प्यार के इन्द्रधुनष - 23 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

प्यार के इन्द्रधुनष - 23

- 23 -

मनमोहन ने ऑफिस से छुट्टियाँ स्वीकृत होने से पहले ही दिल्ली में बाराखम्बा रोड स्थित आई.ए.एस. की कोचिंग देने वाली एक प्रतिष्ठित अकादमी में ‘मेन एग्ज़ाम’ के लिए तीन महीने के कोर्स के लिये रजिस्ट्रेशन करवा लिया था, क्योंकि उसके बॉस को जब उसकी मंशा का पता चला था तो न केवल उसने शुभकामनाएँ दीं, बल्कि आर्थिक सहायता की पेशकश भी की। मनमोहन ने आर्थिक सहायता की पेशकश के लिए बॉस को धन्यवाद दिया, किन्तु तत्काल कोई सहायता स्वीकार नहीं की। मनमोहन के दिल्ली जाने से एक दिन पूर्व शाम के समय डॉ. वर्मा उसके घर आई। मनमोहन के लिए लाई हुई ड्रेस उसे देते हुए कहा - ‘मनु, मैं चाहती हूँ कि तुम अपने मनोरथ में कामयाब हो! कोचिंग के समय ऑफिसर लाइक ड्रेस पहनोगे तो ऑफ़िसर लाइक फ़ीलिंग आएगी। इससे तुम्हारा कॉन्फ़िडेंस बढ़ेगा। कोचिंग के लिए कभी भी केजूअल ड्रेस में मत जाना।’

‘वृंदा, तुम कितनी दूर की सोच लेती हो! मैं औपचारिक ‘धन्यवाद’ देकर तुम्हारी भावना का अनादर नहीं करना चाहता। मैं तो शायद पन्द्रह-बीस दिन बाद ही आ पाऊँगा, मेरी अनुपस्थिति में रेनु और गुड्डू को तुम्हारा ही सहारा रहेगा।’

‘इस ओर से तुम निश्चिंत रहो। मैं रोज़ फ़ोन कर लिया करूँगी। हफ़्ते में एक-आध चक्कर भी लगा ज़ाया करूँगी।’

अभी तक चुप रेनु ने कहा - ‘आपको यह सब कहने की क्या ज़रूरत है? दीदी को क्या आप जानते नहीं जो ये बातें कर रहे हो! वे कह तो रही हैं कि हफ़्ते में एक-आध चक्कर भी लगा ज़ाया करेंगी, लेकिन मुझे विश्वास है कि वे रोज़ नहीं तो एक दिन छोड़कर तो अवश्य आया करेंगी।’

‘रेनु, तुम दोनों बहनों की बोंडिंग का तो जवाब ही नहीं। मैं निश्चिंत होकर पढ़ाई में मन लगा सकूँगा। ... बातें तो बहुत हो लीं। अब गुड्डू मुझे पकड़ाओ और खाने की तैयारी करो। आज इकट्ठे खाना खाएँगे।’

डॉ. वर्मा - ‘मनु, मैं वासु को तो कहकर आई थी कि मैं जल्दी ही लौट आऊँगी। वह तो खाना बनाने लग गया होगा।’

‘वृंदा, उसे फ़ोन करके पूछ लो। यदि उसने अभी शुरू न किया हो, तो रोक देना। और यदि उसने बनाना शुरू कर दिया हो तो सारे वहीं खा लेंगे, लेकिन खाएँगे आज इकट्ठे ही।’

‘मनु, तुमने तो मन खुश कर दिया। हम उधर ही चलते हैं। नाइट ड्रेस ले लो, रात को मेरे पास ही रुकना।’

जब ये लोग तो लॉबी में चारों की ग्रुप फ़ोटो फ़्रेम में लगी देखकर मनमोहन और रेनु को सुखद आश्चर्य हुआ।

वासु ने सादा किन्तु स्वादिष्ट खाना बनाया। खाना खाने के पश्चात् उन्होंने कपड़े बदले और गेस्ट-रूम में इकट्ठे बैठकर गपशप की। जितनी देर वे गपशप करते रहे, स्पन्दन डॉ. वर्मा की गोद में खेलती रही। जब डॉ. वर्मा स्पन्दन को रेनु को पकड़ाकर अपने बेडरूम में जाने लगी तो स्पन्दन ने उसकी शर्ट की लेस को पकड़ लिया। यह देख डॉ. वर्मा बोली - ‘आज फिर इसका मन मेरे साथ सोने का है। रेनु, इसे मैं ले जाती हूँ। तुम एन्जॉय करो।’

डॉ. वर्मा की श्लेषात्मक उक्ति से रेणु का चेहरा रक्ताभ हो उठा।

डॉ. वर्मा का अलार्म है पंछियों का चहचहाना आरम्भ करना। इधर पंछियों ने चहचहाना आरम्भ किया, उधर डॉ. वर्मा ने बिस्तर त्यागा। फ़ारिग हुई और आ गई बगीची में। मैट बिछाया और प्रारम्भ कर दिया योगाभ्यास। रेनु जब जागी तो उसने देखा कि डॉ. वर्मा अपने बेडरूम में नहीं है और स्पन्दन बेड पर गहरी नींद में सोई हुई है। घर के दरवाज़े खुले हैं। ए.सी. लगा होने के कारण सारी रात बन्द कमरे में सोने के कारण वह भी बाहर आई और डॉ. वर्मा को योगाभ्यास करते देख उसने ‘नमस्ते दीदी’ बुलाया और झूले पर बैठकर प्राकृतिक ठंडी हवा का आनन्द लेने लगी। दसेक मिनटों में अपना नित्य का नियम पूरा करके डॉ. वर्मा भी उसके पास झूले पर आकर बैठ गई।

डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘रेनु, नींद ठीक आई? तुम्हें पता चला कि रात को सोने के थोड़ी देर बाद ही हल्के भूकंप के झटके लगे थे?’

‘दीदी, सच पूछो तो हम तो मस्ती में खोए हुए थे और सोने के बाद दुनिया-जहां से बेख़बर गहरी नींद में थे, इसलिए कब भूकंप के झटके लगे, कुछ पता नहीं?’

शायद डॉ. वर्मा भी यही सुनना चाहती थी। रेनु ने थोड़ा रुककर पूछा - ‘गुड्डू ने आपको तंग तो नहीं किया?’

‘अरे, नहीं रे। सोने से पहले दूध पिला दिया था। सू-सू करवाकर लिटा लिया। काफ़ी देर तक मैं उसे लोरी सुनाती रही, वह मुझसे लिपटी सुनती रही। फिर वह सो गई। अभी तक सोई हुई है। शायद देर रात तक जागने के कारण नींद पूरी कर रही है! ..... रेनु , मनु नहीं उठा?’

‘दीदी, लोरी आती है आपको? ..... ये तो अभी सोए हुए थे। देखूँ, शायद जाग गए हों!’

‘रेनु, मैं ठेठ गाँव की हूँ। बचपन में सुनी-सुनाई लोरियाँ याद हैं। अब स्पन्दन के बहाने सारी याद आ जाएँगी। .... मनु को सोने दे। जब नींद पूरी हो जाएगी, अपने आप उठ जाएगा।’

डॉ. वर्मा की बात पूरी हुई ही थी कि मनमोहन बाहर आता हुआ दिखाई दिया। उसने आते ही ‘गुड मॉर्निंग’ कहा और हरी-हरी घास पर टहलने लगा।

‘मनु, बैठना हो तो कुर्सी मँगवाऊँ?’ डॉ. वर्मा ने पूछा।

‘नहीं, ठंडी-ठंडी घास पर टहलना अच्छा लग रहा है। .... और यदि मुझे बैठना हुआ तो तुम दोनों के बीच बैठ जाऊँगा’, मनमोहन ने हँसकर कहा।

रेनु - ‘फिर तो ‘चारों तरफ़ गोपियाँ, बीच में कन्हैया’ जैसा लगेगा!’

‘चारों तरफ़ तो नहीं, दाएँ-बाएँ गोपियाँ ज़रूर होंगी।’

डॉ. वर्मा - ‘मनु, एक बार आ ही जाओ। मैं एक सेल्फ़ी ले लूँ कन्हैया और गोपियों की।’

झूले पर जगह कम थी। थोड़ा सिकुड़कर ही तीनों बैठ पाए। डॉ. वर्मा मनमोहन के संस्पर्श से रोमांचित हो उठी। रेनु ने प्रश्न पूछा - ‘दीदी, गुड्डू अभी बोलने नहीं लगी, चिंता की बात तो नहीं? कई बच्चे तो दसवें-ग्यारहवें महीने ही बोलने लग जाते हैं।’

‘इसमें चिंता की कोई बात नहीं है। चिंता तब होती है जब बच्चे की ज़ुबान न पलटती हो। स्पन्दन तो खूब खिलखिलाती, हँसती-खेलती है, प्रॉपर रिस्पाँस देती है। .... जो बच्चे लेट बोलने लगते हैं, वे अधिक इंटेलीजेंट होते हैं। हमारी स्पन्दन बहुत इंटेलीजेंट होगी। ..... आप लोगों ने ब्रश कर लिया हो तो चाय बनवाएँ?’

‘चाय के लिए तो वासु को मैं बोल देता हूँ और ब्रश भी कर आता हूँ’, कहते हुए मनमोहन उठकर अन्दर चला गया।

जब वापस आया तो स्पन्दन उसकी गोद में थी। उसके पीछे-पीछे वासु कुर्सी ले आया। डॉ. वर्मा ने उसे चाय लाने से पहले छोटा टेबल लाने को कहा। मनमोहन कुर्सी पर बैठने लगा तो उसने कहा - ‘मनु, तुम स्पन्दन को लेकर झूले पर बैठो और थोड़ा झुलाओ। इसे अच्छा लगेगा। आज तुमने जाना है, फिर तो कई दिन इसे पापा की शक्ल दिखाई नहीं देगी।’

डॉ. वर्मा ने यह बात स्पन्दन के लिए कही थी, किन्तु रेनु ने महसूस किया कि यह बात प्रकारान्तर से उसके लिए ही कही गई है। तभी तो डॉ. दीदी ने झूले से उठकर मनमोहन के लिए जगह बनाई है।

चाय पीते हुए मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, चाय पीकर हम लोग चलेंगे। मैंने दिल्ली जाने की तैयारी भी करनी है।’

‘यहीं स्नानादि कर लो। इतने में वासु नाश्ता तैयार कर लेगा। मनु, तुम्हें तैयारी में कौन-सी देर लगनी है। देर तो तब लगती है जब स्त्री को जाना हो।’

‘वृंदा, बात तो तुमने पते की है, लेकिन यही बात यदि पुरुष स्त्रियों के लिये कह दे तो स्त्री को बुरा लग जाता है।’

‘इस बात को छोड़ो, यह बताओ कि नाश्ते के लिये वासु को कहूँ?’

‘नहीं वृंदा। आज की मुलाक़ात बस इतनी। अब हम लोग चलते हैं।’

इसके पश्चात् डॉ. रवि ने और रुकने के लिये आग्रह नहीं किया।

॰॰॰॰॰