औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 12 ramgopal bhavuk द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 12

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 12

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

मुझे खूब याद है, महाराजजी उन दिनों इस नगर के प्रसिद्ध शराब विक्रेता मनीराम शिवहरे के मकान में किराये से रहते थे। जब- जब मैं इनसे मिलने गया हूँ ,मुझे शराब की दुकान के बगल से निकलकर जाना पड़ा है। वहाँ से निकलना हरबार मुझे खटका है। यह सोचते हुये निकला हूँ कि स्वामी जी को भी रहने को कहाँ जगह मिली है! नरेन्द्र उत्सुकजी स्वामीजी के यहाँ अक्सर जाते रहते थे। जब मैं पहली बार मित्र नरेन्द्र उत्सुकजी के साथ कमरे में पहुँचा, स्वामीजी आराम से कमरे में बिछी चटाई पर बिराजमान थे। मुस्कराकर उन्होंने हमारा स्वागत किया। मैंने इधर- उधर दृष्टि घुमाई, समझ गया, यह एक साघक का साधना कक्ष है। बातों- बातों में मेरे अपने स्वास्थ्य को लेकर ह्म्योपैथिक दवाओं की बात चल निकली। मैंने कहा-’ आप को ह्म्योपैथी में रुचि हैं। मेरे पास एक किताब ह्म्योपैथी से सम्बन्धित जाने कहाँ से आगई है । मैं उसे आपको दे जाउँगा, शायद आप उसका उपयोग कर सकें।

दूसरे दिन मैं वह किताब उन्हें दे आया था। बाद में पता चला स्वामीजी गरीब मरीजों की सेवा में ह्म्योपैथी का उपयोग करते हैं। ह्म्योपैथी में उनका विश्वास आज भी यथावत बना हुआ है।

मुझे याद आ रहा है, सन्यास लेने से पूर्व एक बार महाराज जी ने अपने घर पर एक कवि गोष्ठी रखी थी। इन दिनों वे रेल्वे स्टेशन डबरा के सामने गली नम्बर तीन, शिव कॉलोनी में कुटी बनाकर उसमें रहते थे। नगर के सभी कवियों को उसमें आमंत्रित किया गया था। इस नगर में ऐसी सफल गोष्ठी शायद फिर कभी नहीं हुई है। रातभर चाय नास्ते के साथ स्तरीय गोष्ठी चलती रही। कभी-कभी उस गोष्ठी की रचनायें आज भी मुखरित हो उठतीं हैं।

यों महाराज की छवि मेरे चित्त में बैठती चली गई। महाराजजी की एक इस रचना ने मेरे चित्त को अधिक प्रभावित किया है-

रुको,जरा अर्थी रोको, मैं श्रद्धा सुमन चढ़ालूँ ,

नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,

यह मरी नहीं है ,अमर होगई।।

सुकुमारी यह उस बस्ती की, जहाँ निश्छल स्नेह बरसता है,

माँ के श्वांसों की उष्णा से, शिशु पलता और पनपता है,

सर्दी गर्मी और वर्षा में, जहाँ बचपन बेसुध फिरता है,

जेठ अषाढ़ की गर्मी में, जहाँ तन में शीरा पकता है,

माटी गारा का उबटन चढ़, सुरमई सा रंग निखरता है,

रूखे सूखे टुकड़ों में पल, गदराया जिस्म महकता है,

अधकचरे रैन बसेरों में, टूटी फूटी खपरेलों में,

सतरंगी पैबन्द लगे, चिथड़ों में यौवन खिलता है,

भादों में खमीरी देह लिये, आँचल में पूस थिरकता है,

ऋतुराज की आहट पातेही, तन्हाई में रूप सँबरता है,

यह लोकतंत्र की बेटी है, मस्तक पर तिलक लगालूँ ,

नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,

यह मरी नहीं है, अमर होगई।।

भौजी के नूपुर की रुनझुन, नन्हीं की पायल की छुनछुन,

झोली में मुन्ने की कुनकुन, बहना की चूड़ी की झुनझुन,

धनलोभी भँवरों की गुनगुन,अम्मा की खाँसी की खुनखुन,

बापू की हारी साँसें मिल, जहाँ एक ताल में बजती हैं,

लाचारी की कथरी ओढ़े, सरिता नयनों से झरती हैं,

सखियों की हँसी ठिठोली में,बोहरे की मीठी बोली में,

मजबूरी का गहना पहने,जहाँ षोड़श बाला ठगती हैं,

बिन ब्याहे पिया की दुल्हन बन, क्बाँरी मांगे जहाँ रचती हैं,

जहाँ सत्य सनातन सिर धुनते, नैतिकता आहें भरती हैं,

जहाँ मानव के अधिकारों की, नित नई चितायें जलतीं हैं,

यह समाजबाद की बेटी है, मैं चूनर जरा उढ़ालूँ,

नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,

यह मरी नहीं है, अमर होगई।।

आड़े तिरछे गलियारों में,वीणा सी मधुर झनकार लिये,

चंचल चपला सी चमक चमक, तन में सागर का ज्बार लिये,

बिखरे गेसू अधखुली पलक, उर में सपनों का हार लिये,

डगमग डगमग पग धरे कहीं, खुद के यौवन का भार लिये,

भटके बौराई हिरनी सी, गूँगे मन का उदगार लिये,

ओंटी बिजया सी मादकता, कोरस गुलाबी सुरुर लिये,

मृगमद सी अंग से गंध उड़े, झूमे रम्भा सी उभार लिये,

पोरी पोरी में रस छलके, और नयन उनींदा खुमार लिये,

अल्हड़ यौवन बाँकी चितवन, अधरों पे सुखद मुस्कान लिये,

भोलापन जहाँ थिरकता हो, झिलमिल चूनर की ओट किये,

यह धरनीधर की बेटी है, मैं राखी जरा बँधा लूँ,

नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,

यह मरी नहीं है, अमर होगई।।

इसके दादा परदादा ने संसद का भवन बनाया था,

खुद की तरुणई रगड़ रगड़, इसका पत्थर चमकाया था,

मेंहदी रची हथेली पर,छालों से रिसते छन छनकर,

विखरा था इत्र हिना इतना?

पीड़ से बोझिल मन होकर,मृगनैनी का काजल घुलकर,

था मुश्की इत्र वहा कितना?

जेठी तपी दुपहरी में, अषाढ़ी झुलसी लपटों में,

इसकी सीढ़ी दर सीढ़ी में, कितनी पीढ़ी कुर्वान हुईं,

अपने तन का दोहन करके, कितनी जानें बेजान हुईं,

कितने लालों की लाली पी, इसकी दीबारें लाल हुईं,

गुंबज़ पर चढ़ा तिरंगा जब, जननी यहाँ की निहाल हुई,

यह प्रजातंत्र की बेटी है, चरणों में शीस नवालूँ,

नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,

यह मरी नहीं है, अमर होगई!

यह रचना सम्भव है ,मेरी तरह आपके अन्दर के भी सुसुप्त पड़े तारों को झंकृत करदे। इस रचना को मैंने अनेक बार पढ़ा है। हर बार नये नये भाव उद्घृत हुये हैं। इसकी पीड़ा ही मुझे बिद्रोह की ओर खीचकर लेगई है। इसने ही मेरी राष्ट्रीय भावना को स्थाई रुप दे दिया है।

उन दिनों राजा साहब मगरौरा इस नगर में एक साहित्यकार के रूपमें भी प्रतिष्ठित थे। सन्1982 में होली का पर्व था। होली मिलन के लिये मैं ,सुरेश पान्डे सरस,एवं नरेन्द्र उत्सुक तीनों ही स्वामी जी के यहाँ जा पहुँचे। उन्हें अपने साथ लेकर हम चारो मगरोरा वाले राजा साहब के यहाँ मिलने पहुँच गये। नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति गाजीपुर निवासी श्री रमाशंकर राय जी पहले से ही मौजूद थे। कवि गोष्ठी चल रही थी। हम सब यथा स्थान बैठ गये। जब स्वामीजी का रचना पाठ के लिये नाम लिया गया तो उन्होंने यह रचना पढ़ी-

जब जब पहुँचा द्वार तुम्हारे, लौटा नई चेतना लेकर,

बिखरे स्वप्न सँबारे तुमने, प्रतिपल नई चेतना देकर,

क्या तेरा उपकार नहीं ये?

फिर कैसे कहदूँ प्यार नहीं है!

यूँ तो कितने घट देखे पर मन की क्षुधा न बुझने पाई,

सुरभि, सुष्मा मिलीं अनेकों, ममता कहीं न लखने पाई,

ममता बिन समता हो कैसी,थी बात तनिक पर समझ न आई,

जो भी आया प्यार लुटाने, लौटा वही वेदना देकर,

बिखरे स्वप्न सँबारे तुमने, प्रतिपल नई चेतना देकर,

क्या तेरा उपकार नहीं ये?

फिर कैसे कहदूँ प्यार नहीं है!

पगपग किया भरोसा जग का, पर स्थयित्व न मिलने पाया,

क्षणिक देख मुस्कान बढ़ा मैं, कहीं अपनत्व न दिखने पाया,

मृगतृष्णा के पीछे-पीछे, जीवन जैसी निधि लुटाकर,

जब-जब पहुँचा द्वार तुम्हारे, लौटा नई प्रेरणा लेकर,

बिखरे स्वप्न सँबारे तुमने, प्रतिपल नई चेतना देकर,

क्या तेरा उपकार नहीं ये?

फिर कैसे कहदूँ प्यार नहीं है!

(16.2.82)

इसमें स्वामीजी के मधुर स्वर ने समा बाँध दिया। होली का सारा वातावरण संगीतमय हो गया। सभी श्रोता इनके स्वर और रचना की भूरि- भूरि प्रशंसा कर रहे थे। ऐसी रही उनकी काव्य दुनियाँ।

महाराज जी की रचनायें ‘स्वामी मामा’ के नाम से अखबारों में प्रकाशित होती रही हैं। व्यवस्था की शल्य क्रिया करती उनकी यह रचना-जो बहुत समय पश्चात स्वतंत्रता सेनानी दाँते जी के निवास पर सुनने को मिली ।

साँप घर में पल रहे हैं।

कालिमा देखो क्षितिज पर आज छाती जारही है,

हर जगह पृथ्वी पे सुर्खी आज वढ़ती जारही है।

कालिमा देखो..............

धू-धू करके हर दिशा में आज लपटें उठ रहीं हैं,

हर गली चौराहे उन्मत आज अस्मत लुट रही है,

नस्ले इन्साँ किस कदर गुमराह होती जा रही है।

कालिमा देखो.............

एक ही माँ के लाड़लों में आज गोली चल रही है,

हर जगह इन्सानियत की आज होली जल रही है,

बागियों की दुंदभी हर ओर बजती जारही है।

कालिमा देखो.............

लूटकर बस्ती की दौलत पारसा अब बन रहे जो,

पोंछ कर सिन्दूर अगणित आज योद्धा तन रहे जो,

अब उन्हीं की शोर्य गाथा आज लिखी जारही है।

कालिमा देखो............

मान मर्यादा को तज शासक समर्पण कर रहे है,

न्याय से होकर विमुख शासन समर्थन कर रहे हैं,

भाल पर इतिहास के कॉलोंच पुतती जारही है।

कालिमा देखो............

वन अभावों का धनी दिनरात मानव गल रहा है,

क्रूर पंजों में कसा विश्वास आहें भर रहा है,

खुद की परछाँई भयानक आज बनती जारही है।

कालिमा देखो............

राष्ट्र को बनकर हकीकी धूर्त लम्पट ठग रहे हैं,

नीद में सोय प्रहरी साँप घर में पल रहे हैं,

संतति बगुलों की दिन- दिन आज बढ़ती जारही है।

कालिमा देखो............

इसी तरह महाराज जी की इस रचना ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया है।

वेदना श्रंगार करती...........

दर्द जब उठता है दिल में,बोल गीतों के निकलते,

वेदना श्रंगार करती ,भाव गीतों में निखरते।।

गूँजती चारों दिशायें ,थरथरा उठता गगन,

आह भरती हर कली ,ले पीड़ से बोझिल नयन,

प्रीत घुँघरू बाँध नाचे, राग गीतों से निकलते।।

वेदना श्रंगार करती..........

चाह भटके ज्यों बटोही, मार्ग भूले राह चलते,

स्वप्न में खोकर स्नेही, नींद ठिठके साँझ ढ़लते,

घाव लावा से पिंघलते, श्रोत गीतों से निकलते।।

वेदना श्रंगार करती..........

दूर साहिल पे कहीं, जब आहटें कदमों की सुनतीं,

दूरियाँ घटतीं है दिल में , मंजिलें आसान दिखतीं,

टूटती साँसें सहमती, स्वप्न माँझी के सिहरते।।

वेदना श्रंगार करती..........

खा थपेड़े वक्त के मन,नीड़ के पंछी सा लौटे,

गहन कोहरे में ठिठकते,ज्यों दिवाकर आँख खोले,

साज बजते एक स्वर में, मौत के साये सिमटते।।

वेदना श्रंगार करती..........

( स्वामी मामा डबरा)

महाराज जी स्वामी मामा के नाम से लम्बे समय तक लेखन करते रहे हैं। उनकी रचनाओं की थाह मापते नहीं बनती। वे शुरू से ही गहरे सागर से रहे हैं।

महाराज जी ने कृपा करके एक बार अपनी इन रचनाओं की फोटो प्रति मुझे देदी थी। मुझे इस रचना के लेखन में इनका उपयोग आवश्यक लग रहा है। मैंने उनकी अनुमति के बगैर इनका उपयोग कर डाला है। निश्चय ही मैं पाप का भागीदार हूँ। इस हेतु जो दण्ड मिले वह मुझे सहर्ष स्वीकार है। यह सोचकर ही यह एक रचना यहाँ और प्रस्तुत है-

कठिन नहीं कुछ ,बड़ा सरल है.......

मृत्यु के क्षण दूर रहेंगे, तुम जरा मुस्कादो ,

कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,

कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।

गरल पिया है कितना मैंने, सभी पचा है इस जीवन में,

जानें कितनी प्यास छुपी है, अधर अभी भी सूखे ,मन में

मघु कलष है पास तुम्हारे,, कुछ बूँदें छलका दो,

कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,

कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।

विदेह नहीं हूँ दग्ध हृदय है, शाँत नहीं हूँ तप्त हृदय है,

सजल नहीं अब वाष्प बहुत है,शुष्क नहीं

मन सरल बहुत है,

स्पन्दन साफ सुनाई देगा, दूरी तनिक घटादो,

कुछ और जिन्दगी जी लूंगा मैं ,सहारा तनिक लगादो,

कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।

कंटक बहुत सहे हैं पग पग,दुर्गम और कटीले पथ पर,,

सीते रहे सदरी गैरों की,भूल गये बस खुद की चादर,

अर्न्तमन स्थायित्व ढ़ूँढ़ता, आशा दीप जला दो,

कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,

कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।

नित्य प्रति सूरज ढ़लने तक,कितने जीवन जी डाले हैं,

कड़वे, मीठे , तुर्ष ,कसैले,कितने अनुभव पी डाले हैं,

साधरण सी बात नहीं कुछ,थेड़ा गणित लगालो,

कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में,

सहारा तनिक लगादो,

कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।

हृदय पटल पर अंकित जो भी,

अक्षर बन प्रतिबिम्बत होता,

स्वतः निकलते भाव हृदय से,

समय सृजन जो कण कण करता,

अर्थ पूर्ण , मौन भाषा है, चिन्तन कर अपनालो,

कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,

कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।

शंकास्पद संकीर्ण भाव से,कठिन बहुत है अनुभव करना,

सद्भावी व्यक्तित्व तुम्हारा,सहज बहुत है अभिनय करना,

भ्रमित न हों,विश्वास जगाकर, दिग्दर्शन दे डालो ,

कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,

कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।

स्वामी मामा, डबरा

मेरी तरह आप भी इस रचना को अनेक बार पढ़ना चाहेंगे। हर बार नये-नये भावों से रु-ब-रु होते हुये नयी-नयी अनुभूतियों का अनुभव करेंगे।

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