मनोज धीमान की चार लघुकथाएं Manoj Dhiman द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मनोज धीमान की चार लघुकथाएं

लघुकथा/पार्टी टिकट
चुनाव का समय था। बंद कमरे में टिकट बंटवारे पर निर्णय लिया जा रहा था। लगभग सभी निर्वाचन क्षेत्रों के प्रत्याशियों को टिकटें बांटने संबंधी निर्णय ले लिया गया। मात्र एक निर्वाचन क्षेत्र संबंधी निर्णय लिया जाना शेष था। पार्टी अध्यक्ष को बताया गया कि इस निर्वाचन क्षेत्र के लिए दो प्रत्याशी टिकट के इच्छुक हैं। पहला उम्मीदवार वर्तमान में विधायक है। एक विधायक के तौर पर उसकी उपलब्धियों को सिलसिलेवार गिनाया गया। दूसरे उम्मीदवार की उपलब्धियों को गिनाने के लिए कुछ नहीं था। "लेकिन वह है कौन?", पार्टी अध्यक्ष ने उत्सुकता से पूछा। इसके उत्तर में पार्टी अध्यक्ष को बताया गया कि कुछ समय पूर्व जब वे संबंधित चुनाव क्षेत्र में एक सभा को सम्बोधित करने गए थे तो यही वह पार्टी कार्यकर्ता था जिस ने जबरदस्ती स्टेज पर आकर उन्हें दंडवत प्रणाम किया था। पार्टी अध्यक्ष ने दूसरे उम्मीदवार को टिकट देने का निर्णय सुना दिया।
-मनोज धीमान
(2)
लघुकथा/लेखिका
उसे साहित्य पढ़ते हुए लिखने का मन हुआ। बस फिर क्या था। उसने एक कहानी लिख डाली। तीन-चार समाचारपत्रों के साहित्यक पन्नों के लिए उसने कहानी भेज दी। एक सप्ताह, दो सप्ताह ....दो महीने हो गए। न कहानी कहीं प्रकाशित हुई, न कोई उत्तर आया। उसने सोचा शायद उसकी कहानी किसी को पसंद नहीं आयी। उसने एक नई कहानी लिख डाली और समाचारपत्रों को भेज दी। कुछ दिनों बाद उसे एक समाचारपत्र के साहित्य सम्पादक का पत्र प्राप्त हुआ। पत्र में लिखा था -"आदरणीय लेखिका, आपके द्वारा भेजी गई कहानी प्राप्त हुई। कहानी पर विचार किया जा रहा है। इसी बीच आप अपनी पासपोर्ट साइज की एक तस्वीर अवश्य भेज दें। अगर आपकी कहानी स्वीकृत हुई तो उसे आपकी तस्वीर के साथ प्रकाशित किया जाएगा।- साहित्य सम्पादक।" लेखिका ने तुरंत अपनी तस्वीर समाचारपत्र को भेज दी। अगले ही सप्ताह उसकी कहानी उसकी तस्वीर के साथ समाचारपत्र में प्रकाशित हो गई। अब जब भी वह किसी समाचारपत्र या पत्रिका को अपनी कहानी भेजती तो साथ में अपनी तस्वीर अवश्य संलग्न करती। देखते ही देखते वह एक प्रतिष्ठित लेखिका बन गई।
-मनोज धीमान
(3)
लघुकथा/मर्द
वह जवान थी। पढ़ी-लिखी थी। और, खूबसूरत भी थी। उसने नौकरी के लिए हर संभव प्रयास किया। लेकिन, हर किसी की नज़रें उसके जिस्म पर ही टिक जाती। अंत में उसने न चाहते हुए भी एक निर्णय लिया। सोचा, क्यों न वह स्वयं ही अपनी बोली लगा दे। सूर्योदय होते ही वह शहर के प्रमुख चौराहे पर जाकर खड़ी हो गई। वहां खड़े होकर वह चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगी- "आओ, आकर मेरी बोली लगाओ। मैं बिकने के लिए तैयार खड़ी हूँ।" उसके पास से गुजरने वाले मर्द उसे "पागल" कह कर आगे निकल जाते। वह अपनी जिद्द पर कायम थी। वहीँ खड़ी रही। देखते ही देखते सूर्यास्त हो गया। अन्धेरा होते ही वहां मर्दों का जमावड़ा लगने लगा।
-मनोज धीमान
(4)
लघुकथा/जन्मदिन
हरी बाबू एक राजनितिक पार्टी के जिला प्रमुख थे। आज वे पार्टी के जिला कार्यालय में मौजूद थे। पूरा हाल पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा खचाखच भरा हुआ था। मेज पर एक बड़ा केक रखा था। अपने भाषण के पश्चात हरी बाबू ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बड़ी ख़ुशी व चाव के साथ केक काटा। दरअसल आज पार्टी के राष्ट्रीय प्रधान का जन्मदिन था। जश्न के माहौल के बीच हरी बाबू ने पार्टी कार्यकर्ताओं को केक खिलाया और उनके गले मिले। कार से घर लौटते समय हरी बाबू ने अपना फेसबुक अकाउंट खोला। सुबह पार्टी के राष्ट्रीय प्रधान के जन्मदिन के सम्बन्ध जो पोस्ट डाली थी उस पर खूब कमेंट और लाइक आये थे। यह सिलसिला अभी भी जारी था। हरी बाबू ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटे। हाथ-मुँह धोकर सोफे पर बैठे ही थे कि उनकी पत्नी हाथ में मिठाई का डिब्बा लेकर आयी और कहा,"लीजिये। मुँह मीठा कीजिये।" हरी बाबू ने डिब्बे से बर्फी का एक टुकड़ा उठाते हुए बड़ी उत्सुकता से पूछा,"मगर यह मिठाई किस ख़ुशी में खिला रही हो?" उनकी पत्नी ने हैरानी से कहा,"क्या याद नहीं? आज आपके बाबू जी का 80वां जन्मदिन है।"
-मनोज धीमान

Email id;:
dhimanmanoj1964@rediffmail.com