते,वें बहुत दरियादिल और हँसमुख इन्सान थे,वें मेरे पति से मिलने घर आते थे लेकिन मेरे पति तो ज्यादातर घर से बाहर ही रहते थे इसलिए उनकी मुलाकात उनसे नहीं हो पाती थी।।
इसलिए वें मुझसे मिलने मेरे कमरें में चले आते,कुछ देर बैठते फिर चाय पीकर चले जाते,दिन ऐसे ही गुजर रहे थे और एक दिन मैं अपने कमरें में अकेली बैठी थी,मेरे कमरें का दरवाजा खुला था ,तभी मैनें एक आदमी को सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जाते देखा तो मैने चोर....चोर...करके शोर मचा दिया और वो आदमी पकड़ा गया,जब मैने उस आदमी को पास से देखा तो पता चला कि वो तो मेरी सौतेली सास का आशिक था,इस बात से मेरी सौतेली सास मुझसे खफ़ा हो गई और मुझसे बोली....
मैं जानती हूँ कि तुझसे मेरा सुख देखा नहीं जाता इसलिए तूने जानबूझकर ऐसा किया है और मैं इस बात का बदला तुझसे जरूर लेकर रहूँगी याद रखना।।
मैनें उनसे कहा कि छोटी माँ ये मुझसे भूलवश हुआ है मुझे लगा कि कोई अन्जान आदमी है...
लेकिन उन्होंने मेरी एक ना सुनी और मेरी इस गल्ती को जी से लगा बैठीं,वैसे भी वो मुझसे कम बात करतीं थीं अब उन्होंने मुझसे बिल्कुल भी बात करना छोड़ दिया,मैनें उन्हें कई बार मनाने की भी कोश़िश की लेकिन वें नहीं मानी।।
मेरे पति को तो मुझसे बात करने की कभी फुरसत ना रहती थी,यदा-कदा उनके दर्शन हो जाएं तो मेरे लिए सौभाग्य की बात होती थी,मैनें सुना था कि कोई खूबसूरत सी औरत थी जिनके घर वो जाते थे,मेरे पति ही उस औरत का सारा खर्च उठाते थे और एक मकान भी खरीद कर दिया था उसके लिए जहांँ वो रहती थी,मुझे ये सब घर की नौकरानी कम्मो ने बताया था।।
कम्मो थी बहुत अच्छी ,विधवा हो गई थी इसलिए उसके देवर ने उसके सिर पर चुनरी डाल दी थी,लेकिन जब उसके कोई सन्तान ना हुई तो देवर ने दूसरी औरत से ब्याह कर लिया,इसलिए उसने वो घर छोड़ दिया और हवेली में काम करने लगी थी।।
फिर एक दिन मेरे पति के मित्र घनश्यामदास जी कुछ किताबें लेकर आएं मेरे पढ़ने के लिए,मैं तब चादर पर बेलबूटे काढ़ रही थी,उन्होंने मुझे मेरे कमरें के बाहर से ही आवाज़ दी....
भाभी...भाभी...देखिए मैं आपके लिए कितनी सारी किताबें लेकर आया हूँ....
मैनें उन्हें देखा और बोली....
आइए...आइए...भीतर आ जाइए....
वें भीतर आकर मुझसे बातें करते हुए किताबें दिखा ही रहें थें कि किसी ने मेरे कमरें के किवाड़ बंद करके बाहर से कुण्डी लगा दी,मैंने देखा तो बोली....
कौन है बाहर किसने कुण्डी लगाई...?
लेकिन किसी ने कोई जवाब ना दिया,मैं आधे घंटे तक आवाज देती रही लेकिन किसी ने भी कमरे के किवाड़ ना खोले....
और जब किवाड़ खुले तो कमरें के बाहर मेरे ससुर,मेरे पति और घर के सभी नौकर मौजूद थे साथ में सौतेली सास भी थी फिर उन्होंने अपनी विषैली जुबान से जो ज़हर उगला तो एक पल को मैं सन्न रह गई....
उन्होंने कहा...
देखो दोनों की करतूतें,दरवाजा बंद करके क्या हो रहा था?देखिए ना आपकी बहु कितनी गिरी हुई और भ्रष्ट औरत है,ये तो हर रोज का तमाशा हो गया है,जब भी घनश्याम बाबू यहाँ आते हैं तो महारानी जी के कमरे के कपाट यूँ ही बंद हो जाते हैं,मैं तो ये रोज रोज देख के तंग आ चुकी थी इसलिए सोचा कि आज आप सबको भी ये तमाशा देख ही लेने दो....
मेरी सौतेली सास की बात सुनकर घनश्यामदास जी चीखकर बोलें....
ये क्या कह रही हैं आप छोटी काकी? भाभी और मैं एकदम निर्दोष हैं,हमने कोई पाप नहीं किया,मैं तो केवल इन्हें किताबें देने आया था,तभी मेरे भीतर जाते ही किसी ने कमरें के किवाड़ बाहर से बंद कर दिए....
तभी मेरे पति चन्द्रेश ने घनश्याम बाबू के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया और बोले...
निर्लज्ज...चरित्रहीन....मेरे ही घर में घुस कर मेरी ही आबरू पर हाथ डालता है,निकल जा यहाँ से और अगर दोबारा इस गाँव में और इस गाँव के आस पास दिखा तो तेरी खाल खिचवा लूँगा...
इतना सुनते ही घनश्याम बाबू आँखों में आँसू लिए चले गए....
मेरी आजी सास ने मेरी सफाई पेश करनी चाही लेकिन उनकी भी किसी ने ना सुनी और वें बस रोतीं ही रह गईं..
लेकिन मेरा जो उस समय हाल किया गया वो मैं नहीं कह सकती,उस दिन मेरे पति ने मुझे लहुलुहान कर दिया फिर फौरन मोटर में बैठाकर मुझे मेरे मायके ले गए और मेरे पिता से कहा....
आपकी बेटी चरित्रहीन और भ्रष्टा है,इस कलंकिनी ने मेरे दोस्त के साथ मुँह काला किया है और ना जाने कितनों के साथ मुँह काला कर चुकी होगी,मैं इस पदभ्रष्टा को अपने साथ अब और नहीं रख सकता ,मेरे घर में अब इसके लिए कोई जगह नहीं...
और इतना कहकर मेरे पति चले गए....
उस वक्त मेरे पति की बात सुनकर मेरे पिता का खून खौल गया और उन्होंने मेरी सफाई सुने बिना ही मुझे घर से निकाल दिया,मैं दिनभर दरवाजे पर पड़ी रही लेकिन उन्होंने किवाड़ नहीं खोलें,रात भी हो गई और रात से फिर दिन निकल आया लेकिन मेरे पत्थर दिल पिता का दिल नहीं पिघला।।
तब मैं क्या करती ? मैनें उनका घर छोड़ दिया और गाँव से दूर पक्के रास्ते पर आकर बस में बैठी और शहर चली आई,मैने जितने भी गहने पहने हुए थे वो एक एक करके बेचकर अपना खर्चा चलाती रही फिर मैनें एक कमरा किराएं पर लिया लेकिन वहाँ का मकानमालिक मुझ पर गलत नज़र रखता था इसलिए मैनें वो कमरा छोड़ दिया,स्कूल में काम माँगने गई,काम तो मिल गया लेकिन अंग्रेजों के स्कूल थे तो वहाँ की मैडम हिन्दुस्तानी होने के नाते मुझे हेय दृष्टि से देखतीं थीं,मेरा बार बार अपमान करतीं थीं जो मुझे असहनीय था इसलिए मैनें स्कूल भी छोड़ दिया....
अकेली औरत के लिए शहर में जीना दूर्भर हो गया,पुरूषों की गंदी निगाहें मुझे कहीं ना कहीं खोजते हुए आ ही जातीं,फिर एकमात्र सहारा मुझे नारीनिकेतन ही दिखा लेकिन वहाँ भी औरतों का कारोबार जोरो पर था इसलिए मैं रातोंरात भागकर इस गाँव में आ गई,भूखी प्यासी पेड़ के नीचें पड़ी तभी एक बुढ़िया मेरे पास आई और उसने पूछा....
बेटी! क्या हुआ? तबियत ठीक नहीं।।
तब रोते हुए मैने अपनी रामकहानी उन्हें सुना दी,तब वें बोलीं....
चुप हो जा बेटी! जिसका कोई नहीं होता उसका ऊपरवाला होता है,तू मेरे झोपड़े में चल,मैं अकेली रहती हूँ,बेटा बहु मुझे छोड़कर शहर में बस गए हैं,पति गुजर चुके हैं,तू मेरा सहारा बन जा और मैं तेरा सहारा बन जाती हूँ,भाड़ लगाकर गुजारा करती हूँ,जो भी रूखी सूखी मिलेगी तो मिल बाँटकर माँ बेटी खा लेगें और फिर मैं उन बूढ़ी माँ के साथ इसी झोपड़े में रहने लगी,सालों पहले वें भगवान को प्यारीं हो गई और फिर उनका भाड़ मैं लगाने लगी....
इतना कहते कहते माई की आँखें भर आईं....

क्रमशः...
सरोज वर्मा.....


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