(3)
अपने कस्बे की दो घटनाएं आज भी मेरे चित्त पर अंकित हैं।
सुचिता मासी ....मेरी माँ की पड़ोसन!अपने समय की बेहद खूबसूरत महिला! धर्म- कर्म, दान- पुण्य, पूजा -पाठ में आस्था और विश्वास रखने वाली !पति किसी सरकारी विभाग में चपरासी था। उसकी पहली पत्नी से एक बेटी थी। सुचिता मासी गरीब घर की बेटी थीं, तभी तो दिखने में साधारण, दोआह, एक बच्ची के पिता को सौंप दी गईं। उस आदमी को मौसा कहने में मुझे शर्म आती थी क्योंकि वह बच्चियों को भी गन्दी निगाह से देखता था। उसने मुहल्ले में सबसे शानदार दो मंजिला मकान बनवा लिया था और इस बात का उसे बहुत गुरूर था। चपरासी के अमीर बनने के पीछे सुचिता मासी थीं। मां ने बताया था कि उसने जबरन अपने साहब से मासी का सम्बंध बनवा दिया था, जो करीब रोज ही उनके घर आता और मासी का शोषण करता पर बदले में बहुत- कुछ देता भी था। मासी कम पढ़ी -लिखी और पति पर आश्रित थीं, इसलिए मजबूर थीं। माँ से उन्होंने अपने दिल का दर्द बयां किया था। उनकी सुंदरता ही उनकी दुश्मन बन गई थी। मुहल्ले में सभी उनके बारे में जानते थे पर मुँह नहीं खोलते थे। मासी का व्यवहार सबके साथ बहुत ही विनम्र और प्रेमपूर्ण था जबकि उनका पति धन के ऐंठ में रहता था। झगड़ालू भी बहुत था। पता नहीं उसने मासी को किस- किसके हवाले किया होगा पर साहब स्थायी ग्राहक जैसे था। वह मासी पर हावी रहता !उन्हें मारता- पीटता, उन पर पाबंदियां लगाता। किसी भी पुरुष से बात नहीं करने देता था पर हर समय पहरेदारी तो नहीं कर सकता था। मासी की बड़ी- बड़ी खूबसूरत आंखें थी । वे अपनी आँखों से ही अपना सारा सुख -दुख व्यक्त कर देती थीं!गुस्सा, प्रेम, नफ़रत सब उनकी आंखों से पता चल जाता था। मैं जब भी उनके घर जाती या वे मेरे घर आतीं मैं उनकी आँखों को ही देखती रहती। उनके मुस्कुराने से पहले उनकी आंखों में फूल खिल जाते। रोने से पहले श्याम मेघ घिर आते। प्रेम की बातें सुनकर उनकी आंखें गुलाब हो जाती । प्रशंसा सुनकर टच- मी -नॉट । ऐसी अद्भुत आंखें मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखीं। हालांकि उनका शरीर स्थूल हो चला था और वे अक्सर बीमार रहतीं। उस समय वे पैंतीस- चालीस के आस -पास की थीं। उनकी आँखों का ही कमाल था या फिर उनके जीवन की ट्रेजडी कि उनके घर में किरायेदार बनकर आया एक ठाकुर लड़का उनका प्रशंसक बन गया। वह अच्छी नौकरी में था और बेहद गम्भीर भी। उसकी शादी हो चुकी थी पर पत्नी गाँव में उसके माता- पिता की सेवा में रहती थी।
उसके सुचिता मासी के घर आते ही मासी का जीवन बदल गया। सबसे पहले उसने साहब के बीबी -बच्चों से मिलकर साहब का मासी के घर आना-जाना बंद करवाया। साहब अपनी रखैल को छोड़ना नहीं चाहता था। उसने उन पर काफी पैसे लगाए थे। काफी थुक्का- फजीहत के बाद वह नाजायज़ रिश्ता खत्म हुआ। चपरासी को भी उसने खबरदार कर दिया कि अगर कोई गलत क़दम उठाया तो तुम्हारी बेटी का जीवन तबाह हो जाएगा। घर मासी के नाम था। बेटी बड़े शहर के कॉन्वेंट में मासी की बदौलत ही पढ़ रही थी। चपरासी डरकर केंचुआ बन गया।
मासी ठाकुर से पन्द्रह साल बड़ी ही नहीं, देह से भी उससे काफी स्थूल थीं, पर दिल का मामला था। उन्होंने आपस में शायद गुप्त विवाह भी कर लिया था पर ठाकुर के साथ पति- पत्नी की तरह उस कस्बे में नहीं रह सकते थे।
ठाकुर ने पास के बड़े शहर में घर बनवाया, जहां वे पति -पत्नी की तरह रहने लगे । शहर के लोग मासी का अतीत नहीं जानते थे, पर जब भी वे हम लोगों से मिलतीं आंखें चुरातीं। ठाकुर के साथ उनकी जोड़ी अटपटी लगती। मासी ने ठाकुर को अपनी पत्नी को नहीं छोड़ने दिया और न ही अपने पति को छोड़ा। सौतेली बेटी की शादी भी धूमधाम से की। उनके घर सारे रिश्तेदारों का आना -जाना भी लगा रहा। मासी उदार थीं। सबको कुछ न कुछ देती रहती । हारी -बीमारी नें मदद करतीं, इसलिए सब उनकी सेवा में हाज़िर रहते। पैसा बहुत -सी गलतियों पर पर्दा डाल देता है। एकाध बार मैं उनके शहर वाले घर गई। मुझे लगा कि मासी पूरी तरह ठाकुर के कंट्रोल में रहती हैं। उनका रिमोट उसी के हाथ में रहता है। उसने मासी को सुख- सुविधा तो बहुत दी है पर उनकी आज़ादी छीन ली है।
एक दिन पता चला कि ठाकुर को हार्ट -अटैक आ गया। कम उम्र में ही वह संसार से विदा हो गया । मासी उसका बिछोह न सह सकीं और कुछ दिनों बाद वे भी चल बसीं। कस्बे और शहर दोनों की उनकी सम्पत्ति उनकी सौतेली बेटी के हिस्से आई क्योंकि मासी की अपनी देह से कोई औलाद नहीं हुई थी। चपरासी आज भी जिंदा है पर मासी की प्रेम कहानी का अंत हो गया।
दूसरी घटना एक स्कूल टीचर की है, जो कस्बे में मेरे साथ पढ़ाती थी। तेज -तर्रार, सुंदर और सुडौल विजया सिंह। मेरी उससे ज्यादा नहीं बनती थी। वह प्रिंसिपल मैम की दोस्त थी इसलिए स्कूल की बाकी टीचरों पर रोब गाँठती रहती थी। उसके और प्रिंसिपल मैम के पति सेंट्रल बैंक में अच्छे पद पर थे। अपनी उच्च -जाति, रूप- रंग, रहन- सहन पर उसे गर्व था। वह मुझ जैसी साधारण घर- परिवार व पिछड़ी जाति की टीचर को हीन -दृष्टि से देखती थी, जबकि शिक्षा और योग्यता में मैं उससे बीस थी। उसे चिढ़ इस बात की थी कि मैं उससे दबती नहीं थी। एक -दो बार तो उससे भिड़ंत भी हो गई थी। एक बार उसने शेखी में आकर सीधे रिमार्क कर दिया कि छोटी और पिछड़ी जाति वाली स्त्रियों का कोई चरित्र नहीं होता। वे धन और सुख- सुविधा की वस्तुओं के लिए कुछ भी कर सकती हैं। मैंने प्रिंसिपल से उसकी शिकायत की। पहले तो प्रिंसिपल ने बात को दबाने की कोशिश की, पर जब मैंने उन्हें बताया कि बच्चों के सामने ये बातें कही गईं। उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?तब प्रिंसिपल ने कहा मैं उनसे बात करूंगी। खैर बाद में हमारी सुलह हो गई थी।
फिर मैं शहर चली आई और यहीं नौकरी करने लगी। कभी- कभार ही अपने घर जाना होता, पर जाती तो प्रिंसिपल से जरूर मिलती। एक दिन मैम के साथ ही विजया के घर गई। तो दरवाजा एक लड़के ने खोला। प्रिंसिपल मैम ने लड़के को हिकारत से देखा। वह भी उन्हें घूरता हुआ घर के भीतर चला गया। विजया आई पर यह क्या !उसकी सारी तेजस्विता पर जैसे ग्रहण लग गया था। बिल्कुल मुरझा गई थी। आंखें मिलाकर बातें भी नहीं कर पा रही थी, मानो किसी बात के लिए बेहद शर्मिंदा हो। थोड़ी देर बाद हम लौट आए तब प्रिंसिपल मैम ने बताया कि आजकल वह लड़का ही उनके घर का मालिक है। उसके परिवार से विजया का पारिवारिक सम्बन्ध था। बचपन से ही वह इन्हीं के घर ज्यादा रहता था। ये जब स्कूल जाती थीं। इनके बच्चों को भी संभालता था। हारी- बीमारी में इनकी खूब सेवा करता था। घर -परिवार की जरूरतें पूरी करता था। नौकरी- चाकरी कुछ करता नहीं इसलिए इन्हीं की सेवा में लगा रहा। इनके पति व्यस्त रहते थे। लड़के की उम्र को देखते हुए उसके या इनके परिवार को उसके यहां रात -दिन पड़े रहने पर एतराज़ भी नहीं था, न कोई शक- शुबहा की गुंजाइश थी। धीरे -धीरे ये उस पर डिपेंड होती गईं । मेंटली के बाद फिजिकली भी। अब वह इनकी कमजोरी बन गया है और इस तरह घर का मालिक भी। चारों तरफ़ थू थू हो रही है। पति बूढ़े व अक्षम होते जा रहे हैं। समाज में इज्जत बचाने और बच्चों के भविष्य के खातिर चुप हैं पर भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं। जवान हो रहे बच्चे अभी आत्मनिर्भर नहीं है। सब कुछ जानते -समझते भी चुप है। समाज भी चुप है कि पति -बच्चों के साथ रहती हैं।
चुप तो विजया सिंह भी हैं क्योंकि वे उसके बिना जीने की कल्पना नहीं कर पाती हैं । उसकी सेवा, उसके प्यार और समर्पण को भूल नहीं सकतीं। पर कहीं न कहीं उनके मन में अपराध -बोध भी है कि वे गलत रास्ते पर हैं । अब न गलत रास्ता उनको छोड़ रहा है न वे उसे छोड़ पा रही हैं । लड़का भी उन्हें क्यों छोड़े ?अपना घर- परिवार, शादी ब्याह, बाल- बच्चों का सारा सपना उनके लिए छोड़ चुका है।
कौन जाने इस रिश्ते का क्या अंत होगा?
तीसरी घटना मेरी रिश्ते की एक बहन की है । वह भी बेटे की उम्र के लड़के के प्रेम में इस तरह गिरफ़्त हुई कि आज कहीं भी मुँह दिखाने के काबिल नहीं बची है। वह खुद मानसिक- रोग का शिकार है। पति पर पागलपन के दौरे पड़ने लगे हैं। दो बेटियाँ अपने- आप को अपने पतियों का निष्ठावान साबित करने के लिए खट रही हैं। एक-मात्र बेटा किसी से नज़र नहीं मिला पा रहा। प्रेमी लड़के को भी उसके घर वालों ने घर से बाहर निकाल दिया है, फिर भी न तो दोनों की दीवानगी कम हुई है न मानसिक रूप से एक -दूसरे से अलग हो पाए हैं।
क्या यह प्यार है! माना प्यार कोई बंधन नहीं मानता। न विवाह का न उम्र का, न समाज का न संसार का, पर क्या एक नैतिक बंधन इस पर नहीं होना चाहिए?क्या जरूरी है कि प्यार में शरीर भी शामिल हो? शरीर का सम्बंध बनते ही समस्याएं पैदा होने लगती हैं। एक- दूसरे से अलग रहना मुश्किल होने लगता है। प्यार का पवित्र भाव विकृति में बदल जाता है।
मेरे सामने भी ठीक वही स्थिति आ गई है पर मैं इस भंवर में नहीं फंसूँगी। अगर फंसी तो कहीं की नहीं रहूंगी। हमेशा की तरह सारा दोष मुझ पर आ जाएगा, जैसा कि इस तरह के मामलों में होता है। लड़कों को कोई कुछ नहीं कहता।
दूसरे दिन सुबह विशद ने फिर से चैटिंग शुरू की। मैंने भी सब कुछ स्पष्ट करने के उद्देश्य से उत्तर दे देना ही उचित समझा।
सबसे पहले उसने लिखा कि -पसंदीदा रिश्तों को संभालकर रख लेना चाहिए, वरना उसे गूगल भी नहीं ढूंढ पाएगा।
--सही बात। पर नाजायज़ रिश्तों से जल्द से जल्द अलग हो जाना चाहिए। एक बार फँसे तो सब ढूंढ लेंगे।
'ऐसा रिश्ता बनाना कौन चाहता है अगर रिश्ते को लीगल कर दिया जाए तो...!'
--एक साथ कई जायज रिश्ते न कानून मानता है, न समाज, न जमीर।
'अगर आप लीगल करते हैं तो समाज और कानून को मानना पड़ता है। '
--एक से मुक्त नहीं दूसरी पर डोरे!ठीक है अपने पिता जी का नम्बर दो उनसे बात करूं। या फिर एक लड़की है सुमन पांडे। उसका भी डाइबोर्स का मुकदमा चल रहा है । उसका 22 साल का एक लड़का है । अभी 40 से कम की है । टीचर है सुंदर है । कहो तो बात चलाऊं।
'ये भी तो इल्लीगल है। '
--दोनों एक जैसे रहोगे न!
'मेरी फीलिंग जिसके लिए है...उसके लिए है और उसके लिए सब कुछ करूंगा। '
-- फीलिंग्स बदलने में देर नहीं लगती।
'मेरी फीलिंग्स है । आज तक चेंज नहीं हुई। '
--गलत जगह इन्वाल्व मत होवो !अभी तुम जानते ही क्या हो मेरे बारे में।
'मैं इतना जानता हूँ कि मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार हूं। बाकी समय सीखा देगा। '
--क्या कर पाओगे?प्राइवेट नौकरी में हो। पहली बीबी और बच्ची को खर्च देने के बाद बचेगा क्या!
और सबसे पहले मुझे ये तुम -तड़ाक कहना छोड़ो।
'ओके ..ओके । जब आप बीबी बन जाएंगी तो आप मैनेज करेंगी क्योंकि लेडीज का मैनेजमेंट लड़कों से अच्छा होता है और जब वाइफ हो जाएंगी तब साथ तो रहेगा ही । मैं जहाँ रहूँ, आप भी वहीं रहेंगी। मैं अपने वाइफ को खाली बैठने भी नहीं दूंगा । आप भी अपने -आप को बिजी रखे, चाहे जॉब करें या बिजनेस या सेल्फ इम्प्लॉइड लेकिन बिजी रहें।
---ये घर मेरे नाम नहीं कि शादी के बाद यहां रह पाऊँगी, न बैंक -बैलेंस है, जिसका भरम लोग पाल रखे हैं। नौकरी करूंगी नहीं और अभाव में रहूंगी नहीं।
'घर की तो बात ही नहीं है....जिसको यह लालच होगा वो प्यार नहीं करेगा। इंसान को बिजी रहना चाहिए। '
--पहले अपने पिता जी और दीदी का नम्बर दो ।
'क्यूँ कम्प्लेन करेंगी?'
--तुम्हारे मन की बात बताऊंगी।
'ठीक है। '
--पहले पहली से छुटकारा पाओ फिर इस विषय में बात करना। नम्बर दे देना तुम्हारे घर जाकर बात करूंगी।
'अगर वो रेडी हो गए तो...!'
-- यह असम्भव है।
'हो गए तो...!'
--मेरे भाई तो दोनों के टुकड़े कर देंगे। तुम्हारे घर वाले मान गए तो सोचेंगे। तुम्हारे दोस्तों से इस विषय में बात करूं?
'मतलब?'
--मतलब सबसे पहले तुम्हारे दोस्तों को पता चले कि तुम अपनी टीचर से प्यार करते हो । उनसे शादी करना चाहते हो। सामाजिक स्वीकृति इसे ही कहते हैं । फिर तुम्हारे घर वालों को बताया जाए। ससुराल तक खबर तो वैसे ही पहुंच जाएगी। सब राजी होंगे तभी तो रिश्ता होगा।
'ओके, समझ गया आप क्या कहना चाहती हैं?'
--ठीक है। अभी बहुत काम है। नम्बर दे देना।
'ओके'
गनीमत है कि न उसने नम्बर दिया न दुबारा चैट ही किया। बिल्कुल चुप्पी साध गया है। शायद उसे लगता है कि अपनी जरूरतों से मजबूर होकर मैं उसको मनाऊंगी। उसकी शर्तें मान लूंगी।
दरअसल वह भी मुझसे सौदेबाजी करना चाहता है पर वह नहीं जानता कि रिश्ते तिज़ारत नहीं ।
*********