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सुबह-शाम की ठंड होने लगी थी। रात को पंखा भी आधी रात के बाद बन्द करना पड़ता था या हल्के-से कंबल की ज़रूरत महसूस होती थी। ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह रेनु के पास डॉ. वर्मा का फ़ोन आया। रेनु ने अभी बिस्तर का त्याग नहीं किया था, क्योंकि स्पन्दन जाग गई थी। उसने ‘पापा, पापा’ की रट लगा रखी थी और रेनु उसे शान्त कराने के प्रयास में जुटी थी। रेनु ने मोबाइल ऑन तो कर लिया था, किन्तु अभी उत्तर नहीं दे पाई थी कि डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘रेनु, स्पन्दन क्यों रो रही है?’
‘दीदी, गुड्डू पापा को ‘मिस’ कर रही है, इसलिए ‘पापा, पापा’ की रट लगा रखी है।’
डॉ. वर्मा ने परिहास करते हुए कहा - ‘स्पन्दन तो पापा को ‘मिस’ कर रही है और जता भी रही है। लेकिन तुम भी तो ‘मिस’ कर रही होगी, लेकिन ज़ाहिर भी नहीं कर रही।’
‘हाँ दीदी, ‘मिस’ तो मैं भी कर रही हूँ। इस बार पन्द्रह दिन हो चले इन्हें आए हुए। लेकिन अब तो कुछ दिनों में एग्ज़ाम भी शुरू होने वाले हैं। इसलिए आने के लिये कहना भी अच्छा नहीं लगता।’
‘तो एक काम करो, दो दिन के लिए कपड़े आदि अटैची में डालकर तैयार हो जाओ। मैं दिल्ली जा रही हूँ, तुम्हें और स्पन्दन को मनु से मिलवा लाती हूँ।’
‘दीदी, आप दिल्ली कैसे जा रही हैं?’
‘मुझे कल और परसों दिल्ली में एक कांफ्रेंस अटेंड करनी है।’
‘दिल्ली में ये तो पी.जी. में रह रहे हैं, वहाँ मैं और गुड्डू कैसे रह पाएँगी?’
‘उसकी चिंता क्यों करती हो? कांफ्रेंस वालों ने मेरे लिए होटल में रूम बुक करवाया हुआ है। उसी होटल में मैं तुम्हारे लिए एक रूम बुक करवा देती हूँ। मनु दो दिन कोचिंग के समय को छोड़कर तुम्हारे साथ होटल में ही रहेगा। खुश हो ना?’
मनमोहन से मिलने की आस से रेनु मन-ही-मन बहुत खुश थी, लेकिन एक आशंका भी उसके मन में थी। उसी को अभिव्यक्त करते उसने कहा - ‘दीदी, इनकी पढ़ाई का हर्ज होगा।’
‘इतनी चिंता नहीं किया करते मेरी बहना! जब तुम और स्पन्दन उसके साथ रहोगे तो उसे जो एनर्जी मिलेगी, वह उसके बहुत काम आएगी।’
‘अगर आप ऐसा मानती हैं तो मैं तैयारी कर लेती हूँ। लगभग कितने बजे चलेंगे?’
‘मैं सोच रही हूँ कि लंच के बाद ढाई-तीन बजे निकल लेते हैं। मनु को मैं फ़ोन कर दूँगी। वह भी रात को होटल में आ जाएगा।’
रेनु की सहमति के पश्चात् डॉ. वर्मा ने दिल्ली के होटल में फ़ोन मिलाया और अपना परिचय देते हुए अपने नाम से अतिरिक्त रूम बुक करने के लिए कहा। बुकिंग सर्विस वालों ने अतिथियों का विवरण माँगा तो उसने मनमोहन, रेनु और स्पन्दन का विवरण नोट करवा दिया। बुकिंग सर्विस वालों ने कहा कि अतिथि अपने पहचान पत्र अवश्य साथ लेकर आएँ मैम।
जब से डॉ. वर्मा ने उसे सूचित किया था कि रेनु उसके साथ दिल्ली आ रही है, मनमोहन को लग रहा था जैसे कि समय बीतने में ही नहीं आ रहा। क्लास में भी उसका ध्यान लेक्चर पर कम और रेनु व स्पन्दन की ओर अधिक रहा। जैसे-तैसे शाम हुई। उसने हैंडबैग में दो दिन के लिए कपड़े आदि के साथ दो-एक किताबें रखीं और पहुँच गया होटल। मोबाइल पर हुई बातचीत के अनुसार तो डॉ. वर्मा और रेनु को तब तक पहुँच जाना चाहिए था, लेकिन वे अभी नहीं पहुँची थीं। उसने रिसेप्शन पर अपना परिचय पत्र दिखाया और अपने लिए बुक किए गए कमरे की चाबी लेकर कमरे में पहुँच गया। कमरा लगभग वैसा-ही शानदार था जैसा ‘कौन बनेगा अरबपति’ वालों ने उन्हें मुम्बई में उपलब्ध कराया था। कमरे में पहुँचकर मनमोहन ने डॉ. वर्मा को सूचित किया कि मैं होटल पहुँचकर कमरे में आ गया हूँ। उसने देखा कि दोनों बेड फ़ासला रखकर लगाए हुए हैं। उसने रिसेप्शन पर फ़ोन किया और पूछा - ‘मैम, क्या दोनों बेडों को जोड़ा जा सकता है? हमारी बच्ची साल-सवा साल की है, सिंगल बेड से उसके गिरने के चाँस हैं।’
‘श्योर सर। मैं अभी रूम-सर्विस वालों को बोलती हूँ। सर्विस-ब्वॉय कर जाएगा।’
जब डॉ. वर्मा रेनु सहित होटल की रिसेप्शन पर पहुँची तो रिसेप्शन डेस्क पर ड्यूटी दे रही लड़की ने उसे देखते ही प्रश्नात्मक स्वर में पूछा - ‘आप डॉ. वर्मा ही हैं न?’
डॉ. वर्मा को कुतूहल हुआ कि यह लड़की मुझे कैसे पहचानती है? अत: उसने प्रतिप्रश्न किया - ‘मैं तो इस होटल में प्रथम बार आई हूँ। आप मुझे कैसे जानती हैं?’
‘डॉ. साहब, लास्ट ईयर मैंने आपको ‘कौन बनेगा अरबपति’ के एपिसोड में देखा था। तब से मैं आपकी फ़ैन हूँ। आपका कोई कांटेक्ट अवेलेबल न होने के कारण आपसे सम्पर्क नहीं कर पाई। आज आपको देखते ही मुझे लगा कि मेरे मन की मुराद पूरी हो गई। ड्यूटी पूरी होने के बाद मैं आपसे मिलना चाहती हूँ यदि आपको एतराज़ न हो तो।’
डॉ. वर्मा ने उसकी ब्रेस्ट पर लगी नाम-पट्टी पर लिखा उसका नाम पढ़कर उससे प्रश्न किया - ‘आपकी ड्यूटी कब ख़त्म होगी निलांजना?’
‘डॉ. साहब, मेरी ड्यूटी आठ बजे तक है। यदि आप परमिट करें तो दस-पन्द्रह मिनट के लिए मैं आपसे मिलना चाहूँगी। रूम में आप अकेली ही होंगी?’
‘मैं अकेली ही होऊँगी। इनके हस्बेंड अलग से ठहरे हुए हैं’, डॉ. वर्मा ने निलांजना की मंशा को भाँपते हुए रेनु की ओर संकेत करते हुए उत्तर दिया।
मनमोहन को अलग फ़्लोर पर रूम मिला था। इसलिए लिफ़्ट के पास पहुँचकर डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘रेनु, पहले मेरे कमरे में चलोगी या मनु के कमरे में?’
‘दीदी.....!’
‘कहने में शर्माती क्यों हो? चलो, पहले तुम्हें मनु के रूम में ही छोड़ देती हूँ।’
डोरबेल बजते ही मनमोहन ने दरवाजा खोला। मनमोहन ने स्पन्दन की ओर बाँहें फैलाईं। स्पन्दन ने भी अपनी बाँहें उसकी ओर बढ़ा दीं। डॉ. वर्मा ने कहा - ‘आज सुबह मैंने फ़ोन में स्पन्दन को ‘पापा, पापा’ कहते सुना था। वो तो पहुँच गई अपने पापा की गोद में। अब रेनु को भी सँभालो। मैं चलती हूँ अपने रूम में।’
‘ऐसे कैसे चली जाओगी? मैं तो कब से आँखें बिछाए बैठा हूँ तुम लोगों की प्रतीक्षा में कि तुम्हारे आने पर चाय इकट्ठे पीएँगे। लेकिन, एक बात बताओ, पहुँचने में इतना समय कैसे लग गया?’
‘दिल्ली में प्रवेश करने तक तो बिल्कुल भी फ़ालतू समय नहीं लगा। दिल्ली में ही प्रदूषण की वजह से ट्रेफ़िक कछुआ चाल से सरक रहा था, इसलिए दिल्ली में ही डेढ़ घंटा लग गया।’
‘आजकल यह जो शाम के समय आसमान में गर्द छाई रहती है, इसका कारण है किसानों द्वारा खेतों में पराली जलाना। सरकार बहुत समझाती है कि खेत में पराली जलाने से जहाँ वातावरण प्रदूषित होता है, वहीं ज़मीन की उपजाऊ क्षमता भी क्षीण होती है। यदि किसान पराली न जलाकर खेत में पानी छोड़कर हल चला दें तो यही बढ़िया खाद का काम करे।’
‘हरियाणा सरकार ने तो पराली न जलाने के लिए किसानों को प्रति एकड़ कुछ नक़दी देने का भी ऐलान किया है।’ डॉ. वर्मा ने टिप्पणी की।
‘वृंदा, लोगों को सरकार की ओर हर वक़्त देखने की बजाय खुद सोचना चाहिए और अपना ही नहीं, समाज का हित सामने रखकर काम करना चाहिए। खेतों में पराली जलाने से गाँव की हवा भी तो ज़हरीली होती है, जिससे कई तरह की बीमारियाँ पनपती हैं।’
‘मनु, यह हम क्या विचारने लग गए? बात चाय की हुई थी। चाय मैं बनाऊँ या तुम बनाते हो?’
रेनु - ‘आप दोनों बैठो, चाय मैं बनाती हूँ। बस मुझे थोड़ा समझा दो।’
मनमोहन - ‘जितनी देर तुम्हें समझाने में लगाऊँगा, उतने में तो मैं चाय बना भी लूँगा। तुम मुझे चाय बनाते हुए देखती रहो ताकि फिर किसी वक़्त चाय बनानी पड़े तो बना सको’, कहकर उसने इलेक्ट्रिक कैटल में पानी डाला, स्विच ऑन किया। कपों में दूध, चीनी डाली। उबलता पानी डालकर टी बैग छोड़े और चम्मच से मिक्स करके चाय के कप डॉ. वर्मा और रेनु को पकड़ाए। फिर अपना कप उठाया।
मनमोहन आते हुए अपने साथ बेकरी से फ़्रूटकेक तथा काजू बिस्कुट ले आया था। सबने मिलकर चाय के साथ फ़्रूट केक और बिस्कुटों का सेवन किया। तत्पश्चात् डॉ. वर्मा अपने कमरे में चली गई। उसके जाने के बाद रेनु ने चारों तरफ़ नज़रें घुमाईं और कहा - ‘इतना शानदार कमरा! इसका तो किराया भी बहुत होगा?’
‘हाँ, किराया तो बहुत है। वृंदा की मेहरबानी से हमें भी ऐसे होटल में ठहरने का मौक़ा मिल गया, वरना अपनी औक़ात कहाँ है कि ऐसे होटल में दो दिन ठहर सकते।’
‘ठीक कहते हैं आप। दीदी के कारण ही आज हम एक-दूसरे के साथ हैं, नहीं तो पता नहीं कितने दिन और इंतज़ार करना पड़ता!’
रेणु की बात सुनते ही मनमोहन ने स्पन्दन को बाएँ कंधे से लगाया और दायीं बाँह बढ़ाकर रेनु को अपने साथ लगा लिया।
.......
अपने कमरे में आकर डॉ. वर्मा सोचने लगी, निलांजना को मुझमें क्या अच्छा लगा होगा कि मेरी फ़ैन बन गयी। अभी वह इन विचारों में मग्न थी कि इंटरकॉम की रिंगटोन बजने लगी। उसने रिसीवर उठाया तो दूसरी तरफ़ निलांजना थी। उसकी ड्यूटी पूरी हो चुकी थी और वह रूम में आने की आज्ञा माँग रही थी। डॉ. वर्मा ने कहा - ‘आ जाओ।’
कुछ ही क्षणों में निलांजना डॉ. वर्मा के रूम में थी। उसने बैठते ही बिना किसी प्रकार की औपचारिकता और भूमिका के पूछा - ‘आपके साथ आई लेडी ने जिस बच्ची को उठा रखा था, वह वही बच्ची है ना, जो वीडियो क्लिप में आपकी गोद में थी?’
‘हाँ, तुमने ठीक पहचाना है। तुम्हारी पहचानने की क्षमता लाजवाब है! तब तो स्पन्दन शायद दो-तीन महीने की ही थी।’
‘बड़ा प्यारा नाम है। किसने रखा है इतना सुन्दर नाम?’
डॉ. वर्मा को किसी अपरिचित के मुख से यह सुनकर बहुत अच्छा लगा। उसने कहा - ‘स्पन्दन को उसके माता-पिता तो प्यार से गुड्डू ही बुलाते हैं, लेकिन ‘स्पन्दन’ नाम मेरा रखा हुआ है।’
‘डॉ. साहब, आपने जिस तरह से व्यक्तिगत सवालों के जवाब दिए थे, उसके लिये बहुत बड़े जिगरे की ज़रूरत होती है। अक्सर लोग इस तरह के किसी सवाल का जवाब देने से कन्नी काट जाते हैं, विशेषकर महिलाएँ। .... आपकी तरह मैं भी अपने प्यार को पा नहीं सकी। लेकिन, मैं तो जीवन से ही निराश हो गई हूँ और कई बार मन में आया है कि निरर्थक जीवन जीने की बनिस्बत मृत्यु को गले लगा लूँ, जबकि आपने स्वयं त्याग करके अपने प्यार को, अपने मित्र को, उसके विवाह के बाद भी अपनाया हुआ है। केवल उसे ही नहीं, उसकी पत्नी और बच्ची के लिए भी आपके मन में अपार स्नेह है। आप महान् हैं।’
‘निलांजना, मुझे पता नहीं कि किन कारणों तथा परिस्थितियों के रहते तुम अपने प्रेमी को अपना जीवनसाथी नहीं बना पाई, किन्तु मेरा मानना है कि प्रेम जिससे हो जाता है, हालात कुछ भी हों, वह सदा रहता है। जैसे शरीर न रहने पर भी आत्मा का हनन नहीं होता, उसी प्रकार प्रेम सदैव बना रहता है। असल में, प्रेम में इच्छित परिणाम मिले ही, यह ज़रूरी नहीं। .... क्या तुम अपने पेरेंट्स के साथ रहती हो?’
‘मेरे पेरेंट्स तो कानपुर में रहते हैं। जब मैं और मेरा प्रेमी एक नहीं हो पाए तो जैसा मैंने पहले बताया, मैं आत्महत्या करने की कगार तक पहुँच गई थी। उसी समय मुझे वर्तमान नौकरी मिल गयी। निराशा कुछ हद तक दूर हुई। इसी बीच प्रतीक ने मेरे जीवन में प्रवेश किया। आजकल मैं उसी के साथ ‘लिव-इन-रिलेशन’ में हूँ, लेकिन मुझे इस रिलेशन में आत्मतुष्टि की अनुभूति कभी नहीं हुई।’
‘निलांजना, माफ़ करना यदि तुम्हें बुरा लगे, लेकिन मुझे लगता है कि तुमने प्रेम केवल देह के स्तर पर किया है, वह चाहे तुम्हारा पहले वाला प्यार हो या वर्तमान। जबकि प्रेम में देह का आकर्षण होते हुए भी वह देह तक सीमित नहीं होता। माना कि तन और मन में मिलन की तमन्ना उतनी ही तीव्र होती है जितनी कि मछली को पानी की, जितनी कि पुष्प को खिलने के लिए हवा की, किन्तु इनके बिना ज़िन्दा रहने का साहस भी सच्चे प्रेम की शक्ति से ही मिलता है। प्रेम तो एक-दूसरे के लिए विकलता और मन के सौन्दर्य में निहित होता है। प्रेम वह नहीं होता जो बदल जाता है हालात बदलने पर। और लिव-इन-रिलेशन तो देह से शुरू होता है और बहुधा देह से आगे नहीं बढ़ पाता। प्रायः सुनने को मिलता है कि विवाह के बिना इकट्ठे रहने वाले महिला और पुरुष अपनी जीवन-शैली का कारण बताते हैं कि वे इकट्ठे इसलिए रह रहे हैं ताकि एक-दूसरे को समझ सकें। होता प्राय: यह है कि जब वे एक-दूसरे को समझ लेते हैं तो अलग हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण है मानव-मन का द्वन्द्व। द्वन्द्व के कारण न व्यक्ति दूसरे को ठीक ढंग से समझ पाता है और न स्वयं को जान पाता है। दिग्भ्रमित मन ही हमारे सारे दु:खों का कारण है। ये मेरे निजी विचार हैं, ज़रूरी नहीं कि तुम मेरे विचारों से सहमत हो ही। ...... निलांजना, तुमने जो विषय उठाया है, उसपर विचार करने के लिए पन्द्रह-बीस मिनट का समय बहुत कम है। शायद तुम्हें भी समय पर कहीं पहुँचना होगा और मुझे भी अपने मित्र-परिवार के साथ डिनर करना है। इसलिए फिर कभी, यदि कोई अवसर मिला, इस विषय पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है।’
निलांजना समझ गई। उसने उठते हुए थैंक्स कहा और विदा ली।
........
डॉ. वर्मा ने इंटरकॉम पर मनमोहन के कमरे का नम्बर डायल किया और पूछा - ‘मनु, डिनर डाइनिंग हॉल में करना है या रूम में?’
‘डाइनिंग हॉल में चलते हैं। थोड़ी चेंज हो जाएगी। यदि तैयार हो तो आ जाओ, गुड्डू अपनी ‘बड़ी मम्मी’ को ‘मिस’ कर रही है।’
‘आती हूँ।’
डॉ. वर्मा ने आते ही स्पन्दन को उठाया और प्यार से पूछा - ‘क्यों बेटे, क्या वाक़ई तुम मुझे ‘मिस’ कर रही थी या पापा झूठमूठ कह रहे थे?’
सबको हैरान करते हुए स्पन्दन ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।
‘मनु, तुम तो इसकी अनकही बातों को भी बख़ूबी समझ लेते हो!’
‘वृंदा, मम्मियाँ बच्चों के मनोभावों को जितना समझती हैं, पापा लोग उतना नहीं तो भी थोड़ा-बहुत तो समझते हैं।’
‘मनु, तुम तो ऑल राउंडर हो।
‘वृंदा, तुम मेरी इतनी प्रशंसा न किया करो, कहीं रेनु को ईर्ष्या न होने लग जाए!’
रेनु - ‘मुझे भला ईर्ष्या क्यों होगी? मुझे तो ख़ुशी होती है जब कोई आपकी प्रशंसा करता है।’
मनमोहन - ‘रेनु , वृंदा ‘कोई’ में नहीं आती।’
डॉ. वर्मा - ‘यह तो तुमने ठीक कहा। रेनु मेरी छोटी बहन है, बड़ी बहन से ईर्ष्या क्यों कर करेगी?’
‘वृंदा, अब डाइनिंग हॉल का रुख़ करें, भूख चमकने लगी है।’
खाना खाने के बाद डॉ. वर्मा स्पन्दन को अपने साथ ले जाने लगी तो मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, मैंने तो बेड गुड्डू के लिए जुड़वाए थे।’
डॉ. वर्मा ने शरारती लहजे में कहा - ‘स्पन्दन के लिए या.....?’
‘जुड़वाए तो गुड्डु के लिए ही थे, लेकिन अब .....।’ मनमोहन ने उसी के अंदाज़ में उत्तर दिया।
डॉ. वर्मा ने देखा कि विवाह के इतने वर्षों बाद भी रेनु उनकी बातें सुनकर शरमा रही थी। स्पन्दन को गोद में लिए कमरे से बाहर जाते हुए उसने कहा - ‘कोई बात नहीं, हम भी अपने बेड जुडवा लेंगे।’
डॉ. वर्मा के जाने के पश्चात् रेनु और मनमोहन ने कपड़े बदले। ब्लैंकेट को ऊपर तक खींचते हुए रेनु ने पूछा - ‘आपने यह क्यों कहा था - ‘वृंदा, तुम मेरी इतनी प्रशंसा न किया करो’?’
‘तुमने मेरी कही बात आधी-अधूरी ही दुहराई है, मैंने तो यह भी कहा था - ‘कहीं रेनु को ईर्ष्या न होने लग जाए!’
‘उस समय तो चाहे मैंने कह दिया था - ‘मुझे भला ईर्ष्या क्यों होगी?’ लेकिन आपसे झूठ नहीं बोलूँगी, दीदी का आपके लिए प्यार देखकर कभी-कभी मन में डर लगने लगता है।’
‘कैसा डर?’
‘कहीं मैं आपको खो ना बैठूँ?’
‘रेनु, ऐसी बात तुमने तब भी कही थी जब मैं मुम्बई से वापस आया था। क्यों बार-बार तुम्हारे मन में ऐसी आशंका पैदा होती है?’
‘पता नहीं क्यों? मुझे ख़ुद समझ नहीं आता।’
‘रेनु, तुम वृंदा के मन का अंदाज़ा इसी बात से बहुत अच्छे से लगा सकती हो कि वह तुम्हें मुझसे मिलवाने के लिए लेकर आई है। यदि उसके मन में कुछ और होता तो वह तुम्हें साथ क्यों लेकर आती, अकेले आकर मुझे अपने पास बुला सकती थी?’
मनमोहन के इस अकाट्य तर्क का रेणु के पास कोई जवाब न था। अपनी नाराज़गी को परे फैंक उसने करवट बदली और मनमोहन के ब्लैंकेट में घुस गई।
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