बसंती की बसंत पंचमी - 2 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बसंती की बसंत पंचमी - 2

श्रीमती कुनकुनवाला सुस्ती को दूर भगा कर किचन में घुसने का साहस बटोर ही रही थीं कि फ़ोन की घंटी बजी।
उनका मन हुआ कि फ़ोन न उठाएं। कोई न कोई सहेली होगी, और बेकार की बातों में उलझा कर उनका सुबह- सुबह काम का सारा टाइम खराब कर देगी।
लेकिन जब रिंग एक बार बज कर दोबारा भी उसी मुस्तैदी से बजनी शुरू हो गई तो उन्हें फ़ोन उठाना ही पड़ा।
उधर से उनकी सहेली श्रीमती वीर बोल रही थीं। तुरंत बोल पड़ीं- बस- बस, आपका ज़्यादा समय नहीं लूंगी, केवल इतना कहना था कि आपकी काम वाली बाई आए तो उसे मेरे यहां भी भेज देना।
श्रीमती वीर का फ़ोन हमेशा इसी वाक्य से शुरू होता था कि आपका ज़्यादा समय नहीं लूंगी, और फ़िर आधा घंटा आराम से बात करते- करते गुज़र जाता था।
मगर आज तो बात दूसरी ही थी, श्रीमती कुनकुनवाला ने जैसे ही बताया कि उनकी बाई ने काम छोड़ दिया है तो
दोनों में ही मानो बोलने की स्पर्धा शुरू हो गई। दोनों अपनी- अपनी बाई की यादों में ऐसी खो गईं कि समय का पता ही नहीं चला।
श्रीमती वीर की बाई ने भी काम छोड़ दिया था। और कोई दिन होता तो शायद श्रीमती कुनकुनवाला उनसे ये कहतीं कि अपनी बाई को मेरे घर भी भेज देना, पर अब तो इसका कोई अर्थ ही नहीं था। दोनों ही बाई विहीन हो गई थीं।
दुख यदि केवल अपना हो तो बड़ा दिखता है पर यदि अपना जैसा कोई और दुःखी दिख जाए तो भारी तसल्ली मिलती है।
...लो, उन पर जैसे गाज गिरी। ...(जााफ़ोन से निपट कर रसोई में मुश्किल से दो- चार बर्तन धोए होंगे कि फ़ोन फ़िर बजा। और कोई समय होता तो श्रीमती कुनकुनवाला टाल जातीं, पर बर्तन धोने में भला क्या मन लगता, चलो इस बहाने थोड़ा सा रेस्ट का इंटरवल ही सही, उन्होंने नेपकिन से हाथ पौंछते हुए फ़ोन उठा ही लिया। और तब पता चला कि श्रीमती अरोड़ा को भी उनकी बाई से काम आ पड़ा।

अरोड़ा जी की बाई दो- तीन दिन पहले काम छोड़ कर चली गई।
ये हो क्या रहा है? आसपास की बिल्डिंगों से एक के बाद एक बाई - संकट गहराने की खबरें मिल रही हैं। भला हो उनकी मंडली का जिसकी सदस्यों से एक दूसरे के समाचार मिलते रहते थे।
अब ऐसा समाचार भी भला किस काम का, कि सभी मुसीबत में घिर -घिर कर मदद के लिए एक दूसरे को टटोल रहे हैं।
क्या मोहल्ले भर की बाईयों का कोई कुंभ मेला लग रहा है जो सब एक साथ वहां जा रही हैं? पर मेले में भी जातीं तो छुट्टी लेकर जातीं। यहां तो सब छुट्टी कर- कर के जा रही थीं, अर्थात काम छोड़- छोड़ कर।
सबको हैरानी थी।
लगभग पच्चीस मिनट की संक्षिप्त सी बातचीत के बाद श्रीमती कुनकुनवाला ने फ़ोन रखा और बर्तनों की खनक फ़िर सुनाई देने लगी। वे काम पर लौट आईं।
वे मन ही मन फ़ोन को कोस रही थीं कि दिन चढ़ता जा रहा था और काम था कि सारा का सारा ऐसे ही फ़ैला- बिखरा पड़ा था।
अभी तो नाश्ता भी बनाना था। फ़ोन से निपट कर रसोई में मुश्किल से दो- चार बर्तन धोए होंगे कि फ़ोन फ़िर बजा। और कोई समय होता तो श्रीमती कुनकुनवाला टाल जातीं, पर बर्तन धोने में भला क्या मन लगता, चलो इस बहाने थोड़ा सा रेस्ट का इंटरवल ही सही, उन्होंने नेपकिन से हाथ पौंछते हुए फ़ोन उठा ही लिया। और तब पता चला कि श्रीमती अरोड़ा को भी उनकी बाई से काम आ पड़ा।

अरोड़ा जी की बाई दो- तीन दिन पहले काम छोड़ कर चली गई।
ये हो क्या रहा है? आसपास की बिल्डिंगों से एक के बाद एक बाई - संकट गहराने की खबरें मिल रही हैं। भला हो उनकी मंडली का जिसकी सदस्यों से एक दूसरे के समाचार मिलते रहते थे।
अब ऐसा समाचार भी भला किस काम का, कि सभी मुसीबत में घिर -घिर कर मदद के लिए एक दूसरे को टटोल रहे हैं।
क्या मोहल्ले भर की बाईयों का कोई कुंभ मेला लग रहा है जो सब एक साथ वहां जा रही हैं? पर मेले में भी जातीं तो छुट्टी लेकर जातीं। यहां तो सब छुट्टी कर- कर के जा रही थीं, अर्थात काम छोड़- छोड़ कर।
सबको हैरानी थी।
लगभग पच्चीस मिनट की संक्षिप्त सी बातचीत के बाद श्रीमती कुनकुनवाला ने फ़ोन रखा और बर्तनों की खनक फ़िर सुनाई देने लगी। वे काम पर लौट आईं।
वे मन ही मन फ़ोन को कोस रही थीं कि दिन चढ़ता जा रहा था और काम था कि सारा का सारा ऐसे ही फ़ैला- बिखरा पड़ा था।
अभी तो नाश्ता भी बनाना था।...(जारी)