कैसी है ये मजबूरी   Ratna Pandey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कैसी है ये मजबूरी  

कस्तूरी हर रोज़ शाम को अपने बगीचे में कुर्सी लगाकर घंटों बैठी रहती थी, उसका बेटा और बहू दोनों नौकरी पेशा थे। उसकी एक नातिन भी थी, जो अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहती थी, कुल मिलाकर पूरा दिन घर में वह अकेली ही रहती थी।


घर में सब बहुत अच्छे थे और एक दूसरे का ख़्याल भी रखते थे। आजकल के इस समय में एक की कमाई से घर कहाँ चल पाता है, लोगों का रहने का, जीने का अंदाज़ भी तो बदल गया है। महिलाएँ भी पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं, जिससे परिवार को ज़्यादा से ज़्यादा सुख सुविधा मिल सके। इसका हर्जाना हमारे घर के वृद्धों को अवश्य ही चुकाना पड़ता है।


कस्तूरी की बहू चेतना ने उनकी देखरेख के लिए, पूरे दिन के लिए एक महिला रखी थी, जो उनका ख़्याल रखती थी। आजकल की व्यस्ततम ज़िंदगी में हर इंसान के पास समय की कमी है चाहे वह अमीर हो या गरीब।


कस्तूरी के पास सोसाइटी की और तीन वृद्ध महिलाएँ, जिनकी उम्र सत्तर से अस्सी वर्ष के बीच थी, अक्सर आकर बैठ जाया करती थीं। चारों मिलकर घंटों बातें किया करते, अपना दुःख दर्द एक दूसरे को सुनाते। हंसती, हंसाती ज़िंदगी इसी तरह कट रही थी। सब अपने परिवार की मजबूरी समझती थीं और वे ख़ुश भी थीं।


दिन भर काम वाली के साथ रहना ही उनके जीवन का हिस्सा बन गया था। शाम के वह एक-दो घंटे ही उनकी दिन भर की उदासी को ख़त्म करते थे। सभी कई बार अपने-अपने पति की याद करतीं थीं।


एक दिन कस्तूरी ने कहा, "वह थे तो समय कैसे बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था।"


जानकी बीच में ही बोली, "हाँ कस्तूरी तुम सही कह रही हो, जीवन साथी के बिना समय भी पहाड़ की तरह ही लगता है।"


पुष्पा ने कहा, "घर में सभी बहुत अच्छे हैं लेकिन वह होते तो यह अकेलापन ना होता। हमारा अकेलापन तो केवल वह ही हटा सकते थे।"


पार्वती कहने लगी, "बेटा बहू भी क्या करें, उनकी भी तो मजबूरी है, कितना महंगाई का जमाना है। पढ़ाई-लिखाई भी कितनी महंगी हो गई है। अब तो यही ज़िंदगी है, इसे स्वीकार करके चाहे ख़ुशी से जियो, या घुट-घुट के मरो, मैं तो ख़ुश हूँ भाई।"


कस्तूरी कहने लगी, "हम बूढ़ों की दवा दारू का ख़र्चा भी तो लगा रहता है। हमारे लिए नौकरी छोड़ कर तो नहीं बैठ सकते वे।"


पुष्पा ने कहा, "चलो कम से कम हम साथ-साथ हैं, शाम अच्छी तरह कट जाती है, तब तक बच्चे भी स्कूल से आ जाते हैं।"


दूसरे दिन सुबह-सुबह अचानक रोने की आवाजें आने लगीं। छोटी-सी सोसाइटी थी इसलिए कुछ भी हो तो जल्दी ही सभी को पता चल जाता था। बाहर निकलकर लोगों ने देखा, तो पता चला रात को बिस्तर पर ना जाने कब पुष्पा स्वर्ग सिधार गई। सभी ने अश्रु पूरित आँखों से उन्हें विदा कर दिया।


शाम को अब चार में से केवल तीन ही सहेलियाँ बाक़ी रह गई थीं। वे तीनों मिलकर पुष्पा को याद कर रही थीं।


तभी कस्तूरी ने कहा, "देखो ना कल ही कह रही थी, चलो कम से कम हम साथ-साथ हैं और आज वही हमें छोड़ कर चली गई।"


जानकी ने कहा, "चलो अच्छी मौत मिल गई उसे, किसी को भी तकलीफ़ दिए बिना ही चली गई, हमारा क्या होगा?"


अगले एक वर्ष के अंदर दूसरी दो सहेलियाँ भी साथ छोड़ गईं, अब कस्तूरी अकेली बची।


मानसिक तनाव से ग्रस्त कस्तूरी अपने भविष्य के विषय में जब भी सोचती, एक प्रश्न आँखों के समक्ष आकर खड़ा हो जाता कि अब उसका क्या होगा? वह मानसिक रूप से बीमार रहने लगी। न जाने कितनी ही बातें वह भूलने लगी।


उनकी देखरेख करने वाली शांता बाई उनका बहुत ख़्याल रखती थी। उसके घर में भी उसकी बूढ़ी सास थी, जिसे छोड़ कर उसे काम पर आना पड़ता था। क्या करें ग़रीबी चीज ही ऐसी होती है, चाहे जो भी हो, दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो करना ही पड़ता है। अपनी सास की दवाइयों का ख़र्च भी तो उठाना होता था। महंगाई के इस दौर में पैसे की कमी हर गरीब के द्वार पर दस्तक देती रहती है।


एक दिन अचानक कस्तूरी की तबीयत बहुत बिगड़ गई। शांता ने अपनी मैडम चेतना को तुरंत ही फ़ोन करके बताया, "चेतना मैडम, मांजी की तबीयत बिगड़ रही है, आप जल्दी आ जाओ।"


"शांता मैं शहर के बाहर गई हूँ, मुझे आने में समय लग जाएगा। साहब भी शहर से बाहर गए हैं, तुम उन्हें संभालो। मैं तुरंत ही डॉक्टर को फ़ोन करके भेजती हूँ। मैं भी जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करूंगी, फिर भी कम से कम तीन-चार घंटे तो लग ही जाएंगे।"


चेतना के फ़ोन करने से डॉक्टर ने आकर कस्तूरी को देख लिया और इंजेक्शन वगैरह भी लगा दिए। अब तक रात के नौ बज चुके थे शाम के छः बजे अपने घर जाने वाली शांता को आज नौ बजे तक रुकना ही पड़ा।


चेतना के वापस आते ही शांता तुरंत अपने घर की तरफ़ निकली और तेज-तेज चलते हुए घर पहुँची। उसका पति भी लगभग नौ बजे ही वापस आ पाता था। घर पहुँच कर उसने देखा उसकी सास फ़र्श पर बेसुध पड़ी है।


उसने उनके पास जाकर आवाज़ दी, "अम्मा, अम्मा उठो क्या हो गया है तुम्हें?"


अम्मा यदि बोल सकतीं तो अवश्य ही बोलतीं लेकिन वह तो हमेशा के लिए चुप हो चुकी थीं। शांता ने अपनी मैडम के घर कस्तूरी की जान बचाने की तो पूरी कोशिश कर ली, उन्हें बचा भी ली लेकिन अपनी अम्मा के अंतिम समय में उनके पास ना रह पाई।


चेतना को जब पता चला तो वह उससे मिलने उसके घर आई।


वहाँ पहुँचकर चेतना ने शांता बाई को सांत्वना देते हुए उसके हाथ में सहायता के तौर पर कुछ रुपये थमा दिए और उसके आँसू पोंछते हुए चेतना सोच रही थी, हे भगवान कैसी है यह मजबूरी, ज़माना कितना बदल गया है। पहले घर में यदि किसी बुज़ुर्ग का अंतिम समय निकट होता था तो उसके बिस्तर के आस पास पूरा परिवार एकत्रित रहता था। उसके अंतिम समय में उनके साथ होता था लेकिन आज परिस्थिति बिल्कुल बदल गई है।


आज के समय में ना जाने बेचारे कितने वृद्ध अकेले ही दुनिया छोड़ जाते हैं। अंतिम समय में अकेले कितना दुःख कितना दर्द होता होगा। किंतु पैसा भी तो सभी को चाहिए, उसके बिना जीवन चल नहीं सकता, चाहे वह अमीर हो या गरीब। पूरी ज़िंदगी हमारा साथ देने वाले हमारे बुज़ुर्ग माता-पिता अपने अंतिम वक़्त में बिल्कुल तन्हा रह जाते हैं और हम आँसू बहाते हुए यह सोचते रह जाते हैं कि काश अपनी व्यस्ततम ज़िंदगी से थोड़ा समय निकाल लिया होता।



रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक