मृगतृष्णा तुम्हें देर से पहचाना - 4 Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मृगतृष्णा तुम्हें देर से पहचाना - 4

अध्याय चार

तुम न हुए मेरे तो क्या !

तुम्हारे बारे में मैंने तमाम कहानियाँ सुन रखी थीं | तुम लड़कियों में एक साथ ही लोकप्रिय और बदनाम दोनों थे पर उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा | पहली ही नजर में तुम मुझे अच्छे लगे और मन में तुम्हें आकर्षित करने की इच्छा जगी | शायद यह स्त्री पुरूष का आदम आकर्षण था | एक सुदर्शन पुरूष तो तुम हो ही, मैं भी एक सुंदर स्त्री कही जाती थी पर न जाने क्यों मैं तुम्हारे मुंह से यह सुनने की इच्छा पालने लगी | यह तब की बात है, जब मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती तक नहीं थी| तुम्हारे बारे में कई किस्से सुनकर तुमसे ढेर -सारी बातें करने की इच्छा भी हुई, पर मैंने खुद को रोक लिया, पर एक दिन तुम एक गोष्ठी में दिख गए और मन में कुछ होने लगा| जी चाहा –काश, संभव होता तो मैं अपनी उम्र के पाँच-दस वर्ष पीछे चली जाती और तुम खिंचते हुए मेरे पास चले आते ....उस दिन तुम व्यस्त थे पर अपनी तेजस्विता, यौवन और पौरूष से दमकते और जब तुमने भाषण देना शुरू किया तो मैं मंत्रमुग्ध- सी तुम्हें देखती रह गयी ...यह तो वही पुरूष है, जिसकी मुझे तलाश थी | उस दिन पहली बार कसक –सी हुई कि काश, मेरे साथ अतीत की त्रासदी नहीं होती ...और फिर अतीत की काली परछाई ने हृदय में अंकुराते बीज को दबा दिया और न चाहते हुए भी मैं जल्दी घर लौट आई | 
फिर एक दिन तुम किसी के घर मुझे मिल गए | उस दिन तुम्हें नजदीक से देखा | तुमने कुछ बातचीत भी की और मैं रूक-रूक कर तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देती रही | तुम्हारी नंगी आँखों में एक आभा थी ....एक गहराई थी ....एक विस्तार था | मैं उन आँखों के लबालब को अपलक देखती रह गयी थी | उस दिन अपने मित्र से अपने देर से उठने का कारण ‘अकेलापन’ व ‘कोई उठाने वाला नहीं ‘ कहकर तुमने कुछ ऐसी गहरी नजरों से मुझे देखा कि मेरा हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा और जब तुम्हारी जेब से पेन नहीं मिला और मित्र ने इसकी शिकायत की, तो तुमने फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा कि - ‘किसी ने प्रेजेंट ही नहीं किया अब तक’ और मेरे मन में यह भावना उठी कि मैं इन्हें पेन जरूर प्रेजेंट करूंगी | व्यस्त रहते हुए भी मेरा ध्यान बार-बार तुम्हारी बातों की तरफ जाता और मेरी कल्पना में रंग -भरी बारिश होने लगती, जिसमें मैं तुम्हारे साथ दौड़ती-भागती...लिपटती, पर एकाएक यथार्थ का एक पत्थर मेरी कल्पना के शीशे को चकनाचूर कर देता और उदास होकर मैं अपने कार्य में लग जाती | 
और एक दिन किसी कार्यवश तुम्हारे घर जाने का मौका मिला ...मैंने उस दिन फैसला कर लिया कि अपना तमाम अतीत तुम्हारे सामने खोलकर रख दूँगी, कुछ न छिपाऊँगी, देखूँ फिर तुम पर कैसा असर होता है ?....जब मैंने तुम्हें सब कुछ बताया, तो तुम्हारी आँखों में नमी आ गयी और तुमने कहा –‘सब कुछ भूलकर नयी शुरूवात कीजिए | ’ ...नयी शुरूवात....तुम्हारे प्रगतिशील विचारों ने मेरे हृदय को सहारा दिया और मैं एक नयी लड़की बन गयी | अक्षत...अविवाहित नवयुवती की जो भावनाएँ मेरे भीतर दम तोड़ चुकीं थीं .....एक साथ खिलखिला पड़ीं और मैं विस्मृत कर बैठी अपना वह  स्याह अतीत, अपना भविष्य और अपने वर्तमान का तुमसे अलग कोई अंश, यह सब कुछ तुम्हारे कारण हुआ था, तुम्हारे ही कारण | 
फिर हम मिलने लगे और यह जान गए कि दोनों का आकर्षण एक समान ही है | तुमने बताया कि तुम भी प्रथम दर्शन से ही मेरे प्रति आकर्षित हो और फिर तुमने मेरी हथेलियाँ चूमकर अपने प्यार का इजहार कर दिया ...।मेरे तन में एक अजीब -सी सिहरन दौड़ गयी ...एक अनोखा अहसास ...जिसने मेरी आँखों को ढेर सारे सपने दे दिए | नए वर्ष की शुभकामना में तो दोनों के अधर मिलकर एक हो गए थे, फिर तो मैं सब कुछ भूल गयी थी, हमारे बीच की दूरियाँ कम होती गईं | सीमाएं सिमटती गईं और मैं पूरी तरह तुम्हारे रंग में रंग गयी ...रात-दिन तुम्हारे ही सपने ....सर्वत्र तुम ही तुम | जब भी तुम्हारे पास होती, एक सम्मोहन में बंध जाती ...तुम स्त्री-पुरूष सम्बन्धों के बारे में प्रश्न करते और मैं अनमनी होने पर भी उत्तर देती ...स्पर्श मात्र से तुम मदहोश होने लगते और एक हो जाने की बात करते, पर मैं बार-बार तुम्हें रोक देती | मुझे डर -सा लगता कि एक हो जाने के बाद की दूरी मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी | पास रहने पर यह सब होता और दूर जाने पर तुम्हारा प्यार याद आता और जी चाहता, दौड़कर तुम्हारी बाँहों में समा जाऊँ पर सीमाओं में जकड़े दो हृदय यदा-कदा मिलते और तड़प लिए ही अलग हो जाते | 
हाँ, एक बात इस प्रेम-प्रसंग में मुझे खटक रही थी कि तुम्हारा शरीर तो बोलता था ...प्यार का इकरार-इजहार करता था, पर तुम खुद ‘आई लव यू‘ कहते भी डरते थे | तुम्हारी सिर्फ ‘देह की भाषा‘, ’देह की कविता‘ समझने वाली बात मुझे पीड़ित करती थी कि कहीं तुम मुझे सिर्फ देह ही तो नहीं समझते हो| एक ऐसा शरीर, जो अकलंक नहीं | जिससे सिर्फ शरीर की बात की जा सकती है, मन की बात नहीं | जिससे संबंध तो जोड़ा जा सकता है, अनुबंध नहीं | 
तुम मुझसे कोई भी वादा नहीं करना चाहते थे | ना ही मेरे संघर्षों में साथ देना ...ना मुझसे विवाह करना | इसके सिवा तुम्हारे प्यार में कोई चालाकी ....कोई धूर्तता या बेवफाई नहीं थी | 
बिलकुल निष्पाप और पवित्र आँखें, पर उनमें वह तड़पता प्यार भी नहीं होता, जिसे मेरी आँखें देखना चाहती थीं | मैं उन आँखों की भाषा समझ न पाने के कारण परेशान रहती थी ...न जाने तुम क्या थे, मैं तुम्हें जानना –समझना चाहती थी, पर तुम खुलते ही न थे, जिसके कारण अक्सर अजनबी से लगने लगते और यह मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर कर रख देता | 
कितनी अजीब बात थी कि तुममें ही एक अजनबी था, जो सिर्फ शरीर-शरीर चिल्लाता था, बेगानों -सा व्यवहार करता था और अपने रूप –यौवन के प्रति आवश्यकता से अधिक गर्वित था | बड़ी-बड़ी अभिमान भरी बातें भी करता था और जिसकी निगाह में मैं कुछ न थी | थी तो एक युवा, सुंदर शरीर ...थी तो एक पाषाणी, जिस पर वह अपनी कठोर बातों से लगातार वार करता था | मेरा हृदय छलनी होता जा रहा था | उसे इस बात का एहसास तक न था कि मैं भी एक इंसान हूँ ...स्त्री हूँ ...एक प्यार भरे हृदय की साम्राज्ञी, जिसके साथ नरमी से पेश आना चाहिए | वह एक स्वार्थी आदमी था, जिसे मेरी तकलीफ़ों, परेशानियों, मजबूरियों से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा, अपना सुख, अपना स्वार्थ प्यारा था | इस व्यक्ति ने मुझे मनोरोगी बना दिया, क्योंकि वह तुममें ही था और कभी-कभी तुम पर पूरी तरह छा जाता | 
कौन हो तुम ?तुम क्यों नहीं खुलते?क्यों इतना कठोर आवरण चढ़ा रखा है अपने ऊपर ?इतनी कठोर परीक्षा न लो मेरी ...तुमने मुझे एक नयी राह दिखाई | साथ-साथ चले और अब उस स्वार्थी व्यक्ति को भी अपने साथ लिए चल रहे हो | नहीं, उसे अपने से अलग कर दो, तुम वही बन जाओ पूर्ण रूप से, जो तुम हो और जो मैंने तुम्हें समझा था | मत चढ़ाओ अपने ऊपर आवरण ...अपने प्रकृत रूप में मेरे सामने आओ ...मुझे मृत्यु दंड मत दो....मत दो | 
तुमने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, तो पता नहीं उस हाथ में कुछ था या नहीं, पर जब मैंने तुम्हारी तरफ अपनी हथेलियाँ बढ़ाईं, तो उनमें मेरा हृदय था, मेरी तमाम खुशियाँ, तमाम गम थे, जिन्हें मैंने हृदय में गहरे दबा रखा था, ताकि कोई उन्हें छू न सके | पर तुम लगातार मुझे पुकारते रहे ...मैं भागती रही ...अनसुनी करती रही तुम्हारी आवाज | मैं ...लड़ती रही खुद से पर अंतत: पराजित हो गयी और तुमने मेरे हृदय में प्रवेश कर लिया | तुम मुझे क्यों पुकारते रहे ....?पुकारा भी था ...या वह भी भरम था मेरा | 
जानते हो, मैं जितनी बार भी तुमसे मिली हूँ कठिन मानसिक संघर्ष के बाद मिली हूँ | उस स्वार्थी आदमी की बातें तुमसे अलग ही रहने को कहती हैं पर तुम्हारा प्यार मुझे हर बार तुम्हारे समीप कर देता है | मैं खुद तुमसे मिलने आती हूँ उसी आवाज पर ...उसी पुकार पर ...जिसे शायद तुम भी नहीं जानते ...पर मैं जानती हूँ ...पहचानती हूँ, तभी तो तुम्हारे इतने करीब हो जाती हूँ ....इतने करीब कि हमारी सांसें एक हो जाती हैं, हृदय एक साथ धड़कने लगते हैं | कहीं कुछ अंतर नहीं रहता और मेरी आत्मा का वह टुकड़ा, जो विधाता की भूल से तुम्हारे हृदय में चला गया था, तड़पकर एकाकार होने लगता है ...पर ऐसा कुछ ही क्षण होता है | उस स्वार्थी व्यक्ति का सम्मोहन टूटता है...और वह ऐसी बातें कहने लगता है कि मेरा हृदय टूक-टूक हो जाता है | जी चाहता है यहाँ से ऐसी जगह भाग जाऊँ...जहां थोड़ी शांति मिले ...यह किसे प्यार कर बैठी मैं ...तुम ऐसे क्यों हो ?तुम्हें एक पल के लिए भी मेरा ख्याल क्यों नहीं आता ?...क्या मैं तुम्हारे योग्य नहीं ?या सच ही तुम मुझे मात्र मन बहलाव का साधन समझते हो ?
कहीं तुम्हारे भीतर भी तो यह ग्रंथि नहीं काम कर रही कि विवाह के लिए ही नहीं, प्रेम के लिए भी लड़की वर्जिन होनी चाहिए| 
एक बार मैं तुम्हारे विवाहित मित्र के घर गयी, ताकि तुम्हारे विषय में उनसे बातें करूँ| मैं देख रही थी कि उनके मन में मुझे लेकर मधुर भाव पलने लगा है | उस दिन मैं उनसे सिर्फ तुम्हारी ही बातें करती रही थी | ईश्वर साक्षी है मेरी ईमानदारी का ...पर तुमने मुझ पर अविश्वास किया, तुम सोच भी नहीं सकते कि तुमने मुझे कितनी पीड़ा पहुंचाई | अपने संदेह को यद्यपि तुमने प्रकट नहीं किया पर वह भीतर ही भीतर मुझे खाता रहा और मैं अस्वस्थ रहने लगी | नाराजगी में कुछ दिन तुमसे मिली नहीं और खुद दुख पाती रही और जब तुम मिले और भावुक स्वर में बोले –‘मेरी याद नहीं आती ?’ तो सब कुछ भूलकर मैं बोल उठी –‘बहुत-बहुत याद आती है तुम्हारी | कई कविताएं लिखी हैं तुम पर | ’ तो तुमने कहा –मैं पढ़ूँगा, पढ़वाओगी मुझे ? मैंने हामी भर दी | और जब मैं तुम्हारे घर गयी तो तुम अकेले थे | मैंने कहा-कविताएं पढ़ोगे तो तुमने कहा –मैं देह की कविता पढ़ना चाहता हूँ | तुम कुछ न कहो, फिर भी तुम्हारा एक-एक अंग बोलता है | तुम्हारी आँखें तो बहुत बोलती हैं | तुम खुद जीती-जागती एक कविता हो | 
हम पास बैठे ही थे कि वह स्वार्थी व्यक्ति जाग उठा और तुम गायब हो गए ...मैं फिर परेशान हो गयी | मुझे लगने लगा कि तुम्हारा प्रेम कामुक चाटुकारिता के सिवा कुछ नहीं | मेरा मन अशांत हो उठा ....और मैं लौट आई | 
तुम्हारे भीतर छिपे उस चालाक, स्वार्थी, कायर आदमी से मैं त्रस्त हो चुकी हूँ | तुम पर पूर्ण विश्वास नहीं कर पा रही ...लगता है मेरे आने से तुम खुश नहीं होते | मुझसे मिलना भी नहीं चाहते ...तुम्हारी दृष्टि में मैं कुछ दिन का मन बहलाव हूँ | मेरा महत्व तुम्हारी दृष्टि में बस इसके सिवा कुछ नहीं कि तुम मेरी देह चाहते हो | नहीं, मैं अपने स्त्रीत्व का यह अपमान नहीं सह सकती | मैं अब तुमसे कभी नहीं मिलूँगी ...कभी नहीं | मैं खुद को खत्म कर लूँगी पर तुमसे दया नहीं चाहूंगी ...सहानुभूति, दया...कृपा मुझे नहीं चाहिए | मैं इसका बोझ नहीं उठा सकती | अगर तुम्हें मुझसे प्यार होता तो मेरा मन इतना अशांत नहीं होता | तुम एक बार भी मेरा दुख समझने का प्रयास करते हो ?नहीं न, तुम डरते हो कि कहीं मैं तुमसे यह न कह दूँ कि मुझसे विवाह कर लो | 
विवाह तो हमारा हो चुका ...उसी दिन ...जब तुमने अपनी बाहों का हार मेरे गले में डाला और मैंने तुम्हारे | भले ही तुम कहो –इतने से क्या हुआ ...पर क्या इससे अधिक एक स्त्री के लिए और कुछ होता है ....?तुम लाख कहो कि मुझे प्यार नहीं करते | अपने आकर्षण ...अपने प्यार को छिपाओ | अपने -आपको धोखा दो | अपनी आत्मा का गला घोंट दो ...पर मैं अपने -आप को धोखा नहीं दे सकती | मेरी नैतिकता, मेरी आत्मा अभी मरी नहीं है | मैंने तुम्हें उसी दिन अपना सर्वस्व मान लिया था, जिस दिन तुमसे प्रेम हुआ और इसी भावना के कारण तुम्हारे इतने निकट हो गयी | तुम अगर यह समझते हो कि किसी लालच या दैहिक जरूरत के लिए तुम्हारे करीब हुई, तो यह तुम्हारी भूल है | मैंने सिर्फ प्यार नहीं किया तुम्हें, बल्कि स्वीकारा भी है उस अनाम....अदृश्य शक्ति के समक्ष ...पर तुम डरना नहीं ...मैं अपने इस संबंध को कभी उजागर नहीं करूंगी | तुम्हारी पद-प्रतिष्ठा, घर-परिवार सबका ध्यान रखूंगी | ....जब तक खुद न बुलाओगे ...मिलने नहीं आऊँगी | तुम्हारे रहते भी आजीवन अकेली रहूँगी | जब तुम्हें स्वीकारा है, तो तुम्हारे साथ तुम्हारी सारी सीमाओं को भी स्वीकारा है | तुम्हारे समस्त गुणों-अवगुणों को भी स्वीकारा है | तुम्हें तुम्हारे सम्पूर्ण परिवेश के साथ स्वीकारना ही मेरा कर्तव्य है | तुम मेरी बिलकुल चिंता न करना | मैं अपना संघर्ष अकेली ही जारी रखूंगी ...| तुमसे कभी सहयोग नहीं मांगूँगी | अपनी पिछली जिंदगी की परछाइयों से तुम्हें बचाऊंगी ....ये सब जो कुछ है ...तुमसे मिलने के पहले का है | जब से तुम मिले हो, तुम ही एक मात्र सच हो मेरे लिए | भले ही तुम विश्वास न करो ...मुझ पर कोई इल्जाम लगाकर पीछा छुड़ा लो ...| दुनिया की बातों में आ जाओ पर मैं हमेशा ऐसी ही रहूँगी ...तुम्हें चाहती...प्रेम करती ...तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता | 
यदि भविष्य में कोई अन्य पुरूष मेरे जीवन में आएगा, तो वह मेरी विवशता पर तुम्हारे पौरूष पर एक प्रश्न चिह्न होगा | वैसे भी अब और कितना समय बचा है ?मेरे माथे पर लाल रंग तुम्हारे प्यार का रंग है | कभी पहचानो तो अपना कह लेना ....| 
एक लंबा अरसा हो गया तुमसे मिले ...मुझ पर मुसीबतों का पहाड़ टूटा ...नौकरी छूट गयी | हॉस्टल भी छोड़ना है ...नौकरी और घर की तलाश करते—करते  मेरे पैर दुखने लगे हैं ...तुम्हें यह सब पता है पर मेरे प्रति तुम कोई ज़िम्मेदारी ही महसूस नहीं करते और मैं स्वयं तुमसे क्या कहूँ?
किसी आकांक्षा में तो मैंने प्यार नहीं किया था | आज बहुत थक गयी हूँ ।इस पुरुष-प्रभुत्व वाले समाज में अकेली स्त्री का जीना कितना मुश्किल है ?मेरे पाँव हॉस्टल की तरफ घिसट रहे हैं ...चपरासी ने मुझे एक निमंत्रण –पत्र थमाया है | बिस्तर पर गिरकर लिफाफा खोलती हूँ ।ये क्या  धरती ..आकाश सब चक्कर काटने लगे हैं ...बिजली कड़ककर कहीं गिरी है ...मेरे अस्तित्व में कांटें उग आए हैं..  आँखें धुंधला गयी हैं ...निमंत्रण-पत्र के अक्षर हँस रहे हैं  यह तुम्हारे विवाह का निमन्त्रण –पत्र है | मैं रो रही हूँ कि फोन की घंटी बजी है ...तुम हो ...और एक स्वर में कहते जा रहे हो वही तीन शब्द, जिसे तुम्हारे मुँह से सुनने के लिए मैं तरसा करती थी –आई लव यू।एक तरफ अन्या से विवाह दूसरी तरफ 'आई लव यू' ।सच क्या है !
कई वर्ष बाद मेरा तुमसे सामना हुआ था। मुझे आश्चर्य हुआ कि अब तुम्हारे प्रति मेरे मन में कुछ नहीं है। न प्यार न नफ़रत। मेरे मन ने तुम्हें इस कदर पराया कर दिया है कि कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि तुम पास आ बैठो या दूर खड़े रहो, जबकि पहले ऐसा नहीं था। पहले तो तुम्हारी छोटी-से-छोटी बात से भी मुझें फ़र्क पड़ता था।
तुम तक पहुंचाने वाली सीढ़ियों से उतरने के बाद मैं भारी मन से जिन्दगी की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी थी। वर्षो लगे थे तुम्हें भूलने में जबकि तुम विवाह करके अपनी गृहस्थी में रम चुके थे-सुंदर पत्नी, बच्चे, अच्छी नौकरी, भाई-बहनों की जिम्मेदारियों से मुक्ति, समाज में रुतबा, क्या नहीं था तुम्हारे पास और मेरे पास-अकेलापन, दुख, रुसवाई के साथ चंद उपलब्धियाँ मात्र! मैंने जो कुछ खोया वह तुमसे प्रेम करने के कारण और तुमने जो पाया शायद प्रेम न करने के कारण। अजीब प्रेम कहानी थी यह, जिसमें दुश्मन जमाना नहीं, खुद नायक था! दरअसल तुमने मुझे कभी प्यार किया ही नहीं था। मैं ही तुम्हारे आकर्षण को प्यार समझने की भूल कर बैठी थी या फिर तुम ‘प्रेक्टिकल’ थे और मैं ‘भावुक’ । प्रेम को विवाह में बदला जाय, यह जरूरी तो नहीं, पर क्या यह भी जरूरी नहीं कि अपने प्यार को आग में जलते देख उसे बचाने की कोशिश की जाए!
खैर, अब जो हो चुका उसे याद कर दुखी होने से क्या फ़ायदा ? इस बीच मेरे जीवन में भी तो बहुत कुछ घट चुका था। तुमसे धोखा खाकर मैं आत्मघात कर लेना चाहती थी, पर मुझे बचाने के लिए आनंद आ गए। उन्होंने मुझे संभाला, मेरा मनोबल बढ़ाया। जिन्दगी का सामना करने के लिए ताकत सँजोने में मदद की, पर वे मुझसे प्यार भी करने लगे। मैंने बहुत मना किया, पर वे नहीं माने। अंतत: मैंने भी जिन्दगी से समझौता कर लिया। जब मेरे विवाह की खबर लोगों तक पहुंचीं, सबने यही कहा कि-मैंने ख़ुदकुशी कर ली। आनन्द से विवाह एक तरह से आत्महत्या ही थी, पर मैं भी क्या करती! न तो मैं इस शहर को छोड़ना चाहती थी, न तुम्हारी रखैल बनना। मैं तुम्हारे लिए ही तुमसे दूर थी। अजीब विरोधाभास था यह। ज़िंदा रहने के लिए किसी का साथ भी तो चाहिए, इसलिए मैंने आनन्द के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था। इस स्वीकारोक्ति के साथ कि-‘मैं आपसे प्यार नहीं करती, कर पाऊँगी, इसका भी वादा नहीं कर सकती।‘ पर आनन्द तो इसी बात से खुश थे कि उन्हें मेरा साथ मिलेगा। मैं उन्हें प्यार करूं न करूं, इस बात से उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता था। हाँ, उन्होंने जरूर वादा किया कि- मेरे मन में अपनी अच्छाइयों से प्यार जगा देंगे और तब तक बल प्रयोग नहीं करेंगे। मैं आनन्द को बहुत अच्छा इंसान समझने लगी थी। एक ऐसा इंसान, जो मुझे देह -मात्र नहीं समझता था, पर मैं गलत थी। आनन्द की नजर भी मेरे शरीर पर ही थी। उन्होंने बस शराफत का नकाब पहन रखा था। विवाह के बाद मुझे इस सच का तब पता चला, जब वे मेरे तन-मन-धन का शोषण करने लगे। अपने घर-परिवार में जगह दिलाने की जगह वे मेरे ही घर में रहकर मुझे प्रताड़ित करते रहे। मैं क्या करती! भरसक उन्हें निभाने की कोशिश करती रही, हर मोर्चे पर अकेली लड़ती रही और पति-पत्नी दोनों की जिम्मेदारियाँ उठाकर घर-गृहस्थी सँजोती रही। पर जाने क्यों घर के कोने-कोने में मैं तुम्हारी उपस्थिति महसूस करती, तुम्हार पसंद की चीजों को तरजीह देती। क्या तुम मेरी आत्मा में खुशबू की तरह समाए थे या फिर आनन्द द्वारा उस जगह को भरा न जा सका था, जो तुमने रिक्त की थी। दिन बितते रहे और मैं उन जगहों पर जाने से बचती रही, जहां तुम मिल सकते थे, पर धीरे-धीरे मैंने अपने मन को मजबूत करना शुरू किया। आखिर एक ही शहर में रहकर, साहित्य-संस्कृति कर्मी होकर कहाँ संभव है कि तुमसे मुलाक़ात न हो। जब तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता, फिर मैं क्यों कमजोर हूँ?
और एक दिन एक समारोह में तुमसे मुलाक़ात हो ही गई। कुछ देर तक मैं तुमसे कटती रही, पर तुम एकाएक सामने आकर खड़े हो गए और मुझे नमस्कार किया। मुझे भी जवाब देना पड़ा, फिर तुमने पहली बार की तरह मुझे प्यार से देखा और जरा-सा एकांत मिलते ही बोले-‘मेरी याद नहीं आती।‘ मैं आश्चर्य में पड़ गई कि कोई आदमी इतना... निर्मम कैसे हो सकता है? किसी की जिन्दगी को बर्बाद कर उससे इस तरह का सवाल कैसे कर सकता है? तुम आगे बोले-‘तुम तो अपनी उम्र से दस साल छोटी लगने लगी हो, पहले से कहीं ज्यादा मादक।‘
ओह, यहाँ भी देह! अभी भी देह! कम उम्र की सुंदर लड़की से विवाह करने के बाद भी! पुरूष क्या कभी नहीं सुधरेगा ?अपनी लंपटई नहीं छोड़ेगा ?पत्नी को तो सात तहों में लपेटकर रखेगा और खुद....!'
मैं सोचने लगी- आखिर अब ये सब कहने से तुम्हारा क्या मतलब है? मुझे छोड़कर दूसरी लड़की से विवाह कर लिए। फिर अब क्यों! शायद तुम्हारे पुरुषत्व पर इस बात से आंच आती है कि कभी तुम पर जान छिड़कने वाली तुम्हें छोड़कर सबसे बात करे। शायद तुम लोगों को यह दिखाना चाहते थे कि तुमने मुझे धोखा नहीं दिया था और अब भी हम दोनों के बीच दोस्ती है। मेरे मन ने कहा कि कितना दिखावा -पसन्द है यह आदमी! क्या इसी व्यक्ति को मैंने प्यार किया था? यह तो किसी के भी प्यार के काबिल नहीं। न प्रेमिका के न पत्नी के । मुझे विचार-मग्न देखकर तुम बोले -‘तुमने आनन्द से विवाह क्यों किया? वह तुम्हारे लायक नहीं था।‘
मेरा जी चाहा कि कहूँ-और मैं तुम्हारे लायक नहीं थी... तभी तो....।
–‘मैं जानता हूँ उन दोस्तों को, जिन्होंने तुम्हें गुमराह किया और आनन्द से तुम्हारा विवाह कराकर मुझे धोखा दिया...। तुम्हें मुझसे छीना.... ।’ कहते हुये तुम्हारी आँखों से आँसू छलक आए। मैं सकते में थी कि-तुम तो अपने को ही छला व धोखा खाया हुआ बता रहे हो।क्या तुम चाहते थे कि तुम खुद तो विवाह करके गृहस्थ बन जाओ और मैं तुम्हारी वापसी का इंतजार करती रहूँ, पत्नी से बचे या चुराये तुम्हारे प्यार को पाने के लिए। मुझे एक कविता की पंक्ति याद आई - ‘मरहम वहाँ लगाते हैं जहाँ घाव नहीं।‘ तुम्हारी बातों से मेरा मन दुखने लगा। सूखे घाव हरे होने लगे तो मैं बहाना बनाकर घर वापस आ गई।
दूसरी बार जब तुम मिले, तो पूछ बैठे-‘तुम मुझे गलत तो नहीं समझतीं। कहीं और विवाह कर लेने से नाराज तो नहीं। क्या करूँ, बहुत मजबूर था! भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी, जाति-बिरादरी का दबाव और माँ की पसन्द को टाल नहीं सकता था।‘ मैं सोचने लगी- इतना जिम्मेदार व्यक्ति अपने प्यार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी कैसे भूल सकता है? क्या किसी लड़की को वाग्दत्ता पत्नी बनाकर भी अपनी जिम्मेदारियों का रोना रोया जा सकता है! मुझे पता चला था कि तुमने खुद अपने लिए ऐसी लड़की तलाश की थी, जो तुम्हारी जाति-गोत्र की ही नहीं, बहुत सुन्दर और शालीन भी थी। इतनी प्यारी लड़की कि उससे मिलकर मुझे कभी ईर्ष्या नहीं हुई कि उसने मेरा प्यार छीना है क्योंकि मैं जानती थी-जो कुछ हुआ वह तुम्हारे दिमाग से हुआ है। अपने भाइयों की नौकरी, बहनों के विवाह, बिरादरी का संगठन बनाने में तो तुम पीछे नहीं हटे, फिर मेरे ही संबंध में मजबूर होकर क्यों पीछे हट गए...?और अब तुम अपनी सफाई क्यों पेश कर रहे हो! क्यों चाहता हो कि मैं तुम्हें उस मजबूर नायक की तरह समझूं, जो अपने परिवार की खुशी के लिए अपनी खुशियों की बलि चढ़ा देता है। तुम अब भी मुझे कितना बेवकूफ समझता हो।हर तरह से सुखी-सम्पन्न तुम मुझ जैसी दुखी, अकिंचन स्त्री से आखिर अब क्या चाहते हो ! मैंने तुमसे पूछ लिया-‘तुमने तो मुझे अयोग्य समझकर त्याग दिया था। फिर अब...! क्या अब तुमको अपनी बदनामी का डर नहीं, जैसा पहले था।‘
तुम बोले-‘नहीं, अब तो तुम एक सम्मानित शख्सियत हो, अब अगर तुमसे मेरा नाम जुड़ेगा भी, तो मेरा सम्मान ही बढ़ेगा।‘
‘पर मैंने तो विवाह कर लिया है ।‘
‘तो क्या हुआ, मैं सबसे कहता हूँ गुमराह होने के बदले तुमने विवाह किया | ’
‘पर वह विवाह टूटने के करीब है।‘
‘टूट जाने दो, आनन्द ने धोखे से तुम्हें मुझसे अलग किया। मैं हमेशा तुम्हारा था...हमेशा साथ दूँगा।’
मुझे लगा बरसों पहले जो शीशा मेरे मन में टूटा था, उसकी किरचें अब चुभने लगी हैं। प्यार ने मुझे कहाँ पहुंचा दिया है..?.कितनी अकेली हो गई हूँ मैं...? पति है, वह इस तरह से मुझे जल्दी-जल्दी खा लेना चाहता है कि खत्म होते ही भाग निकले... कोई ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहता। हर पल झोला तैयार रखता है और जिसको प्यार किया था, वह इस कदर हृदयहीन और स्वार्थी है।
एक दिन तुम बोले-‘तुम तो अच्छी राइटर हो। अपनी प्रेम- कहानी लिखो, पर उसमें मेरी इमेज अच्छी बनाना | सारे प्रसंगों को सुन्दर व काव्यात्मक मोड़ देना | मेरी जिम्मेदारियों व मजबूरियों का जिक्र करते हुए प्यार के यादगार क्षणों का जिक्र करना।‘ मैं ध्यान से तुम्हारा चेहरा देखती रही कि मेरे तन-मन-भावना से खेलने के बाद अब तुम मेरी कलम से खेलना चाहते हो। चाहते हो कि मैं तुम्हें पुराणकालीन योद्धा या फिर धीरोदात्त नायक की तरह सौन्दर्य, पौरुष व मनुष्यता के प्रतीक के रूप में चित्रित करूं। पर तुम शायद यह नहीं जानते कि कलम किसी के भी साथ अन्याय नहीं करती! न्याय ही उसका लक्ष्य होता है। वह सबकी होती है और किसी की भी नहीं होती; खुद लिखने वाले की भी नहीं।
मैंने कहानी लिखी, जिसमें कल्पना कम सच्चाई ज्यादा थी। कहानी छपी और चर्चित हुई। इस कहानी से तुम्हारा चरित्र तो खुला ही, मैं भी एक्सपोज हो गई। लोग इस सत्य को जानने के बाद कि मेरे और तुम्हारे रिश्ते अंतरंग थे, मुझे कुछ दूसरी ही दृष्टि से देखने लगे। आनन्द को तो झोला उठाकर भागने का मौका मिल गया, जबकि इस सत्य को मैं विवाह पूर्व ही उन्हें बता चुकी थी। शायद इसी सत्य का उन्हें लाभ भी मिला था, अन्यथा वे कल्पना में भी मुझ जैसी स्त्री को नहीं पा सकते थे। सबसे अधिक तुम आहत हुए ।मुझ पर इल्ज़ाम लगाने लगे कि-‘तुमने मुझे बदनाम कर दिया। हमारे रिश्ते को पोस्टर बनाया। मेरी गलत छवि पेश की| सस्ती लोकप्रियता के लिए तुमने ऐसा किया।‘ मैं सोचने लगी-ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया मैंने? क्या एक स्त्री की छवि पुरुष की छवि से कमतर होती है? मेरी जिन्दगी को तबाह कर, मुझे अकेलेपन का अभिशाप देकर भी तुम आहत हो! क्या तुमने कभी यह जानने की कोशिश की कि मैं कैसे जी रही हूँ?किन हालातों से गुजर रही हूँ? तुम तो बस यह सोच रहे हो कि मैंने तुम्हें महिमामंडित क्यों नहीं किया? क्यों तुम्हारे स्वार्थ को मजबूरी का नाम नहीं दिया? क्यों तुम्हारी स्त्री-जनित कमजोरी का खुलासा किया? कितने कमजोर हो तुम, सब कुछ छिपकर करना चाहता हो। प्यार को गुनाह की तरह निभाना चाहता हो। माना आज तुम्हारी गृहस्थी है, पर जब हमारा प्रेम चल रहा था, तब भी तो तुम ऐसे ही थे, शायद इससे भी ज्यादा ।
मुझे याद है विवाह से पूर्व जब तुम मुझे अपने घर बुलाते थे, तो भयभीत रहते कि कोई जान न जाए। अपनी बहन से सारी खिड़कियाँ-दरवाजे बंद रखने को कहते, जब तक मैं वहाँ रहती। एक दिन बहन ने गर्मी के कारण एक खिड़की खोल दी, तो उसे तो डांट पड़ी ही, मैं भी चपेट में आ गई-‘बहन तो नासमझ है, पर आपको तो ध्यान रखना चाहिए।’ मैं आहत हो गई थी कि ये खिड़कियाँ तब तो बंद नहीं रखते, जब तुम्हारे गाँव से लड़कियां आती हैं। मुझमें ही ऐसा क्या है? क्या ‘चोर की दाढ़ी में तिनके’ वाली बात है या फिर कुछ और। मैं अक्सर सोचती-‘आखिर पुरुष ऐसे रिश्ते बनाता ही क्यों है, जो दुनिया से छिपाना पड़े। वह समाज में प्रतिष्ठा भी पाना चाहता है और ऐसे रिश्तों के लिए ललकता भी है। एक तीर दो निशाने। हर तरफ से घाटे में रहती है स्त्री। पत्नी है तो प्रेमिका से और प्रेमिका है तो पत्नी से भयभीत! शायद असुरक्षा की भावना ही उन्हें भयभीत करती है।‘
उस रात को मैं तुम्हारी बहन के साथ सो रही थी। डबल -बेड था। तुम्हारी बहन चादर ताने एक कोने में सिमटी हुई थी। तुम्हारे कमरे और इस कमरे के बीच एक दरवाजा था, जो दोनों तरफ से खुलता था। तुम रात के भोजन के समय से ही मुझे अपने कमरे में आने का निमंत्रण आँखों ही आँखों में दे रहा थे, पर मैं खिड़की वाली घटना से नाराज थी, इसलिए चुपचाप सोने की कोशिश में थी। हल्की झपकी लगी ही थी कि मुझे अपने पीछे किसी के होने का आभास हुआ | मैं पलटी तो तुम मुझे बाहों में बांधकर चूमने लगे | कमरे में अंधेरा था, बहन सो रही थी, पर मैं कांप रही थी कि जवान बहन आहट से जग गई, तो मेरे बारे में क्या सोचेगी? पर तुमको इस समय अपनी बहन तक की परवाह नहीं थी। तुम उत्तेजना में फुसफुसाकर जाने क्या-क्या कहे जा रहे थे! मुझ पर भी तुम्हारे स्पर्श से नशा छाने लगा था, फिर भी मैं अपने को संभाले हुए थी। प्रेम में इस तरह देह को शामिल करना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ था। फिर अभी तो यह भी निश्चित नहीं था कि तुम मुझसे प्रेम करते हो और विवाह भी करोगे। पर मैं तुम्हें रोकूं भी तो कैसे? तभी मेरे दिमाग में कुछ कौंधा। मैंने धीरे-से तुमसे कहा-‘अगर इस मिलन से बच्चा हो गया तो... ।‘ यह सुनते ही तुम्हारा जिस्म ठंडा पड़ गया। प्यार के इन क्षणों में भी तुम्हारा दिमाग सक्रिय था। तुम फँसने वाला काम नहीं कर सकते थे। तुमने धीरे-से मेरी हथेली चूमी और अपने कमरे में चले गए। तुम्हारे जाते ही जाते ही मेरी नींद उड़ गई। मैं सोचने लगी-‘तुम मुझसे प्यार नहीं करते। प्यार करने वाला देह के लिए हड़बड़ी नहीं दिखाता। तुम जिस तरह से प्यार को  गुनाह की तरह छिपा रहा हो, उससे तो यही लगता है कि मुझसे विवाह तो दूर, ज्यादा समय तक प्रेम का रिश्ता भी नहीं रखोगे।‘ एक तरफ मैं यह सब सोच रही थी, दूसरी तरफ मेरा शरीर जाग उठा था। तुम्हारे स्पर्शों ने जैसे ज्वालामुखी पर जमी राख़ उड़ा दी थी। अब मैं क्या करूं! रातभर मैं सो नहीं पाई। सुबह तक मुझे डिप्रेशन हो गया। पर तुम सँभल चुके थे । मेरी हालत देखकर तुम्हें सब कुछ समझ में आ गया। तुम जान गए थे कि जिसे मन-बहलाव समझ रहे थे, वह गले में बंधने को तैयार है। पर तुम ऐसा हरगिज नहीं कर सकते थे। मेरी तबीयत इतनी खराब हो गई थी कि मुझसे उठा भी नहीं जा रहा था। बस आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। तुम मौका देखकर मेरे पास आए और बोले-‘मैं नहीं जानता था कि तुम्हारे अंदर इतनी गहरी नैतिकता होगी। मैं तो तुम्हें बोल्ड समझा था, पर तुम तो उन्हीं लड़कियों में निकलीं, जो पति के अलावा किसी दूसरे के स्पर्श को भी पाप समझती हैं। भई, हम तो प्रेम को स्वच्छ गिलास में भरा शुद्ध पानी समझते हैं। प्यास लगी, पी लिया और आगे चल दिए। अब गिलास से बंधकर तो जिंदगी नहीं चल सकती। तुम्हीं सोचो, जब हाथ से हाथ मिला सकते हैं, तो जिस्म से जिस्म क्यों नहीं! हाथ मिलना जब पाप नहीं तो जिस्म मिलाना कैसे हुआ?’
मैं रोते-रोते बोली-‘पर मैं आपसे प्रेम करती हूँ... आपसे दूर नहीं रह सकती। बताइए मुझमें क्या कमी है... आप मुझे क्यों नहीं अपना सकते?’ तुम गंभीरता से बोले-‘देखो, तुम बहुत सुंदर हो, मैं तुम्हें पसन्द भी करता हूँ, पर सारी खूबियों के बाद भी राधा रुक्मिणी नहीं हो सकती। तुम चाहोगी तो, तुमसे आजीवन दैहिक रिश्ता रख सकता हूँ। इसमें मुझे कोई नैतिक बाधा नहीं है, पर इस तरह हालत बनाओगी तो मुश्किल होगी। अरे पगली, मेरे जैसे जाने कितने लोग तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराएँगे। क्यों मुझसे बंधना चाहती हो! तुममें सौन्दर्य है, प्रतिभा है, देखना कल तुम कहाँ होगी? मेरे ऊपर तो परिवार की जिम्मेदारियाँ हैं। मैं तो शायद विवाह भी न करूँ...तुम अपने आपको संभालो।‘
मुझ पर तो जैसे वज्रपात हुआ। मैं तो तुम्हारे साथ जीवन जीना चाहती थी, पर तुम तो.... । क्या तुम्हारा वह प्यार झूठा था? तुम तो मुझे लोगों में बाँट देना चाहते हो। मेरा डिप्रेशन और बढ़ गया। तुम्हारे बाहर जाने के बाद मैं किसी तरह उठी और रिक्शा करके अपनी एक सहेली के घर चली गई। सहेली मेरी हालत देखकर घबरा गई और मुझे एक मनोचिकित्सक के पास ले गई। मैं सिर्फ फूट-फूटकर रोती रही। मैं खुद को उस खाली सीपी की तरह महसूस कर रही थी, जिसका मोती चुरा लिया गया हो ।डॉक्टर को विस्तार से सारी बात बिना तुम्हारा नाम लिए मुझे बतानी पड़ी। डॉक्टर ने मुझे डाँटा-‘उस फ़्राड आदमी से आप अब भी उम्मीद रखती हैं!’ तुम्हारे दोस्तों ने भी कहा था कि ‘तुम एक खुदगर्ज़, जाति व क्लास-कांसेस आदमी हो, बातें चाहे कितनी भी प्रगतिशीलता की करो।‘ तुममें यह आदत थी कि तुम अपने सौन्दर्य व प्रतिभा का परीक्षण लड़कियों पर किया करते थे, इस बात से अनभिज्ञ कि यह भी एक तरह की हिंसा है। तुम जिस भी सुंदर लड़की से मिलते। उसे मुग्ध- भाव से ऊपर से नीचे तक इस तरह निहारते कि लड़की समझती कि तुम उसे पसन्द करते हो। फिर जुबान से मीठी बातें करते, लड़की और भी प्रभाव में आ जाती, दो कदम साथ चलते, लड़की प्रेम करने लगती। पर उसके प्रेम में पड़ते ही तुम पलायन कर जाते। लड़की शिकायत करती, तो तुम उसे कुंठित कह देते। अब तक शायद तुमने अपने सौन्दर्य व प्रतिभा का परीक्षण किया था। पौरुष का परीक्षण करने का साहस नहीं जुटा पाए थे। शायद जानते थे कि  इसमें तुम फँस सकते हो, पर अपने पौरुष को लेकर तुम कनफ्यूज्ड थे। तुम्हें ऐसी लड़की की प्रतीक्षा थी, जिससे तुम्हें किसी तरह का खतरा न हो! शायद मुझे (मेरे अतीत के कारण) ऐसी ही लड़की समझ बैठे थे, पर तुम भूल गए थे कि हर लड़की आखिर लड़की ही होती है। बिना प्रेम के समर्पण नहीं करती। माना कि इस तरह के विचार रखने के लिए तुम स्वतन्त्र थे, पर मुझे तो धोखे में न रखते। मुझे बता देते कि मैं तुमसे प्यार नहीं करता, बस अपने मर्द होने का प्रमाण-पत्र चाहता हूँ, तो शायद मैं सोचती।
तुमको मझसे यह शिकायत है कि मैंने तुम्हारे बारे में सब सच क्यों लिख दिया । तुम इस चोट को भूल ही नहीं पा रहै हो । तुम कहते हो कि-‘इस कहानी की काट लिखो।‘ तुम्हें सिर्फ अपनी चिंता है। मेरे अकेलेपन की पीड़ा, तुम्हारे अनुसार उस पाप की सजा है, जो कहानी लिखकर मैंने की है। अन्यथा तुम मुझे प्यार करते यानी कि चोरी-छिपे देह के रिश्ते रखते। मैं सोचती हूँ-पुरुष क्यों प्रेम भी दया की तरह स्त्री की झोली में डालना चाहता है? क्यों अपनी शर्तों के अनुसार प्यार करना चाहता है? मुझे नहीं चाहिए पुरुष का ऐसा प्यार! मेरी तनहाइयाँ, मेरा संघर्ष और मेरी कलम, बस जिन्दगी के शेष दिनों के लिए यही काफी है।
पर आज रात फिर नशे में धुत तुम्हारा फोन आया है-‘छत्तीस घाट का पानी पीकर सतवन्ती बनने चली हो। बंद करो कहानी लिखना, वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।‘ और भी गाली-गलौज!
मैं सोचने लगी-शायद यही बाकी था! शायद यही मोह -भंग है। मोह का अंत भी! क्या इसी दुष्यंत के लिए मैं रोती-तड़पती थी, हर नायक में इसी की छवि देखती थी, इसी को हर जगह ढूंढती थी, इसी को प्रभावित करने के लिए कलम उठाई थी। दूसरी स्त्री की गन्ध से भरे इस आदमी के पास मुझे देने के लिए कभी कुछ नहीं था। भाव का वह तुलसी -पत्र भी नहीं, जिससे उसका पलड़ा मेरे पलड़े की बराबरी पर आता।
तुमने मुझे गाली दी। गाली !इल्ज़ाम! चरित्र हनन! बार-बार वही सब कुछ!