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अंत... एक नई शुरुआत - 3

समीर,मेरा पहला प्यार,मेरी दुनिया और मेरा जीवनसाथी।समीर को अपनी ज़िंदगी में पाकर मुझे लगा कि जैसे मेरी ज़िंदगी की हर एक परेशानी,हर एक दर्द का इलाज हो गया।मेरी माँ भी मुझे समीर के साथ ब्याहकर निश्चिंत हो गई। उन्होंने मुझसे मेरी पगफेरे की रस्म के वक्त कहा था कि मुझे समीर से ज्यादा प्यार कोई और नहीं कर सकता और उनकी ये बात पूरी तरह से सही भी साबित हुई जिसकी हैरानी मुझे आजतक है कि आखिर वो औरत जिसे स्वयं अपने जीवन में प्यार की एक बूंद भी नसीब न हुई हो वो प्यार के मामले में आखिर किसी का इतनी जल्दी और इतना सटीक आंकलन कैसे कर सकती है भला?

शुरू के कुछ वर्ष तो मेरे इसी गुत्थी को सुलझाने में बीते कि समीर जैसे सुंदर शक्ल-सूरत वाले इंसान ने मुझे ही अपनी जीवनसंगिनी के रूप में क्यों चुना जबकि उसे तो कोई भी खूबसूरत लड़की मिल सकती थी और फिर वो अच्छी शक्ल के साथ ही साथ एक अच्छे व्यक्तित्व का भी मालिक था।इसके साथ ही साथ मेरे लिए एक

पुरूष का ये सकारात्मक पहलू पचाना भी बहुत मुश्किल था जबकि मैंने अपने इससे पहले के हर एक अनुभव में पुरूष-पक्ष को इससे विपरीत ही पाया था फिर वो मेरे पिता का अनुभव हो,मेरे वो दूसरी कक्षा के यौनशोषण को आतुर उस अध्यापक का अनुभव हो या फिर मेरे कॉलेज के बाहर घूमते उन छिछोरे लड़कों का जो कि हर एक लड़की को अपने झूठे और फिल्मी सपने दिखाकर सिर्फ और सिर्फ उसके जिस्म से खेलना चाहते थे मगर समीर का व्यक्तित्व मेरे उन सभी कड़वे अनुभवों से कहीं से भी बिल्कुल भी मेल नहीं खाता था।वो अपनी ही तरह एक औरत को भी इंसान समझता था,उसे एक औरत की भावनाओं की कद्र थी और सबसे बड़ी बात कि उसे औरतों का सम्मान करना भी आता था।धीरे-धीरे समय बीतता गया और समय के बीतने के साथ मुझे ये बात भी समझ में आयी कि समीर ने ये शादी शायद अपनी माता जी यानि कि श्रीमती ऊषा देवी जी को ध्यान में रखकर की थी क्योंकि वो कई बार मुझसे कहता था कि मेरी जगह कोई और लड़की शायद कभी भी उसकी माता जी के साथ सामंजस्य न बिठा पाती।ऊषा देवी अपने नाम से बिल्कुल उलट थीं तो अब आप देवी का उल्टा क्या होता है,ये तो समझ ही गये होंगे न!!!

समीर के प्यार की छांव में मैं उसकी माता जी की तपती धूप में गर्म रेत पर नंगे पांव भी मुस्कुरा कर चलती रही और इस बीच मेरी माँ को कैंसर ने अपनी गिरफ्त में ले लिया।मैं अपनी माँ की सेवा करना चाहती थी,उनके पास जाना चाहती थी लेकिन ये ऊषा देवी के होते हुए असंभव था।इस बीच समीर मुझे चोरीछिपे दो-चार बार मेरी माँ से मिलवा लाये थे।मैं इधर अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने में व्यस्त थी और उधर एक रात मेरी माँ ने चुपचाप अपने दुखों से निजात पा ली।मेरी माँ की मौत का मुझे शायद इतना दुख नहीं हुआ जितना दुख मुझे मेरे पिता की मेरी माँ की तेरहवीं के दिन ही दूसरी शादी करने का हुआ।इस दुख से मुझे बिखरता हुआ देख समीर ने बड़ी ही मुश्किल से और कई शर्तों के बाद अपनी माता जी से मेरे टीचर-ट्रेनिंग कोर्स की अनुमति ले ली।मेरे लिए ये सबकुछ एक सपने के सच होने जैसा ही था।जो काम मेरे लिए मेरे पिता ने नहीं किया उसे आज मेरा पति अंजाम दे रहा था।मैं सुमन समीर शर्मा,आज अपने शिक्षा के पंख लगाकर उड़ने को तैयार थी।

क्रमशः

लेखिका...
💐निशा शर्मा💐


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