प्यार के इन्द्रधुनष - 2 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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प्यार के इन्द्रधुनष - 2

- 2 -

दृष्टि अन्तर्मुखी हुई तो कॉलेज के प्रारम्भिक दिनों की घटना सचेत हो उठी ….

तीसरा पीरियड चल रहा था, प्रोफ़ेसर शर्मा पढ़ा रहे थे। विद्यार्थी तल्लीन होकर सुन रहे थे। एकाएक दरवाज़े पर दस्तक हुई। प्रोफ़ेसर शर्मा बोलते-बोलते चुप होकर आगन्तुक की ओर सवालिया नज़रों से देखने लगे। सभी विद्यार्थियों का ध्यान भी प्रवेश-द्वार की ओर हो गया।

आगन्तुक ख़ाकी वर्दी पहने डाकिया था। वह बोला - ‘सर, माफ़ कीजिएगा। एक रजिस्टर्ड लेटर देना था।’

प्रोफ़ेसर शर्मा - ‘किसका है?’

‘सर, मनमोहन नाम के लड़के का है।’

अपना नाम सुनते ही मनमोहन अपनी सीट पर खड़ा हो गया।

‘मनमोहन, जल्दी से अपना पत्र ले लो, लेकिन अभी खोलना मत। लेक्चर पूरा होने के बाद ही उसे देखना।’

‘ठीक है सर।’ कहकर मनमोहन डाकिए के पास गया। हस्ताक्षर करके रजिस्ट्री ली और अपनी सीट पर आकर बैठ गया। प्रोफ़ेसर शर्मा ने अपना लेक्चर पुनः प्रारम्भ किया। प्रोफ़ेसर की मनाही के बावजूद मनमोहन अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पाया। उसने डेस्क के नीचे करके भेजने वाले का नाम-पता देखा। प्रेषक का नाम था वृंदा और पत्र आया था भिवानी से। नाम देखकर उसका मन प्रफुल्लित हो उठा। अब उसका ध्यान उचट चुका था। चाहे शारीरिक रूप से वह क्लासरूम में उपस्थित था और प्रोफ़ेसर शर्मा को सुन रहा था, किन्तु प्रोफ़ेसर शर्मा क्या पढ़ा रहे थे, उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। वह तो उत्सुक था कि कब घंटी बजे और कब वह देखे कि वृंदा ने रजिस्टर्ड लेटर क्यों भेजा है और उसमें क्या लिखा है।

पीरियड समाप्त हुआ और वह क्लासरूम से बाहर निकल गया। मनमोहन और विमल अभिन्न मित्र थे। दोनों में किसी प्रकार का दुराव-छिपाव नहीं था। एक जब तक अपने मन की बात दूसरे को बतला नहीं लेता था, उसको खाना हज़म नहीं होता था। वे इकट्ठे कॉलेज आते-जाते थे। दोनों के सब्जेक्ट भी एक-से थे। ऐसा कभी नहीं हुआ था कि एक कॉलेज में हो और दूसरा न हो। इसलिए जब मनमोहन विमल को बिना बताए क्लासरूम से बाहर निकला तो विमल भी उसके पीछे-पीछे हो लिया। टीचिंग ब्लॉक पार करते ही उसने अपने से पचासेक कदम आगे जा रहे मनमोहन को आवाज़ दी। मनमोहन ने पीछे मुड़कर देखा और विमल को अपने पीछे आते देखा तो वहीं रुक गया।

मनमोहन को खोया-खोया सा देखकर विमल ने पूछा - ‘अरे, क्या हुआ, कहाँ खोया हुआ है? और पत्र किसका आया है?’ विमल ने उसके पास पहुँचकर एक ही साँस में कई प्रश्न पूछ डाले।

‘वृंदा का पत्र है’, मनमोहन ने सिर्फ़ एक प्रश्न का ही उत्तर दिया।

‘यह वृंदा कौन है भाई? पहले तो कभी यह नाम सुना नहीं। और इस पत्र के आने से तू किन ख़्यालों में खो गया है?’

‘कैंटीन में चलकर बताता हूँ।’

कैंटीन तक का रास्ता चाहे दो सौ गज का था, किन्तु इतना रास्ता भी विमल की उत्सुकता पर भारी पड़ रहा था। कैंटीन में आकर मनमोहन ने कोने के एक टेबल के पास दो कुर्सियाँ खींचीं और दोनों दोस्त आमने-सामने बैठ गए।

विमल को अपनी उत्सुकता पर नियन्त्रण रखना मुश्किल हो रहा था, अत: उसने बैठते ही पुनः प्रश्न उछाला - ‘कौन है यह वृंदा?’

मनमोहन ने विमल के प्रश्न का उत्तर देने की बजाय जेब से लिफ़ाफ़ा निकाला। फाड़कर पत्र निकाला। विमल ने अपनी कुर्सी मनमोहन की बग़ल में खींच ली और पत्र पर निगाहें गड़ा दीं। वृंदा ने लिखा था :

‘डियर मनमोहन,

स्वीट रिमेम्बरेंस!

यह पत्र तुम्हारे कॉलेज के एड्रेस पर भेज रही हूँ, क्योंकि तुम्हारा अन्य कोई एड्रेस तो मेरे पास है नहीं। यह पत्र मैं रजिस्ट्री करवाऊँगी ताकि पत्र सीधा तुम्हें मिले, किसी और के हाथ न लगे।

कल तुम्हारे से जुदा होने के बाद से जाग्रत-अवस्था का मेरा एक पल भी ऐसा नहीं गुजरा, जब तुम्हारी तस्वीर मन की आँखों से ओझल हुई हो और तुम्हारी दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाली आवाज़ कानों में न गूँजती रही हो! रात को जितनी भी नींद आई, उसमें भी तुम्हारे ही सपनों से स्पन्दित रही।

प्रतियोगिता के बाद जब अन्य विद्यार्थी तथा टीचर चाय और स्नैक्स खा-पी रहे थे, तब तुमने मेरे आग्रह को स्वीकार करते हुए कुछ अविस्मरणीय पल मेरे साथ गुज़ारे थे। अपने मनोभाव प्रकट करते समय मुझे समय का ध्यान ही नहीं रहा था कि तुम्हारा साथी तुम्हें ढूँढता हुआ वहीं आ पहुँचा था, जहाँ हम बातों में मशगूल थे। तब तक तुम केवल मुझे सुनते रहे थे, लेकिन तुम्हें अपने बारे में बताने का अवसर नहीं मिल पाया था। एक बात कहूँ, तुम ‘फनटैस्टिक लिस्नर’ हो।

मैं बेताब हूँ तुम्हारे बारे में जानने को। अत: आशा करती हूँ कि तुम लौटती डाक से पत्र लिख कर मेरी जिज्ञासा शान्त करोगे।

शेष नेक्सट टाइम।

तुम्हारी प्रशंसिका,

वृंदा’

पत्र दोनों मित्रों ने साथ-साथ पढ़ा। पत्र पढ़ने के बाद विमल बोला - ‘तो यह बात है वृंदा के सपनों के राजकुमार। इतने दिन तक यह बात तूने मुझ से छिपाए रखी, तुझे खाना कैसे हज़म होता रहा रे?’

‘नहीं यार। ऐसी कोई बात नहीं। डेक्लेमेशन की समाप्ति पर जब हम लोग नाश्ता कर रहे थे तो वृंदा ने मुझे प्रतियोगिता में प्रथम आने पर बधाई दी और साथ ही कहा, दो मिनट मेरे साथ आना। शिष्टाचारवश मैं उसके साथ हो लिया। अकेले में वह अपनी बातें ही कहती रही जैसा कि तूने पत्र में पढ़ा है। बार-बार यही कहती रही - मनमोहन, तुम्हारी आवाज़ में जादू है। विमल, मुझे क़तई उम्मीद नहीं थी कि छोटी-सी मुलाक़ात यूँ भी आगे बढ़ सकती है, न ही वृंदा ने ऐसा कोई हिंट दिया था। इसीलिए भाई, मैंने तुझसे कोई ज़िक्र नहीं किया था।’

‘चलो, तुम्हारी इस गुस्ताखी के लिये माफ़ किया। लेकिन बच्चू, आगे से ऐसी गलती मत करना वरना तेरी ख़ैर नहीं। ..... वृंदा ने ठीक ही लिखा है, आवाज़ के तो तुम जादूगर हो ही! हाँ, उसकी पहचानने की क्षमता की दाद अवश्य देनी पड़ेगी। तुम्हारे हाव-भाव देखकर तो लगता है कि बच्चू, जादूगर पर जादूगरनी का जादू चल चुका है!’

‘विमल सच-सच कहना, कहीं तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं होने लगी है?’

‘नहीं मेरे भाई, मुझे ईर्ष्या भला क्यों होगी! मैं कोई प्रतिद्वंद्वी तो हूँ नहीं, तेरा दोस्त हूँ। इसलिए मुझे तो ख़ुशी हो रही है। हो सकता है, वृंदा की यह पहल कल उसे मेरी भाभी बना दे। अब तू जब उसे पत्र लिखे तो लिख देना कि यदि उसे एतराज़ न हो तो मैं अपने दोस्त के साथ कुछ देर के लिए मिलने आना चाहता हूँ।’

‘विमल, पहले ही पत्र में ऐसा लिखना अच्छा नहीं लगता। एक-आध पत्र के बाद मिलने की बात कर लूँगा। हाँ, इतना विश्वास रख कि मैं वृंदा से अकेला नहीं मिलूँगा।’

‘ठीक है भाई, जैसी तेरी मर्ज़ी।’

और जब लगभग एक महीने बाद वृंदा से मिलने का कार्यक्रम तय हुआ, मनमोहन ने विमल को चलने के लिए कहा तो उसने साथ जाने से साफ़ मना करते हुए कहा - ‘यारा, मैं कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहता। हो सके तो वृंदा की फ़ोटो लेते आना। यार तो उसी से तसल्ली कर लेंगे।’

वृंदा ने ‘बया’ टूरिस्ट कॉम्प्लेक्स में मिलने के लिए लिखा था। वृंदा के बताए अनुसार मनमोहन बस-स्टैंड से पहले ही पीडब्ल्यूडी रेस्टहाउस के पास ही उतर गया। ‘बया’ टूरिस्ट कॉम्प्लेक्स पीडब्ल्यूडी रेस्टहाउस के साथ लगता है। गर्मी ऋतु की सिखर दोपहर, जब परिंदे भी छाया तलाश करने लगते हैं, ऐसे समय में मनमोहन को सौ-डेढ़ सौ गज से अधिक नहीं चलना पड़ा। जब वह टूरिस्ट कॉम्प्लेक्स में पहुँचा तो वृंदा उसे रिसेप्शन हॉल में सोफ़े पर बैठी प्रतीक्षा करती मिली। उसे देखते ही वृंदा का मुख-मंडल आरक्त हो उठा। उसने ‘हैलो’ की और साथ ही हाथ बढ़ा दिया। मनमोहन ने भी हाथ बढ़ाकर ‘शेकहैंड’ किया और कहा - ‘सॉरी वृंदा, तुम्हें इंतज़ार करना पड़ा। एक बस ‘मिस’ हो गयी, इसलिए आधा घंटा लेट पहुँचा हूँ।’

‘डजंट मैटर। देर आए दुरुस्त आए। ऐसी इंतज़ार का कोई शिकवा नहीं, जिसके बाद तुम्हारे दर्शन हुए।’

‘सारी बातें यहीं करनी हैं क्या? चलो रेस्तराँ में बैठते हैं।’

‘अरे नहीं। मैंने रूम बुक करवाया हुआ है।’

‘तो ठीक है, वहीं चलो।’

वृंदा ने रूम लेते ही ए.सी. ऑन कर दिया था। दसेक मिनट ठंडी हवा का आनन्द लेने के उपरान्त बिना ए.सी. बन्द किए रूम बन्द करके वह रिसेप्शन हॉल में आकर बैठ गई थी। इसलिए जब वे रूम में पहुँचे तो रूम पूरा ठंडा था। मनमोहन ने पूछा - ‘वृंदा, जब तुमने रूम बुक करवाया तो होटल वालों ने एतराज़ नहीं किया?’

‘वे एतराज़ क्यों करते? मेरे आईडी कार्ड में मेरी डेट ऑफ बर्थ दी हुई है। मैं अडल्ट हो चुकी हूँ। दूसरे, मैं अपने साथ बुक्स लेकर आई हूँ। शाम तक के लिए घरवालों से परमीशन ली हुई है।’

‘यू आर अ गुड प्लैनर! ... रूम तो बहुत ठंडा हो रहा है।.... वैसे वृंदा, मुझसे मिलने के लिए रूम की क्या ज़रूरत थी, रेस्तराँ में बैठकर भी घंटा-दो घंटे बतिया सकते थे; फ़िज़ूल में घंटे-दो घंटे के लिए दिन-रात का रूम-रेंट देना पड़ा होगा!’

‘हाँ, रेंट तो होटल वाले दोपहर बारह बजे से अगले दिन के बारह बजे तक का ही चार्ज करते हैं, फिर चाहे तुम दो घंटे रुको या पूरा दिन। लेकिन मनमोहन, जीवन में अपने ‘प्यार’ से पहली बार मिल रही हूँ। रेस्तराँ में बैठे हुए बातें करते देख कोई-न-कोई हमें घूर सकता था। क्या इस तरह किसी का घूरना तुम्हें अच्छा लगता? मैं तो ऐसा क़तई सहन नहीं कर सकती। इसलिए रूम बुक करवाया है ताकि जितना समय भी हम इकट्ठे बिताएँ, कोई हमें डिस्टर्ब न कर सके। ..... मनमोहन, यदि मैं तुम्हें प्यार से ‘मनु’ बुलाऊँ तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?’

मनमोहन शान्त मुद्रा में बैठा हुआ अभिभूत होकर वृंदा को सुन रहा था। वृंदा के अंतिम कथन पर उसने सीधे उसकी आँखों में झाँका। उनमें जैसे प्यार की लहरें मचल रही थीं। उसे लगा, वृंदा उसे अपनी आँखों से चूमने की कोशिश कर रही है। चाहे वृंदा अपने पत्रों में मनमोहन के प्रति अपने मनोभावों का स्पष्ट उल्लेख कर चुकी थी, फिर भी अपने सामने बैठी वृंदा के मुख से प्यार भरी बातें सुनने का अलग ही आनन्द था। अतः उसने उत्तर दिया - ‘वृंदा, इस थोड़े-से समय में ही ऐसा लगने लगा है जैसे न जाने कब से हम एक-दूसरे को चाहते रहे हैं! तुम्हारे इस तरह से इन्फ़ॉर्मल होने की पहल करना बहुत अच्छा लग रहा है। जब हम किसी को दिल से चाहने लगते हैं तो उसकी हर बात, हर अदा प्यारी लगने लगती है। इसलिए तुम जिस भी तरह मुझे बुलाना चाहो, बुला सकती हो।’

वृंदा ने बातचीत को हास-परिहास में बदलते हुए कहा - ‘मनु, पूरे घुटे हुए प्रेमी जैसी बातें कर रहे हो!’

‘घुटा हुआ प्रेमी किसने बनाया है? तुमने ही तो। काश कि तुम अपनी आँखों में झाँक सकती!’

‘तुम्हारे बोलने के लहजे ने ही तो मुझे तुम्हारी ओर खींचा है। इसलिए किसी एक पर पहल करने का दोष नहीं मढ़ा जा सकता। ..... अच्छा, बातों के लिए तो अपने पास बहुत समय है। यह बताओ, खाने-पीने के लिये क्या मँगवाऊँ?’

‘जब यहाँ तक चलकर आ गया हूँ तो जिसके लिए आया हूँ, उसी की पसन्द-नापसन्द चलनी चाहिए।’

वृंदा ने मज़ाक़ में कहा - ‘जनाब, चलकर तो नहीं आए, आए तो बस में हो। खैर, चॉयस बता देते तो अच्छा लगता।’

‘चॉयस तो बस एक तुम ही हो, और किसी बात में कोई चॉयस नहीं।’

मनमोहन के इस कथन ने वृंदा को भीतर तक भिगो दिया। इससे उपजी प्रसन्नता को सँजोने में वृंदा कहीं खो गई। एकाएक दोनों के बीच सन्नाटा-सा पसर गया। कुछ क्षण की प्रतीक्षा के पश्चात् मनमोहन ने ही बात का सूत्र सँभाला और पूछा - ‘कहाँ खो गयी हो?’

‘बात ही तुमने ऐसी कह दी है कि लगता है, सब कुछ कह दिया हो। अब और कुछ कहने-सुनने को बचा ही क्या है!’

अब मनमोहन ने ठिठोली करते हुए कहा - ‘मेम साहिबा, तुम्हारा पेट तो बातों से भर गया, लेकिन इस ग़रीब के लिए तो कुछ खाने के लिए मँगवा लो।’

‘ओह, ऑय एम सॉरी डियर।’ और वृंदा ने इंटरकॉम पर लंच का ऑर्डर कर दिया।

खाना खाने के बाद वृंदा ने कहा - ‘मनु, तुम कुछ देर के लिये रेस्ट करना चाहो तो लेट लो।’

‘ऐसे हसीन पलों को कौन कम्बख़्त सोकर गँवाना चाहेगा! वृंदा, जी चाहता है बस तुम्हें देखता रहूँ और आँखों के रास्ते तुम्हें दिल में उतार लूँ।’

‘मनु, शायराना बातें बहुत हो चुकीं। अब तक जो पत्र हमने एक-दूसरे को लिखें हैं, उनमें हमने अपनी भावनाओं को ही एक-दूसरे के साथ साझा किया है। पारिवारिक बैकग्राउंड और परिवार के बारे में कुछ नहीं लिखा। बिना एक-दूसरे को पूरी तरह से जाने-समझे दोस्ती अधूरी रहती है। मैं चाहती हूँ कि हमारी दोस्ती का स्तर आम लड़के-लड़कियों जैसे ना होकर एक मिसाल क़ायम करने वाला हो; जीवन में कितनी भी बाधाएँ आएँ, हमारी दोस्ती क़ायम रहे। मैंने तुम्हें आज इसी ‘पर्पज’ के लिए बुलाया है।’

‘चलो, मेरा एक भ्रम तो दूर हुआ। मैं तो समझता था कि उम्र के बहाव में तुम इस सम्बन्ध को प्यार-व्यार तक ही रखना चाहती हो।..... वृंदा, हमारा एक साधारण परिवार है। सही कहूँ तो मेरा कोई परिवार ही नहीं है। मेरे माता-पिता की मुझे कोई याद नहीं। बचपन में ही उनका साया मेरे सिर पर से उठ गया था। तब से मैं अपनी बहन और जीजा जी के साथ ही रहता हूँ। उन्हीं की छोटी-सी नौकरी से हमारा गुज़ारा होता है। बहन भी सिलाई-कढ़ाई करके कुछ कमा लेती है। एक बार तो  मैट्रिक के बाद मैं पढ़ाई छोड़कर काम-धंधे की तलाश में लग गया था, किन्तु हमारे स्कूल के एक टीचर ने मुझे आगे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित ही नहीं किया, बल्कि मेरी कॉलेज की फ़ीस का बीड़ा भी उठाया हुआ है।....’

इतना कहकर मनमोहन चुप हो गया। वृंदा कुछ मिनटों तक सोचती रही। मनमोहन की पारिवारिक स्थिति के विषय में सुनकर गम्भीरता उसके हाव-भाव में स्पष्ट दिखाई देने लगी। अन्ततः उसने बोलना आरम्भ किया - ‘मनु, तुम्हारे स्ट्रगल भरे जीवन के सफ़र के बारे में जानकार मैं तुम्हें और गहराई से चाहने लगी हूँ। मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे जीवन को ख़ुशियों से भर दूँ। .... जहाँ तक हमारे परिवार का सम्बन्ध है, गाँव में हमारी अच्छी-खासी ज़मीन है। मेरे दादा जी के टाइम का बहुत बड़ा घर है, जिसे गाँव वाले हवेली कहते हैं। पापा स्वयं तो बहुत पढ़-लिख नहीं पाए थे, किन्तु उनकी तमन्ना है कि मैं डॉक्टर बनूँ। इसलिए पिछले पाँच साल से हम शहर में रह रहे हैं। लास्ट ईयर मैंने पीएमटी क्लीयर तो कर लिया था, किन्तु रैंकिंग नीचे रहने से किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला, सो मैंने बीएससी (मेडिकल) ज्वाइन कर ली। …. ’ थोड़ा रुक कर हँसकर कहा - ‘बीएससी (मेडिकल) ज्वाइन न करती तो तुम्हें कैसे पाती?’

उसके ही लहजे में मनमोहन ने कहा - ‘हाँ, यह तो ब्लैसिंग इन डिस्गाइज वाली बात हुई। .... लेकिन, इस बार पीएमटी में तुम बढ़िया रैंक लेकर मनचाहे कॉलेज में एडमिशन ले पाओगी, क्योंकि अंकल जी की ख्वाहिश तथा आशीर्वाद के साथ मेरी शुभकामनाएँ भी तुम्हारे साथ होंगी।’

‘मनु, मुझे पूरा विश्वास है कि इस बार तुम्हारी दुआओं के सदके मैं अपने मिशन में अवश्य कामयाब होऊँगी। .... मनु, मैं तुम्हारे लिये छोटी-सी एक गिफ़्ट लाई हूँ। आशा है, तुम्हें पसन्द आएगी!’

इतना कहते ही उसने अपने पर्स से एक छोटा-सा पैकेट निकाला और मनमोहन को थमा दिया। मनमोहन ने पैकेट खोला। उसमें एक घड़ी थी, देखने में काफ़ी क़ीमती लगती थी। उसने कहा - ‘वृंदा, इस अनुपम गिफ़्ट को पाकर मैं धन्य हो गया, किन्तु मेरी एक प्रार्थना तुम्हें माननी पड़ेगी....’

मनमोहन अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि बीच में ही वृंदा ने पूछ लिया - ‘क्या?’

‘वृंदा, शिष्टाचार की माँग है कि गिफ़्ट देने वाले को रिटर्न गिफ़्ट दी जाए। लेकिन, जब तक मैं स्वयं कमाने लायक़ नहीं हो जाता, तब तक मेरे लिये रिटर्न गिफ़्ट या गिफ़्ट देना सम्भव नहीं होगा। इसलिए मेरी प्रार्थना तुम्हें माननी पड़ेगी कि हम आगे से गिफ़्ट देने-लेने की फॉर्मेलिटी में नहीं पड़ेंगे।’

‘मनु, मैंने यह वॉच फॉर्मेलिटी के तौर पर गिफ़्ट नहीं की है, बल्कि मेरी दिली ख्वाहिश थी कि तुम्हें कुछ ऐसा दूँ जो हर समय तुम्हारे साथ रहे। वॉच गिफ़्ट करने का विचार आने पर मेरे मन में तुमसे रिटर्न में कोई गिफ़्ट पाने का रत्ती भर भी ख़्याल नहीं था। जहाँ तक भविष्य की बात है, मैं तुमसे तभी कुछ ऑक्सेप्ट करूँगी जब तुम ख़ुद की कमाई में से मेरे लिये कुछ लाओगे। लेकिन, तुम मुझे मेरे मन की करने से नहीं रोकोगे, मेरे प्यार की ख़ातिर तुम्हें इतना तो मानना पड़ेगा।’

‘वृंदा, तुम्हारी इस बात का क्या जवाब दूँ, कुछ सूझ नहीं रहा। मैं तो नि:शब्द हो गया हूँ।’

कुछ समय के लिये चुप्पी रही। फिर जैसे कुछ स्मरण हो आया हो, मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, एक बात तुम्हें और बतानी है ..... कॉलेज में मेरे नाम फ्रीक्वेंटली रजिस्टर्ड लेटर आना अनावश्यक जिज्ञासा को जन्म देगा। इसलिये मैंने सोचा है कि आगे से तुम पत्र मेरे मित्र विमल के घर के पते पर केयर ऑफ करके भेजा करना। विमल के पेरेंट्स अनपढ़ हैं और विमल मेरा अभिन्न मित्र है। इसलिए अपने बीच पत्रों का आदान-प्रदान भी विमल के अतिरिक्त किसी की नजरों में नहीं आएगा।’

‘जब तक जग ज़ाहिर न हो, अच्छा ही है। ..... मनु, अब चाय पीते हैं। चाय या कॉफी, तुम्हारी क्या चॉयस है?’

‘मैं अपनी पहले कही बात ही रिपीट करता हूँ - चॉयस तो बस एक तुम ही हो, और किसी बात में कोई चॉयस नहीं।’

‘अच्छा बाबा, आगे से नहीं पूछूँगी।’ और उसने चाय का ऑर्डर कर दिया।

चाय पीने के पश्चात् प्रह्लाद ने कहा - ‘वृंदा, मन तो नहीं करता कि तुमसे विदा लूँ, लेकिन बस का समय होता जा रहा है, इसलिए ख़ुशी-ख़ुशी जाने की आज्ञा दो।’

‘पल भर और ठहर जाओ, दिल ये सँभल जाए, फिर तुम चले जाना।’

‘अब तक कितनी बातें कर लीं, पल भर और ठहरने से क्या होगा?’

‘जी चाहता है, आँखों में तुमको भरूँ, बिन बोले बातें तुमसे करूँ।’

‘वाह! क्या बात कही है - ‘बिन बोले बातें करूँ’। तुम्हारी भावनाओं की कद्र करते हुए पाँच मिनट और रुकता हूँ, फिर बिना उदास हुए मुझे जाने देना।’

‘बहुत मुश्किल ‘राइडर’ लगा दिया तुमने तो। जिसे हम दिलोजान से चाहते हों, उससे जुदा होने पर उदासी ना घेरे, ऐसा कभी हुआ है?’

‘लेकिन, तुम कर सकती हो, ऐसा मेरा विश्वास है।’

‘तो ठीक है, फिर पाँच मिनट भी क्यों रुकना? तुम चलो, मैं तुम्हें छोड़ने बाहर नहीं आऊँगी। यहीं से अलविदा।’

वापसी पर मनमोहन सोचता रहा वृंदा द्वारा दी गयी वॉच के विषय में। वृंदा ने वॉच यह सोच कर दी है कि यह सदा मेरे साथ रहेगी - मेरी दिली ख्वाहिश थी कि तुम्हें कुछ ऐसा दूँ जो हर समय तुम्हारे साथ रहे। - किन्तु क्या यह सम्भव होगा? औरों की तो छोड़ो, यदि दीदी या जीजा जी की नज़र भी पड़ गयी तो उनके सवालों के जवाब देने में ही कलई खुल जाएगी। किसी तरह भी वृंदा के साथ दोस्ती को गुप्त रखना असम्भव हो जाएगा। ऐसे तानों की मार भी झेलनी पड़ सकती है कि घर में नहीं दाने, जनाब चले इश्क़ फ़रमाने। इस वॉच को तो छुपाकर ही रखना पड़ेगा। ..... कल जब विमल मिलेगा तो वह भी उतावला होगा जानने के लिये कि वृंदा के साथ मुलाक़ात में क्या-क्या हुआ? विमल ही तो एक ऐसा दोस्त है, जिससे मैंने कभी कुछ छुपाया नहीं। उसे तो सब कुछ बताना ही होगा। लेकिन, मैं उससे वायदा लूँगा कि वह वृंदा के सम्बन्ध में कहीं भी किसी तरह का ज़िक्र नहीं करेगा। अब तक के उसके साथ को देखते हुए मैं उसकी ओर से निश्चिंत हो सकता हूँ, लेकिन मुझे खुद के व्यवहार के प्रति भी सतर्क रहना पड़ेगा।

॰॰॰॰॰