सरल नहीं था यह काम - 4 डॉ स्वतन्त्र कुमार सक्सैना द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

सरल नहीं था यह काम - 4

सरल नहीं था यह काम 4

काव्‍य संग्रह

स्‍वतंत्र कुमार सक्‍सेना

26 बात कहने में

बात कहने में ये थोड़ा डर लगें

बोल तेरे मुझको तो मंतर लगे

स्‍वप्‍न से सुन्‍दर थे उनके घर लगे

रहने वाले थे मगर बेघर लगे

खौफ ने जब ओठ पर ताले जड़े

बोलती ऑंखों में सच के स्‍वर जगे

देश में है शोर उन्‍नति का बहुत

दिन पर दिन हालात क्‍यों बदतर लगे

राम का है शोर भारी देश में

जो मिले रावण का ही अनुचर लगे

सज गये दिल्‍ली में उन सबके महल

राम अपने घर में ही बेघर लगे

कड़वे सच भी रोक न पाये उड़ान

कल्‍पनाओं की जो मेरे पर लगे

जुर्म ने थे जिनके चेहरे रंग दिये

उनके सर सुरखाब के अब पर लगें

27 बात कहते में सरल नहीं था यह काम

बात कहते में सरल नहीं था यह काम

उन ज्ञान वानों

बुद्धिमानों सयानों कें लिये

उन्‍हें एक योग्‍य समर्पित

प्रतिमा चाहिए थी

सरल नहीं था यह काम

देश का सवाल था धर्म का जाल था जाति का जंजाल था

महंतों के आशीर्वाद थे

पूंजीपतियों की थैली थी सब जगह शंकाए फैली थीं

कुछ कुछ ही दाग नहीं थे

सारी चादर ही मैली थी

इसे साफ नहीं करना था

साफ बताना था

किसी तरह मामला सुलझाना था

उन्‍होंने अपनी अनुभवी आंखों को खोला

वातावरण को टटोला

आपस में किए इशारे

एक दूसरे को तौला

कोई कुछ भी नहीं बोला

खोज रंग लाई

मछली जाल में आई

उन्‍होंने ढूंढी एक प्रतिमा

समर्पण की मूर्ति

उसमें नजर आई अपने सपनों की पूर्ति

ओर उसे प्रशंसा की सूली पर

चढ़ा दिया ठोक दी उसके पैरों में

चापलूसी की कीलें सर पर रख दिया

श्रेष्‍ठता का ताज चेहरे पर पोत दिया

सत्‍ता का रंग जैसे कोई मेनका कर दे

विश्‍वामित्र की तपस्‍या भंग

आडम्‍बरी विनम्रता से दृष्टि कर दी कुंद

सारे शत्रु बन बैठे उसके बंधु

उन्‍होंने उसे बलिदान कर दिया

शोर उठा कि उसने जीवन दान कर दिया

उन्‍होंने उसे अब भी नहीं छोड़ा है

उसकी महानता की गाथाएं

मधुर स्‍मृतियों की पताकाएं

वे अब भी फहराते हैं

उपलब्धियें की मशाल जलाते हैं।

उसके बलिदान का जश्‍न मनाते हैं।

सावधान वे ढूंढ़ रहे हैं। नया मसीहा

माना उनका काम कठिन है

पर लक्ष्‍य है। बहुत सरल और सीधा

28 गीता का ज्ञान

संतों ने सुना है यही गीता का ज्ञान है।

अहले नजर कहते हैं कलामें कुरआन है।

रहता है तू जहॉं पर वह तेरा नहीं है दोस्‍त

कुछ दिन के लिये तू यहॉं पर मेहमान है

29 जब मैं जहॉं में निकला अपनो की तलाश में

जब मैं जहॉं में निकला अपनों की तलाश में

मुझको मिले पराए अपनों के लिबास में

उम्‍मीदों के बीहड़ में अकेला नहीं था मैं

कुछ और भी मिले थे अपनों की तलाश में

रिश्‍ता क्‍या कहूँ उससे मगर उसने वह दिया

तरसा था जिसके वास्‍ते अपनों के पास मैं

जब वह मिला तो उसको मैं पहिचान न पाया

कितना रहा बेचैन था जिसकी तलाश में

मैंने बहुत तलाशा पर मिला न आज तक

अब तक लगा हुआ है मैं अपनी तलाश में

कुछ ऐसे भी सपने किसी ने देखे ऐ स्‍वतंत्र

आंखें करोड़ों आज तक जिनकी तलाश में

30 रिजर्वेश्‍न

रिजर्वेशन था वेटिंग का सीट कोई मिल नहीं पाई

खुशी पाई बहुत मैंने मगर पूरी नहीं पाई

आना थी शाम को ट्रेन होने काे सुबह आई

अभी पिछला ही स्‍टेशन क्रॉस वह कर नहीं पाई

करे ऐलान माइक कब से आने को अभी आई

घड़ी के बढ़ गये कांटे मेरी आंखें भी पथराई

मैं पहुंचा टाइम से पहिले पर टिकिट की लाइन लम्‍बी थी

टिकिट तो मिल गया मुझको ट्रेन पर मिल नहीं पाई

न जाने क्‍यों मुझे लगता है मुझसे वैर ट्रेनों का

कि जब मैं देर से पहुंचा तभी वह टाइम पर आई

बहुत सी ट्रेन निकली है धड़ाधड़ रात भर सारी

मगर जिससे मुझे जाना था अब तक वह नहीं आई

पहिले से जो बैठे हैं किए हैं बन्‍द दरवाजे

रूकी तो थी यहॉं गाड़ी सवारी चढ़ नहीं पाई

सवालों की ये कब से ट्रेन आउटर पर ठहरी है

जबावों की हरी झंडी की मंजूरी नहीं आई

उम्‍मीदों का मैं टांगे बैग घूमूं प्‍लेटफार्म पर

राहत की किसी भी ट्रेन ने आमद न दर्शाई

चिपट बैठा वह उसने तोड़ डाले सारे बंधन जब

फिर उसके बीच में कोई भी मजबूरी नहीं आई

खुराना सबको मुस्‍कानों का सिग्‍नल ग्रीन देते हैं

कभी भी लाल बतती अपनी आंखों से न झलकाई

जहां मुझको उतरना था ठिकाना भूल बैठा हूं।

निकल गई मेरी स्‍टेशन अभी तक या नहीं आई

नई सरकार बनने का न जाने कब से हल्‍ला है

तरक्‍की की कोई भी ट्रेन डबरा तक नहीं आई

31 चक्रेश्‍ जी

सफेद बाल चश्‍मे से झांकती आंखें

याद आई हमें वे साथ गुजारी सांझें

तुम्‍हारी छाया में संवारे आने वाले पल

अभी भी आंखों में झूमे हैं बीता वो हर पल

तुम्‍हारा वो ममता भरा प्‍यार

छोटी सी मेरी तकलीफ पर होते बेकरार

तुम कितने रहते थे सावधान

हंसने का कोई क्षण न जाए टल

आज जीवन बहुत व्‍यस्‍त है

समस्‍याओं में ग्रस्‍त है

जब कोई अपना

कहीं दूर मिलता है

बातों का सिलसिला चलता है

फिर घिर आती है तुम्‍हारी याद

सांसों में भर जाती है सुगंध

रूंध जाता है कंठ

आंखों मैं तैरने लगते हैं

सुनहरे पल

गुनगुनाने लगता है कल

3 2 हम हालात को बदलें

अपने से न बदलेंगे हम हालात को बदलें

आवाज को ऊंची करें मिल सड़कों पर निकलें

इंकलाब जिंदाबाद.्...........................

एक ताल पर हजारों कदम चलें

मुट्ठयों बंधे हाथ हवा में हिले

एक ही संकल्‍प मन में ठान कर

अलग-अलग हो कंठ सुर सभी मिले

आवाज को ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकले

इंकलाब जिंदाबाद...........................

थरथराए धरती और गूंजे आसमान

बॉंहें हो उठी हुई, हो कंधे पर निशान

हाथ में हो हाथ सर उठा के सब चलें

हर आंख में सुनहरे कल के सपने हो पले

आवाज की ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकले

इंकलाब जिंदाबाद..................................

अंधकार के खिलाफ ज्‍योति के लिये

वर्जनाओं बेडि़यों से मुक्ति के लिये

सिल दिये जो ओठ उनमें शब्‍द के लिये

हमको बढ़के तोड़ना है जुल्‍म के किले

आवजा को ऊंचा कर मिल सड़कों पर निकलें

इंकलाब जिंदाबाद..........................7

लाठियां हैं गोलियां हैं और सूलियां

गालियां हैं धमकियां हैं मीठी बोलिया हैं

एकता को तोड़ने संघर्ष मोड़ने

वे चला रहे हैं नए नए सिलसिले

आवाज को ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकलें

इंकलाब जिंदाबाद............................

बढ़ रही हजारों गुना लूट है

अब नहीं किसी की कोई छूट है

सबुह शाम बढ़ रहे दाम हैं

लागू मजदूरियों पर जाम है

हर तरह से गढ़ रहे वे झूठ है

आओ ये तिलिस्‍म तोड़ने चलें

आवाज को ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकलें

इंकलाब जिंदाबाद..................................

33 रम्‍मू कक्‍का

रम्‍मू कक्‍का कभ्‍ऊ न मंदिर की सिडि़यां चढ़ पाये

दूर सड़क पै ठांणे हाथ जोर भर पाये

आंगे पीछे चौतरा रोजई वे झारत ते

डलिया भर भर रोज मूड़ पै वे कूड़ा डारत ते

रेख उठी तो जब से उनकी तब से तन गारत ते

द्वारे के भीतर देवता खों कमऊं झांक न पाए

उठा फावरा पिछवाड़े ते नरिया वे ई बनावें

गजरा फूल बेल पत्‍तन खो भुंसारे से उठावे

देवता के जगवे से पहले वे रोज ई जग जातई

लोटा भर के जल देवता खों

कभ्‍ऊं चढ़ा न पाए

रम्‍मू काका.................................

छुन्‍नू पंडित जग में आए कक्‍की के हातन पै

नरा गाड़वे दाओ फावरो कक्‍का के हातन पै

बने पुजारी जब सें पंडित तो जाने का हो गओ

एक दिना ककका से छू गये तो भारी खिसयाए

रम्‍मू कक्‍का........................

ऊंच नीच है कोरी बांते हिन्‍दु मुसलमान

जगन्‍नाथ जी नाम है बाके वो सब को भगवान

बड़े दिनन से बड़े मान्‍स सब ऐसी बातें कर रहे

चढ़े चौंतरा वेई कक्‍का खो धमका राये गरिया राये

जानत समझत सबई कछू पर बोल कभऊं न पाए

रम्‍मू कक्‍का............................