प्यार के इन्द्रधुनष - 1 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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प्यार के इन्द्रधुनष - 1

अपनी बात

पूर्णावतार श्री कृष्ण की क्रीड़ा-स्थली - वृन्दावन जाने का प्रथम अवसर प्राप्त हुआ था दिसम्बर 1968 के शीतकालीन अवकाश के दौरान। हर जगह ‘राधे-राधे’ का जयघोष सुनकर मन रोमांचित हो उठा था। श्री बाँके बिहारी जी, श्री राधावल्लभ मन्दिरों व निधिवन, सेवाकुँज देखते तथा वहाँ की विशेषताएँ सुनते हुए राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम को गहराई से समझने के लिये मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी। कालान्तर में श्रीमद् भागवत कथा श्रवण करने, पढ़ने तथा सत्संग के फलस्वरूप राधारानी और श्री कृष्ण के अनूठे, अलौकिक एवं दिव्य प्रेम को जाना-समझा। भौतिक रूप में राधारानी से अलग होने तथा सांसारिक धर्म-निर्वहन हेतु विवाह करने के उपरान्त भी राधारानी द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के मन की अधिष्ठात्री बनी रहीं और सदैव बनी रहेंगी। मन में ख़्याल आया कि क्या ऐसा केवल आख्यानों में ही सम्भव है या यथार्थ में भी घटित हो सकता है। सम्भवत: यही विचार मन के किसी कोने में सक्रिय था जो प्रस्तुत कृति का आधार बना है।

स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों के अनेक स्तर होते हैं - कहीं सम्बन्ध प्रेम से प्रारम्भ होता है तो कहीं सम्बन्ध बनने के पश्चात् प्रेम पनपता है। यह एक वास्तविकता है कि प्रेम व्यक्तित्व के किसी विशेष गुण के आकर्षण से भी अंकुरित हो सकता है। और ऐसा प्रेम ऊर्ध्वमुखी होकर प्रेमी-प्रेमिका को अनन्त ऊँचाइयों तक ले जाता है। यह स्त्री-पुरुष की वैयक्तिक मानसिक अवस्था पर निर्भर करता है कि उन्हें किस प्रकार का प्रेम काम्य है। आजकल प्रेम का एक स्तर ‘लिव इन रिलेशन’ के रूप में प्रचलित हो रहा है, जो विशुद्ध बाज़ारवादी सोच से संचालित होता है तथा मांसलता ही उसका आधार होती है। ऐसी परिस्थितियों में इस उपन्यास की नायिका डॉ. वृंदा वर्मा का मनमोहन के प्रति प्रेम इस अवधारणा का द्योतक है कि प्रेम प्रतिदान नहीं माँगता। वरिष्ठ कवयित्री कमल कपूर का एक ताँका याद आ रहा है -

सिर्फ़ प्रेम है

हासिल-ए-ज़िन्दगी

शेष सब तो

जल-बुलबुले हैं

आये और चले हैं।

इस उपन्यास की लेखन-अवधि के दौरान प्रतिष्ठित कवि एवं समीक्षक श्री ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’, बालमुकुन्द साहित्य सम्मान से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. राजकुमार निजात, हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा ‘आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ से अलंकृत वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक श्री माधव कौशिक जी, ‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ से विभूषित प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. मधुकांत तथा डॉ. पान सिंह, प्रतिष्ठित कवि व आलोचक एवं विभागाध्यक्ष, हिन्दी, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला, का इनके सक्रिय एवं रचनात्मक सहयोग के लिए हृदय से आभारी हूँ।

अंतिम किन्तु किसी भी सूरत में कम नहीं, हार्दिक आभार एवं धन्यवाद “इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड” का, जिनके प्रशंसनीय सहयोग से यह उपन्यास पुस्तकाकार ले पाया है।

आत्मीय पाठक! यह उपन्यास आपको कैसा लगा? अवगत कराएँगे, तो मुझे प्रसन्नता होगी।

लाजपत राय गर्ग

150, सेक्टर 15, पंचकूला - 134113

मो. 92164-46527

blesslrg@gmail.com

 

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मैं कुछ कहना चाहता हूँ…..

प्रान्तीय सिविल सर्विसेज से सेवानिवृत्त और साहित्य सेवा में संलग्न हरियाणा से संबंध रखने वाले उपन्यासकार लाजपत राय गर्ग साहित्य और समाज के लिए एक उदाहरण हैं। इनका चौथा उपन्यास "प्यार के इन्द्रधनुष" बहुत ही रोचक एवं सामाजिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जो प्रकाशित होने जा रहा है। इससे पूर्व इनके तीन उपन्यास हिन्दी साहित्य में बहुत ही चर्चित रहे हैं - 'कौन दिलों की जाने!’, ‘पल जो यूँ गुजरे', 'पूर्णता की चाहत'। लाजपत राय गर्ग विशेष रूप से उपन्यास की खाली होती जमीन को भरने का प्रयास कर रहे हैं और साहित्य जगत् में इनकी पैठ कायम हो रही है। लाजपत राय गर्ग हिन्दी उपन्यास साहित्य में बहुत ही तेजी से छा जाने वाला एक ऐसा नाम है, जिनके पाठकों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो एक रचनाकार के लिए हर्ष एवं मान-सम्मान का विषय है। असल में, रचना और रचनाकार की सार्थकता पाठकों पर निर्भर करती है, न कि पुरस्कारों पर। पाठकों की सराहना, आलोचकों की टिप्पणियाँ ही एक रचनाकार का वास्तविक पुरस्कार है, जो लाजपत राय गर्ग को बखूबी मिल रहा है। आलोचकों की टिप्पणियां, पाठकों की प्रशंसा एवं स्नेह रचनाकार को तब मिलता है, जब उसकी रचना समाज के लिए उपयोगी हो, जन-सामान्य के अनुरूप हो, जागरूकता एवं चेतना का साधन बनती हो, देश, समाज, परिवेश और जन का मार्ग प्रशस्त करती हो। यह स्नेह एवं प्रशंसा तब मिलती है जब कोई रचना समय, समाज की परिस्थितियों, प्रवृत्तियों, मानव-मूल्यों एवं संदर्भों को उद्घाटित करती हो, सर्वसाधारण अपनी रुचि की अभिव्यक्ति उसमें पाता हो, उसकी संवेदना उससे जुड़ी हो। जब-जब कोई रचनाकार हमारी व्यष्टि को समष्टि में बदलने की संभावना रखता है, तब-तब वह साहित्य जन-साहित्य बन जाता है, तब ऐसा साहित्य पाठकों और आलोचकों के गले का हार बन जाता है।

लाजपत राय गर्ग की इमेजरी बहुत ही अद्भुत है। वे अपने आसपास के सच को जिस तरह से बयान करते हैं और जिस तरह से जन-संवेदनाओं से जोड़ते हैं, पाठक अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। वे अपने कथाक्रम को अपने परिवेश, अपने समाज के बीच से उठाते हैं और अपने जीवनानुभव को इस प्रकार उसमें झोंकते हैं कि उनका जीवनानुभव, उनकी संवेदना उनका दर्शन बन जाता है। एक मौलिक दर्शन, जहाँ हम मानवीय भावों की नई एवं मौलिक परिभाषाएँ पाते हैं। उनके सृजन में उनके अन्दर का रचनाकार इस तरह डूब जाता है कि उन्हें स्वयं भी हैरत होती है कि क्या यह उनका ही लिखा हुआ साहित्य है, कथासूत्र है? वे अपने पात्रों के प्रति बड़े सजग हैं। उनके भावों, भाषा, वेशभूषा, उनके मान-सम्मान, उनकी प्रत्येक हरकत को नज़रअंदाज़ नहीं करते, बल्कि उसी तरह उभारते हैं जैसा कि वह हो सकता है, जिसमें पाठक या आलोचक को बनावटीपन या अलग-थलग कुछ नहीं लगता।

लाजपत राय गर्ग के उपन्यासकार की यह बहुत बड़ी खासियत है कि वह कहीं भी यह महसूस नहीं होने देता कि यथार्थ के साथ कल्पना का कितना संयोग है। यह उनकी चतुराई है, एक कला है, अद्भुत शिल्प है। यह उनकी रचनाधर्मिता और जनधर्मिता है कि वे अपनी कथा में खो जाते हैं, जहाँ यथार्थ एवं कल्पना एकाग्र हो जाती है, जहाँ उनकी कल्पना यथार्थ में मूर्तमान हो जाती है। ऐसे स्थलों पर उनके बिम्ब और प्रतीक साकार उठते हैं। उनके पात्र बोलने लगते हैं। पाठक को अपने पीछे लगा लेते हैं, जहाँ इनके पात्रों का व्यवहार, आचार-विचार पाठकों को आकर्षित कर एक निश्चित प्रभाव डालता है। वे अपने पात्रों के माध्यम से घटनाक्रम का एक ऐसा संजाल बुनते हैं कि पाठक निकल ही नहीं पाता। वह उनके मनोभावों से संवेदित हुए बगैर नहीं रह पाता और उन्हीं के भावों में बहने लगता है। संप्रेषणीयता का ऐसा अद्भुत शिल्प लाजपत राय गर्ग के उपन्यासकार के पास है जो उनकी प्रतिभा एवं ईश्वरीय वरदान लगता है। पाठक रोचकता से आनन्दित हो उठता है, या यूं कहें कि लाजपत राय गर्ग के सृजन के आलोक में पाठक एक अन्य लोक की यात्रा कर आता है, जहाँ उनकी कथा मनुष्य को कई तरह के भावों से चेतित करती है, उसे जागरूक करती है, उसे मनुष्यता के पायदान की ओर ले जाती प्रतीत होती है।

लाजपत राय गर्ग की दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म है। उनके भावों का उद्वेलन एवं मार्मिकता पाठक को अभिभूत कर देती है। उपन्यासकार की एक अपनी कथा-जमीन है, जहाँ उनकी समझ, दृष्टि, अनुभव, मस्तिष्क, हृदय, अनुभूति, अभिव्यक्ति सूक्ष्म-विश्लेषणोपरान्त रचना-प्रक्रिया के विभिन्न आयामों और मानकों को निर्धारित कर सृजन की ओर बढ़ते हैं।उपन्यासकार के निहित भाव कब सम्पूर्ण समाज के बन जाते हैं, यह पता ही नहीं चलता। भावों का साधारणीकरण और संप्रेषण उनके सृजन का विशेष हथियार है।

लाजपत राय गर्ग एक ऐसे उपन्यासकार हैं जिनका कथा-संसार जन की कथा-व्यथा है। उनका सृजन जन-जागरण, जन-कल्याण हेतु है। वे इहलौकिक विसंगतियों, स्थितियों, परिस्थितियों तथा रिश्तों एवं भावनाओं के सजग चितेरे हैं और कारीगर भी, जहाँ वे उनकी मुरम्मत करते नजर आते हैं। विघटित रिश्तों-नातों, टूटते-बिखरते संबंधों, एवं प्रेम के विकृत रूप से आहत हैं। अत: इनका मूल प्रतिपाद्य रिश्ते, नातों, प्रेम संबंधों को बचाना है तथा उनकी पुनर्स्थापना करना है, भौतिकवादी मनुष्य को उसके उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्य के प्रति सजग करना है। उसके स्वार्थीपन और वहशीपन से उसे मुक्ति दिलाना है। वे एक ऐसे संसार की परिकल्पना करते हैं जहाँ स्त्री-पुरुष, सत्यम, शिवम्, सुंदरम् की अभिव्यक्ति हों, जहाँ अपूर्णता में पूर्णता का भाव हो, जहाँ प्रेम और आदर की स्थापना हो। वे एक ऐसे सजग समाज की परिकल्पना करते हैं जहाँ स्त्री-पुरुष का भेदभाव न हो, जहाँ जाति, धर्म, सम्प्रदाय के बंधन न हों, जहाँ सामाजिक विसंगतियों से मुक्त समाज हो। रंचमात्र भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अव्यवस्था न हो। वे एक ऐसे समाज की परिकल्पना करते हैं जहाँ केवल मनुष्यता, विश्वबंधुता, नैतिकता, सजगता एवं जन-कल्याण का संचार हो; जहाँ प्रेम एवं राष्ट्रीयता हो, जहाँ संपूर्णता एवं सामयिक युगबोध हो; जहाँ कोई भी अपने अधिकारों से वंचित न हो।

लाजपत राय गर्ग आस्तिक हैं। वे भौतिकवाद और बाजारवाद के विरोधी हैं, लेकिन जन-हितैषी हैं। वे एक नेक दिल इंसान हैं। जहाँ उनका हृदय, मन, मस्तिष्क दूसरों के लिए छटपटाता है, वहीं उनका हृदय, प्रेम की भावना पैदा करने का भी इच्छुक है। उनके अंदर तनिक भी अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, वैर, विरोध नहीं है। वे नि:स्वार्थी एवं सहृदयी हैं। उनका रचनाकार सजग, नैतिक, कर्त्तव्यनिष्ट, परोपकारी, जन-हितैषी और इससे भी अधिक एक जागरूक नागरिक है, जो समाज का हित-चिंतक है। वे एक सोशलिस्ट, जिज्ञासु, अध्येयता, शोधार्थी, एक सजग चितेरे रचनाकार, उपन्यासकार, कथाकर के रूप में हिन्दी साहित्य में सक्रिय हैं।

उपन्यासकार लाजपतराय गर्ग का उपन्यास "प्यार के इंद्रधनुष" अद्भुत भाषा शैली में सृजित प्रेम संबंधों की उदात्तता, शिष्टता एवं निश्छल भावों का उद्बोधन है, जहाँ प्रेम की पराकाष्ठा को निहारा जा सकता है। उपन्यासकार ने प्रेम के ऐसे रूप, स्वरूप का सृजन किया है जहाँ स्वार्थपरता, अश्लीलता या निम्न स्तरीय भाव दूर-दूर तक दृष्टिगत नहीं होते। उपन्यास के कथाक्रम में उपन्यासकार ने एक अलौकिक, इहलौकिक प्रेम की परिकल्पना की है; आज के युग में इस तरह की परिकल्पना करना जिगर की बात है। उपन्यासकार एक प्रसंग के माध्यम से इस बात को स्पष्ट करते हैं। जब रेनु को मनमोहन और डॉक्टर वर्मा के प्रेम में शंका पैदा होने लगती है तो मनमोहन रेनू को समझाते हुए कहता है - ‘रेनु, वृंदा उन लड़कियों में से नहीं है जिनके लिए प्यार करना शारीरिक क्रिया मात्र है, वह तो स्वयं की सन्तुष्टि का हेतु न मान कर दूसरों को खुशियां प्रदान करने का माध्यम मानती है।’ यहाँ प्रेम की उदात्तता एवं चरित्र की उच्चता देखते ही बनती है।

इस उपन्यास में वृंदा एक ऐसा चरित्र है, जिसके माध्यम से उपन्यासकार ने वर्तमान समाज की बिगड़ती दशा को दिशा देने में प्रयास किया है। ऐसे आधुनिक समाज को जहाँ रिश्तों के मायने नहीं के बराबर रह गए हैं, जहाँ प्रेम संबंध केवल दैहिक स्तर पर उतर आया है, जहाँ मनुष्य अमानुष की संज्ञा से अभिषिक्त किया जा सकता है, जहाँ अपने ही अपनों का शिकार करते हैं। जहाँ बहू-बेटियों की इज्जत, आबरू घर की चारदीवारी में भी असुरक्षित दिखाई दे रही है। जहाँ वासना से भरा गुब्बारा फूटने की कगार पर है। जहाँ पोर्न साइट्स नंगेपन की हदों को पार कर रही हैं, मनुष्य को पशु तुल्य बना चुका है। जहाँ प्रेम का स्थान मांसलता ने लिया है, जहाँ संवेदनाएं चित हो चुकी हैं। मनुष्य मनुष्य को काट रहा है। जहाँ संबंध, दंगों और संप्रदायों की आग में दाहित हो रहे हैं, जहाँ अजनबीपन अपने कलेवर बदल कर भयावहता की हद तक पहुँच चुका है। ऐसे में एक उपन्यासकार की प्रेम के प्रति उदात्त परिकल्पना और रिश्तों के प्रति संवेदना अपने आप में एक विशिष्ट उदाहरण है।

इस उपन्यास में 'प्रेम' एक नए रूप में दिखाई देता है। उपन्यासकार प्रेम की नई-नई स्थापना ही नहीं करता, बल्कि नई-नई परिभाषाएँ भी गढ़ता है। स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है, दैहिक से दैविक की ओर ले जाता है। उपन्यासकार की यह सुंदर प्रेम-कथा आज के समय की माँग ही नहीं, बल्कि दरकार है। अश्लीलता के पाखंड से बाहर निकल कर मनुष्य प्रेम में सराबोर नैतिकता के मानदंडों पर खरा उतरने के लिए प्रयासरत रहता है। ऐसे कथाक्रम समाज की घुटती-दबती साँस की संजीवनी हैं। उपन्यास में लाजपतराय गर्ग का उपन्यासकार खुल कर बोला है। वह बेबाकी से सामाजिक रूढ़ियों एवं विसंगतियों का पर्दाफाश करने में सफल रहा है। रूढ़िगत विचारों के ऊपर आधुनिक एवं श्रेष्ठ विचारों की विजय दिखाई गई है। जहाँ स्त्री पुरुष एक ही चक्र की धूरी हैं, जहाँ दोनों की समानता और आदर एक समान है, जहाँ भेदभाव या विरोधाभास रंचमात्र भी नहीं, जहाँ जातिगत भेद को दरकिनार कर समानता का बोध होता है। उपन्यास में कहीं भी जाति, धर्म, संप्रदाय को तूल नहीं दिया गया, बल्कि उनके संदर्भ में उच्च मानवता को रखा गया है, जहाँ प्रेम को श्रेष्ठ ठहराया गया है। जहाँ सामाजिक नजरिए की तुच्छता के स्थान पर प्रेम की पराकाष्ठा, उदारता एवं उदात्तता का बोध करवाया गया है। जहाँ स्त्री-पुरुष के संबंधों में विपरीतता नहीं, बल्कि एकरूपता की स्थापना की गई है। तभी तो उपन्यास का नायक मनमोहन अपनी पत्नी रेनु को पति-पत्नी के प्रेम-स्थायित्व और स्वतन्त्रता का गुर समझाते हुए कहता है - ‘मेरे विचार से तो पति-पत्नी स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए भी आनन्ददायक जीवन बिता सकते हैं, बशर्ते उनमें ईगो प्रॉब्लम न हो।’

उपन्यास में एक पढ़ी-लिखी उच्च-विचारों और एक सम्पन्न परिवार से संबंध रखने वाली पात्रा अर्थात् नायिका डॉ. वृंदा और एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखने वाले कथा-नायक मनमोहन की प्रेमकथा है। इस प्रेमकथा में प्रेम का नैतिक, उच्च, नि:स्वार्थ एवं उदात्त रूप दिखाया गया है। प्रेम संबंधों का इससे उत्तम उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता जो समाज के घटनाक्रम में वर्णित है। दावे से कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवेश में ऐसे उदाहरणों के माध्यम से समाज की गंदगी और मानसिक कैंसर से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इस यज्ञ में इस प्रकार के उपन्यास हवन का काम करेंगे जो अपने हविष्य में मनुष्य की मलिनता को स्वच्छ एवं उज्ज्वल बनाने में सार्थक सिद्ध होंगे। ऐसे उपन्यास जनमानस की बिगड़ती मानसिक स्थिति का विरेचन करने में सार्थक सिद्ध होंगे। ऐसा विश्वास है कि आज के युवाओं में प्रेम के रूप, स्वरूप को शुद्ध-सात्विक करने में सक्षम होंगे। तभी तो डॉ. वृंदा रेनु के दूसरे प्रसव तथा मनमोहन के आई.ए.एस. में चयन वाले दिन की चहल-पहल के बाद रात को बिस्तर पर लेटी हुई मनन कर रही है - ‘प्रेम की भौतिक अनुभूति का अहसास तभी होता है, जब प्रेमी और प्रेमिका की मन:स्थिति एक-सी हो।’

इस तरह के उपन्यास भौतिकता और बाजारवाद की प्रवृत्ति के रास्ते को मिटाने में कारगर साबित होंगे। इस तरह की प्रेम-कथाएँ आज के भयावह समय में नारी की सुरक्षा और उसकी यंत्रणाओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इस तरह के उपन्यास रिश्तों की तहों को और महीन करने और उन्हें सूक्ष्मता की ओर ले जाने में कामयाब रहेंगे; भटकते हुए मनुष्य को एक उचित राह और प्रेरणा का काम करेंगे; संबंधों के विघटन के मार्ग में पुल का काम करेंगे, ऐसा विश्वास है। डॉ. वृंदा निलांजना को प्रेम के संबंध में बताते हुए कहती हैं - ‘मेरा मानना है कि प्रेम जिससे हो जाता है, हालात कुछ भी क्यों न हों, वह सदा रहता है। जैसे शरीर न रहने पर भी आत्मा का हनन नहीं होता, उसी प्रकार प्रेम सदैव बना रहता है। असल में, प्रेम में इच्छित परिणाम मिले ही, यह जरूरी नहीं।’

जहाँ प्रेम के प्रति ऐसे उच्च भाव हों, प्रेम के उदात्त रूप की स्थापना कैसे नहीं होगी? अवश्य होगी। साथ में यह विश्वास है कि पश्चिमीकरण के प्रभाव से आई विसंगतियों और अंतर्विरोधों को आड़े हाथों लेंगे। ऐसा विश्वास है कि लिव इन रिलेशन के नाम पर दैहिक व्यापार और अश्लीलता की कसौटी का सर्वनाश होगा। ऐसा विश्वास है कि आज की भावी युवा पीढ़ी प्रेम के महत्त्व को ठीक से समझ पाएगी और प्रेम की नई परिभाषा तैयार करेगी जो सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का पाठ पढ़ाएगी। उद्वेलित मन और चिंताओं को विराम विराम देगी, जो द्वेष और स्वार्थ को मिटाकर अपनत्व की भावना के बीज बोएगी। जो संवेदना की नई इमारतें खड़ी करने में सक्षम होगी, जो भयवहता  के स्थान पर सहृदयता, सहिष्णुता और रिश्तों की कसौटी तय कर पाएगी। उपन्यासकार ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि और प्रेम के प्रति अपने दर्शन की अभिव्यक्ति इस उदाहरण के माध्यम से बखूबी स्पष्ट की है। प्रेम से आहत निलांजना को डॉ. वृंदा प्रेम की वास्तविकता समझाती हुई कहती हैं -  ‘निलांजना माफ करना यदि तुम्हें बुरा लगे। लेकिन मुझे लगता है कि तुमने प्रेम केवल देह के स्तर पर ही किया है, वह चाहे तुम्हारा पहले वाला प्यार हो या वर्तमान। जबकि प्रेम में देह का आकर्षण होते हुए भी वह देह तक सीमित नहीं होता। माना कि तन और मन में मिलन की तमन्ना उतनी ही तीव्र होती है जितनी की मछली को पानी की, जितनी की पुष्प को खिलने के लिए हवा की, किन्तु इसके बिना जिंदा रहने का साहस भी सच्चे प्रेम की शक्ति से ही मिलता है। प्रेम तो एक-दूसरे के लिए विकलता और मन के सौंदर्य में निहित होता है। प्रेम वह नहीं होता जो बदल जाता है हालात बदलने पर। और लिव-इन-रिलेशन तो देह से शुरू होता है और बहुधा देह से आगे नहीं बढ़ पाता। प्राय: सुनने को मिलता है कि विवाह के बिना इकट्ठे रहने वाले महिला और पुरुष अपनी जीवन-शैली का कारण बताते हैं कि वे इकट्ठे इसलिए रह रहे हैं ताकि एक दूसरे को समझ सकें। होता प्राय: यह है कि जब वे एक-दूसरे को समझ लेते हैं तो अलग हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण है मानव मन का द्वंद्व। द्वंद्व के कारण न व्यक्ति दूसरे को ठीक ढंग से समझ पाता है और न स्वयं को जान पाता है। दिग्भ्रमित मन ही हमारे सारे दुःखों का कारण है।’

उपन्यासकार ने उपन्यास में बहुत सी ऐतिहासिक जानकारियाँ दी हैं जो एक शोधार्थी के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगी। इसके अतिरिक्त किसानों की कई समस्याओं को उठाया गया है तथा प्रकृति में आने वाले बदलावों एवं खतरों से अवगत करवाने का प्रयास सार्थक रहा है। इस प्रकार उपन्यासकार का उद्देश्य किसानों को जागरूक करना है और पर्यावरण के प्रति चिंता भी है।धार्मिक रीति-रिवाजों एवं अपनी सभ्यता-संस्कृति को उजागर करना रचनाकार के अनुभव और सांस्कृतिक प्रेम को दर्शाता है। उपन्यास में कविता, गीत, संगीत तथा पत्र का अपना ही महत्त्व है। व्रत एवं योग के माध्यम से जन जागृति और भारतीय परंपरा और सभ्यता का बोध का करवाया गया है जो रचनाकार की अध्ययन की प्रवृत्ति और प्रौढ़ता को दर्शाता है। व्रत के महत्त्व को समझाते हुए उपन्यासकार लिखते हैं - ‘उपवास का अर्थ है परमात्मा के निकट होना। अत: व्रत में केवल भोजन का त्याग ही नहीं होता, अपितु मन को एकाग्र करना भी अभीष्ट होता है। मन की संकल्प शक्ति बढ़ने से इच्छित परिणाम सहज में मिल जाता है।’

उपन्यासकार ने बुजुर्गों की सोच, वृंदा के पिता हरलाल के माध्यम से स्पष्ट की है, जो अपनी पुत्री का विवाह मनमोहन से नहीं होने देना करवाना चाहता, क्योंकि एक तो वह उनकी जात-बिरादरी का नहीं है, दूसरे - ‘विवाह एक ऐसा बँधन है जो दो व्यक्तियों के जीवन को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि दो परिवारों तथा अगली पीढ़ियों के जीवन पर भी असर डालता है।’ इसी बात का खंडन करते हुए युवा पीढ़ी अर्थात् वृंदा के माध्यम से उपन्यासकार लिखते हैं- "पापा, समय बहुत बदल गया है। बिरादरी की इच्छा नहीं, विवाह के लिए विवाह करने वाले दो व्यक्तियों की इच्छा अधिक महत्त्व रखती है। यदि उनके मन मिल गए तो अन्य व्यवधान अपने आप दूर हो जाते हैं।’

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि सारे का सारा उपन्यास एक फिल्म की तरह दिमाग में चलता है। घटनाक्रम की निरंतरता, प्रवाह, रोचकता, एकसूत्रता गजब की है। पात्रों और संवादों का औचित्य उपन्यास को सार्थक बनाता है। भाषा-शैली अद्भुत है। बिम्ब और प्रतीक आंखों के सामने साकार हो उठते हैं। शब्दावली और शब्द-चयन की उपयुक्तता उपन्यास को पठनीय बनाते हैं। मुहावरे-लोकोक्तियों का यथा-स्थान प्रयोग हुआ है। उपन्यास में संवादों की संक्षिप्तता, सूक्ष्मता एवं चुटीलापन पाठक को मोह लेता है। उपन्यास उदात्त प्रेम की ऐसी अनकही कहानी है जिसमें अश्लीलता, शिथिलता, क्लिष्टता या दुर्बोधता का भाव रंचमात्र भी नहीं, बल्कि सहजता, सुन्दरता, नैतिकता और प्रौढ़ता के साथ-साथ प्रेम के एक नए रूप-स्वरूप की कल्पना साकार हुई है जो प्रेम के एक नए ही रूप को परिभाषित करती है।

डॉ. पान सिंह

विभागाध्यक्ष हिन्दी

हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय,

शिमला-171005

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प्रेम समर्पण का उदात्त दर्पण

मनुष्य प्रेमवश जब अपना सर्वस्व किसी के लिये समर्पित करने को तैयार हो जाता है, तो सच्चे प्यार की उदात्त परिणति होती है। इस स्थिति में वह लाभ-हानि, सुख-दु:ख, मान-मर्यादा की परवाह किये बिना अपने प्रियतम की भलाई, उसके सम्मान के विषय में चिंतन करता है। यही शाश्वत प्रेम है। इसमें प्रेमी / प्रेमिका कुछ पाना नहीं चाहता / चाहती, सदैव देना ही चाहता / चाहती है। तब यह राधा-कृष्ण का स्वरूप बनकर संसार को वृंदावन बनाने का प्रयत्न करता है।

उपन्यासकार लाजपत राय गर्ग का उपन्यास “प्यार के इन्द्रधुनष” भी ऐसे ही निश्छल उदात्त प्रेम का कथानक लेकर हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है। यह सच है कि डॉ. वर्मा जैसे समर्पित पात्र सामान्यतः हमारे समाज में कम दिखाई देते हैं, परन्तु पूर्णतः विलुप्त नहीं हुए हैं। कभी-कभी, कहीं-न-कहीं ऐसे प्रेरक पात्रों का जन्म होता है और रचनाकार ऐसे विलक्षण पात्रों को पाठकों के सामने प्रस्तुत करता रहा है, क्योंकि लेखक का यह भी दायित्व है कि वह ऐसे पात्रों के द्वारा समाज में नैतिकता का प्रचार-प्रसार करता रहे।

इससे पूर्व लेखक के तीन उपन्यास - “कौन दिलों की जाने!”, “पल जो यूँ गुज़रे” तथा “पूर्णता की चाहत” - साहित्य-जगत् में काफ़ी चर्चित हैं। सुखद लगता है कि प्रदेश के साहित्य में घटता हुआ उपन्यास-लेखन समृद्ध हुआ है।

यह उपन्यास सच्चे प्रेम का प्रतीक बनकर पाठक के सामने आदर्श प्रस्तुत करता है। उपन्यास की नायिका इंटर-कॉलेज भाषण प्रतियोगिता के विजेता मनमोहन की ओर आकर्षित होती है। दोनों की आर्थिक व पारिवारिक परिस्थितियों में दिन-रात का अन्तर होने पर भी यह आकर्षण प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। मनमोहन को परिस्थितियों से समझौता कर ग्रेजुएशन के बाद नौकरी करनी पड़ती है, लेकिन वह वृंदा के डॉक्टर बनने तक प्रतीक्षा करता है। डॉक्टर बनने के बाद जब वृंदा अपने मन की बात अपने माता-पिता के समक्ष रखती है तो वे मनमोहन की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को देखते हुए स्पष्ट इनकार कर देते हैं। तब डॉ. वृंदा वर्मा भी उन्हें स्पष्ट कह देती है कि शादी करूँगी तो मनमोहन के साथ वरना आजीवन कुँवारी रहूँगी।

डॉ. वर्मा मनमोहन को अपनी स्थिति से अवगत कराती है तथा उसकी बहन मंजरी को मनमोहन की शादी अन्यत्र करने का अनुरोध करती है। मनमोहन कहता है - ‘वृंदा, मैं तुम्हें कभी भुला नहीं पाऊँगा।’ डॉ. वर्मा भी अपनी भावना व्यक्त कर देती है - ‘मनु, तुम आम लड़कों से बिल्कुल अलग हो। तुमने मेरी देह से प्रेम नहीं किया, बल्कि मेरी आत्मा में अपनी पैठ बनायी है। इसलिये तुम्हारी यादें ही अब मेरे जीवन का सहारा रहेंगी।’

मनमोहन शादी के बाद अपनी पत्नी रेनु को डॉ. वर्मा के विषय में सब कुछ बता देता है। संयोग से कई सालों बाद रेनु के प्रसव के समय मनमोहन और वृंदा का सामना होता है और डॉ. वर्मा उसकी अपनेपन से मदद करती है और उसकी बेटी को गोद लेने की इच्छा प्रकट करती है। मनमोहन और रेनु इसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। अन्य पात्र जैसे मनमोहन की बहन मंजरी, उसका पति, दोस्त विमल, नर्स अनिता, डॉ. चौधरी आदि उपन्यास में सहायक कथाओं को विस्तार देने में सहायता करते हैं।

उपन्यासकार पात्रों को अपने ढंग से सृजित करता है। अत्यधिक काल्पनिक, आदर्शवादी, अविश्वसनीय पात्रों को पाठक आत्मसात् नहीं कर पाते, परन्तु लेखक लाजपत राय गर्ग ने सभी पात्रों को स्वाभाविक बनाया है। प्रत्येक मनुष्य में कुछ-न-कुछ व्यक्तिगत कमज़ोरियाँ अवश्य रहती हैं जो इस उपन्यास के पात्रों में भी हैं। नायक तथा नायिका जहाँ कहीं भी अपने पथ से भटकने लगते हैं तो दूसरा उसका सहायक बनकर शक्ति प्रदान करता है। यही उपन्यासकार की सफलता है।

सबसे प्रमुख बात होती है रचना में पाठक को निरन्तर बाँधे रखने की क्षमता। यह क्षमता तभी आती है जब उसमें रोचकता हो। लेखक के सभी उपन्यासों में यह तत्त्व विद्यमान है। “प्यार के इन्द्रधुनष” भी रोचकता से भरपूर है। इसलिये मेरा विश्वास है कि पाठक एक बार पढ़ना आरम्भ करने के बाद अधूरा नहीं छोड़ेगा।

यह उपन्यास प्रेम समर्पण का उदात्त दर्पण है जो आधुनिक युग में माता-पिता के आदेश को जीवनपर्यंत स्वीकार करता है। प्रियतम के सुख-दु:ख, मान-मर्यादा का ख़्याल रखता है। अपने प्रियतम की पत्नी के प्रति तथा पत्नी द्वारा सब कुछ जानते हुए भी अपने पति की प्रेयसी के प्रति सम्मान का भाव रखना - एक परिपक्व सोच व विश्वास का द्योतक है। मैं उपन्यासकार लाजपत राय गर्ग को इस सफल कृति के लिये बहुत-बहुत बधाई देता हूँ।

डॉ. मधुकांत

(हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा

‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ से

विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार )

211, मॉडल टाउन, डबल पार्क,

रोहतक (हरियाणा), मो. 98966-67714

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आज मनमोहन को मन मारकर कार्यालय आना पड़ा था। उसके बॉस का सख़्त आदेश न होता तो इस समय वह आने वाली मीटिंग की फाइल तैयार करने की बजाय अपनी पत्नी रेनु के पास अस्पताल में होता। आज सुबह जब वह उठा और रेनु को स्नानादि से निवृत्त हुआ देखा, तो उसने पूछा था - ‘आज इतनी जल्दी कैसे तैयार हो गयी हो?’ तो उसने उत्तर दिया था - ‘आप भी जल्दी से तैयार हो लो। इतने में मैं नाश्ता और दोपहर का खाना बना लेती हूँ। पिछले एक पहर से रह-रहकर ‘दर्द’ उठ रहे हैं। ऑफिस जाने से पहले डॉक्टर को दिखा आते हैं।’ और वह तुरत-फुरत तैयार होकर उसे लेकर डॉ. लता के नर्सिंग होम के लिये घर से निकल लिया था। जब डॉ. लता ने चेकअप के पश्चात् रेनु को एडमिट करने के लिये कहा तो मनमोहन ने अपनी बहन मंजरी को फ़ोन करके सारी स्थिति से अवगत कराया और उसे शीघ्रातिशीघ्र अस्पताल पहुँचने के लिये कहा।

मुश्किल से आधा घंटा बीता होगा कि मंजरी अपने बेटे श्यामल को लेकर अस्पताल पहुँच गई। डॉक्टर ने रेनु को एडमिट करके मनमोहन को बताया कि अभी समय लग सकता है, इसलिए आप प्रतीक्षा करें। मनमोहन पहले ही ऑफिस से लेट हो रहा था, अत: वह बहन और भांजे को रेनु के पास छोड़कर ऑफिस आ गया। बॉस ने लेट आने के लिये उसे डाँटा और कहा - ‘अब बिना कहीं और ध्यान दिए मीटिंग की फाइल तैयार करने में लग जाओ। मुझे दो घंटे में कम्पलीट फाइल चाहिए।’

फाइल तैयार करते हुए भी उसकी नज़र बराबर मोबाइल के स्क्रीन पर लगी हुई थी। दिल में धुकधुकी लगी थी रेनु का कुशल-मंगल जानने की। इसी बीच फाइल का काम पूर्ण हो गया। जब बॉस फाइल देख रहा था, तभी मोबाइल की रिंगटोन बजने लगी। उसने ‘एक्सयूज मी सर’ कहा और बाहर आकर कॉल सुनी। मंजरी कह रही थी - ‘मोहन, यह डॉक्टर तो कोई बात ही नहीं सुनती और रेनु काफ़ी तकलीफ़ में है। मेरी मानो तो रेनु को सिविल अस्पताल ले चलते हैं। वहाँ डॉक्टर वर्मा है, उसकी बड़ी अच्छी रेप्यूटेशन सुनी है। तुम जल्दी से आ जाओ।’

कॉल सुनकर जब वह वापस आया तो बॉस ने उसकी घबराहट को लक्ष्य कर पूछा - ‘मनमोहन, किसका फ़ोन था, ख़ैरियत तो है?’

‘सर, अस्पताल से सिस्टर का फ़ोन था। कह रही थी कि वाइफ़ की कंडीशन ठीक नहीं। उसे सिविल अस्पताल लेकर जाना है।’

क्योंकि बॉस के दिशा-निर्देशानुसार मनमोहन ने बड़े मनोयोग से काम करके फाइल तैयार कर दी थी, अत: उसने कहा - ‘मनमोहन, तुम अभी चले जाओ और अपनी वाइफ़ को सँभालो। यदि किसी तरह की ज़रूरत पड़े तो मुझे बताना, मैं सिविल सर्जन को फ़ोन कर दूँगा।’

मनमोहन ने बॉस को ‘थैंक्यू सर’ कहा और तुरन्त ऑफिस से निकल लिया। रास्ते भर वह बॉस के सुबह और अब के बर्ताव के विषय में सोचता रहा। सुबह उसका व्यवहार कितना रूखा व तल्ख़ था और अब कितना सहानुभूतिपूर्ण! शायद बॉस भी विवश था सुबह। अपना काम अधूरा हो तो उस स्थिति में किसी का भी व्यवहार बॉस जैसा ही होता। कल उसे मीटिंग में जाना है और फाइल मेरे सिवा अन्य कोई तैयार कर नहीं सकता था। इसलिये अगर उसने डाँट भी दिया था तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, क्योंकि अस्पताल से फ़ोन तब आया जब मैं बॉस का काम उसके मन-मुताबिक़ कर चुका था।

जब मनमोहन नर्सिंग होम पहुँचा तो डॉक्टर दोपहर के खाने के लिये अपने निवास जो कि नर्सिंग होम के ऊपर ही है, पर थी। मनमोहन ने नर्स को कहकर डॉक्टर को नीचे बुलाया और कहा कि हम रेनु को सिविल अस्पताल ले जाना चाहते हैं, आप अपना बिल ले लें और हमें जाने दें। डॉ. लता ने उसे धैर्य रखने के लिये कहा, लेकिन वह रेनु को सिविल अस्पताल ले जाने के लिये अड़ गया तो डॉ. लता ने अपना बिल वसूल करके रेनु की रेफ़रल रिपोर्ट बना दी।

रेनु की एडमिशन फाइल जब अटेंडेंट ने डॉ. वर्मा के समक्ष रखी तो ‘श्रीमती रेनु वाइफ़ ऑफ श्री मनमोहन’ पढ़ते ही डॉक्टर के मन में कुछ-कुछ होने लगा। अगले ही क्षण मन ने कहा - दुनिया में एक ही मनमोहन तो नहीं है, न जाने कितने लोगों का नाम मनमोहन होगा! फिर भी मन नहीं टिका। उसने बेल बजाई। अटेंडेंट तुरन्त हाज़िर हो गया।

डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘तरसेम, रेनु पेशेंट के साथ कौन है?’

‘डॉ. साहब, पेशेंट के साथ एक आदमी, एक औरत और एक बालक है।’

‘आदमी को बुलाकर लाओ।’

अटेंडेंट को आदेश देकर डॉ. वर्मा ने रेनु की एडमिशन फाइल में डॉ. लता के रिमार्क्स को पढ़ने के अंदाज़ में सिर नीचा कर लिया, क्योंकि आगन्तुक यदि ‘उसका’ मनमोहन है तो वह एकाएक इतने सालों बाद सीधे उसका सामना नहीं करना चाहती थी। जब मनमोहन ने केबिन में प्रवेश करते हुए ‘नमस्ते डॉ. साहब’ कहा तो चिर-परिचित आवाज़ के कानों से टकराते ही उसने चेहरा ऊपर उठा कर देखा। दोनों की नज़रें मिलीं। मनमोहन वृंदा को डॉ. वर्मा के रूप में देखकर आश्चर्यचकित हुआ। उसके मुख से निकला - ‘वृंदा तुम .... सॉरी, डॉ. साहब, आप....?’

डॉ. वर्मा मन-ही-मन प्रसन्न थी कि उसका अनुमान ग़लत नहीं था। मनमोहन की हड़बड़ाहट देखकर उसे मज़ा भी आया। उसने खड़े होते हुए मनमोहन को स्वयं द्वारा रखे गये नाम से सम्बोधित करते हुए उलाहना दिया - ‘आओ मनु! पहले सही ढंग से बुलाया और फिर सॉरी क्यूँ बोला? क्या मैं ग़ैर हो गयी हूँ जो अनजानों की तरह ‘डॉ. साहब’ कह रहे हो?’

डॉ. वर्मा के मुख से अपना नितान्त व्यक्तिगत सम्बोधन तथा प्यार-भरा उलाहना सुनकर मनमोहन कुछ क्षणों के लिये अवाक् रह गया। फिर उसने कहा - ‘नहीं डॉ. साहब, .... ओह सॉरी .... वृंदा, मुझे नहीं पता था कि वृंदा अब डॉ. वी. वर्मा हो गयी हैं। यह भी नहीं मालूम था कि आप यहाँ पोस्टिड हैं ।’

‘मनु, एक तुम ही तो हो जो मुझे डॉक्टर बनने के बाद भी ‘वृंदा’ पुकारते रहे हो। मेरे तो कान पक गये ‘डॉ. साहब’, ‘डॉ. वर्मा’ सुनते-सुनते। आज मुद्दतों बाद तुम्हारे मुँह से ‘वृंदा’ सुनकर मुझे कितनी प्रसन्नता हुई है, मैं बता नहीं सकती! ....अरे, तुम अभी तक खड़े हो! बैठो। ..... और, यह क्या ‘आप, आप’ लगा रखा है, सीधे-सीधे उसी तरह बुलाओ जैसे अचानक देखने पर बुलाया था।’

मनमोहन ने बैठते हुए संकोच के साथ कहा - ‘वृंदा, सबके सामने तुम्हें ‘वृंदा’ बुलाना अच्छा लगेगा क्या?’

‘मनु, अभी तो हम दोनों हैं, ‘सब’ कहाँ हैं? चलो, औरों के सामने डॉक्टर बुला लेना, लेकिन ‘साहब’ तब भी मत लगाना।’

‘जैसा तुम्हारा हुक्म।’

‘यह हुई ना बात! अब बताओ, डॉ. लता के नर्सिंग होम से यहाँ आने की वजह? प्रेगनेंसी के शुरू से ट्रीटमेंट तो डॉ. लता से ही ले रहे थे ना?’

मनमोहन ने डॉ. वर्मा को बताया - ‘हाँ, शुरू से डॉ. लता का ट्रीटमेंट चल रहा था। हमेशा अच्छी तरह अटेंड करती थी, किन्तु आज उसने रेनु को एडमिट करने के बाद दोपहर तक खुद एक बार भी नहीं देखा, केवल नर्स ही देखती रही। आज डॉ. लता का बिहेवीयर बड़ा इन्डिफरेंट-सा था। इतनी गर्मी, ऊपर से ह्यूमिडिटी! लेबर पेन्स में रेनु का बुरा हाल था। डॉक्टर को रूम बदलने के लिए कहा तो कहने लगी, यही रूम अवेलेबल है। मैं तो ऑफिस में बिजी था। मंजरी दीदी ने मुझे बुलाया और रेनु को यहाँ लाने की सलाह दी। उसे भी नहीं पता कि हमारी वृंदा ही डॉ. वी. वर्मा हैं। उसने बस तुम्हारी रेप्यूटेशन सुनी थी।’

डॉ. वर्मा को मनमोहन द्वारा ‘हमारी वृंदा’ कहना बड़ा अच्छा लगा। उसे प्रसन्नता हुई कि मनमोहन के दिल में अभी भी मैं उसकी वृंदा हूँ। उसने पूछा - ‘दीदी भी आई हुई हैं?’

‘हाँ, वही तो रेनु को देख रही हैं। …. वृंदा, बातें बाद में कर लेंगे, एक बार तुम रेनु को देख लो।’

‘चलो।’

मनमोहन के साथ वृंदा को डॉक्टर के रूप में आते हुए देखकर मंजरी को प्रसन्नता भी हुई और आश्चर्य भी, किन्तु उसने सहज भाव से वृंदा को ‘नमस्ते डॉ. साहब कहा’। नमस्ते का प्रत्युत्तर देते हुए डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘कैसी हो दीदी? श्यामल ...?’

‘ईश्वर की कृपा से सब कुशल है। हमें तो पता ही नहीं था कि आप यहाँ हैं? बड़ा अच्छा लग रहा है। अब मुझे रेनु की तरफ़ से कोई चिंता नहीं रही।’

डॉ. वर्मा ने रेनु का चेकअप किया और मंजरी को बताया - ‘दीदी, घबराने की कोई बात नहीं है। कई बार पेन्स स्टार्ट होकर धीमे पड़ जाते हैं। यही रेनु के साथ हो रहा है। मैं इंजेक्शन लगवा देती हूँ। तीन-चार घंटे भी लग सकते हैं। मैं आप लोगों के लिये एक रूम की व्यवस्था करवा देती हूँ। रेनु को हम अपनी निगरानी में रखेंगे।’

रूम की व्यवस्था होने के थोड़े समय पश्चात् डॉ. वर्मा रूम में आयी और उसने पूछा - ‘आप लोगों ने लंच किया कि नहीं?’

उत्तर मंजरी ने दिया - ‘डॉ. वर्मा, मैंने और श्यामल ने तो डॉ. लता की कैंटीन में खा लिया था। मोहन को ऑफिस से अचानक बुला लिया था, इसलिए इसने अभी लंच करना है।’

डॉ. वर्मा - ‘दीदी, आप अकेले में मुझे डॉ. वर्मा की बजाय ‘वृंदा’ बुलाओ तो अच्छा लगेगा। .... मनमोहन, तुम मेरे साथ चलो, मैंने भी लंच करना है।’

मंजरी - ‘प्रह्लाद, तुम वृंदा के साथ लंच कर आओ, हम यहाँ बैठे हैं।’

डॉ. वर्मा के साथ जाते हुए मनमोहन को देखकर मंजरी सोचने लगी - काश कि दोनों की राहें जुदा न होतीं, कितनी अच्छी जोड़ी लग रही है! ....फिर विचार आया कि जो हुआ, अच्छा ही हुआ। पता नहीं, यदि विवाह हो जाता तो मोहन, एक सिम्पल ग्रेजूएट और वृंदा, एक डॉक्टर, दोनों की निभ भी पाती कि नहीं। रेनु भाभी भी किसी सूरत में कम नहीं है। हाँ, इतना ज़रूर है कि वह घरेलू परिस्थितियों के कारण प्लस टू से आगे पढ़ नहीं पायी, लेकिन घर-बार सँभालने में पूर्णतः निपुण है।.... वृंदा का व्यवहार कितना शालीन है, मोहन को अपना जीवनसाथी न बना पाने पर भी हमारे प्रति उसका पहले जैसा ही लगाव लगता है, वरना तो इतने सालों बाद कौन किसी से इतनी आत्मीयता से मिलता है!

क्वार्टर में प्रवेश करते ही मनमोहन ने चहकते हुए कहा - ‘वृंदा, बगीची तो बहुत सुन्दर ढंग से सजाई हुई है।’

‘मनु, मुझे तो यहाँ आये हुए अभी छ: महीने ही हुए हैं। मेरे से पहले जो कपल इस क्वार्टर में रहता था, यह सब उन्हीं का किया हुआ है। मैं तो इसे मेनटेन रखने की ही कोशिश करती हूँ।.... डॉक्टर की लाइफ़ और वह भी गायनी की, बहुत ही स्ट्रैस वाली होती है। दिन का पता नहीं, रात का नहीं पता, कब अस्पताल से कॉल आ जाये, यू नेवर नो!’

‘वृंदा, ऑय एम प्राउड ऑफ यू। तुम समाज की बहुत अच्छी सेवा कर रही हो। चाहे तुम्हें छह महीने ही हुए हैं यहाँ आये हुए, फिर भी शहर में तुम्हारा नाम है।’

ये बातें करते हुए दोनों ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया।

‘मनु, तुम बैठो, मैं फ्रेश होकर आई।’ बाथरूम में जाते हुए उसने बहादुर को आदेश दिया - ‘वासु, साहब को पानी पिलाओ।’

खाना खाने के पश्चात् मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, मैं चलता हूँ। जब नर्स कहेगी, तुम्हें बुला लेंगे। तब तक तुम आराम कर लो, पता नहीं रात को भी नींद पूरी कर पाई थी कि नहीं।’

‘रात को दो बजे कॉल आई थी, तब से जाग रही हूँ।’

‘अब थोड़ा सुस्ता लो। मैं चलता हूँ।’

डॉ. वर्मा ने फिर कुछ नहीं कहा और मनमोहन रूम में आ गया।

मनमोहन - ‘दीदी, श्यामल को तो घर जाने दो। मेरा ख़याल है, अब उसकी यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है।’

‘ठीक है। डॉ. वृंदा के यहाँ होने पर तो कोई ज़रूरत पड़ेगी भी नहीं।’

श्यामल के जाने के बाद मनमोहन ने मंजरी को भी आराम करने के लिये कहा और स्वयं डॉ. वर्मा के घर से लाया समाचार-पत्र पढ़ने की कोशिश करने लगा, किन्तु दृष्टि ख़बरों पर टिकने की बजाय अन्तर्मुखी हो गई।

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