आठ साल का भोला सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था। अब तक वह अच्छी तरह से हिन्दी पढ़ने लगा था। स्कूल जाते और आते समय सड़क के किनारे दीवारों पर लिखे हुए स्लोगन वह अक्सर खड़े होकर पढ़ता था। एक दिन उसने एक दीवार पर पढ़ा 'छोटा परिवार सुखी परिवार' , 'हम दो हमारे दो'। वह था तो छोटा, गरीब घर का, अनपढ़ माँ बाप का बच्चा लेकिन माँ सरस्वती की उस पर बड़ी कृपा थी। उन्होंने अपने खजाने से उसे विद्या रूपी दौलत दे रखी थी। पढ़ने में तो वह होशियार था ही लेकिन उससे भी ज़्यादा अद्भुत होती थी उसकी ड्राइंग। पूरी क्लास ही क्या, पूरे स्कूल में छोटे से बड़ा, कोई भी विद्यार्थी उसकी तरह ड्राइंग नहीं बना पाता था। यह उसे माँ सरस्वती का दिया हुआ अद्भुत, अमूल्य वरदान था।
सड़क की दीवार से पढ़े हुए वह दोनों स्लोगन, भोला के नन्हे दिमाग़ में हलचल मचाए हुए थे। 'हम दो हमारे दो' का क्या मतलब होता है, 'छोटा परिवार सुखी परिवार' जगह-जगह क्यों लिखा जाता है। तब एक दिन उसने अपनी टीचर से पूछा, "टीचर 'छोटा परिवार सुखी परिवार' और 'हम दो हमारे दो' जगह-जगह ऐसा क्यों लिखा होता है?"
तब उसकी टीचर ने उसे समझाया, "भोला देखो यदि किसी के घर चार-पाँच बच्चे होते हैं तो माता-पिता ना तो अच्छी तरह ध्यान दे पाते हैं और ना ही उनकी सभी ज़रूरतें पूरी कर पाते हैं। उन बच्चों को हमेशा समझौता ही करना पड़ता है। मध्यम वर्ग के परिवार या गरीब परिवारों में तो यह समस्या बहुत ही विकट होती है। कई गरीब बच्चों को तो इसी कारण पेट भर कर खाना भी नहीं मिल पाता है। ना ही उन बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ने को मिलता है, ना ही अच्छे कपड़े और ना ही दूसरी ज़रूरत की चीजें ही मिल पाती हैं। उनकी परवरिश भी अच्छी तरह से नहीं हो पाती।"
भोला बीच में ही बोल पड़ा, "बिल्कुल हमारी तरह... है ना टीचर?"
उसकी इस बात को नज़रअंदाज करते हुए टीचर ने कहा, "लेकिन भोला चार-पाँच के बदले यदि केवल दो ही बच्चे हों तो उनके माता-पिता उनका लालन पालन ज़्यादा अच्छे से कर सकते हैं। अच्छा पौष्टिक भोजन, अच्छे वस्त्र, रहने के लिए अच्छा घर, यह सब कुछ मिल सकता है। हमारे देश की बढ़ती जनसंख्या पर भी अंकुश लग सकता है, समझे भोला?"
"जी टीचर"
नन्हे भोला के मन में यह बात घर कर गई कि वह पाँच भाई बहन हैं इसलिए उसे हमेशा बड़े भाई के उतरे पुराने कपड़े पहनने पड़ते हैं। हर समय समझौता भी करना पड़ता है। पैदल स्कूल आना पड़ता है। उनके पास कार, स्कूटर तो क्या एक साइकिल तक नहीं है।
जिस बंगले में उसकी अम्मा काम करने जाती है, कभी-कभी भोला भी वहाँ चला जाता था। तब वह देखता था उस घर में केवल दो ही बच्चे हैं। एक लड़का युवान और उसकी छोटी बहन रुहानी। वह दोनों बच्चे रोज़ कार से स्कूल जाते हैं। उनके कंधों पर सुंदर-सुंदर स्कूल बैग होते हैं। प्रेस किया यूनिफॉर्म पहने होते हैं। लेकिन वह...? उनका स्कूल भी तो कितना बड़ा और सुंदर दिखता है। आख़िर उनमें और हम में इतना अंतर क्यों है?
उसके बाद से भोला हमेशा यही सोचता कि काश वह भी दो भाई बहन ही होते तो कितना अच्छा होता।
एक दिन भोला ने अपने बापू और अम्मा से यह सवाल कर ही दिया। उसने पूछा, "बापू हम इतने सारे भाई बहन क्यों हैं? यदि हम दो ही होते तो हमें भी सब सुविधाएँ मिलतीं। अच्छे कपड़े, अच्छा खाना, अच्छा स्कूल, लेकिन हमारे घर इतने सारे..."
"चुप हो जा भोला, बहुत ज़बान चलने लगी है। छोटा मुँह और बड़ी-बड़ी बातें। कौन सिखाता है यह सब?"
भोला डर गया और चुप होकर वहाँ से हट गया।
तभी उसकी अम्मा बोली, "अरे भोला बेटा, तुम सब तो भगवान का प्रसाद हो। भगवान ही तो औलाद देते हैं।"
अगले दिन भोला क्लास में उदास बैठा था। उसकी क्लास टीचर ने उसे उदास देखकर पूछा, "क्या हुआ भोला? तुम क्यों इतने उदास बैठे हो?"
भोला ने कहा, "टीचर जब मैंने बापू से पूछा कि हम इतने सारे भाई बहन क्यों हैं तब उन्होंने मुझे बहुत ज़ोर से डांट दिया? मेरी अम्मा ने कहा..."
"क्या कहा भोला?"
"उनने कहा, बच्चे तो भगवान जी देते हैं। तुम सब उन्हीं का प्रसाद हो।"
भोला की बातें सुनकर उसकी टीचर मुस्कुरा दीं।
वह सोच रही थीं इतने छोटे बच्चे की जिज्ञासा आख़िर वह कैसे शांत करें। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह भोला की इस बात का उसे क्या जवाब दें। उस समय उन्होंने बात को टालना ही बेहतर समझा।
लेकिन भोला के मन में एक प्रश्न चिह्न खड़ा हो गया। अब भोला जब भी अपने माता पिता के साथ मंदिर जाता वह प्रसाद ग्रहण नहीं करता।
एक दिन जब पंडित जी प्रसाद दे रहे थे, तब उसने कहा, "अम्मा प्रसाद मत लेना वरना फिर से हमारे घर और भाई बहन आ जाएँगे।"
तब उसकी अम्मा बोली, "चुप हो जा भोला, भगवान के प्रसाद को ना नहीं कहते और उन्होंने प्रसाद ले लिया।"
लेकिन भोला ने प्रसाद नहीं लिया।
एक दिन वह उदास बैठा था। माँ तो आख़िर माँ होती है। अपने बच्चे को इस तरह उदास देखकर अम्मा चिंतित हो गई। उन्होंने अपने पति से कहा, "अजी सुनते हो, भोला बड़ा हो रहा है। अब हमें अपने परिवार को बढ़ने से रोकना होगा।"
"क्या पागल जैसी बातें कर रही हो। तुम्हीं ने उसे कहा था ना, बच्चे भगवान का प्रसाद होते हैं। इसमें ग़लत क्या है, सच ही तो कहा था तुमने। कितनों को औलाद ही नहीं होती, जीवन भर रोते रहते हैं। हमें दे रहा है भगवान तो तुम और तुम्हारा बेटा..."
"अजी नाराज़ मत हो, वह कितना उदास रहने लगा है और उसकी उदासी ग़लत भी तो नहीं है।"
स्कूल में आज ड्राइंग का पीरियड था। टीचर ने कहा, "भोला लाओ अपनी ड्राइंग बुक दिखाओ?"
वह हर हफ़्ते ड्राइंग के पीरियड में आकर सबसे पहले भोला की ही ड्राइंग बुक देखती थीं। भोला ने उन्हें अपनी कॉपी दे दी। भोला की ड्राइंग देखकर आज तो उसकी टीचर स्तब्ध थीं। ऐसी ड्राइंग, इतनी अच्छी सोच, उनके मुँह से अचानक निकल गया, "ओ माय गॉड यह तो अद्भुत है।"
उसने एक चित्र बनाया जिसमें दो बच्चे स्कूल बैग के साथ कार में अपने पिता के संग बैठे हुए दिखाई दे रहे थे। दूसरे चित्र में एक परिवार था जिसमें पाँच बच्चे दिखाई दे रहे थे। जो बैग उठाये रास्ते पर जा रहे थे। किसी के पाँव में स्लीपर थी, किसी के नहीं, किसी के कपड़े मैले कुचैले तो किसी के फटे हुए चीथड़े। उनमें से एक बच्चे की आँख में आँसू दिखाई दे रहे थे। वह शायद उसने ख़ुद का फोटो बनाया था।
टीचर ने पेज पलटाया जहाँ एक और चित्र था। उसमें दो बच्चे अपने माता-पिता के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खा रहे थे। उनकी थालियाँ विभिन्न व्यंजनों से भरी हुई दिख रही थीं और दूसरी तरफ़ ज़मीन पर बैठे हुए पाँच बच्चों की थाली में सूखी रोटी और प्याज के दो टुकड़े दिखाई दे रहे थे। ऐसे संवेदनशील चित्रों को देखकर भोला की टीचर की आँखें नम हो गईं। वह कुछ भी ना कह पाईं और ना ही कुछ पूछ पाईं।
उसी दिन भोला की टीचर उसके घर आईं। उन्हें देखकर भोला की अम्मा बहुत खुश हो गईं और उन्होंने कहा, "आइये-आइये टीचर जी बैठिए।"
"कैसा है हमारा भोला पढ़ने लिखने में?" उसके बापू ने पूछा।
"आपका भोला बहुत ही होशियार बच्चा है। उसे यदि अच्छा अवसर मिलेगा तो वह बहुत कुछ कर सकता है। उसकी ड्राइंग बहुत ही अच्छी है।"
"ड्राइंग, वह क्या होती है टीचर जी?"
"मतलब-मतलब वह चित्र, तस्वीरें बहुत अच्छी बनाता है। उनमें बहुत अच्छे रंग भी भरता है। स्कूल में सबसे अच्छी ड्राइंग उसी की है। यह देखो उसने यह तस्वीरें बनाई हैं।"
इतना कहते हुए टीचर सरोज ने उन्हें वह तस्वीरें दिखाईं और उन तस्वीरों का मतलब भी समझाया।
उन तस्वीरों को देखकर भोला की अम्मा और बापू की आँखों से आँसू बह निकले। आज उसके बापू को भी उसका दर्द समझ में आ रहा था।
सरोज ने फिर कहा, "आजकल भोला बहुत उदास रहता है।"
"जी टीचर जी मैं भी देख रही हूँ पर क्या करूँ, समझ नहीं आता," कहते हुए भोला की अम्मा की आँखों में आँसू भर आए।
"कल तो मंदिर में उसने भगवान का प्रसाद भी नहीं लिया। यह कहकर मना कर दिया कि प्रसाद लेंगे तो और भाई बहन घर में आ जाएँगे, फिर और अधिक समस्या का सामना करना पड़ेगा।"
"देखो आपको उसे यह समझाना होगा कि अब आपका परिवार और अधिक नहीं बढ़ेगा। आप लोगों को इस बात का अब ख़ास तौर पर ख़्याल भी रखना पड़ेगा। भोला की यह उदासी काफ़ी दिनों से चल रही है, जो उसके विकास में बाधा डाल सकती है। चलिये अब मैं चलती हूँ।"
"धन्यवाद टीचर जी, हम आपकी समझाई बातों का ख़्याल रखेंगे," भोला की अम्मा ने कहा।
भोला की टीचर मुस्कुरा दीं और वहाँ से निकल गईं। अब भोला के बापू और अम्मा को इस बात का एहसास हो गया कि वह कितनी बड़ी ग़लती कर रहे थे। अपने बच्चों का हक़ छीन रहे थे।
टीचर के जाते ही भोला के बापू ने कहा, "भोला की अम्मा उस दिन तुम ठीक ही कह रही थीं। हमें तो पता ही नहीं था कि हमारा भोला इतना होशियार है। आज टीचर ने हमारी आँखें खोल दीं। काश हमने यह सब पहले सोच लिया होता तो हमारा भोला इस तरह दुःखी ना होता।"
दूसरे दिन सरोज वह ड्राइंग बुक लेकर प्रिंसिपल के पास गई और उन्हें वह चित्र दिखाये। प्रिंसिपल भी स्तब्ध रह गईं। उन्होंने पूछा, "कौन है यह बच्चा? किस कक्षा का है?"
"जी तीसरी कक्षा का है मैम।"
"तीसरी कक्षा का! इतना छोटा बच्चा और बड़े-बड़े लोग भी नहीं कर सकते, ऐसी ड्राइंग!"
तब भोला की टीचर ने उसके बारे में उन्हें सब बताया। प्रिंसिपल के पति वहाँ के महानगर पालिका के अध्यक्ष थे। प्रिंसिपल वह चित्र देखती ही रहीं और कुछ सोच कर उन्होंने कहा, "मिस सरोज, आज यह नोटबुक मैं घर लेकर जाना चाहती हूँ।"
"जी आप ज़रूर ले जाइए मैम।"
"सरोज मैं यह तस्वीरें अपने पति को दिखाऊँगी शायद उनके कुछ काम आ जाएँ और विशेष तौर पर यह एक छोटे बच्चे की बनाई तस्वीरें हैं, उसे पहचान अवश्य ही मिलनी चाहिए।"
शाम को प्रिंसिपल के पति विनायक ने जब यह चित्र देखे तो उनकी भी आँखें फटी की फटी रह गईं। एक आठ साल का बच्चा और इतने संवेदनशील विषय पर इतनी सच्ची और अद्भुत चित्रकारी वाह!
विनायक ने भोला के उन चित्रों को छपवा कर शहर की कई दीवारों पर उस स्थान पर लगवा दिया जहाँ वह स्लोगन लिखे हुए थे। 'छोटा परिवार सुखी परिवार' , 'हम दो हमारे दो'।
अब भोला अपनी बनाई हुई वह चित्रकारी देख कर बहुत ख़ुश होता था। उसके बाद उनके घर फिर और कोई नन्हा मेहमान नहीं आया। उसकी अम्मा और बापू शहर की दीवारों पर अपने बेटे की बनाई चित्रकारी देखकर फूले नहीं समाते थे। स्कूल के सारे बच्चे भी भोला की ड्राइंग दीवारों पर देखकर अपने साथ के लोगों से कहते, देखो यह तस्वीर हमारे स्कूल के लड़के ने बनाई है उसका नाम है भोला।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक