Vah ab bhi vahi hai - 18 books and stories free download online pdf in Hindi

वह अब भी वहीं है - 18

भाग -18

यह सुनने और गर्दन पर उसके हाथों की जकड़ से मेरा दम घुटने लगा था। मैं एकदम टूट गई और हांफते हुए खुद को उसके ही हाथों में एकदम ढीला छोड़ दिया। इसके बाद उसने, मेरा पेटीकोट, साड़ी मुझे दे दी। मैंने रोते हुए उन्हें जितनी जल्दी हो सका पहन लिया। मुझे उस समय बार-बार बाबू याद आ रहे थे। वह लाख नसेड़ी थे लेकिन रिश्तों के बारे में बड़ा मुंहफट कहते थे कि, ''जोड़े-गांठें के रिश्ते में कोई गर्मीं नहीं होती, पानी होता है पानी, कब बह जाए कुछ पता नहीं।'' यह बात वह इसी घिनौने आदमी और इसके परिवार को ही लेकर कहते थे, क्योंकि सच यही था कि ये कोई रिश्तेदार नहीं जोड़े-गांठे रिश्तेवाले ही थे, और बाबू इस परिवार को पसंद नहीं करते थे। जैसे ही मैंने कपड़ा पहना उसने मेरा हाथ पकड़ कर बैठा लिया अपने पास। इस बार उसकी पकड़ में सख्ती नहीं एकदम नरमी थी। बल्कि कहीं अपनापन था। मेरे बैठते ही एक गिलास पानी ले आया। मैंने लेने से मना किया तो अपने हाथों से मुझे पानी पिलाया।

फिर लगा मुझे समझाने। बीच-बीच में बड़ा भावुक हो जाता। इससे मेरी हिम्मत थोड़ी बढ़ी, तो मैं फिर उग्र हो उठी, इस पर वह फिर भड़क उठा। उसकी सारी बातों का एक ही लब्बो-लुआब था, कि वह बरसों से उससे प्यार करता आ रहा है। आज भी उसका ऐसा कोई इरादा नहीं था। सारी गलती मेरी थी।

उसने कहा कि, रात जब वह पेशाब के लिए उठा तो मेरे बाल बिखरे हुए थे। आंचल पूरी तरह से शरीर से अलग पड़ा था। जिससे ब्लाउज में कसे मेरे अंग, जिसका कुछ हिस्सा खुला भी था, सांस के कारण उनकी हरकत बड़ी मादक हो रही थी। पेट का भी अधिकांश हिस्सा खुला था। साड़ी बांधने वाली जगह से काफी नीचे थी और पैरों का भी यही हाल था। साड़ी घुटनों से ऊपर खिसक चुकी थी, जिससे मेरी सुडौल जांघें बल्ब की धीमी रोशनी में बड़ी उत्तेजक लग रही थीं। यह सब देखकर ही उसका मन बहक गया। प्यार तो वह करता ही था। लेकिन मैं जानती थी, कि उसकी यह सारी बातें बिलकुल झूठी थीं। कपड़ों को लेकर तो एक सेकेण्ड को मैं घर पर भी लापरवाह नहीं होती थी, तो चाल में ऐसी हालत में कैसे हो जाती। उसके इस झूठ पर मैं फिर उससे भिड़ गई, कुछ देर उससे बहस हुई, लेकिन उस समय वह जबरा था, तो मुझे चुप होना पड़ा।

इतना ही नहीं, उसने उसी समय यह भी कहा कि, वह मुझसे दो-चार दिन में शादी कर लेगा और कहीं दूसरी जगह चलकर रहेगा। मुंबई इतनी बड़ी है, कौन ढूंढ़ पाएगा। और फिर कोई ढूंढ़ेगा भी क्यों? भाई भी कुछ दिन ढूंढ़-ढान कर शांत हो जाएगा। वह सारी योजना ऐसे बताए जा रहा था, मानो चुटकी बजाते सब हो जाएगा।

जब बात करता तो बड़ा शांत लगता। लेकिन इसके बाद वह रात में दो और बार हिंसक जानवर की तरह मुझ पर टूट पड़ा। मेरा सारा विरोध उसके सामने एकदम बेकार साबित हुआ। मैं रात-भर इस मौके की तलाश में रही कि, यह कमीना एक बार सो जाए, तो जो चाकू मेरी गर्दन पर रखा था, वही इसकी गर्दन के आर-पार कर दूँ। लेकिन हाय रे मेरी फूटी किस्मत, कहने को भी एक मौक़ा नहीं मिला।'

समीना, छब्बी यह सब बताते-बताते इतना गुस्से में आ गई कि, सारे मर्दों को बलात्कारी कहते हुए बोली, 'रात भर की इस यातना के बाद जब सुबह हुई तो मैं कुछ हिम्मत जुटा पाई और पुलिस के पास जाने को हुई, तो वह फिर चाकू तान कर बैठा गया। डराया कि, ''ठीक है, मैं तो जेल चला जाऊंगा। तू अपनी सोच, जब पुलिस वाले ही तुझे रौंदने लगेंगे। कौन तेरी पैरवी करेगा, पहले सब खूब रौंदेंगे, फिर थाने में ही तेरी ही साड़ी से फंदे पर लटका देंगे, मर जाओगी तो चुपचाप कहीं लावारिस लाश की तरह फेंक आएंगे। कभी किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। सच तो यह है कि, पुलिस तुझे पागल कह कर, चार लात और मार कर थाने से ही भगा देगी। वो अपना रजिस्टर क्यों खराब करेगी।''

उसने ऐसी-ऐसी बातें बताईं कि, मेरी आत्मा कांप गई। कहा कि, ''पुलिस वाले रात में बहुत मारते हैं। जितने होते हैं, सब रात-भर बारी-बारी से आकर मारते हैं। कहते हैं कि, सबका हाथ रवां होते रहना चाहिए। औरत हो या आदमी नंगा कर के पहले नितंबों, पैर के तलवों पर लाठी बरसाते हैं। औरतों को तो और पीटते हैं, उनके स्तनों पर जूतों, लाठियों से मारते हैं। दो जूतों के बीच रगड़ कर मिर्च लगा देते हैं। बर्फ के टुकड़ों में पिसी मिर्च लगाकर शरीर के अंदर डाल देते हैं। लाठियां भी घुसेड़ देते हैं। हो सकता है तुझे फांसी के फंदे पर लटकाने के बजाए, धंधे वाली बता कर गिरफ्तार करें। कह देंगे कि, तुम धंधा कर रही थी, दबिश के दौरान तू पकड़ में आ गई और मर्द निकल भागे।''

उसकी इन बातों ने मुझे एकदम तोड़ कर रख दिया। मेरे पास उसके सामने हथियार डालने के सिवा कोई और रास्ता नहीं था। फिर भी मैंने उम्मीद की लौ बुझने नहीं दी। तय किया कि जैसे ही भाई आएगा वैसे ही इससे बदला लूंगी। इस बीच जितना हो सकेगा इससे बचने की कोशिश करूंगी। न बच पाऊंगी तो, जैसे इतना रौंदा, वैसे कुछ दिन और सही। पुलिस थाने की जो यातना यह बता रहा है, वैसा ही हो तो आश्चर्य नहीं। घर पर थी तो पुलिस थानों की काफी स्थितियों को जान ही चुकी थी।

यह सब सोचकर, मैं थाने तो नहीं गई लेकिन जिद कर पी.सी.ओ. तक गई कि, भाई की ससुराल के पड़ोसी को फ़ोन कर पता लगा सकूँ कि, भाई-भाभी पहुंचे कि नहीं । लेकिन फ़ोन किसी ने उठाया नहीं। घंटी बजती रही। तब मोबाइल नहीं लैंडलाइन फोन का जमाना हुआ करता था।

मुझे उसने कितना मजबूर कर दिया था, यह तुम इसी बात से समझ लो कि मैं लौट आई फिर उसी जानवर के साथ, उसी चाल में, जहां उसने निर्दयतापूर्वक धोखे से रौंद कर मेरा मान-सम्मान लूट लिया था। जो इतना शातिर, इतना चालाक था कि, पी.सी.ओ. से लेकर चाल तक साए की तरह लगा रहा। कभी उसका चेहरा मुझे लकड़बग्घों सा घिनौना, वीभत्स लगता, भयभीत करता, रोंगटे खड़ा कर देता, तो कभी लोमड़ी सा धूर्त।

इस काली मनहूस घटना के बाद मेरा समय आंसू बहाते, भाई-भाभी, अम्मा को याद करते बीतता। अम्मा की बरसों पहले कही यह बात बार-बार याद आती कि, ''बिटिया औरत जात हो, ई मर्द लोगों का कोई ठिकाना नहीं। मौका पाते ही लूट लेते हैं, तन-मन सब। इसलिए हमेशा सजग रहो, भूल कर भी किसी मर्द के साथ अकेले न रहो।''

मगर मैं क्या कर सकती थी। करम फूटी थी, हालात ऐसे बन गए थे, कि जो मेरा भक्षक था उसी के साथ रहने की मजबूरी भी थी। ऐसे मजबूरी भरे तीन-चार दिन और बीत गए लेकिन भाई का कोई समाचार नहीं मिला। रोज फ़ोन करती, मगर घंटी बज-बज कर खत्म हो जाती। फिर एक दिन पी.सी.ओ. वाले ने ही बताया कि, ''लगता है फ़ोन खराब है। ये फॉल्स रिंग मालूम पड़ती है।'' अगले दिन उसकी बात पर ''सही'' का ठप्पा लग गया। जब फ़ोन करने पर सिवाय टूं-टूं के और कोई आवाज़ नहीं आई। इसके बाद पी.सी.ओ. जाना भी बंद हो गया। हालांकि मैं रोज सुबह-शाम कोशिश करते रहना चाहती थी। मगर लकड़बग्घे ने मना कर दिया। यह तो जैसे उसकी मनौती पूरी होने वाली बात हो गई थी।

पहले हफ्ते हम-दोनों अपने-अपने काम पर नहीं गए। इतने दिनों तक मैंने चाय-नाश्ता, खाना-पीना कुछ नहीं बनाया। पब्लिक नल से एक गिलास पानी तक नहीं लाई। सब-कुछ वह लकड़बग्घा ही करता रहा। यहां तक कि, इस बीच बर्तन तक उसी ने साफ किए। लेकिन इस बीच कोई दिन ऐसा नहीं बीता, जिस दिन उसने मुझे दो-तीन बार रौंदा ना हो। एक तरफ रौंदता तो दूसरी तरफ सेवा करके मानों अपने कुकर्मों पर पानी डालने की कोशिश करता था। या शायद मेरा दिल जीतने की कोशिश करता था।

मगर उसकी इस हरकत से मेरा दिल जरा भी नहीं पसीजता था। क्योंकि मेरी नज़र में वह वहशी, कामुक, घिनौना लकड़बग्घा था। वह इतना चालाक था कि, इतने दिनों में भी, एक भी ऐसा मौक़ा नहीं दिया कि चाकू मेरे हाथ लगता। यहां तक कि सोने से पहले ऐसी हर चीज को छिपा देता था। इतना ढींठ, घुटा हुआ था कि, जब आठ-दस दिन में सारे पैसे खत्म होने की स्थित आ गई, तब भी वह परेशान नहीं हुआ।

जब खाना-पीना भी बंद हो जाने की नौबत आ गई, तब एक रात, अपनी हवस मिटाने के बाद अचानक ही, इधर-उधर की बातें करते हुए बोला, ''ऐसा है कि इतने दिनों से बाहर ठेला बेकार खड़ा है। कल से हम-दोनों बीच पर ठेला लगाते हैं, आइटम वही रखेंगे जिनके बारे में भैया से बात हुई थी।'' मैंने कहा, ''मैं नहीं जाऊंगी।'' तो वह जिद पर अड़ गया। असल में वह मुझे किसी भी सूरत में अकेले नहीं छोड़ना चाहता था। उसकी जिद, जबरदस्ती के सामने मैं फिर हार गई।

इस बार कमजोर पड़ने का एक और कारण यह भी था कि, पैसा, राशन खत्म होने से मैं भी आतंकित थी। मैं जिस घर में काम करती थी, लकड़बग्घा वहां किसी भी सूरत में जाने नहीं दे रहा था। इस बीच मैं आते-जाते समय पी.सी.ओ. पर जरूर जाती, लेकिन फ़ोन था कि डेड ही रहा। आखिर दसवें दिन भैया का एक पत्र मिला, जिसे पढ़ कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। पत्र लकड़बग्घे को न मिल कर मुझे मिला था।

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