विष्णु प्रसाद एक किसान था, अपनी पत्नी और तीन बेटों के साथ अपने खेत में ही एक झोपड़ी बनाकर रहता था। विष्णु प्रसाद की पत्नी उमा हर काम में अपने पति का हाथ बटाती थी। विष्णु सुबह से शाम तक अपने खेत में मेहनत करता था। अपने तीनों बेटों राम, लक्ष्मण और शंकर को भी अपने साथ खेती का थोड़ा-थोड़ा काम सिखाता रहता था। विष्णु प्रसाद अपने बेटों को हमेशा धरती से जुड़े रहने और मेहनत से काम करने की शिक्षा देता था।
वह हमेशा अपने बेटों से कहता, "हम किसान हैं और हमारी धरती ही हमारी अन्नदाता है। भरपूर अन्न उगा कर देश को अनाज से परिपूर्ण रखना हर किसान का दायित्व होता है। तुम तीनों को भी बड़े होकर इसी प्रथा को क़ायम रखना है।"
पिता की बात सुनकर तीनों बेटे उन्हें विश्वास दिलाते कि वह भी अपने पिता की ही तरह ख़ूब मेहनत और लगन से खेती करेंगे। धीरे-धीरे तीनों बेटे बड़े हो गए, छोटी उम्र में ही एक-एक करके तीनों की शादी भी हो गई। विष्णु प्रसाद ने वक़्त रहते समझदारी से तीनों को बराबरी से खेत की ज़मीन बांट दी। साथ ही उसने तीनों को ज़मीन कभी ना बेचने की शर्त भी लगा दी। तीनों भाई अपने-अपने हिस्से के खेतों में काम करने लगे। तीनों में काफ़ी प्यार था, वह हर शाम अपने माता-पिता के पास नियमित आते थे और काफ़ी वक़्त उनके साथ गुजारते थे। बीज बोने से लेकर फ़सल काटने तक हर काम पिता की सलाह से ही करते थे।
एक दिन सुबह से ही विष्णु प्रसाद की तबीयत ठीक नहीं थी। शाम होते-होते उन्होंने अपने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया। उन्हें हमेशा प्यार से रहने और एक दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े रहने की सलाह दी। अपनी माँ का ख़्याल रखना उसे कभी कोई तकलीफ़ ना हो । वह इस तरह की बात कर रहे थे शायद उन्हें पता था कि वह अब और सब का साथ ना दे पाएंगे। तीनों बेटों ने उन्हें इस तरह की बात नहीं करने के लिए कहा, साथ ही यह विश्वास भी दिलाया कि वह हमेशा उनके बताए रास्ते पर ही चलेंगे।
तभी बड़े बेटे राम ने कहा, "बापू यदि आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही हो तो चलो बैलगाड़ी से चल कर डॉक्टर को दिखा कर आते हैं।"
लेकिन विष्णु ने मना कर दिया, "मैं ठीक हूँ बेटा, बस मन में कुछ बातें थीं, जो तुम सब से कहना चाहता था। अब हम बूढ़े हो रहे हैं इसलिए कुछ भी मन में नहीं रखना चाहता था। जो भी सोचता हूँ, तुम्हें बताना चाहता हूँ।"
तीनों बेटों ने उनके पास बैठकर उनको सांत्वना दी और कहा, "बापू आप कहाँ बूढ़े हो रहे हो, अभी तो आपको बहुत जीना है, बहुत सारा अन्न पैदा करना है और देश का भंडार भी तो भरना है।"
तब तक उमा और तीनों बहुओं ने मिलकर ज्वार की रोटी और बैंगन की सब्जी बना ली । सब ने साथ मिलकर खाना खाया और फिर अपनी-अपनी खोली में चले गए। सुबह छह बजे अचानक ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ आई। सब दौड़कर आए, लेकिन विष्णु प्रसाद दुनिया छोड़कर जा चुके थे। उमा उनकी मृत देह के पास बैठ कर विलाप कर रही थी। विष्णु प्रसाद के चेहरे पर संतोष दिख रहा था, शांत चेहरा और मृत होने के बाद भी एक तेज़ चेहरे पर था।
सब ने मिलकर माँ को संभाला और पिता का अंतिम संस्कार कर दिया। इस दुःख की घड़ी में तीनों भाइयों ने माँ को बहुत हिम्मत बंधाई और तीनों बहुओं ने भी माँ को अकेले ना रहने दिया। धीरे-धीरे वक़्त गुजरता गया, वह कहते हैं ना वक़्त हर दुख को सहन करने की शक्ति देता है, हर घाव धीरे-धीरे भर जाता है। अब सब कुछ फिर से पहले की ही तरह चलने लगा। तीनों भाई अपने-अपने खेत में मेहनत करने लगे। बुवाई का वक़्त आ गया लेकिन बारिश की एक बूंद भी धरती पर दिखाई नहीं देती थी। खेती की ज़मीन पूरी तरह से सूख रही थी। कुएँ में भी पानी ना के बराबर ही बचा था। बारिश की राह देखते-देखते बुवाई का वक़्त निकला जा रहा था। शंकर के कुएँ में थोड़ा पानी बचा था, अतः उसने तो बुवाई कर दी लेकिन राम सिंह और लक्ष्मण ऐसा ना कर सके।
उन दोनों के पास जो पैसा था वह खाने-पीने में ख़त्म हो गया, साथ ही माँ की बीमारी और दवाई में भी काफ़ी ख़र्च हो जाता था। दूसरी बार बुवाई करने के लिए उनके पास पैसा नहीं था। राम और लक्ष्मण ने साहूकार से कुछ कर्ज़ा ले लिया और बुवाई कर दी ख़ूब मेहनत के साथ काम में जुटे रहे, फ़सल भी अच्छी हुई लेकिन सही क़ीमत ना मिल पाई। वे साहूकार का कर्ज़ ना उतार पाए। मूलधन तो था ही ब्याज भी बढ़ता गया और वे कर्ज़ तले दबते चले गए। छोटे भाई शंकर की गाड़ी ठीक-ठाक चल रही थी किंतु इतनी नहीं कि वह अपने भाइयों की मदद कर सके। शंकर वक़्त के साथ चलना जानता था, तीनों भाइयों में सबसे तेज और होशियार भी था।
एक दिन शाम को तीनों भाई बैठकर सलाह मशवरा कर रहे थे। तब शंकर ने अपने भाइयों से कहा, "भैया आजकल खेत की ज़मीन पर टीन टप्पर की खोली बनाकर जो लोग भाड़े पर देते हैं, वह भी हमारे जैसे किसान ही तो होते हैं। भैया एक-एक खोली दो-दो हज़ार में जाती है। यदि हम भी हमारे खेत के दो पट्टों पर खोली बना लें तो लगभग बीस खोली एक ही खेत में बन जाएंगी। बाक़ी की धरती पर फ़सल उगा लेंगे, महीने का चालीस हज़ार तो यूं ही आता रहेगा। अब तो हमारे खेत के पास तक बड़ी-बड़ी इमारतें बन गई हैं, लोग रहने आ रहे हैं, सभी को घर काम के लिए काम वाली बाई की आवश्यकता पड़ेगी, खोलियाँ आराम से किराए पर उठ जाएंगी। क्या बोलते हो बड़े भैया?"
राम सिंह, शंकर की बात सुनकर झल्ला गया और बोला, "शंकर पागल हो गया है, क्या? खेत की उपजाऊ ज़मीन को यूं बर्बाद कर देगा । ऐसा सोचते हुए भी तुझे शर्म नहीं आई और बापू, बापू की आत्मा को क्या जवाब देगा बोल? माँ क्या कहेगी? ना, ना यह नहीं हो सकता।"
"तू क्या कहता है लक्ष्मण?” शंकर ने पूछा।
"ना, ना मैं तो बड़े भैया की ही बात मानूंगा," लक्ष्मण ने कहा।
तब शंकर चुप हो गया, उसने भी इस बात को अपने दिमाग़ से निकाल दिया और जैसे चल रहा था सब वैसे ही चलता रहा। राम और लक्ष्मण के घर साहूकार का नौकर हर रोज़ चक्कर लगाने लगा क्योंकि अब तो ब्याज की रक़म भी साहूकार तक नहीं पहुँच पा रही थी। राम और लक्ष्मण की परेशानियाँ बढ़ती ही जा रही थीं। राम सिंह को बार-बार शंकर की बात याद आती थी लेकिन अपने उसूलों और पिता की इच्छा के आगे वह कुछ भी नहीं करना चाहता था।
इस साल जब बुवाई का समय आया तो राम सिंह आंखों में आंसू लेकर एक बार फिर से साहूकार के पास गया और बड़ी मिन्नतें की, दया की भीख माँगी कहने लगा, "माई, बाप मैं सूद समेत तुम्हारा पूरा पैसा लौटा दूंगा। बस एक बार मेरी फ़सल अच्छी तैयार हो जाए, बस एक बार मदद कर दो।"
साहूकार ने राम सिंह को अपमानित कर भगा दिया। राम सिंह धीरे-धीरे अपनी तक़दीर को कोसता हुआ घर वापस आ गया।
राम सिंह को इतना उदास देख उसकी पत्नी ने उसे हिम्मत दिलाई, "अजी चिंता अधिक ना करो, तबीयत बिगड़ जाएगी। गाँव में दूसरा साहूकार भी तो है, उसके पास क्यों नहीं जाते?"
पत्नी की बात सुनकर राम सिंह गाँव के दूसरे साहूकार के पास बड़ी उम्मीद से गया लेकिन उसे भी पता था कि पहले ही राम सिंह कर्ज़ में डूबा हुआ है, उसने भी कर्ज़ देने से इंकार कर दिया।
अब राम सिंह को अपने सब तरफ़ अंधकार ही अंधकार नज़र आ रहा था। उसे ऐसा लग रहा था, अब कुछ नहीं हो सकता, वह एकदम अकेला है। अब कोई उसकी मदद नहीं कर सकता, राम सिंह की आंखें पथरा गई थीं। ना उन में आंसू थे और ना ही कोई उम्मीद की किरण। वह टूट गया था, उसको अपनी ज़मीन खाली बंजर जैसी दिखाई दे रही थी। वह स्वयं को दोषी मान रहा था कि उसने ही ज़मीन से हरियाली छीन ली है। ग़मों के अंधेरों ने उससे उसका सुख और चैन छीन लिया था। उसे रातों को नींद भी नहीं आती थी, शंकर की खोली वाली बात बार-बार उसके मन मस्तिष्क में आकर उथल-पुथल मचा रही थी। वह अपने निर्णय पर अडिग था, लेकिन एक दिन वह हिम्मत हार गया जब उसने अपने कुएँ की तरफ़ देखा। आज कुएँ में पानी भी था, ज़मीन भी तैयार थी, वक़्त भी था काम करने का हौसला और चाहत भी थी। यदि कुछ नहीं था तो सिर्फ़ पैसा नहीं था और पैसे के बिना पानी और ज़मीन का क्या करे। आज राम सिंह हताशा की गोद में जा गिरा था, जहाँ से बाहर निकलना बहुत ही कठिन होता है।
आज अमावस की काली रात थी, राम सिंह अपनी माँ के पास जाकर बैठा था। वह अपनी माँ से कहने लगा, "माँ मैं हिम्मत हार रहा हूँ, मैं बहुत अन्न उगाना चाहता हूँ। मैं अपनी ज़मीन को हमेशा हरा भरा देखना चाहता हूँ पर मैं मजबूर होता जा रहा हूँ। माँ मुझे पिताजी की बहुत याद आ रही है"
पास बैठी उसकी पत्नी कहने लगी, "अजी सब ठीक हो जाएगा, भगवान हमारी परीक्षा ले रहा है।"
"कब तक लेगा?"
"तुम हिम्मत ना हारो, देखो लक्ष्मण भैया की हालत भी हमारे जैसी ही है पर वह हिम्मत से काम ले रहे हैं। अब सब दिन एक जैसे तो नहीं रहेंगे, काली रात है तो दिन का उजाला भी तो होगा ना।"
तब तक दोनों भाई भी अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ गए। सभी राम सिंह की हालत देखकर चिंतातुर हो गए।
शंकर ने हिम्मत करके फिर से खोली वाली बात कह दी, "भैया खोली के बारे में कुछ सोचो, एक बार मन बना लो तो हम सारे गंगा नहा लेंगे। साहूकार का कर्ज़ा भी चुका देंगे, खेत भी हरा भरा होगा, घर में पूंजी होगी और सबसे बड़ा सुकून भी होगा। होगा ना भैया?"
लेकिन राम सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया। रात को सभी ने खाना खाया, राम सिंह को भी ज़बरदस्ती थोड़ा-सा खाना खिलाया और सभी अपने-अपने बिस्तर पर सो गए। सभी लोग करवटें बदल रहे थे, सबके मन में राम सिंह को लेकर चिंता समाई थी। राम सिंह भी सो नहीं पा रहा था, अनेक सवाल मन में घूम रहे थे। वह सोच रहा था, यह जीवन कितना मुश्किल और दुखदाई है। मैं अपनी माँ और पत्नी को खुश नहीं रख पा रहा हूँ। मेरी ज़मीन भी तो फ़सल के बिना रो रही है। मेरा जीवन व्यर्थ है, मुझे अब इस दुनिया में नहीं रहना। इस तरह के विचार आते ही राम सिंह ने अपनी माँ और पत्नी की तरफ़ देखा, वह दोनों अब तक सो चुके थे।
सुबह होते ही राम सिंह की पत्नी विमला और माँ ने जो देखा, वह दृश्य देखकर राम सिंह की माँ तो बेहोश हो गई। विमला तो समझ ही नहीं पा रही थी कि वह क्या करे। माँ को संभाले, अपने आप को संभाले या घर वालों को बुलाए। वह हतप्रभ-सी आंखों से आंसू बहाती खड़ी थी। तभी शंकर और लक्ष्मण भी आ गए, दोनों ने मिलकर राम सिंह को पेड़ से उतारा। माँ के मुंह पर पानी छिड़क कर उसे होश में लाए। सभी फूट-फूट कर रो रहे थे। शंकर बार-बार कह रहा था, भैया मेरी बात मान लेते तो यह दिन कभी नहीं आता। शंकर और लक्ष्मण ने गाँव वालों के साथ मिलकर अपने भाई का अंतिम संस्कार किया।
अब शंकर और लक्ष्मण अपनी माँ और भाभी का और भी ज़्यादा ध्यान रखने लगे। धीरे-धीरे 15 दिन बीत गए तब साहूकार के आदमी ने फिर दरवाजे पर दस्तक दी और अपने पैसों की माँग करने लगा। तब शंकर ने उन्हें दो माह में पैसे लौटाने की बात कही।
लक्ष्मण हैरान था उस आदमी के जाते ही लक्ष्मण बोला, "अरे शंकर दो माह में रुपया कहाँ से आएगा, कैसे देंगे?"
शंकर बोला, "दे देंगे लक्ष्मण भैया, अब तुम देखते जाओ।"
दूसरे दिन लक्ष्मण सुबह की गहरी नींद में सो रहा था। तभी खटर पटर की आवाज़ों ने उसकी नींद खोल दी। लक्ष्मण ने उठकर देखा तो शंकर कुछ आदमियों के साथ मिल कर खोली बनवा रहा था।
लक्ष्मण दौड़ कर गया और बोला, "शंकर यह क्या कर रहे हो?"
"अब जागा हूँ, लक्ष्मण भैया, काश पहले जाग गया होता तो राम भैया हमारे साथ होते," लक्ष्मण कुछ ना कह सका और आकर शंकर की मदद करने लगा।
शंकर ने कहा, "लक्ष्मण भैया हमारे जैसे ना जाने कितने किसान किसी न किसी कारण से आज अपने खेतों में इसी तरह की खोलियाँ बनाकर भाड़े से उठाते हैं। हमारी उपजाऊ मिट्टी इस तरह से बंजर में बदलती जा रही है। हम किसानों की ऐसी हालत ना हो, हमें अपनी मिट्टी में फ़सल की जगह खोलियाँ ना बनानी पड़े। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार को हमें हर सुविधा देनी चाहिए, वरना खेतों को खोलियों में बदलने में वक़्त नहीं लगेगा। बिचौलियों से भी हमें बचाना चाहिए और हमारी मेहनत का हमें पूरा फल मिलना चाहिए।"
उन्होंने तीनों के खेतों के एक-एक लंबे पट्टे पर कुछ खोलियाँ बनवा लीं और बनते ही वह खोलियाँ किराए से उठ गईं। अब सभी की एक निश्चित आमदनी शुरू हो गई। साहूकार के पैसे भी देना शुरू कर दिया। अब फिर से बुवाई का मौसम आया, बारिश ने भी साथ दिया। लक्ष्मण और शंकर ने पहले से भी ज़्यादा जोश के साथ बीज बो दिए और कुछ ही दिनों में खेत हरा-भरा दिखाई देने लगा। पूरा परिवार अपने खेतों को देखकर प्रसन्न होता और राम सिंह की याद करता कि काश वह ज़िंदा होते।
-रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक