मोहल्ला-ए-गुफ़्तगू - 3 Deepak Bundela AryMoulik द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मोहल्ला-ए-गुफ़्तगू - 3

3- मोहल्ला-ए-गुफ़्तगू (3)

आज पूरे तीन माहीने हो चुके थे कॉलोनी की गतिविधियों की लिखित जानकारी देने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं हुई थी.... मतलब साफ था इज्जत दारों को कॉलोनी के इस माहौल से कुछ लेना देना नहीं था एरोबिक का तमाशा वखूबी वरकरार था... आज फिर कोई घटनाक्रम हुआ था जानकारी हांसिल की तो बेहद चौकाने वाली बात सामने आई थी..धटना की मज़लूमियत पढ़ कर दिल बैठ सा गया था..अख़बार को मैंने एक तरफ तह कर के रख दिया था..और फिर से मेरा मन मजलूमियत के दृश्यों में डूबने लगा था... जो खबर अखबार में छपी थी उसके शब्द मेरे आंखों के सामने दृश्य बन कर मंडराने से लगें थे

क्या बीती होंगी उसके मन पर... कुसूर उसका बस इतना ही था के वो लड़की थी... ऐसा क्यों होता हैं अक्सर के इश्क़ और मोहब्बत और इश्क़ के नाम पर सिर्फ जिस्म को रोंदते हैं और अगर जिस्म ना मिले तो उसे आत्महत्या जैसे कदम को उठाने के लिए मज़बूर कर देते हैं.. अभी तो उस बच्ची ने अपने पंख भी नहीं खोले थे.. मैं उस खबर की वास्तविकता की गहराई में डूब चुका था मेरी आंखों में आंसू तैरने लगें थे... तभी मेरे कानों में बाहर से आने वाली आवाज़ ने एकाग्रता भंग हुई थी

ए मेरे बच्चों से दूर से ही बात करना... समझा वहीं खड़ा रह..

एक महिला की करकश आवाज़ ने शांत पड़े माहौल को शोर मय किया था. मैंने तुरंत उस ओर खडे होते हुए देखा कि कॉलोनी की 15 फिट सड़क के उस तरफ एक 28 साल की मॉर्ड महिला अपने दोनों बच्चों का हांथ पकड़े ख़डी थी.. इस ओर यानि मेरे बरामदे के बहार को एक लगभग 32-33 साल आदमी खड़ा था जिसे देख कर मुझे भी लगा कहीं ये बच्चों को उठाने वालों में से तो नहीं हैं तभी उस महिला ने कड़कती आवाज़ में कहां

तेरा मेरे इन बच्चों से कोई रिस्ता नहीं हैं.. तुझे आज याद आ रही हैं..

उसने अपने फ़टे मेले कुचेले से बैग से दो छोटी पालीथिन निकली जिसमें छोटे छोटे डब्बेनुमा में कुछ था.. उसने वो पालीथीन बच्चों की तरफ बढाते हुए कहां

अनमोल अमन हैप्पी बर्थडे बेटा..

दोनों बच्चों ने अपनी मां को देखा

ठीक हैं ठीक हैं कोर्ट ने सिर्फ बच्चों से मिलाने की इजाजद दी हैं कुछ खाने पीने की चीजे देने के लिए नहीं.. बस हो गया और हां पिछले चार महीने का खर्चा हर्जा वो कब दोगे... मैं अभी कुछ बोल नहीं रही हूं तो इसका मतलब ये नहीं हैं कि तुम्हारी ये दशा का नाटक देख कर पसीज जाउंगी समझे, समझ लेना इस बार अगर अंदर करा दिया तो ज़िन्दगी भर जेल में ही सड़ोगे... चलो अमन अनमोल मेरे बच्चे तेरी इन 100/- रुपयों की पेस्ट्री के भूखे नहीं हैं..

और वो महिला अपने दोनों बच्चों को अल्टो कार में बैठाती हैं बच्चे अपने बाप की इस दशा को देख कर हैरत में थे जो जाते हुए भी मुड़ मुड़ कर देख रहें थे... और वो भला मानस चुपचाप अपने बच्चों को खड़ा वेबस सा देख रहा था... तभी मुझे एहसास हुआ बात ज़रूर कोई गंभीर हैं.. मैं अपने आपको उस आदमी तक पहुंचने में नहीं रोक सका और मैं उसके समकक्ष जा कर खड़ा हो गया था और उसे गौर से देख रहा था उसके बाल बेढंग से बढ़े हुए थे चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी.. उसकी आँखों में गहरा सूना पन था...उसके कपड़ो पर जब मैंने अपनी नज़रे गढ़ाई तो वो तीन चार शर्ट एक के ऊपर एक पहने था जो जगह जगह से फटी हुई थी यही हाल इसकी पेंट का था जो साफ पता चल रहा था कि उसने लोवर के ऊपर कपडे की पेंट पहन रखी हैं.. पैरों में फ़टे पुराने जूते थे और एक लेपटॉप का बैग था.. शायद यही उसकी संपत्ति थी.. उसने मेरी तरफ देखा और साइड में लगी बेंच पर जाकर वो बैठ गया..

"क्या मैं आपसे बात कर सकता हूं"- मैंने उससे पूछा था

उसने बैठते हुए मेरी तरफ देखा और वो पेस्ट्री की पॉलीथिन अपने बैग में सम्हाल कर रखते हुए बडबडाते हुए बोला

दुनियां में बहुत सारे बच्चे ऐसे भी हैं जिन्हे एक रोटी भी नसीब नहीं होती हैं.. कोई बात नहीं मेरे बच्चों ने इसे ठुकरा दिया तो कोई और बच्चा इसे खा लेगा मैं यही समझूंगा मेरे बच्चों ने खा लिया..

मैं उसके पास जाते हुए बोला

आप बिलकुल सही कह रहें हैं

उसने मेरी तरफ फिर से देखते हुए पूछा..

मुझे लगता हैं आप मेरी ज़िन्दगी की कहानी को जानने में कुछ ज्यादा ही उत्सुक लग रहें हैं..? क्या आप रिपोर्टर हैं या राइटर हैं..?

उसके मुंह से निकलें ये शब्द उसकी दशा से बिलकुल भी मैच नहीं कर रहें थे यह सुन कर मेरी जिज्ञासा और भी गहराती जा रही थी..

जी मैं लेखक भी हूं..

लेखक भी हूं का मतलब ..?

जी मैं शोकिया लिखता हूं वैसे मैं social development organization में डिस्ट्रिक्ट हेड हूं..

उसने मुझे बड़े गौर से देखते हुए बोला

सोशल डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन के आप डिस्ट्रिक हेड हैं मतलब समाज सुधारक...( और वो जमकर हंसने लगता हैं )

आप हंस क्यों रहें हैं...?

हसूं नहीं तो क्या करूं.. समाज सुधारक के नाम पर जनता और सरकार को वेबकूफ बनाते हैं आप लोग..क्या आप मुझे बताएंगे आपने इस समाज को कितना बदल दिया हैं..?

मैं उसके इस सबाल पर थोड़ा चुप रहा..

बोलिए हैं आपके पास कोई जवाब..?

हां हैं.. मैंने उसे जवाब दिया था

क्या जवाब हैं आपके पास..?

इसके लिए आपको मेरे घर के अंदर चलना पड़ेगा

ओह...! तो आप कागज़ी आंकड़े दिखा कर मेरी जिज्ञासा पर पर्दा डालेंगे..

उसने मेरे जबाब को भांप लिया था

भाई सहाब अगर कागजी आंकड़ों से समाज सुधर जाता तो इन हाड मास के लोगों में इतनी बेतरकीबी नहीं होती.अभी कुछ देर पहले देखा ना आपने... इस समाज की बेटी और बहू के सामाजिकता के संस्कार को..?

मैंने सिर्फ अपना सिर हां में हिला दिया था और वो अपना बैग सम्हालते हुए खड़ा हो गया था..

लेकिन मैं कागज़ी आंकड़ों पर समाज को नहीं सुधारता हूं... अगर कागज़ी आंकड़ों में मैंने समाज को सुधारा होता तो शायद मैं आपके पास नहीं आता.

वो मेरी इस बात पर रुका था

अच्छा तो आप मुझे अपनी किसी कहानी का पात्र बना कर पेश करना चाहतें हैं..कुछ नहीं होगा सर बस कोई भी जब तक मेरी कहानी पढ़ेगा तब तक ही अफ़सोस जाहिर करेगा.. उसके सिबा आज के इंसान के लिए कुछ भी नहीं..

उसने अपने बैग से एक फाइल निकाली और मेरे हांथ पर रख दी

ये लीजिए इस शहर के तमाम अखबारों ने मुझे कवरेज किया तमाम टीवी चैनलों ने मेरा इंटरव्यू लिया लेकिन हुआ क्या कुछ भी नहीं.

मैंने फाइल को खोल कर देखा तो उसके हर एक प्लास्टिक के फोल्डर में शहर के हर बड़े और छोटे न्यूज़ पेपर की कटिंगें लगी हुई थी.जिन्हे मैंने सरसरी निगाहों से देखते हुए कहा

इन्हे तो सिर्फ मसाला चाहिए होता हैं अविनाश जी आजकल अखबारों में छपी खबर आने वाले कल में भूला दी जाती हैं और रही बात टीवी चेंनल वालों की तो उनका हाल तो अखबार वालों से बुरा हैं आज का न्यूज़ मिडिया बिका हुआ हैं.. मैं मानता हूं कि आपने अपनी खबर को पब्लिश कराने में कितने पापड़ बेले होंगे..

इतना सुनते सुनते अविनाश मेरे करीब आ गया था

इसीलिए तो मैं कह रहा हूं आप मेरे घर के अंदर चलें हो सकता हैं कहीं मैं आपके काम आ जाऊं

उसने एक गहरी सांस ली और अपने दोनों कंधो को उचका कर मेरे घर में चलने की इजाजत दी..और हम दोनों मेरे घर के अंदर आ चुके थे.. मैंने उसे सोफे पर बैठने को कहा तो उसने मना करते हुए नीचे बिछे कारपेंड पर ही बैठने लगा था

अरे अरे आप ये क्या कर रहें हो अविनाश ऊपर बैठो

रहने दीजियेगा सर यही अच्छा हैं.. अब तो ज़मीन पर ही बैठने सोने और रहने की आदत हो चुकी हैं

और वो इत्मीनान से दीवाल से टिक कर बैठ गया था

ओके आप बैठो मैं आपके लिए पानी लाता हूं

इतना कह कर मैं किचन मैं किचन से पानी लेकर आया था उसने इत्मीनान से पानी पिया और अपने हांथों की अंगुलियों से गीली मूछों को पोछा..

अविनाश आप इस तरह क्यों रहते हैं.. आप एजुकेटिड हो कर भी इस दशा में.. कोई नौकरी बगैरह क्यों नहीं कर लेते हैं आप..?

सर जी..

एक मिनट अविनाश मेरा नाम निर्मल हैं आप सर न कहें तो बेहतर होगा आप निःसंकोच मेरा नाम लें सकते हैं.

ओके निर्मल सर तो कह सकता हूं न..?

और मैंने उसके इस प्रश्न पर मुस्कुराते हैं हां कहां..

निर्मल सर जी जब तक पास में नौकरी रही तब तक बेहद परेशान ही रहा बीबी के केस उसके भरण पोषण के पैसे फिर अपने माता पिता के खर्चे इन्ही सब के चलते कभी भी सुकून में नहीं रहा सारी पेमेंट में इन सबकी पूर्ति ही नहीं हो पाती थी उल्टा कर्ज़ में अलग हो गया तो सोचा फक्कड़ ही रहो तो अच्छा हैं कानून भी क्या करेगा तब से मैं सुकून में हूं कई बार मेरी बीबी ने मुझे सलाखों के पीछे पहुंचाया सजा काट कर फिर रोड पर आ गया...

क्रमशः-4