बसंती की बसंत पंचमी - 8 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बसंती की बसंत पंचमी - 8

धीरे- धीरे दिन निकलते जा रहे थे। दुनिया बदलती जा रही थी। घर - घर की कहानी एक सी ही होती जा रही थी। परिवार सिमट- सिकुड़ कर घर में ही कैद रह गए थे।
लोग भूलने लगे थे कि कभी उनके पास घर के कामकाज के लिए घरेलू नौकर, ड्राइवर, काम वाली बाई आदि हुआ करते थे।
श्रीमती कुनकुनवाला भी कई दिन तक बेटे के फ़ोन की जासूसी करने के बाद अब लापरवाही से सारी बात भुला बैठी थीं। क्या करतीं, उन्हें वैसा कोई संकेत मिला ही नहीं कि बेटा किसी प्रेम - वेम के चक्कर में है। फ़िर बिना बात ख़ुफ़िया तरीके से उसके फ़ोन सुनने का क्या मतलब था।
बेटा जॉन फ़ोन करता ज़रूर था, मगर वो किसी एक लड़की के ही संपर्क में नहीं था। कभी कोई, कभी कोई आवाज़ उसके फ़ोन से आती। अब अगर जवान लड़का रोज़ - रोज़ कई - कई लोगों से बातें करता रहेगा तो वो किसी की आशिक़ी के चक्कर में तो नहीं ही होगा। चाहे उससे बातें करने वाले लड़के हों, या लड़कियां।
जाने दो, श्रीमती कुनकुनवाला को क्या करना? अब बच्चे सारा दिन घर में बंद रहेंगे तो कुछ तो करेंगे ही। हो सकता है उनका बेटा जॉन भी किसी प्रोजेक्ट के बाबत सोच रहा हो और कोई काम करने की योजना बना रहा हो।
अब धीरे- धीरे स्थिति सामान्य होने लगी थी। कभी- कभी खबरें आतीं कि सरकार एक- एक करके सेवाओं को, बाजारों को खोलने की अनुमति देती जा रही थी।
श्रीमती कुन कुनवाला ने देखा कि अब आसपास के घरों में काम वाली बाइयों ने आना शुरू कर दिया है।
उनका माथा ठनका। अब उनके दिल में भी आस उठी कि उन्हें भी कोई काम वाली मिल जाए।
उन्होंने एक- एक करके अपनी सभी सहेलियों की टोह लेने की कवायद भी शुरू कर दी। किसकी बाई काम पर लौटी, किसकी नहीं लौटी।
लेकिन सबको एक बात की बड़ी हैरानी थी।

धीरे- धीरे माहौल बदल रहा था। अब "अनलॉक" के साथ साथ कुछ ढील मिल जाने से बाज़ार, दफ़्तर और सड़कों पर लोगों की आमदरफ्त शुरू होने लगी थी।
ऐसे में एक दिन श्रीमती कुनकुनवाला की तो मानो लॉटरी ही लग गई। उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई खजाना ही हाथ लग गया हो। उनका चेहरा खिल उठा। महीनों की काम की थकान पलक झपकते ही मिट गई।
नहीं - नहीं, उन्हें कहीं से कोई रकम मिली नहीं थी। ये लॉटरी पैसे की नहीं, बल्कि ख़ुशी की थी।
हुआ यूं कि एक दिन ग़लती से टीवी पर कोई न्यूज़ चैनल लगा बैठीं। वैसे तो काम के कारण टीवी के सामने से गुजरने तक की फ़ुरसत नहीं मिलती थी पर आज अचानक निगाह पड़ी तो सामने कोई नेता भाषण दे रहे थे। वे कह रहे थे कि लॉकडाउन के कारण मेहनत करने वाले गरीब लोगों के रोजगार चले गए हैं इसलिए आप लोग अपनी घरेलू बाई, नौकर, ड्राइवर, माली आदि की तनख़ा न काटें। उन्हें पूरे पैसे दें चाहे वे काम पर न आए हों। आते भी कैसे, खुद सरकार ने ही तो उन्हें आने - के लिए मना किया था। कर्फ़्यू और धारा एक सौ चवालीस लगा रखी थी।
ये सुनते ही श्रीमती कुनकुनवाला का दिल बल्लियों उछलने लगा। उनके कदम थिरकने लगे। कलेजे में ऐसी ठंडक पड़ी मानो कलेजा फ्रीज़र में ही रखा हो।
अब आयेगा मज़ा। अपनी सब सहेलियों के चेहरे एक- एक करके उनके ख्यालों में आकर लटकने लगे। बड़ी आईं थीं उन्हें जलाने वाली। रोज़ रोज़ फ़ोन करके के उन्हें सुनाती रहती थीं कि हमें तो नई बाई मिल गई। हमारी तो काम वाली नई आ गई।
अब भुगतें। पूरे गिन - गिन कर उन सबकी महीनों की पगार उन्हें पकड़ाएं। घर पर पूरे छह महीने तक बर्तन भांडे भी ख़ुद ने रगड़े, और अब पैसे भी देंगी काम वालियों को।
इससे तो वही अच्छी रहीं। काम ख़ुद करना पड़ा तो क्या, अब कम से कम बाई को पगार तो नहीं देनी पड़ेगी। काम तो सभी ने खुद ही किया है, उसका क्या।
श्रीमती कुनकुनवाला का मन मयूर नाचने लगा। उनका दिल किया कि अब जल्दी जल्दी सबको फ़ोन लगाएं और ये खबर सुनाएं। आख़िर वो क्यों मौक़ा चूकें सबके जले पर नमक छिड़कने का?