समीक्षा आड़ा वख्त उपन्यास
लेखक श्री राज नारायण बोहरे
उपन्यास ग्रामीण पृष्ठ भूमि पर एक किसान शिवस्वरूप व उनके छोटे भाई स्वरूप के बारे में है। शिवस्वरूप जिन्हें बड़ा भाई होने के कारण दादा से कई बार सम्बोधित किया जाता है एक कर्मठ आदर्श वादी परिवार के प्रति जिम्मेदार किसान हैं ।
स्वरूप के पिता जी क्षय रोग से पीडि़त होने के कारण असमय चल बसे स्वरूप व उसकी बहिन सुभद्रा को उसके बड़े भाई दादा ने पाला व संरक्षण दिया जो कि स्वयं उस समय किशोरावस्था में ही थे ।उपन्यास के प्रारंभ में ही स्वरूप अपनी ओवरसियर के पद पर पहली नियुक्ति होने पर ज्वाइन करने जा रहा है ।दादा उसके साथ संरक्षक के तौर पर जा रहे हैं ।सुदूर छत्तीस गढ़ के सफर का लेखक ने मनोहारी वर्णन किया है ।फिर पहले दिन की ड्यूटी पर पहुंचना अपने आधीनस्थों से मिलना । लेखक ने स्वरूप के बड़े भाई दादा की मनस्थिति का वर्णन किया ।एक किसान जो काम पड़ने पर शासकीय सेवकों की तरह तरह से खुशामदें करता है चक्कर काटता है और वे टरकाते हैं उपेक्षा दिखाते हैं । वही सब आज खुद स्वरूप से मिलने आए मीठी मीठी बातें विनम्रता पूर्वक कर रहे हैं। यह देख कर उसके अहं को तुष्टि मिलती है कि छोटा भाई कोई महत्तव पूर्ण अफसर बन गया है ।
फिर एक और तरह से लेखक पाठक को आश्चर्य चकित करते हैं । वहीं कुनकुरी का चर्च है एशिया का सबसे विशाल चर्च ,दादा पंडित जी होते हुए भी चर्च देखने जाते हैं बल्कि उन्हीं का आग्रह है वे वहां जाकर प्रभु जीसस को दंडवत् प्रणाम करके फादर को अचरज में डाल देते हैं । वहां चर्च का अस्पताल भी है ।लेखक ने भाव पूर्ण् ढंग से वर्णन किया कि आदिवासी क्षेत्र में चर्च व अस्पताल का निर्माण करके फादर व नन सेवा भाव से लगे हैं । लेखक का रूख चर्च के प्रति शत्रुता पूर्ण नहीं है ।वह आदिवासी क्षेत्र में शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्र में मिशनरी के योगदान से प्रभावित है ।
दादा का अपनी विरासत में मिली जमीन से मोह है जो स्वाभाविक है । वे परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के प्रति भी सजग हैं एक किसान के संघर्ष व सोच को उजागर करने का लेखक का प्रयास प्रशंसनीय है ।
चूंकिदादा मिडिल तक पढ़े हैं व खेती के प्रति संवेदन शील हैं। वे स्वयं ही खेती की उन्नति का प्रयास नहीं करते वरन् अपने अन्य ग्राम वासियों को सलाह देते रहते हैं। किसानों की अपनी समस्याएं हैं ।जैसे पानी की समस्या वे कुंआ खेादने के लिये सरकार से कर्ज लेने में कितने पापड़ बेलते हैं।खेत में खड़ी फसल की नील गायों से सुरक्षा भी ,नील गायों को केवल भगाया ही जा सकता है, उन्हें मारा नहीं जा सकता वे गायें हैं।
फिर स्वरूप की शिक्षा के लिये धन की व्यवस्था की समस्या स्वरूप स्वयं ट्यूशन करके अपने शहर में रहने खाने व पढ़ाई का खर्चा निकालता है ।यह एक मध्यम वर्गीय विद्यार्थी के संधर्ष् को प्रदर्शित करता है ।
इसके अंधेरे पक्ष की भी तस्वीर खींची है स्वरूप की बहिन का पति जो गांव में एक अच्छी खासी दूकान चलाता है गड़ा धन पाने के फेर में तंत्र मंत्र जादू टोना के चक्कर में पड़ जाता है तांत्रिकों ओझा के चक्कर काटता है अपना समय व धन बरबाद करता है दूकान ठप हो जाती है मानसिक संतुलन भी खेा बैठता है । अच्छा खासा घर बरबाद हो जाता है।
वे एक शासकीय सेवक की ट्रांसफर पोस्टिंग में भ्रष्टाचार की भी कलई खोलते हैं ।जनसेवक का ढोंग करने वाले एम. एल. ए. का चुनाव जीतते ही अपना सारा आडम्बर छोड़ कर सीधे असलियत पर उतर आते हैं। चंदा उगाहने लगते हैं दादा से भाई का ट्रांसफर कराने के रूपए मांगे जाते हैं न होने पर जमीन बेचने की सलाह दी जाती है ।
स्वरूप को साफ रिश्वत न लेकर उसके आधीनस्थ उसे नजराना स्वीकार करने का दबाव बनाते हैं यह एक समझौतावादी रूख दर्शाता है । र्इ्रमानदारी का चाहे कितना ही ढोल पीटा जाए पर ऐसे शासकीय सेवकों की राजनैतिक नेताओं दलालों अफसरों के बीच कोई पूंछ नहीं होती व उसका जीवन उपेक्षा कष्ट व समस्याग्रस्त रहता है । व शासन के प्रभावशाली लोगों का रूख शत्रुता पूर्ण रहता है ।बहुत कम लोग हैं जो इन विपरीत परिस्थितियों में डटे रहते हैं अकसर टूट जाते हैं ।
दादा का चरित्र जो उपन्यास के पहले भाग में आदर्शवादी रूप लिए है । स्वरूप की गुर्दे की बीमारी के समय आड़ा वख्त की दुहाई देकर जमीन बेचने से इनकार कर देता है । निर्मम हो जाता है व किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं करता । समझ में नहीं आया इससे बड़ा आड़ा वख्त और कौन होगा भाई को जो उसे बहुत प्रिय है मर जाने देता है । कथा का यह अंश अबूझ है ।स्वरूप अपनी सारी कमाई बचत अपने बड़े भाई दादा को देता रहता है शुरू में तो ठीक है पर सारे जीवन अपने लिये बचा कर कुछ नहीं रखता समझ में नहीं आया अस्वाभाविक लगता है । वे उसकी मृत्यु शैया पर भाई की कोई मदद नहीं करते यह भी स्वाभविक नहीं लगता ।परिवार का कोई व्यक्ति गुर्दा दान नहीं देता डॉक्टर की सलाह के बावजूद ?
गांव में अब भी सामंतिक सोच हावी है जान से ज्यादा झूठी शान का सवाल महत्त्व पूर्ण है । अकाल के कठिन समय में जब भुखमरी की स्थिति है तो शिवस्वरूप अपने पिता से राहत कार्य में जाने की अनुमति मांगते हैं तो पिता जी मना कर देते हैं ‘सारे नाक कटा दे हरामी चौंतीस बीघा धरती को मालक जात से ठाकुर और दूसरे की तगारी डारैगो ।गांव बारे का कहेंगे बनी बनाई इज्जत घूरे में चली जाएगी ।‘
लेखक ने किसानों मजदूरों की आर्थिक बदहाली व शोषण की बात तो की ही साथ ही रेजा (महिला मजदूर )के दैहिक शोषण की भी अफसरो के द्धारा बात उठाई जिसका शिवस्वरूप विरोध करता है ।
और अंत में जिस जमीन को बचाने के लिये दादा आड़े वख्त की दुहाई देकर निर्मम हो जाते हैं बेचने से मना कर देते हैं संबंधों को संकट में डाल देते हें वह जमीन भी सरकारी अधिग्रहण में चली जाती है ।
पृष्ठ -3अदांज लगाओ ‘कै ‘क्या कर रहे हो में शायद’ कि ‘ होना चाहिए ।
पृष्ठ- 98 पेनीटोनियल है, पेरीटोनियल होना चाहिए
सुंदर सार्थक पठनीय उपन्यास के लिए लेखक बधाई का पात्र है मेरी शुभकामनाएं ।
स्वतंत्र कुमार सक्सेना