कहानी कुछ इस तरह थी- बसंती एक काम वाली बाई है जो कई घरों में काम करती है। वह गरीब है इसलिए मेहनत में कोई कोताही नहीं करना चाहती।
मोहल्ले भर के अधिकांश घरों में वह काम करती है। वह बेहद फुर्तीली भी है जो काम से कभी थकती नहीं। आसपास की लगभग सभी गृहिणियां उस पर किसी न किसी रूप में अवलंबित हैं। वह उनके छोटे - मोटे कामों के लिए समायोजन करती हुई फिरकी की तरह मोहल्ले में नाचती है।
ये कहानी सुन कर सभी महिलाएं भीतर तक अभिभूत हो गईं। श्रीमती चंदू ने तो मन ही मन ये कल्पना भी कर डाली कि काश उन्हें भी ऐसी ही बाई मिले।
श्रीमती वीर का ध्यान तो यहां तक चला गया कि उन्हें फ़िल्म में कोई रोल मिले या न मिले, वो ये फ़िल्म देखेंगी ज़रूर और इतना ही नहीं बल्कि हो सका तो अपनी बाई को भी दिखाएंगी।
पर श्रीमती कुनकुनवाला की उम्मीदों पर तो कुठाराघात ही हो गया। हो न हो, फ़िल्म की नायिका तो ये बसंती ही होगी। अर्थात हीरोइन के रोल का मतलब है फ़िल्म में काम वाली बाई बनना।
चलो, फ़िल्म तो आख़िर फ़िल्म है, हीरोइन को स्क्रीन पर ही तो काम वाली बाई बनना पड़ेगा, पर इसकी तो शूटिंग में भी लगातार फटे - पुराने कपड़े पहन कर बर्तन ही घिसने पड़ेंगे कैमरे के सामने। हीरोइन वाले ग्लैमर की तो कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं।
हां, कभी किसी मालकिन के शहर से बाहर शादी - ब्याह में जाने पर अचानक मिली छुट्टी में डायरेक्टर किसी बाग़- बगीचे में कोई गाना - वाना फिल्मा ले तो बात अलग है।
अरे, श्रीमती कुनकुनवाला भी कल्पना में ही कहां से कहां पहुंच गईं। पहले कहानी तो पूरी हो। फ़िर नसीब अच्छा हुआ तो प्रोड्यूसर साहब सलेक्ट करें... अभी से कहां ज़मीन -आसमान के कुलाबे मिलाने लगीं?
कहानी सभी को बेहद पसंद आ रही थी किंतु इस कहानी का अंत बड़ा दर्दनाक था। ये अंत ग़रीबों पर अमीरों के अत्याचार को दर्शाता था। ये उस दौर की वास्तविकता भी थी। जो दुर्बल है, मजलूम है, उसका हित सोचने वाला कोई नहीं। सब अपने अपने हित, अपने अपने स्वार्थ के अनुसार ही सोचते हैं।
इस कहानी की नायिका के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है कि युवावस्था की सीमा को लांघती हुई इस परिश्रमी औरत को जीवन में एक सुख जब हल्की सी झलक दिखाता है तो अपने अपने स्वार्थ में लिप्त इस घरेलू नौकरानी की तथाकथित मालकिनें ही उसकी दुश्मन बन जाती हैं और ये नहीं चाहतीं कि उनकी ये सेविका विवाह कर के कहीं और चली जाए। वे ऐसी परिस्थितियां पैदा करती हैं कि उसकी सगाई टूट जाती है।
ओह, हृदय विदारक अंत। श्रीमती अरोड़ा तो पनीर पकौड़ा हाथ में लिए- लिए ही सिसकने लगीं।
सभी महिलाओं का इस बात से तो मोहभंग हो ही चुका था कि इस फ़िल्म में काम करके वो कोई ग्लैमर वर्ल्ड में कदम रखने में कामयाब हो जाएंगी। उन्हें सुबह से अपने मेकअप और पहनावे को लेकर की गई मेहनत तो बेमानी लग ही रही थी, वो इस बात को लेकर आशंकित थीं कि आज के समय में ऐसी उपदेश देने वाली फ़िल्म कहीं कोई उबाऊ डॉक्यूमेंट्री बन कर न रह जाए।
कुछ देर बाद प्रोड्यूसर साहब और उनके साथ आए डायरेक्टर महोदय तो चले गए किंतु पार्टी में बैठी रह गई उन शेष महिलाओं को भी जैसे सांप सूंघ गया। किसी को नहीं सूझ रहा था कि क्या बोले।
खान- पान के बाद सभा विसर्जित होने लगी। ये तय किया गया था कि कुछ दिन बाद वो लोग फ़िर से आयेंगे और तब कार्यवाही आगे बढ़ सकेगी।
फ़िल्म की बात से ध्यान हटते ही सबको अपनी- अपनी समस्या याद आ गई और बिना किसी ठोस नतीजे पर पहुंचे बैठक समाप्त हुई।