कहते है जब शिशु जन्म लेता है तो जन्म से उसके 5 साल होने तक उसको जितना प्यार दे सको उतना देना चाहिए। फिर 5-10 तक उससे सख्त व्यवहार करना चाहिए, और 10-16 तक उसका दोस्त बन जाना चाहिए।
किशोरव्यस्ता के बाद जीवन मे बहुत पड़ाव आते है,जहाँ उनको एक ऐसे साथी की ज़रूरत होती है जिसके साथ सारी परेशानी बांट कर और अगर वो भटक रहे है तो उनको सही मार्गदर्शक की ज़रूरत होती है, जो माता-पिता से बढ़कर कोई नही हो सकता, एक वही हैं जो अपने बच्चों को किसी अवसाद से निकाल सकते है, जो उनको ढेरों खुशियां दे सकते है। परंतु हर रिश्ते में "विश्वास" एक अहम भूमिका निभाती है , यह एक ऐसी डोर है जिसका सिरा दोनो तरफ होता है, अगर एक छोर से भी पकड़ ढीली होती है तो अर्थ से अनर्थ होते देर नही लगती। दोस्ताना व्यवहार से माता-पिता को बच्चों के विश्वास का पात्र बनना चाहिए और बच्चों को उनका विश्वास जितने का प्रयास करना चाहिए। सही-गलत से परे दोस्ती में वो सारे भेद बेझिझक खोले जाते है जहाँ विश्वास न होने के कारण झिझक की स्तिथि में छुपाये जाते है, और जहाँ भेद छुपाये जाते है वहाँ भय से बच्चे कभी-कभी गलत करने के पात्र बन जाते है, अपना आदर्श या फिर अपना मन दोनों में से किसी एक का चयन करने की दुविधा में पड़ जाते है, और धीरे-धीरे यही कभी विसाद की स्तिथि पैदा करती है या कोई गलत कदम उठाने पर बाध्य करती है। किसी रिश्ते में संदेह तब पैदा होता है ,जब विश्वासघात होता है, और भरोसा ना होने की वजह से विश्वासघात की स्तिथि आती है, और भरोसे के दोनों नाज़ुक सिरे को धैर्यता की मजबूती के साथ पकड़ना जाना चाहिए। जहाँ धैर्य खोया वही भरोसे की पकड़ कम होने लगती है फिर विश्वासघात होते देर नही लगती। अगर किसी जगह पर माता-पिता को अपने बच्चों के संदेहपूर्ण व्यवहार पर संदेह होता है तो, उनसे अच्छे दोस्त की तरह उनके करीब आना और विश्वास दिलाना और समझा-भुजा कर उनसे दोस्ती का रिश्ता कायम करना चाहिए। बजाए उनपर विश्वास न करके उनके मन के विपिरित जाने पर बाध्य करना।
जितना रिश्ता भरोसेमंद होता है, उतना ही बंधनमुक्त भी होना चाहिए, दहलीज़ पार भी माता-पिता को अपने बच्चों पर इतना भरोसा रहे अगर वो उनके मर्ज़ी के खिलाफ कोई कदम लेते है तो भी अपने मान-मर्यादा और संस्कृति को याद रख कुछ ऐसा नही करेंगे जिससे उनको ठेस पहुँचे। क्योंकि कई बार विश्वास ना होना, उनके मन मे डर पैदा करती है और अपने आदर्श बचाने में बच्चे अपनी ही मँहत्वकांशाओं को मार डालते है, और कई बार अपनी ही महत्वकांशाओ को बचाने में उनको अपना आदर्श मन मार कर त्यागना पड़ता है। माता-पिता और बच्चों के बीच राज़ों का बेधड़क आदान-प्रदान तभी मुमकिन है जब दोनो के बीच शक का कोई दिवार न हो (माता-पिता को ना अपने संस्कारो पर शक और न ही बच्चों को अपने महत्वकांशाओ के खत्म होने का शक)तभी यह रिश्ता कायम हो सकता है, तथा, भरोसेमंद भी हो सकता है।
✍️साक्षी