बागी स्त्रियाँ - (भाग दो) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी स्त्रियाँ - (भाग दो)

औरत की गरिमा बचाने की जद्दोजहद में तू पूरी औरत नहीं बन पाई" --मीता ने एक दिन अपूर्वा से हँसते हुए कहा।
'क्या मतलब है तेरा?क्या मैं पूर्ण स्त्री नहीं?'
मीता--मेरे हिसाब से तो नहीं।अरे मेमसाब,बिना पुरूष के स्त्री कैसे पूर्ण हो सकती है?अर्धनारीश्वर के बारे में नहीं सुना क्या!जब ईश्वर तक स्त्री और पुरूष दोनों का मिला हुआ रूप है, तो साधारण स्त्री अकेले कैसे पूर्ण हो सकती है?तू ही बता क्या तेरा दिल कहीं कसकता कि तुम्हें किसी पुरुष का प्रेम मिले?
अपूर्वा--'जरूर कसकता है....प्रेम की कहानियां,प्रेम के दृश्य मुझे आज भी तड़पा जाते हैं पर प्रेम किसी पुरुष से ही तो कर सकती हूँ ।मुझे दुनिया में कोई सच्चा और साबुत पुरुष ही नहीं दिखता ।ज्यादातर देहखोर ही दिखते हैं।'
मीता--ऐसा नहीं है....सच्चे पुरूषों से ये दुनिया खाली नहीं है।ये और बात है कि वे बड़े नसीब से मिलते हैं।
अपूर्वा--'पर मैं नसीब वाली नहीं हूँ.....पर तू बता तुझे कोई मिला...?'
मीता--कहाँ यार,पर मैंने हार भी नहीं मानी है।कभी न कभी तो मिलेगा।'
मीता हँस पड़ी पर उसकी आँखों में नमी थी।उसकी दुःखती रग पर अचानक ही अपूर्वा का हाथ जा पड़ा था।मीता ने उसके साथ ही पी-एच०डी की है।वह उसकी अंतरंग सखी है।वे एक- दूसरी से कुछ भी नहीं छिपातीं।मीता ट्रेजडी क्वीन है फिर भी उसकी सोच हमेशा सकारात्मक रहती है,जबकि अपूर्वा स्वभावतः थोड़ी नकारात्मक है।
'और तुम्हारे दोस्तों का क्या हाल है'--अपूर्वा ने उसे छेड़ा
मीता--सब अच्छे हैं और सबकी अपनी -अपनी उपयोगिता है।
अपूर्वा---कैसे?
मीता--देख, दोस्त भी कई तरह के होते हैं ।कुछ दोस्त पारदर्शी और वजनदार पेपरवेट की तरह होते हैं। मन की तहों के भीतर फड़फड़ाते एकांतिक कागजों की छाती पर दृढ़ता से डटे रहते हैं। मजाल है एक कागज इधर से उधर हो जाए।
कुछ दोस्त स्टेपलर जैसे होते हैं, बेशक तीखे दांत गड़ाकर चुभते हैं पर समय पड़ने पर बिखरते मन-जीवन को मजबूती से जोड़ देते हैं। सम्भव नहीं कि एक भी पन्ना ऊँचा-नीचा हो जाए।
कुछ दोस्त पंचिंग मशीन होते हैं।बेरहमी से छेद देते हैं पर सदा के लिए एक डोर में बांध देते हैं। सम्भव ही नहीं कि मन का कोई पाठ ढीला या क्रमहीन हो जाए।
कुछ दोस्त सोख्ता होते हैं ।एक बार तनिक दबाव के साथ आच्छादित हो जाते हैं तो दुख की स्याही सोख लेते हैं। उदासी की जरा -सी भी नमी नहीं छोड़ते।
कुछ दोस्त इरेजर की तरह होते हैं ।पन्ने को इतनी जोर से घिस देते हैं कि उसे दुख जाता है लेकिन जब फूँक से दुखते अनुभवों की काली बत्तियाँ उड़ा देते हैं तो मन कोरे साफ पन्ने -सा हो जाता है । कोई अवांछित चिह्न नहीं बचता।
कुछ दोस्त शार्पनर जैसे खतरनाक भी होते हैं।अपने पंजों में दबोच कर निष्क्रिय, बीहड़, कुंद जहन को खुरच देते हैं और तराश कर नुकीला, सुंदर, उपयोगी बना देते हैं। जो साफ सुलेख में पन्नों पर उभर आती है।
कुल मिलाकर दोस्त दिखावटी फैंसी गिफ्ट, रेशमी लैस और रंगीन सिंथेटिक खिलौनों से अलग तीखी-चुभती उपयोगी स्टेशनरी होते हैं ।
अपूर्वा--वाह.. वाह!यह किसने लिखा है?क्या खूब लिखा है?
मीता--पता नहीं यार,कहीं पढ़ा था ।अच्छा लगा तो याद हो गया।
अपूर्वा--'ओके, ये तो दोस्तों की बातें थीं।पवन का क्या हाल है?'
मीता--सब खत्म हो गया यार,मैं ही भ्रम में थी।मुझे लगा था कि वह दूसरे पुरुषों से अलग है।मुझे अपने समान व्यक्ति मानकर प्रेम करता है,पर ऐसा नहीं था। तू तो जानती ही है कि प्रेम दो व्यक्तियों के बीच घटित होने वाला भाव है ।समानता के धरातल पर ही पनप सकता है।जहां विषमता ही केंद्रीय मूल्य हो ,वहां स्त्री न प्रेम कर सकती है न प्रेम पा सकती है।
अपूर्वा--'सच कह रही है ।यही तो मुश्किल है स्त्री प्रेम करे भी तो किससे?समाज में उसे और खुद को समान स्तर का व्यक्ति मानने वाले पुरूष ही नहीं हैं ।
और पुरूष स्त्री से स्तर में कम या अधिक हो तो सारा मापदंड गड़बड़ हो जाता है। पुरुष पद में स्त्री से ऊंचा हो और स्त्री उसकी मातहत तो प्रेम की संभावना स्वत: समाप्त हो जाती है ।पर जहाँ ऐसा नहीं है वहां भी स्त्री पुरूष के समान नहीं हो पाती क्योंकि समाज में सब कुछ पदानुक्रम से तय होता है।हमारे देश में धार्मिक ,आर्थिक, राजनीतिक ही नहीं सामाजिक भेदभावों की भी अंतहीन श्रृंखलाएं हैं।पैदा होते ही पुरूष को कोई न कोई पद हासिल हो ही जाता है।पुरूष होना अपने आप में ही एक 'पद' है ।उच्च जाति में जन्म लेना भी 'पद' है।'
मीता--हाँ, और यह सिर्फ पारंपरिक लोगों की बात नहीं है । प्रगतिशील ,बौद्धिक समाज भी स्त्री को लोकतांत्रिक स्पेस नहीं देता।तथाकथित ये बौद्धिक सामाजिक सरोकारों से सम्बंधित बैठकों में लोकतंत्र के सच्चे प्रतिनिधि बनकर बातें करते हैं ।वहाँ संवैधानिक मूल्यों के प्रति निष्ठा और समान सरोकार उनका आधार होता है पर वे ही बाद में ऊंचे पद वाले ताकतवर लोगों की बात का समर्थन करने लगते हैं।
अपूर्वा--'स्त्री जब तक अपना स्वत्व-बोध हासिल कर एक पूर्ण अस्तित्व नहीं बनती या मानी जाती, तब तक प्रेम सम्भव नहीं ।प्रेम आधिपत्य, मातहती,मिल्कियत ,कब्जा इत्यादि बहुत- कुछ हो सकता है पर प्रेम नहीं।प्रेम न शोषित कर सकता है न शोषक हो सकता है।
आधुनिक मूल्यों को जीने वाली स्वचेतन स्त्री न परम्परा को पसंद आती है न आधुनिक कहलाने वाले पुरुषों को।'
मीता--प्रेम की आकांक्षा बड़ी स्वाभाविक है ।पवन की आंखों में अपने लिए चाहत देखकर मेरे भीतर भी उसके लिए चाह जग गई।उसकी वैचारिकता और व्यक्तित्व मुझे भा गए थे।हालांकि उससे अंतरंग होने के बाद मुझे यह एहसास तो हो गया था कि उसके साथ ऐसा घर बसाना मुश्किल है,जिसमें दोनों की साझा जिम्मेदारी हो ,फिर भी प्रेम के सहज बहाव में मैं निरंतर बहती रही।मैंने सोचा कि अगर समाजीकरण ने मुझे ऐसा बनाया है तो वह भी तो एक सामाजिक-सांस्कृतिक उत्पाद है।धीरे -धीरे वैचारिकता आचरण में ढलने लगेगी।
अपूर्वा--'स्त्री पुरुष समानता स्थापित होने में अभी सदियां लगेंगी।जेंडर विषमता सबसे जटिल है।इसके धागे सुलझते -सुलझते सुलझेंगे।'
मीता--मुझे लगा था कि कम से कम समानता के अन्य रूपों को लेकर वह प्रतिबद्ध होगा,
पर उसके साथ सार्वजनिक जीवन में भागीदारी करने के बाद पता चला कि वह बहुत कमजोर है।उसे अपने सच के लिए खड़ा होना नहीं आता।
पूरी प्रतिबद्धता से प्रेम करने के बाद भी वह खुले कंठ से सार्वजनिक जगत में मेरे लिए खड़ा नहीं हो सकता था,तो एकांत के उसके समर्थन का क्या मोल?मैं उससे अलग हो गई हूं पर जाने क्यों मन कसकता रहता है?
अपूर्वा--स्त्री का हृदय ऐसा ही होता है।सब कुछ खत्म होने के बाद भी उसके लिए सब -कुछ खत्म नहीं होता।