भाग -24
मुझ मूर्खाधिराज का भी ध्यान इस ओर बाबू राम के एक बम्पर शराबी और बढ़िया लेखक साथी की बातों से गया था। पता नहीं वह किस सनक के चलते बाबू राम, हम-जैसे लोगों के साथ किसी भी ऊटपटाँग जगह बैठ कर जमकर मयनोशी करता था, बल्कि शराब चढ़ जाने के बाद ऐसी फूहड़ भद्दी-भद्दी बातें करता था कि हम-लोग भी दांतों तले ऊँगलियाँ दबा लेते थे।
जब-तक वह शराब के ऊपर होते तब-तक तो अपनी किताबों, अपने सिद्धांतों की ही बातें करते थे, जिन्हें हम मूर्खों की तरह उन्हें देखते हुए केवल सुनते ही रहते थे, कुछ बोलते, पूछते नहीं थे, क्योंकि वह इतने ऊँचे स्तर की होती थीं कि, हम कुछ समझ ही नहीं पाते थे। लेकिन जैसे-जैसे शराब उनके ऊपर होने लगती वैसे-वैसे सब कुछ उलटने लगता था।
ऐसे ही अगले दिन सुन्दर हिडिम्बा मैडम ने सेकेंड भर में हम-दोनों की सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया। उलट कर रख दिया सब-कुछ। उन्होंने सवेरे ही कहा कि, 'देखो तुम-दोनों जल्दबाजी में अपने को बर्बाद मत करो। यहां नौकरी और रहने का ठिकाना ढूँढना, लोकल ट्रेन में आराम से बैठने के लिए खाली सीट पाने से ज़्यादा कठिन है। इसलिए मैंने सोचा है कि, तुम-दोनों के लिए यहीं इंतजाम कर दूँ । ऊपर छत पर टीन शेड पड़ा हुआ है, उसे जाकर देख लो, साफ-सफाई कर लो और वहीं रहो। खाने-पीने का भी चाहो तो वहीं इंतजाम कर लो या फिर जैसे चल रहा है, वैसे ही करो।'
उनकी इस बात ने हमें फिर दो-राहे खड़ा कर दिया। ख़ासतौर पर मुझे, क्योंकि मेरे मन में सोने के पिंजरे से बाहर मिलने वाली कठिन दुनिया की डरावनी तस्वीर बनी हुई थी। मैं भूला नहीं था, ट्रक पर, गिट्टियों पर बिताई रातें। मैडम के जबरदस्त दबाव के आगे मैं और छब्बी ऊपर छत पर गए। इसके पहले हम कभी ऊपर नहीं गए थे। वहां देखा मकान के एक कोने पर टिन शेड लगा हुआ है। इस बिल्डिंग के तीनों तरफ बिल्डिंगें थीं। वह तीनों इससे ज़्यादा ऊंची थी। कोने में होने के कारण टिन शेड के दो तरफ तो दिवारें थीं, लेकिन दो तरफ दीवारें ना होने के कारण खुला था। टिन शेड बारह फ़ीट से कुछ ज़्यादा चौड़ा और करीब अठारह-उन्नीस फीट लम्बा था। हर तरफ गंदगी, कूड़ा-कबाड़ पड़ा हुआ था। समीना हम-दोनों ने बड़ी देर तक छत और टिन-शेड का मुआयना किया। तीन तरफ ऊंची बिल्डिंगों के कारण वह सुरक्षित था। कुछ देर सोच-विचार कर हमने तय किया कि, यहीं रहते हैं। मगर एक शर्त पर कि, मैडम इसका कोई किराया नहीं लेंगी।
रुकने का फैसला इसलिए लिया क्यों कि इस शहर में इतनी सुरक्षित और इतनी बड़ी जगह ले पाना हमारे वश में नहीं था। बाहर हम खाना-पीना, रहने का ठिकाना आदि के चक्कर में ही इतना उलझ जाते, कि सपनों को सच करने का प्रयास करने का मौका मिलना ही दूभर हो जाता। नौकरी तो हर हाल में कहीं ना कहीं करनी ही थी, तो सोचा करते हैं वहीं। किराए में जो पैसा खर्च होगा, वह हम बचत करते रहेंगे। खाना-पीना मैडम के ही साथ रखेंगे। और हर छुट्टी हम अपने सपने पूरे करने के लिए दौड़-धूप करेंगे। यदि मैडम यह बात मान जाती हैं तो ठीक है, नहीं तो बोल देंगे जय श्री राम।
यह सब सोच समझ कर हमने रुकने की हामी भर दी। लेकिन ऊपर से अनिच्छा दिखाते हुए। पहली बार हम सुन्दर हिडिम्बा मैडम के सामने सफल हुए थे। इसके बाद अगले दो दिन में हमने ऊपर साफ-सफाई करके जगह रहने लायक बना ली। टिन शेड के दो तरफ तिरपाल लगाकर उसे चारों तरफ से ढंक लिया। आने-जाने भर का एक छोटा हिस्सा खुला छोड़ा। बिस्तर जमीन पर ही लगाया।
मैडम से इतनी मदद मिल गई कि, उन्होंने अपने बेड के लिए बहुत महंगे वाले स्प्रिंग के गद्दे मंगवाए थे, पुराने दोनों खाली गद्दे भी नए से ही दिख रहे थे। वह दूसरे कमरे में खाली पड़े थे। छब्बी ने बिना किसी हिचक, वह दोनों गद्दे मैडम से मांग लिए, इस पर वह अपलक ही छब्बी को देखने लगीं, तो उसने हंस कर, 'मैडम जमीन पर कैसे सोएंगे। तखत, चारपाई, बिस्तर कुछ भी तो नहीं है।'
इसके बाद मैडम ने बड़े बेमन से कहा था, 'अच्छा ले लो।' तो समीना इस तरह टिन-शेड, तिरपाल और दो ईंटों की दिवार के सहारे हमने अपना ठिकाना बनाया था। जहां सोने के पिंजरे से बाहर हम खुल-कर सांस ले सकते थे ।
लाइट के नाम पर एक बल्ब जलाने की आज्ञा थी। हमने उस टिन-शेड के बीचो-बीच एक बल्ब तार के सहारे लटकाया था। उस वक्त मौसम बढ़िया था। पंखे की जरूरत एक आध महीने बाद ही पड़ने वाली थी। यह सारी व्यवस्था करने के बाद जिस दिन हम-दोनों पहली रात वहां बिताने पहुंचे, उस दिन अपना खाना भी हम ऊपर ही ले गए। हमने साथ खाया। वह रात हमने वहां ऐसे बिताई मानो शादी के बाद नव-दम्पत्ति ने सुहाग-रात मनाई हो।
मुंबई में मेरी वह पहली ऐसी रात थी, जिसमें मैंने पूरा आराम, पूरी नींद, पूरा चैन महसूस किया था। धीरे-धीरे दो-तीन महीने में हमने उस शेड के नीचे अच्छी-खासी गृहस्थी बना ली थी, और तय योजना के मुताबिक हम-दोनों लाख अड़चनों के बावजूद मुंबई के फ़िल्मी लोगों तक पहुँचने का अवसर जरूर निकाल लेते, उनसे एक्टिंग का एक चांस देने के लिए मिन्नतें करते। मैंने जल्दी ही यह अहसास किया कि, यदि छब्बी ना होती तो ऐक्टिंग के लिए जितने प्रयास मैं कर ले रहा हूँ वह नहीं कर पाता।
वह जिस तरह से मैडम को अपनी बातों, अपनी मेहनत, अपने काम से सम्मोहित किए हुए थी वह सुंदर हिडिम्बा जैसी असाधरण तेज़-तर्रार महिला के सामने सच ही असाधारण काम था। उसके इसी सम्मोहन के चलते मैडम से हम-दोनों कहीं आने-जाने की इतनी छूट, इतना समय ले पाते थे। जल्दी ही हमने कुछ रुपये इकट्ठा किए, कुछ मैडम से लिए और एक पुरानी मोटर-साइकिल खरीद ली। उससे कहीं जाना-आना और आसान हो गया।
लेकिन समीना कोशिश करते-करते करीब दो साल बीत गए। इन दो सालों में जहां भी आस की किरण नजर आई हम-दोनों वहां गए। मगर हर जगह हताशा, निराशा, दुत्कार, अपमान, उपेक्षा ही हाथ लगी। हर जगह मेरे काले रंग, मेरी लम्बाई की खिल्ली उड़ाई गई, मजाक बनाया गया। किसी जगह किस्मत अच्छी रही तो कहा गया कि कहाँ एक्टिंग के पीछे घूम रहे हो, कुछ काम-धाम देखो। इन अपमानों को झेलता मैं अपना सा मुंह लेकर चला आता। समीना, छब्बी साथ ना होती तो इतनी हताशा में शायद मैं आत्महत्या कर लेता। इतना टूट जाता था इंकार सुन-सुनकर कि, जीने का मन ना करता। मगर छब्बी हर बार हिम्मत देती, हारने न देती, कहती, 'सुन, मेरी आत्मा कहती है कि, एक दिन तू फ़िल्मों में जरूर काम करेगा। तू विलेन-किंग जरूर बनेगा।' ऐसा कहते समय वह अपनी दाहिनी हथेली छाती पर ऐसे ठोंकती जैसे अखाड़े में कोई पहलवान, दूसरे पहलवान को देखकर ताल ठोंकता है। आखिर में वह यह जोड़ना न भूलती, 'देख साढ़े छह फिटा लंबा-चौड़ा फैलाद सा शरीर है, तो मन भी फैलाद सा बना, तभी विलेन-किंग बन पाएगा, नहीं तो कभी कुछ नहीं बन पाएगा। जो है बस यही बना रहेगा हमेशा।'
समीना आज भी जब उसकी बातें याद आतीं हैं, तो मुझमें उठ कर खड़ा होने की उमंग, जोश भर देती हैं। एक बार हम-दोनों को पता चला कि, एक नया-नया फ़िल्म निर्माता फ़िल्म बनाने की तैयारी में है, और हमारे अनुकूल बात यह कि वह फ़िल्म में सारे के सारे नए-नए कलाकार ले रहा है। यह जानकर मैं एकदम उछल पड़ा। मानो मुझे फ़िल्म मिल गई हो। मैंने उस रात छब्बी से अगले दिन निर्माता के ऑफ़िस विले पार्ले वेस्ट जाने की बात कही, तो वह बोली, 'सुन मैं भी चलूंगी। तू बात ठीक से नहीं कर पाता। मेरे रहने पर तो हकलाता रहता है, ना रहने पर तो बोल भी न पाता होगा। ऐसे में तुझे काम क्या खाक मिलेगा।'