मैडम,आदमखोर किसे कहते हैं?
--उस जीव -जंतु को जो मनुष्य को खाते हैं।
-क्या प्रकृति ने उन्हें ऐसा बनाया है?
--नहीं,लंबे समय तक भूखे रहने की वजह से वे किसी का मनुष्य का शिकार करते हैं फिर उसका खून -मांस उन्हें इतना पसन्द आ जाता है कि वे धीरे- धीरे उसके आदी हो जाते हैं।उस बच्ची को आदमखोर की जानकारी देते हुए मेरे दिमाग में एक और शब्द उभर आया 'देहखोर'।
और मुझे अतीत की कई कहानियां याद आ गईं। देखी-दिखाई ,सुनी -सुनाई तो कुछ भोगी हुई ।
मैं अतीत के पन्ने पलटने लगी।
भाग--एक
मैं अंजना से उन दिनों मिली थी ,जब इस छोटे शहर में भी लड़कियों का पैंट पहनना अपराध से कम न था ,पर वह पैंट-शर्ट पहनती थी |उसके भूरे रूखे बाल हमेशा खुले रहते |वह साइकिल चलाती हुई किसी भी सभा-सेमिनार में पहुँच जाती |मर्दों के बीच वह बेवाकी से बोलती। उनसे इस तरह बहस करती कि मैं उसका मुंह देखती रह जाती थी |मैं एक ऐसे कस्बे से आई थी ,जहां लड़कियों का पढ़ना-लिखना ,साईकिल चलाना ,लड़कों से किसी भी बात में बराबरी करना वर्जित था |खान-पान से लेकर वस्त्र,शिक्षा और आचरण सब पर लैंगिक भेदभाव हावी था |एक तरह से लड़कियों को अछूत,अभिशाप व हीन मानने की परंपरा थी |ऐसे विभेद के वातावरण व संस्कार में पली-बढ़ी ,हीन-भावना से ग्रस्त मैं उसे देखकर चौंक पड़ी थी |पाबंदी के कारण मैं साइकिल चलाना नहीं सीख पाई थी और पुरूषों से बात करना भी मुझे नहीं आता था ,इसलिए वह मुझे और भी अचंभित करती थी। वह इसी शहर की रहने वाली थी पर कम पढ़ी -लिखी थी और मैं कस्बे से शहर पी-एच0डी करने आई थी।
वह भी मेरी ही तरह कविताएँ लिखती थी,इसलिए अक्सर किसी न किसी गोष्ठी में मेरी उससे मुलाकात हो जाती थी।शुरू में वह मुझसे घुलती- मिलती नहीं थी।हमेशा एक दूरी बनाकर बैठती।कभी -कभार हाय- हल्लो बस।उन दिनों साहित्यिक/गोष्ठी-सेमिनारों में महिलाओं की बहुत ही कम उपस्थिति होती थी।यूँ कहें कि उनका घर से बाहर निकलकर मर्दो के क्षेत्र में आना -जाना अच्छा नहीं माना जाता था।प्रगतिशील कहे जाने वाले कवि- लेखक भी अपने घर की स्त्रियों को ऐसे किसी कार्यक्रम में शिरकत की इज़ाजत नहीं देते थे।वे रिश्ते -नाते के विवाह- समारोहों या पारिवारिकों -उत्सवों में शामिल हो सकती थीं ।परिवार के पुरूष -सदस्यों के साथ कभी -कभार कोई पारिवारिक या धार्मिक फिल्म देख सकती थीं।मंदिरों,तीर्थों आदि में उनके साथ जा सकती थीं।स्कूल-कॉलेज में भी पूरी पर्देदारी के साथ जाने की इजाज़त मिल गई थी।पर पुरुषों की तरह या मनमर्ज़ी कपड़े पहनने,फैशन करके घर से बाहर निकलने की इज़ाजत बिल्कुल नहीं थी।जुबानदराजी,चंचलता व चटोरपन लड़की के अवगुण माने जाते थे।ये सब मेरे कस्बे में तो चरम पर था,पर इस शहर में भी कभी न कभी दिख ही जाता था।यहां कुछ बदलाव ,थोड़ी प्रगति जरूर थी पर पुरूष मानसिकता में कोई फ़र्क नहीं था।
लड़कियों का बाल कटाना या बाल खोलकर बाहर निकलना भी उन्हें बिगड़ी लड़की की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता था।शहरों में शिक्षित और संपन्न घर की लड़कियां जरूर सिनेमा की अभिनेत्रियों जैसे फैशनबुल कपड़ों में दिख जाती थीं पर उन्हें आम लड़की की तरह न तो पैदल चलना होता था न उन पर टिप्पड़ी करने की किसी में हिम्मत थी।हम मध्यम वर्ग की लड़कियों के लिए वे साक्षात हीरोइनें होती थीं,जिन्हें देखने के लिए हम तरस जाती थीं।उन्हें इस तरह देखकर हमें कौतुक होता था।वे हमारे लिए किसी परी या राजकुमारी से कम नहीं होती थीं।
मुझे याद है ,जब कस्बे के एकमात्र इंटर कॉलेज में कक्षा छह में मेरा एडमिशन हुआ था।अम्मा को इसके लिए पास -पड़ोस,नात -रिश्तेदारों का कितना विरोध झेलना पड़ा था।उस कॉलेज में सहशिक्षा थी,यही विरोध का सबसे बड़ा कारण था।सबका मत था कि लड़कों के कॉलेज में पढ़ने से लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं।कस्बे में मारवाड़ी बहुत थे और वे अमीर भी होते थे पर उनके वहां यह जाहिली बहुत ज़्यादा थी ,इसलिए उन्होंने अपनी लड़कियों को इस कॉलेज में पढ़ने के लिए नहीं भेजा। वे अपनी लड़कियों को घर पर ही पढ़वाकर प्राइवेट छात्रा के रूप में हाईस्कूल की परीक्षा दिलवा देते थे।लड़की का दसवीं पास होना ही उस समय के लिए बड़ी बात थी।
जब मैं नवीं कक्षा में पहुंची ,उसी समय मारवाड़ियों की पहल पर वहां एक गर्ल्स इंटर कॉलेज खुला,साथ ही लड़कियों की शिक्षा का द्वार भी।मेरे पड़ोस की मेरी समवयस्क दो लड़कियां संजना और अर्चना भी उसमें पढ़ने लगीं।संजना बड़े घर की बेटी थी और अर्चना छोटे घर की।यह बड़ा छोटा जातिगत के साथ अर्थगत भी था।पर दोनों के ही घरवालों के लिए मैं ठीक लड़की नहीं थी क्योंकि मैंने लड़कों के कॉलेज में पढ़ना जारी रखा था ।
उन दिनों अम्मा मेरे बालों में तेल लगाकर दो पटिया चोटी इतने कसकर बांध देती कि वह तीन दिन तक नहीं खुलती थी।मैं वैसे ही स्कूल जाती।मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि घर में लड़कियों को ज्यादा शीशा देखना या क्रीम- पाउडर लगाना सख्त मना था।अम्मा का अफगान स्नो आलमारी में बंद रहता।जब अम्मा को किसी विशेष जगह जाना होता ,तब वह साबुन से मुँह धोकर वह क्रीम लगाती।क्रीम लगाते ही माँ का गोरा रंग और भी निखर आता।उस समय मैं अपने सांवले हाथ- पांव देखती और माँ की तरह सुंदर होने की तरकीबें सोचती।उन दिनों लिपिस्टक लगाना और ब्रा पहनना भले घर की औरतों का लक्षण नहीं माना जाता था।मैंने माँ को कभी ब्रा पहने नहीं देखा। वैसे भी माँ का सुडौल फीगर सिर्फ ब्लाउज में भी हमेशा सुंदर ही दिखता पर पास -पड़ोस की दुबली -पतली औरतों का साड़ी के ऊपर से दिखता ढलका स्तन मन में वितृष्णा जगाता था।एक लंबी -चौड़ी ,बूढ़ी विधवा दादी तो मुझे आज भी याद आती हैं ,जो सिर्फ सर्दियों में ही झुल्ला (ढीला ढाला कमर तक का पूरी बांह वाला ब्लाउज)पहनती थीं।बाकी दिनों सिर्फ साड़ी।वे मेरे घर अक्सर आतीं ।जब वे चलतीं तो साड़ी से ढका उनका विशाल स्तन ऐसे हिलकोरे लेता कि हम बहनों के लिए मनोरंजन का विषय हो जाता।साथ ही शर्म भी आती कि उन्हें इसका अहसास क्यों नहीं है?बाद में पता चला कि उनकी जाति- विशेष की विधवा को एकवस्त्र ही धारण करने की इजाजत है।जवान विधवा भी साड़ी से ही सीने और चेहरे को लपेटकर रखती है ताकि घर के किसी पुरूष की नज़र न पड़े।उनका बाहर आना -जाना वैसे भी वर्जित ही होता है।बूढ़ी को किसी की नजर का कोई खतरा नहीं रहता ।वैसे भी वे सिर्फ मेरे ही घर आती थीं और उन्हें इस तरह आना-जाना अन्यथा नहीं लगता था।उस समय मैं जरूर सोचती कि यदि वे ब्लाउज पहनती तो उनका शरीर इस तरह बेडौल और वीभत्स नहीं दिखता।आखिर यह कैसा रिवाज़ है कि पति के मर जाने पर स्त्री मात्र एकवस्त्रा ही रहेगी।अपने फीगर को इस तरह बिगाड़ देगी।मेरा आश्चर्य तब और बढ़ा ,जब माँ ने बताया कि उन बड़े घरों में स्त्रियाँ रसोईघर में भी एकवस्त्रा रहती हैं चाहें वह सद्य -प्रसूता ही क्यों न हों?तब मिट्टी के चूल्हे पर ही खाना पकता था और बड़े परिवार के लिए भोजन पकाने में बहुत समय लगता था।नहा-धोकर पूर्ण पवित्रता से चूल्हा जलाना पड़ता था और जब तक घर के सारे पुरूष सदस्यों को भोजन परसकर खिला न दिया जाय,चौका छोड़ने की मनाही थी।भले ही बहू का नन्हा शिशु भूख से बिलबिला ही रहा हो और बहू के स्तनों से दूध टपककर उसकी साड़ी को गीला कर रहा हो।इस कुव्यवस्था पर एक पहेली भी प्रचलित थी--ससुर बेटा कैसे हुआ?पहेली का हल यही था कि बहू के स्तन से दूध टपक कर ससुर के खीर की कटोरी में चला गया था।
यह व्यवस्था उसी विशेष जाति में ही थी कि अन्य जातियों में भी,पता नहीं,पर हाँ ,ब्रा पहनना किसी भी स्त्री के लिए अच्छा नहीं माना जाता था।माँ कहती थी कि रंडियां ही ब्रा पहनती हैं होंठ रंगती हैं बाल कटाती हैं और अन्य तमाम श्रृंगार करके मर्दों को रिझाती हैं।अच्छे घर की बहू-बेटियाँ इन सबसे दूर रहती हैं।हाँ ,सधवाएँ जरूर पति के लिए सोलहो श्रृंगार करती हैं। पति के सामने श्रृंगार करके आना ही धर्मसंगत है।सोलहों श्रृंगार में पान खाकर होंठ लाल रखना भी था।माँ भी सुहाग वाले व्रतों जैसे तीज आदि में होंठ रंगती थी।इसके लिए वह नारंगी रंग रखती थी और उसे नारियल तेल में मिलाकर होंठों पर हल्के से रगड़ लेती।वह रंग कई दिनों तक उसके होंठों से नहीं उतरता था।
पर कुमारिकाओं को साज -श्रृंगार से पूरी तरह दूर रहना था।क्रीम -पाउडर, लाली- बिंदी उनके लिए वर्जित था।हाँ,वे अपनी आँखों में घर का बना हुआ काजल लगा सकती थीं।मेरी माँ दीवाली की रात को काजल बनाती थी।इसके लिए सरसों के तेल वाले जलते दीए को एक बड़े से दिए से इस तरह ढंकती कि वह बुझता नहीं था पर बड़े दीए में उसकी कालिमा जमा हो जाती थी।माँ उस कालिमा में देशी घी मिलाकर काजल तैयार करती और कजरौटे में रख देती।अगली दीवाली तक वह काजल चल जाता था।दीवाली की रात जब हम बच्चे सो जाते ,जाने कब माँ सबकी आंखों में काजल लगा देती।ऐसा करना शुभ माना जाता था।रात को काजल लगाकर सोने से सुबह मुँह धोने के बाद आंखें बड़ी सुंदर और चमकदार दिखती थीं ।
बचपन में सजने की मनाही थी इसलिए होली के दिन कोई रंग लगाए न लगाए मैं चुपके से थोड़ा गुलाबी रंग अपने गालों और होंठों पर मल लेती और शीशे में खुद को देखकर खुश होती।दांत चमकाने के लिए लकड़ी का कोयला या रेत दांतों पर रगड़ना,गोरा दिखने के लिए सुपर रिन से चेहरे को धोना आम बात थी।
आठवीं कक्षा तक माँ द्वारा बांधी जाती अपनी पटिया चोटी पर मेरा ध्यान नहीं गया पर नौवीं कक्षा में लड़कियों को अच्छी तरह बाल बनाकर स्कूल -कॉलेज जाते देख मेरा भी मन उनकी तरह बाल बनाने को हो आया।मैंने माँ से अपनी मंशा बताई तो मां ने बाल खींच -खींचकर खूब पिटाई की साथ ही चेतावनी दी--या तो फैशन या पढ़ाई।दोनों में से एक चुन लो।मैंने पढ़ाई चुनी और इंटरमीडिएट तक हवाई चप्पल, सादे कपड़ों और सादे चेहरे के साथ पढ़ाई करती रही।इसका एक फायदा यह हुआ कि कोई लड़का मेरी तरफ आकृष्ट नहीं हुआ।मेरी छवि एक पढ़ाकू और शरीफ लड़की की बनी रही।
दुबली -पतली होने के कारण कुर्ते के भीतर एक छोटा समीज(बनियाइन) पहनने से मेरा काम चल जाता था पर दीदी स्वस्थ थीं उनके शरीर का विकास भी अच्छा था।वे बेचारी इतनी कसी बनियाइन पहनती कि उनका वक्ष चिपटा हो जाता।अपने उभार उन्हें पाप जैसे लगते ,जिसे छिपाने के लिए वे कंधा झुकाकर चलतीं।इसी कारण उनका फीगर थोड़ा बिगड़ भी गया।उस समय ज्यादातर लड़कियों का यही हाल था।वे अपने शरीर के प्रति ही शर्मिंदा थीं।सोने में सुहागा तो माहवारी था ,जब तीन-चार दिन उनसे अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता था।वे न नहा सकती थीं,न रसोईघर में जा सकती थीं।न अपने बिस्तर पर सो सकती थीं ।स्कूल -कॉलेज भी नहीं जाती थीं ।अक्सर उन्हें एक चटाई और चादर दे दिया जाता था ।वे घर के किसी अंधेरे कोने में पड़ी रहतीं।तीन-चार दिन बाद जब वे नहातीं तो उन्हें चटाई,चादर,घर सब धोना पड़ता।पूजाघर और रसोई में तो पांच-छह दिन बाद ही जाने की इजाजत मिलती थी।सबसे बुरा तो यह था कि उन्हें आजकल की तरह सेनेटरी नेपकिन की जगह पुराने कपड़े इस्तेमाल करने पड़ते थे और वह भी बार -बार उसे धो- सुखाकर।जब पहली बार लड़की रजस्वला होती थी ,तो डर के मारे रोने लगती थी कि उसे क्या हुआ है? इस सम्बंध में कोई जानकारी उन्हें नहीं दी गई होती थी।विशेषकर उन घरों में ,जहां सिर्फ माँ ही सबसे बड़ी स्त्री सदस्य होती थी।जिस घर में भाभियाँ-मामियाँ होती थीं ,वहां की लड़कियों को थोड़ी -बहुत जानकारी पहले से हो जाती थी।उस समय देह और यौन -सम्बन्धी मुद्दों पर बात करने की सख्त मनाही थी इसलिए किशोर होती लड़कियाँ अपने शारीरिक परिवर्तनों के प्रति भयभीत और हीन -भाव से ग्रस्त रहती थीं ।दरअसल लड़कियों के लिए वह एक बंद समय और समाज था।
ऐसी छोटी जगह से निकलकर मैं अपेक्षाकृत बड़ी जगह आ तो गई थी,पर भयभीत रहती थी।जिस गर्ल्स हॉस्टल में रहती थी।वहाँ की लड़कियां बड़ी तेज -तर्रार थीं ।वे आसानी से मुझे बेवकूफ बना लेती थीं।धीरे -धीरे मैं भी होशियार होने लगी,पर चालाक कभी न बन पाई।
अंजना मुझे अन्य लड़कियों से थोड़ी अलग लगी ।उसके बारे में जानने की उत्सुकता भी बढ़ी।उसके बारे में अलग -अलग लोगों से अलग -अलग तरह की जानकारी मुझे मिली।एक जाने -माने पत्रकार और एक पत्रिका के सम्पादक ने मुझे बताया कि वह बहुत ख़तरनाक़ लड़की है।अच्छे -भले आदमियों को बदनाम कर देती है।
-कैसे?
--अरे क्या बताऊँ ?पहले मेरे ऑफिस आती थी।मेरी पत्रिका के लिए रचना देने फिर मुझसे फायदा उठाने की कोशिश करने लगी।
-अच्छा!
--हाँ,ऑफिस के अंडरग्राउंड में मेरा एक कमरा है।जहाँ मैं पढ़ता-लिखता हूँ।अच्छी लाइब्रेरी बना रखी है।वहां कोई नहीं आता ।शांति रहती है।ऑफिस में तो लोगों का आना- जाना लगा रहता है।स्टॉफ भी रहते हैं।एक दिन उसने लाइब्रेरी दिखाने को कहा तो मैंने उसे वहीं बुला लिया।थोड़ी देर बाद वह चीखती -चिल्लाती ऑफिस में आई और पूरा हंगामा कर दिया कि मैंने उससे फ़ायदा उठाने की कोशिश की है।मुझे इतनी शर्मिंदगी हुई कि क्या बताएं।आप ही बताइए उसमें स्त्री-जनित कोई आकर्षण है?उस जैसी फटीचर- सी लड़की को मैं छूना भी पसन्द नहीं करूंगा।
ऑफिस स्टॉफ ने उसे डांटकर भगा दिया।बड़ी बेकार लड़की है उससे दूर ही रहिएगा।
गोष्ठयों में आने वाले कवियों में से एक ने बताया कि वह एक प्रेस में काम करने जाती हैं।प्रेस का मालिक बेहद अय्यास किस्म का है।वह लड़कियों का रैकेट चलाता है।उसी में यह भी चलती है पर भाव देखा है लगता है कितनी शरीफ बंदी है।किसी से सीधे मुँह बात भी नहीं करती।
अंजना गम्भीर थी।साधारण शक्ल -सूरत की थी।उसके तेल से चिकटे गंदे खुले बाल,पुराने फैशन के पैंट -कमीज को देखकर कोई भी उसे अर्धपागल मान सकता था पर वह दुश्चरित्र नहीं हो सकती-इस पर मुझे पूरा विश्वास था।हाँ,उसकी ऐंठ,बेरूखी मुझे भी अच्छी नहीं लगती थी।
उसके विचार भी मुझसे मेल खाते नहीं थे।वह पूजा -पाठ,जादू टोना आदि में विश्वास रखती थी ,साथ ही उसमें उच्च -जाति में जन्म लेने का भी गुमान था।इन सबके बावजूद उसमें कुछ ऐसा था जो मुझे आकृष्ट करता था।
वह कुछ था -उसकी संघर्षशीलता।दुनिया से लड़ -भिड़कर वह अपने रास्ते चली जा रही थी।उस पर अपने छोटे भाई- बहन का दायित्व था।माँ की मृत्यु हो चुकी थी। पिता शराबी और बड़ा भाई आवारा।एक खंडहर होता घर था,जिसे बचाने लिए वह अपने ही बाप -भाई से जूझ रही थी।खुद तो ज्यादा नहीं पढ़ पाई थी पर छोटे भाई -बहन को पढ़ा रही थी।छोटी- मोटी नौकरी उसे मिलती पर जल्द ही छूट जाती।हर जगह उससे अनुचित मांगे रखी जातीं।उसके शोषण का प्रयास किया जाता और उसे भागना पड़ता पर वह भी उन्हें आसानी से नहीं छोड़ती थी।उनकी इज्जत की पाह लगा देती।प्रेस क्लब जाकर सारा भंडाफोड़ कर देती।यही कारण था कि अब कोई भी उसे अपने यहां काम नहीं देता था।
वह किसी से नहीं सटती थी इसलिए कवि- गण भी उससे मन ही मन खार खाए रहते थे।उसको बर्बाद करने के इच्छुक ही पीठ पीछे उसे दुश्चरित्र कहते थे।सामने तो वह मुँह ही नोंच लेती।
कुछ समय बाद मैंने गौर किया कि वह एक शायर के पास ही बैठती है।अपनी रचनाएँ उसी से करेक्ट कराती है।वह शायर भी काफी तेज- तर्रार था और ग़जल विधा में माहिर भी।पर वह चेहरे से ही घाघ नज़र आता था।शादीशुदा और बाल- बच्चेदार था।आयोजनों में वह उसके गार्जियन की तरह उसके साथ रहता।उसी के साथ वह कहीं आती -जाती।दोनों की उम्र में काफी अंतर था और प्रत्यक्ष में उन दोनों की कोई भी हरकत ऐसी नहीं होती थी कि उनमें अफ़ेयर का संदेह हो।पर छोटे शहरों में किसी लड़की और पुरूष को एक साथ देखकर लोग अच्छी कल्पना नहीं कर पाते।
मुझे बस यही आश्चर्य था कि लहसुन -प्याज तक न खाने वाली यह ब्राह्मण कन्या अधेड़,मांसाहारी,शादीशुदा,बाल बच्चेदार मुसमान शायर से दोस्ती करके क्या पाएगी?सिवाय बदनामी के।ऊपर से वह कोई नौकरी नहीं करता, न धनाढ्य ही है कि उसकी कोई आर्थिक मदद ही कर सके।
मैं जब आखिरी बार उनसे मिली थी तो वे कवि-गोष्ठी खत्म होने के बाद भी एक कोने में एक -दूसरे में खोये दिखे थे।
फिर मैं अपने शोध -कार्य में जुट गई फिर नौकरी और जिंदगी की अन्य समस्याओं में।छोटी -मोटी गोष्ठियों में आना- जाना बिल्कुल छूट गया।पर कभी कभी अंजना की याद आती कि उसका क्या हुआ?
एक दिन पता चला कि उसने अपना घर बेच दिया है और कहीं चली गई है।कहाँ गई इसका किसी को पता नहीं।कुछ लोग अटकलें लगाते थे कि शायर किसी दूसरे शहर में कोई छोटी -मोटी नौकरी कर रहा है तो हो सकता है कि वह भी वहीं हो।छोटी बहन की शादी उसने कर दी थी और छोटा भाई अकस्मात चल बसा था।
लगभग पन्द्रह वर्ष बीत गए थे ।एक दिन मैंने गूगल प्लस पर एक विज्ञापन देखा जिसमें कुछ औषधियाँ की खूबियां बताई गई थीं और औषधि मंगाने का पता भी था।चेहरा जाना-पहचाना लगा तो मैंने उसका प्रोफ़ाइल देखा ।अंजना ही थी पर बिल्कुल बदली हुई।अधेड़ ,बीमार चेहरा,आंखों के नीचे स्याह घेरे।मैंने उसके फोटोज़ देखे तो उसमें उसके साथ एक बच्चा भी दिखा,जिसका चेहरा हूबहू उस शायर जैसा था।अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी।
साइकिल वाली वह तेज -तर्रार लड़की पूरी तरह नष्ट हो गई थी।स्थितियों -परिस्थितियों ने उसे देेेहखोरों का शिकार बना डाला था।