वह अब भी वहीं है - 48 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वह अब भी वहीं है - 48

भाग -48

उस समय तुम गुस्से से ज्यादा दुखी थी। मेरा रमानी बहनों के पास जाना तब तुझे बहुत ज्यादा अखरने लगा था। अपने ही जाल में तू खुद को फंसा पाकर व्याकुल हो रही थी।

तेरी परेशानी देख कर मैंने कहा, 'अगर तू तैयार हो तो अब यहां से कहीं और चलें। कहीं और अपना ठिकाना बनाएं। अपना काम शुरू करें। आखिर यह सब एकदिन तो करना ही पड़ेगा। कब-तक ऐसे इंतजार करते रहेंगे। काम-भर का तो पैसा इकट्ठा हो ही चुका है।'

मगर मेरी सारी बातें फिर सिरे से बेकार हो गईं। तुमने जो बातें कहनी शुरू कीं उससे मैं समझ गया कि तुम यहां से कहीं और जाने के मूड में नहीं हो। चाहे जितनी भी मेहनत हो, बाकी जो आराम यहां है वह तुम्हारे मुंह लग गया है। यह बात जब मैं आगे तुमसे बार-बार कहने लगा तो एक दिन तुम खीझ कर बोली, 'देख बार-बार ताना मत मारा कर। जब जानता- समझता है तो काहे मेरे सिरदर्द करता है। तू ही सही है। मैं अब सच में थक गई हूं। अब कुछ करने क्या सोचने का भी जी नहीं करता। बस तू मेरा साथ ना छोड़ना। अब मैं रमानी बहनों की तरह पैसे के पीछे नहीं भागना चाहती। इन दोनों को देखकर सोचती हूं कि इन्हें आखिर इस पैसे से क्या मिल रहा है। कौन सा सुख मिल रहा है इन्हें। इतनी उमर हो गई लेकिन शादी-ब्याह का कुछ अता-पता नहीं। पति, बच्चों का सुख क्या है? परिवार क्या है? ये सब इन्हें पता ही नहीं। ऐसा नहीं है कि इन्हें काम-धंधा, पैसा के अलावा और कुछ अच्छा नहीं लगता। मगर पैसे के मोह में फंसी हैं दोनों।'

मैं तुम्हारी यह बातें बड़ी गंभीरता से सुन रहा था। तुम्हारे इस बदले रूप से मैं आश्चर्य में था कि, कहां तो यह क्या-क्या जुगत भिड़ा रही थी ढेर सा पैसा कमाने, रमानी बहनों की तरह आगे बढ़ने के लिए। कितनी कड़ी मेहनत करती रही। वह भी खाया-पिया, किया, कराया जो बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। इतने सालों में इन बहनों की तमाम साजिश में शामिल हुई। मुझे भी किया।

मगर चालाक बहनों के आगे दाल नहीं गली तो ऊब गई। हार मान ली। हथियार डाल दिए। अब गृहस्थी, बच्चे, सुख-दुख की बात कर रही है। ना इधर की रही ना उधर की। अपना भी, मेरा भी, सब लुटवा के अब फिर से रूप बदल रही है। रास्ता बता रही है।

मुझे गुस्सा आई तो मैंने कहा, 'देख उन दोनों को शादी ब्याह, लड़के-बच्चे चाहिए या पैसा, किसमें उनको सुख मिलता है, किसमें नहीं ये वो अच्छी तरह जानती-समझती हैं। उन्हें जो करना है, वो वही कर रही हैं, हमें उनसे क्या लेना-देना। हमें क्या चाहिए, हमें खाली उससे मतलब रखना है बस। ना तू इधर चलती है ना उधर। अभी तक पैसा-पैसा, अपना धंधा, अपना धंधा चिल्लाती रही। अब-जब पैसे का इंतजाम हो गया है, तो फिर रास्ता बदल रही है। आखिर तू चाहती क्या है? कुछ साफ-साफ बताएगी।'

मेरी बात का जवाब देने के बजाय तुम सिर नीचे किए देखती रही। चुप रही। तो मेरा गुस्सा और बढ़ गया। मैंने खीझ कर कहा, 'देख ऐसे नहीं चलेगा। आज, अभी तय कर ले, कि क्या करना है? ये बार-बार रास्ता बदलना मेरी समझ में नहीं आता। इससे अपना समय क्या, सब-कुछ बरबाद कर रही हो, साथ में मेरा भी। इसलिए साफ-साफ, एक निश्चित बात बताओ कि चाहती क्या हो ?'

लेकिन तुम चुप रही। बार-बार पूछने पर भी चुप रही तो मैंने गुस्से से थोड़ा तेज़ आवाज़ में कहा, 'आज तुझे अभी का अभी बोलना पड़ेगा। नहीं तो अभी से तेरा रास्ता अलग, मेरा अलग। तू रह इन्हीं दोनों के साथ। मैं कहीं और बनाऊंगा अपना ठिकाना।'

इतने पर भी जब तुम चुप रही तो मैं गुस्से से फट पड़ा। चीखता हुआ बोला, 'तेरी इस चुप्पी से मैं समझ गया कि तेरे मन में क्या है। असल में तू अब ऊब गई है, डर गई है, थक गई है और साथ ही मुझको भी लेकर तू बदल चुकी है, अलग रास्ते पर जाना चाहती है। मगर इतना अच्छी तरह समझ ले, कि मेरे बिना तू एक मिनट भी नहीं चल पाएगी, समझी। अब तू मर यहीं। मैं इसी समय कहीं और जा रहा हूं, कुछ और करूंगा। तेरी तरह चार कदम आगे, दो कदम पीछे चलना अब मुझे बर्दाश्त नहीं।'

यह कह कर मैं पैर पटकता हुआ चल दिया तो तुमने झपट कर पीछे से मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने कहा, 'छोड़, अब मेरे रास्ते में कभी ना आना समझी।'

लेकिन छोड़ने के बजाए तुम बड़े भरे गले से बोली, 

'मैं रास्ते में नहीं आ रही। तेरे साथ ही चल रही हूँ, साथ ही रहूंगी। जहां भी रहेगा वहीं रहूंगी। अब मुझे पैसा-वैसा कुछ नहीं चाहिए। बस तू चाहिए, तू। मुझे परिवार चाहिए। बच्चे चाहिए और कुछ नहीं.....

मगर मैं इतना गुस्से में था कि तुम्हें खींचता हुआ तीन-चार कदम आगे बढ़ गया। इसपर तुम एकदम से पैर पकड़ कर बैठ गई, और कातर स्वर में रोती हुई बोली, 'रुक जा ना, इतना कठोर क्यों बन रहा है? अब मैं बहुत थक चुकी हूं, टूट चुकी हूँ, हार चुकी हूँ, अब मुझसे कुछ नहीं हो पा रहा। मुझे सहारा चाहिए, तेरा सहारा। तू नहीं देगा तो कौन देगा ? तेरे सिवा और कौन है मेरे आगे पीछे, मेरी दुनिया तो अब तू ही है न।'

इतना कहते-कहते तुम फूट-फूट कर रोने लगी। तुम्हारी रुलाई, आंसू ने मेरे क़दम रोक दिये। लगा जैसे मेरे पैर ज़मीन से चिपक गए हैं। मेरे गुस्से पर दर्जनों मटका ठंडा पानी पड़ गया है। मुझे तुम पर इतनी दया आ गई कि, तुम्हें उठा कर बाँहों में भर लिया। तुम अब भी ऐसे बिलख रही थी जैसे कोई महिला अपने प्रिय के अचानक ही ना रहने पर बिलखती है। बड़ी देर में तुम्हें चुप करा पाया। बार-बार तुम यही कहती रही कि, 'अब मुझे तुम और परिवार के सिवा और कुछ भी नहीं चाहिए। कुछ भी नहीं।'

इस तरह तुमने उस दिन जीवन में जिस उद्देश्य को लेकर दोनों आगे बढ़ रहे थे, उन बढ़ते क़दमों को अचानक ही रोक कर एकदम उलटी दिशा में मोड़ दिया। तुमने जीवन एक अजीब से नीरस रास्ते पर आगे बढ़ा दिया। देखते-देखते तुम इतना बदल गई काम-धाम, व्यवहार हर चीज में कि मैं परेशान होकर पूछता, आखिर क्या हो गया है तुम्हें? लेकिन तुम कोई उत्तर न देती।

तुम्हारी चीखती आवाज़ रमानी हाऊस से बिलकुल गुम हो गई, तुम जहां तक हो सकता रमानी हाऊस के कामों से अपना हाथ खींचे रहती। इससे मेरा काम और बढ़ गया। इसके साथ ही तुममें एक और बदलाओ हुआ कि अब तुम मेरी सेवा ज़्यादा करने लगी। ज़िंदगी इसी ढर्रे पर आगे बढ़ती रही। कई महीने ऐसे ही बीत गए। मेरा मन इस हालत से बहुत ऊबने लगा, लेकिन तुमसे कुछ नहीं कहता। तुम हालात से समझौता कर ऐसे खुश हो गई थी, जैसे तुमने अपने मन का सब कुछ पा लिया हो।

मैं घर-बाहर का सारा काम निपटा कर, जब देर रात कमरे पर पहुंचता तो तुम बड़े प्यार से मिलती, साथ ऐसे हंसती, बोलती, खाती जैसे तुमसे ज्यादा सुखी कोई है ही नहीं। अब तुम आये दिन बच्चों के लिए किसी डॉक्टर के पास चलने को कहने लगी, लेकिन मैं टालता रहा। मैं उस हालत और उतनी उम्र में कोई नई ज़िम्मेदारी नहीं बढ़ाना चाहता था। लेकिन तुम हर तीसरे-चौथे दिन इसी पर जोर देने लगी।

इसी बीच एक दिन रमानी बहनों ने फिर एक और झटका दिया। हमें बुलाकर बताया कि अब वह दोनों अमरीका में ही रह कर बिज़नेस करेंगी। वहीं से सब संभालेंगी। अब रमानी हाऊस के लिए उन्हें केवल एक हाऊस कीपर की जरुरत है बस। हम-दोनों को इन बातों का अंदेशा था, फिर भी अचानक सुनकर सन्न रह गए। अब समस्या यह आ गई कि नौकरी मैं करूंगा या तुम। क्योंकि नौकरी किसी एक के लिए ही थी।

दोनों बहनों ने इतने दिन की सेवा के चलते इतना अहसान किया कि फैसला हम-दोनों पर छोड़ दिया कि हम ही आपस में तय कर लें कि कौन नौकरी छोड़ेगा। मैंने सोचा कि तुम कहीं मुझे स्वार्थी, कपटी ना समझ लो इसलिए मैंने तुमसे कहा, 'ऐसा है तू कर ले नौकरी। मैं बाहर कहीं और काम तलाश लूंगा या अपना धंधा शुरू करूंगा। एक तरह से यह अपना काम शुरू करने का बढ़िया अवसर सा है, पहले उसी भले मानुष होटल वाले के पास जाऊँगा। तुम औरत जात हो, बाहर तुम्हें ज़्यादा परेशानी होगी।'

लेकिन शायद तुम भी वही सोच रही थी, जो मैं। तुमने कहा, 'नहीं, यहां नौकरी तुम्हीं करो। मैं आस-पास कहीं ढूंढ़ लूंगी। तुम परेशान मत हो। फिर उस भले मानुष के पास क्या जाएगा? इतने साल हो रहे हैं, अब तो पहचानेगा भी नहीं।'

'ऐसा नहीं है। मैं बीच-बीच में उनसे मिलता रहा हूँ।'

असल में हम-दोनों एक दूसरे को परेशान नहीं देखना चाहते थे। लेकिन मैं अपनी बात पर अडिग रहा। अंततः तुम्हें ही नौकरी के लिए तैयार होना पड़ा। मैंने कहा, 'देखो, दोनों बहनें ये तो जानती ही हैं कि, हम पति-पत्नी ही हैं। एक कमरे रहते हैं। मैं बाहर कहीं भी नौकरी करूंगा, लेकिन रहूंगा यहीं। तू इन बहनों को यही समझाना कि मैं साथ रहूंगा। इतने बड़े रमानी हाऊस की रखवाली में बड़ा सहयोग हो जाएगा। एक से दो भले रहेंगे।'