मैं तो ओढ चुनरिया - 29 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 29

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय 29

मैंने भी उस साल बारहवां साल पूरा कर लिया था और तेरहवें साल में आ गयी थी । अब मैं नौवीं कक्षा में हो गयी थी । मैं मैडीकल विषय लेकर डाक्टर बनना चाहती थी पर नहीं बन सकी । उसके कई कारण थे – पहला कारण तो समाज था । तब तक समाज में लङकियाँ तभी तक पढती थी जब तक उनके लिए कोई योग्य दूल्हा नहीं मिलता था । पढाई ठीकठाक पढा लिखा वर पाने की गारंटी थी । जिस दिन कोई वर ठीक कर दिया जाता , उसी दिन से लङकी की पढाई बंद करवा दी जाती । अब ऐसे में मैडीकल जैसा महंगा विषय दिलाने की क्या जरुरत थी , ऐसा नाते रिश्तेदारों और पास पङोसियों का मानना था । दूसरे लङकियों का पूरे शहर में सिर्फ एक ही कालेज था जहाँ विज्ञान विषय पढाये जाते थे , जिस तक पहुँचने के लिए तीन ऐसे मौहल्लों से गुजर कर जाना पङता जो मुसलिम बहुल थे । और यह पता नहीं कितना सच था और कितना अफवाह कि साल में दो चार लङकियों का रानी बाजार , मोरगंज , रायवाला और शाहमदार से अपहरण हो ही जाता था । तो उस कालेज में दाखिला कैसे होता । तीसरे घर की हालत भी किसी प्राइवेट कालेज में भेजने लायक नहीं थी तो मुझे आर्टस ही दिलाई गयी । बेमन से ही सही मैंने आर्टस पढना शुरु कर दिया । वो कहते हैं न कि आधी छोङ पूरी को धावै , आधी रहे न पूरी पावै । विरोध करने का अर्थ होता पढाई छूटना । अब कम से कम पढाई जारी तो थी । और आर्टस के विषय कौन से बुरे थे । धीरे धीरे मुझे इनमें रस आने लगा था ।
इस बीच पिताजी ने डाक्टर की नौकरी छोङकर घर के बैठक में ही अपनी डाक्टरी की दुकान शुरु कर दी थी । बैठक का सामान अब भीतर के इकलौते कमरे में रख दिया गया । दुकान के लिए उन्होंने दो लकङी के बैंच और एक मेज कुर्सी का जुगाङ कर लिया था । जहाँ बैठक की अलमारियों में मिट्टी के खिलौने सजे रहते थे , वहाँ अब रंग बिरंगी दवा की शीशियों की कतार थी । खिङकी की तरफ दो परदे लगे थे जिनके भीतर एक बैंच लगा रहता । इस बैंच पर मरीज को लिटाकर उसकी जाँच की जाती या इंजैक्शन लगाया जाता । दूसरा बैंच कमरे के बाहर बिछा रहता जिस पर बाहर से आए मरीजों के रिश्तेदार बैठे गपियाते रहते । कमरे के साईड में एक बङी सी मेज बिछी रहती । जिस पर रैक्सीन का हरे रंग का मेजपोश बिछा रहता । उसके ऊपर काँच लगा रहता । उस काँच के नीचे तरह तरह के पाकेट कलैंडर लगे रहते थे जो दवाइयाँ देने आये एम आर दे जाते । पिताजी जब सुबह दुकान खोलते तो इन कलैंडरों पर बने भगवानों को भी धूप दिखाना न भूलते । इन भगवानों ( ढेर सारे होते थे न ) के साथ ही कोई न कोई पर्ची भी फँसी रहती । जो भी मरीज आता , पिताजी खरल करके पुङिया बाँधकर देते , बदले में पाँच का नोट ले लेते । अगर इंजैक्शन लगाना होता तो दस रुपए का तय था । अगर मरीज गरीब होता और गिङगिङाने लगता तो पैसे छोङ देते ।
मैं अब आर्य कन्या इंटर कालेज के सीनियर विंग में हो गयी थी । इस कालेज की अपनी परंपरायें थी । हर मंगलवार को वहाँ की यज्ञशाला में हवन होता था जिसमें मैं और क्षमा मुख्य होता होते । यज्ञ के बाद सबको बूँदी के प्रशाद का छोटा सा लिफाफा मिलता ।
इसके अलावा कालेज की अपनी अनुशासन समिति थी जिसमें हर कक्षा से पाँच छात्राएँ प्रिफेक्ट होती । इन्हें गहरे नीले रंग का मलमल का दुपट्टा पहनना होता जिस पर प्रिफेक्ट लिखा होता । मुझे भी इसके लिए चुन लिया गया । सच मानिये , जिस दिन कंधे पर वी शेप में यह दुपट्टा ओढा , पाँव जमीन पर टिक ही नहीं रहे थे । प्रिफेक्ट कभी भी कहीं भी बिना रोकटोक के आ जा सकते थे । बरांडों में अनुशासन से चलने के लिए किसी को भी टोक सकते थे । किसी अध्यापक की अनुपस्थिति में उसकी कक्षा को शांत बिठा सकते थे । आधी छुट्टी में हर कक्षा में नाश्ता जो अक्सर चने मुरमुरे या केले होते , पहुँचाने में दादियोंकी मदद करते थे । कोई समस्या होने पर सीधे बङी दीदी यानी प्रिंसीपल के दफ्तर जा सकते थे ।
घर में शाम का खेल का समय अब दुकान में बीतने लगा था । पाँच बजते ही पिताजी को चाय पीनी होती तो वे मुझे दुकान पर बैठाकर चाय पीने अंदर जाते । मेरा काम होता आने वाले रोगियों को बैठाना , उनकी बीमारी के बारे में जानकारी लेना । बङे बङे जारों में से कफसीरप छोटी छोटी प्लास्टिक या काँच की शीशियों में भरना । कोई मलहम पट्टी वाला , चोटवाला मरीज आ गया तो उसका खून बहना रोक कर पट्टी बाँधना । हर रोज एक घंटा मेरा इसी तरह बीतता ।
अंदर का कमरा हमारा पीर बावर्ची भिश्ती खर की तर्ज में मल्टीपर्पस रूम था । इस कमरे में ढेर सारी असमारियाँ थी । दरवाजे से रहित इन अलमारियों में सीमेंट की शैल्फों पर माँ के और मेरे हाथ के कढे हुए सुंदर कवर बिछे रहते । उन में पीतल , कांसे , चीनीमिट्टी के बर्तन चिने रहते । रोशनदानों में तरह तरह की किताबें ठुसी रहती । मुझे ये किताबें अपनी ओर आकर्षित करती पर माँ की दहशत इतनी थी कि कभी इन्हें छूने की हिम्मत ही नहीं हुई फर मन बहुत ललचाता रहता । फिर एक दिन माँ किसी रिश्तेदारी में गयी हुई थी कि हिम्मत करके मैंने एक किताब खींच ली । यह किताब कल्याण का अंक थी । मैंने फटाफट पढी और दोबारा वही फँसा दी । मन में एक डर था कि अगर माँ को पता चल गया तो ?
वह पूरा दिन मेरा डरते डरते बीता । अगले दिन भी साँस अटकी रही पर जब दो तीन बीतने पर भी कुछ नहीं हुआ तो डर जाता रहा । उसके बाद तो माँ कहीं गयी नहीं कि मैं दौङकर खिङकी पर चढ जाती और रोशनदान से एक किताब निकाल लेती । छिपाकर पढती और जब पूरी पढ लेती तो वहीं ऊपर टिका देती । माँ के इस खजाने में जहाँ एक ओर पुराण जैसे शिवपुराण , स्कंदपुराण , विष्णुपुराण थे तो दूसरी ओर गुशननंदा , रानू के उपन्यास । मनोहर कहानियाँ , फिल्मीकलियाँ , कल्याण सब एक साथ थे । इसके अलावा विभिन्न जङी बूटियों और आयुर्वेद की पुस्तकें भी उसमें थी । पिताजी ने एक दिन कल्याण पढते देखा तो मेरे लिए लोटपोट , बालक , पराग लगवा दी । किस्से कहानियाँ पढने की शुरुआत वहीं से हुई ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...