भाग - 7
समीना मुझे लगता है कि, तुम सामने होती तो कछाड़ मारने वाली बात बिल्कुल न समझ पाती। क्योंकि तुम तो सहारनपुर की थी, हमारे बड़वापुर में यह शब्द प्रयोग होता है। होता क्या है कि, इसमें औरत किसानी आदि का काम करते समय अपनी धोती का एक सिरा दोनों पैरों के बीच से खींचकर पीछे कमर में कसकर खोंस लेती हैं। जिससे काम करते समय धोती बाधक नहीं बनती। यहां महाराष्ट्र में कछाड़मार धोती पहनकर एक लोक-नृत्य भी होता है। तो उस ड्रेस में वह छरहरी महिला एकदम अलग ही तरह की दिख रही थी। उसकी पूरी टांगें बेहद खूबसूरत थीं। वैसी सुडौल जांघें उसके पहले मैंने किसी महिला की नहीं देखी थी। उसने जो चोली पहनी थी उसमें बटन या हुक नहीं थे। उसके दोनों सिरों को खींच कर बांधा गया था। उसकी गांठ उसके भारी-भरकम स्तनों की गहराई में धंसे जा रहे थे। हालांकि स्तन का नाम-मात्र का हिस्सा ही ढंका था। तनाव इतना था कि, लगता जैसे चोली फाड़कर बाहर आ जाएंगे। इसी बीच उसका मेकअप कर रही महिला ने उससे कुछ कहा, जिससे वह खिलखिला कर हंसती हुई खड़ी हो गई। हँसी सुनकर मेरी नज़र पल-भर को उसी पर ठहर गई, उसका जादूई सौंदर्य देखकर मैं एकदम हकबका गया था।
वह अपनी ही जगह पर धीरे से एक चक्कर घूम गई। जितना गजब वह आगे से ढा रही थी, उससे कहीं कम नहीं था पीछे से। धोती इतने नीचे से बांधी गई थी कि, सामने नाभि से एकदम गहरे नीचे तक चली जा रही थी। वहीं पीछे नितंबों का उभार दिख रहा था। नितंबों के बीच गहराई में खोसा गया साड़ी का हिस्सा उसे और भी मादक बना रहा था।
ओफ्फो.... समीना देखो मैं भी कितना मूर्ख हूं कि, दुनिया भर की महाभारत बताए जा रहा हूं लेकिन इस मोटे दिमाग में राजकपूर की ''बॉबी'' पिक्चर नहीं आ रही है। जिसमें मछुवारिन बनी डिंपल कपाड़िया ने ''कोली'' नृत्य किया था ऐसी ही ड्रेस पहनकर। जिसमें डिंपल का खूबसूरत जिस्म देख कर ना जाने लोग कितनी आहें भरते थे।
सच कहूं तो उस डांस को देखने के लिए मैंने कई बार पैसे खर्च किये थे। उसे तब दोस्तों के साथ वीडियो कैसेट लगाकर देखता था, जब सी.डी., डी.वी.डी. बड़वापुर जैसी जगह के लिए आम नहीं थीं। पिक्चर की डिंपल की हूबहू कॉपी, मैं समुद्र तट पर ही साक्षात अपने सामने देख रहा था। मात्र आठ-दस फीट की दूरी से। मैं मुर्खों सा पलक झपकाता उसे देख ही रहा था कि, तभी मेकप करने वाली महिला ने पास खड़े आदमी से अंग्रेज़ी में कुछ कहा, तो उसने मुझे अपने पास बुलाकर कहा, 'सुनो हम तुम्हारी कुछ फोटो अकेले और कुछ इन मैडम के साथ खींचेंगे। ये कपडे़ तुमको पहनने हैं।'
मैंने देखा मुझे भी मछुवारे जैसे कपड़े पहनने हैं। लुंगी बीच से लांग मार कर पीछे खोंसते हुए। जैसे बॉबी पिक्चर में उनके पिता बने ओम शिवपुरी ने पहना था और बनियान। उस आदमी ने मुझसे पैंट-शर्ट उतारने को कहा, मैं उतारने में संकोच करने लगा, तो मेकप करने वाली औरत अंग्रेजी में कुछ कह कर हंसने लगी। उसके सारे साथी भी।
मैं समझ गया कि, मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है। बड़ी गुस्सा आ रही थी। तभी उसने एक और धमाका किया। हंसती हुई वह हिंदी में बोली, 'अरे! अंदर कच्छी तो पहने है न, फिर क्यों शरम आ रही है, इन्हें तो शरम नहीं आ रही और तू है कि, सिकुड़ा जा रहा है।' उसने मछुवारिन बनी लड़की की ओर ऊँगली से इशारा करते हुए कहा। फिर तुरंत ही आगे बोली, 'चलो जल्दी करो।'
उसका यह बोलना था कि, मेरे पास खड़ा आदमी मुझे बिजली की तेज़ी से तैयार करने लगा। सच बताऊं पैंट उतारते वक्त मुझे वाकई बहुत शर्म आ रही थी। मेकअप का कमाल था कि, मैं भी पूरे मछुवारे के रूप में आ गया। शीशे में अपने को देखकर मैं मेकपमैन के हुनर का कायल हो गया। शीशे में लग ही नहीं रहा था कि, वह मैं हूं। इस बीच उस मछुवारिन बनी महिला की फोटोग्रॉफी शुरू हो गई थी। कई पोज बेहद मादक थे।
कनखियों से मैं उसे बराबर देख रहा था और भीतर ही भीतर कहीं गड़बड़ा भी रहा था। करीब घंटे भर यह फोटोग्रॉफी चली, इसके बाद सब अपनी जगह बैठकर, कोई ड्रिंक पीने लगे। मैंने मन ही मन सोचा कि, अभी घंटाभर भी नहीं हुआ इधर-उधर हिले-डुले और ये सब थक-कर बेहाल हुए जा रहे हैं। बड़वापुर में लोग दिनभर काम कर डालते हैं, लेकिन फिर भी ऐसे बेहाल नहीं दिखते। वह ड्रिंक मेरा मेकअप करने वाले ने मुझे भी दी। जिसका अजीब सा स्वाद था। जो मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा।
दस मिनट भी नहीं हुए थे कि, सब फिर सक्रिय हो गए। इस बार फोटोग्रॉफी पहले अकेले मेरी हुई। फिर मछुवारिन बनी उस छरहरी महिला के साथ। जिसमें कई पोज बेहद उत्तेजक थे। एक में मैंने उसे दोनों हाथों में ऊपर अपने सीने तक उठा रखा था। जब पोज देता था तो पहले कई बार मुझे, मेरे पोज को ठीक किया जाता था। ऊपर उठाने वाले पोज में, उसे बार-बार उठा-उठा कर मैं ऊबने लगा था। एक पोज में मुझे उसे पीछे से पकड़ना था। जब मुझे पोज देते समय मुस्कुराने, खिलखिलाने या गंभीर, चिंता मग्न, उदासी भरा चेहरा बनाने को कहा जाता, तो मुझे लगता जैसे मैं बहुत बड़ा विलेन-किंग बन गया हूं। उदासी भरा चेहरा बनाने में मुझे बड़ी मेहनत, बड़ी कोशिश करनी पड़ रही थी, लेकिन मुस्कुराने, हंसने, खिलखिलाने वाले पोज में नहीं।
वह सब मेरे प्रयास पर गुड, वेरी-गुड बोलते जा रहे थे, जिसे सुनकर मेरा सीना चौड़ा होता जा रहा था। मुझे लग रहा था कि, अब बस कुछ ही समय में मेरा सपना पूरा हो जाएगा। मैं बहुत जल्दी बॉलीवुड का विलेन-किंग बन जाऊँगा। हंसने-खिलखिलाने वाला पोज मैं शायद इसलिए भी आसानी से दे पा रहा था, क्योंकि अंदर ही अंदर तो खुशी के मारे लड्डू फूट ही रहे थे। फूटते लड्डू हंसने-खिलखिलाने में मदद कर रहे थे। यह फोटो-सेशन, समीना यह शब्द मैं बहुत बाद में जान पाया था कि, ऐसी फोटोग्रॉफी को फोटो-सेशन कहा जाता है, और मेरा यह पहला फोटो-सेशन शाम को खत्म हुआ।
उस दिन मैं मारे खुशी के भूख से ज़्यादा खाना ही नहीं खा गया, बल्कि रात में बहुत देर तक सो भी नहीं पाया। जागते हुए एक से एक सपने देख रहा था। तरह-तरह की कल्पनाओं में गोते लगा रहा था। विलेन-किंग बना मैं विशाल बंग्लो, लिमोजिन गाड़ियों, अपने चार्टर प्लेन का मालिक बना, खूबसूरत महिलाओं के साथ ऐश करता हुआ, न जाने क्या-क्या कल्पना कर रहा था।
समीना एक बात मैं आज भी नहीं समझ पाया हूं कि, आखिर इस सेक्स में ऐसा क्या है कि, इससे पीछा ही नहीं छूटता। चाहे जैसे हालात हों, मन अंततः उस ठौर तक पहुँच ही जाता है। न जाने साधू-संयासी इस पर कैसे जीवन भर नियंत्रण किये रहते हैं। उस रात भी मेरा मन अंततः ठहरा सेक्स पर ही। उस छरहरी बाला का नाम तो मैं आज-तक नहीं जान पाया, लेकिन उस दिन और उसके बाद हुए दो और फोटो सेशन को मैं अभी तक नहीं भूल पाया हूँ।
उसी बाला के साथ, उस रात मैं विचारों में खूब गहरे तक डूबता रहा। फोटो-सेशन के समय उसका बदन मैंने हर जगह छुआ ही था, तो उसकी तपिश मुझे दहकाए जा रही थी। एक पोज में पीछे से पकड़ते समय, एक बार मेरी बीच वाली ऊंगली सीधे उसकी नाभि की गहराई में धंस गई थी, तो वह खिलखिला कर दोहरी हो गई, फिर सीधी होती हुई अपने एक हाथ से मेरे हाथ को पकड़ कर थोड़ा नीचे कर दिया।
मगर तभी हंसने वाली बाकी साथियों में से एक ने अंग्रेजी में कुछ कहा तो वह फिर खिलखिला पड़ी। इसी बीच क्रिएटिव डायरेक्टर भी हमारे पास आया और मुस्कुराते हुए हमारे पोज़ को सही कर, मेरी उस उंगली को फिर से उसकी नाभि की गहराई में डाल दिया। शायद उसे मेरी गलती से बना वह पोज़ पसंद आ गया था। फटाफट तमाम फोटो खींची गईं थीं उस पोज की।
अगले दिन जब मैं उठा, तो नींद पूरी न हो पाने के कारण आंखें कड़वा रही थीं। मैं अंदर ही अंदर फुटेहरा (मन में लड्डू फूटना) हुआ जा रहा था, कि बॉस आज बुलाएगा, मुझे अच्छे काम के लिए शाबासी देगा और पैसा भी। मगर अंततः मायूसी मिली। साहब करीब दस बजे अपनी गाड़ी में पत्नी के साथ बैठकर चले गए। मैंने उस दिन उन्हें सबसे तगड़ा सैल्यूट मारा था, लेकिन उन्होंने क्षणभर को मेरी तरफ नज़र तक नहीं फेरी। मैं अंदर ही अंदर कटे पेड़ सा ढह गया था। उस दिन साहब रात बारह बजे वापस आये थे।
मैंने दिन में अपने बाकी साथियों और नौकरों से बात कर साहब की कुछ थाह लेने की कोशिश की, तो एक खीझ कर कुछ उखड़ता हुआ सा बोला, 'अगर नौकरी करनी है, तो आंख मूंद कर, जो कहा जाए वो करो। नहीं तो पता भी नहीं चलेगा कि कहां गए। यहां लोग नौकरी करने अपने मन से आते हैं, लेकिन साहब की मरजी के बिना छोड़ भी नहीं सकते। अब आगे कुछ और जानने समझने की कोशिश नहीं करना। कम से कम मुझसे तो बिल्कुल नहीं। नहीं तो खुद तो मरेगा और मुझे भी मरवाएगा।'
गुस्से से भरी उसकी यह बातें सुनकर मैं एकदम अचंभे में पड़ गया। फिर आगे किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई । हां मन में एक नई उथल-पुथल मच गई कि आखिर यह साहब ऐसा क्या करते हैं, कि सब इतने दहशत में रहते हैं। जब बाहर जाते हैं, तब एक शैडो तो कार में आगे बैठता और एक एसयूवी गाड़ी में पांच-छह और रहते हैं। यहां तक कि, दोनों गाड़ियों के ड्राइवर भी रिवाल्वर खोंसे रहते हैं। आखिर इनको इतनी सुरक्षा की जरूरत क्यों पड़ती है। बंग्ला भी हर तरफ से सील ही रहता है।
उस दिन मेरे दिमाग में पहली बार यह सारी बातें आईं। पहली बार मेरा ध्यान गया इन चीजों की तरफ। लेकिन अंदर ही अंदर मैं भी अड़ गया कि, चाहे जो हो, यहां से खाली हाथ नहीं जाऊंगा। मन ही मन साहब को गरियाते हुए कहा, 'साले ने फोकट में मॉडलिंग करवा ली, पैसा तो दूर, कमीने ने प्रसंशा के दो शब्द भी नहीं कहे। इस बार अगर कहा, तो सीधे बात करूंगा, जो होगा देखा जाएगा।'