मृगतृष्णा तुम्हें देर से पहचाना - 7 - अंतिम भाग Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मृगतृष्णा तुम्हें देर से पहचाना - 7 - अंतिम भाग

अध्याय सात

आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला

उम्र का सांध्यकाल निकट है।सूर्य ढलने को है पश्चिम दिशा ढलते सूरज को अपने आँचल से ढँक रही है।आकाश का रंग तेज़ी से बदल रहा है।गाएँ अपने बथानों की तरफ भाग रही हैं।पक्षी अपनी उड़ान भूलकर अपने घोसलों की तरफ उड़ रहे हैं।विश्राम का समय है।सभी अपने घरों में अपनों के पास लौट रहे हैं, पर मैं कहाँ लौटूँ?किस अपने के पास!अपनी उड़ान स्थगित करके कहाँ थिर होऊँ?न कोई अपना है न किसी का साथ!गनीमत है एक छोटा -सा घर है, जिसने मुझे अपनी गोद में विश्राम दिया है।हर दुःख में हर सुख में....मेरे इस घर ने मुझे सहारा दिया है।इसी की गोद में मुँह छुपाकर मैं रोई हूँ ।इसी के साथ हँसी -मुस्कुराई हूँ।शायद आखिरी नींद भी इसी की गोद में लूँ।कहने को तो यह ईंट- सीमेंट से बना निर्जीव चीज है पर मेरे लिए प्रियतम का आलिंगन है।इसकी गरमाई, इसकी शीतलता, रूक्षता, कोमलता सब कुछ महसूस किया है मैंने।मेरी गलतियों पर यह चीखा -चिल्लाया है, डाँटा -फटकारा है तो प्यार से समझाया भी है।इसी के सामिप्य में मुझे सुकून मिलता है।।कहीं भी जाऊँ शाम ढलते- ही इसके आलिंगन के लिए छटपटाने लगती हूँ।कहीं और रात काटे नहीं कटती।कई बार रिश्तेदार नाराज़ हो जाते हैं कि मैं उनके घर बेचैन रहती हूँ, टिकती नहीं। कारण यही कि किसी के घर मुझे अपने घर जैसा अपनापन नहीं दिखता।हर जगह दिखावा, प्रदर्शन, परायापन।सबके पास शिकायतों का भंडार होता है, जिसे सुनते -सुनते मैं उकता जाती हूँ।कोई मेरा हाल नहीं पूछता, मेरे दुःख-दर्द से किसी को कोई मतलब नहीं ।किसी को मुझसे आत्मीयता नहीं।उनकी बातें सुनकर लगता है कि वे ही दुनिया के सबसे सताए और दुःखी लोग हैं।उनके दुखड़े सुनकर लगता है कि मैं ही उनसे बेहतर स्थिति में हूँ, जबकि ऐसा नहीं है।उन पेट-भरों का रोना सुनते- सुनते मैं अपना रोना भूल जाती हूँ।
कभी -कभी तो वे वजह -बेवज़ह आपस में लड़ने लगते हैं ।उस समय बड़ा अजीब-सा लगता है।समझ में नहीं आता कि किसकी तरफ से बोलूँ!वहाँ से हट जाना ही बेहतर लगता है।
क्या वे ऐसा इसलिए करते हैं कि मेरा ध्यान बँट जाए और मैं अपनी बात न कह पाऊँ।कहीं उनसे कोई मदद न माँग बैठूँ।कहीं उन्हें मेरा वह रोना न सुनना पड़ जाए, जिसमें उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं और जिसे वे मेरे ही कर्मों का फल मानते हैं।वे मेरे प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं महसूस करते, पर मेरे लिए उनके पास ढेर -सारी नसीहतें होती हैं, व्यवहारिक सुझाव होते हैं और बात -बात पर उन गलतियों की ओर इशारे होते हैं, जो उनके हिसाब से जानबूझकर मैंने की है।अपनों की भीड़ में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो मुझे उसी रूप में समझ सके जैसी वास्तव में मैं हूँ।
मेरी जननी भी आंशिक रूप में ही मुझे जान-समझ पाई थी, जिसके कारण बचपन से प्रौढ़ उम्र तक मैं लगातार व्यथित रही।मैं वह वृक्ष थी, जिसकी जड़ें धरती में थीं तो जरूर पर वहाँ की धरती बंजर थी, सूखी थी, वहाँ स्नेह-रस नहीं था, फिर भी मैं वहीं से पोषक- तत्व लेकर जीती रही।
बहुत बाद में मैंने सोचा कि मां नौ बच्चों में से हर एक को कैसे समझ सकती थी?उसके लिए बच्चों को किसी तरह पाल देना ही बड़ी बात थी।पति का सहयोग था नहीं, आर्थिक संसाधनों का भी अभाव था।ऐसे में उसके लिए किसी तरह बच्चों का पेट भरकर सरकारी स्कूलों में उन्हें भेज देना ही बहुत था ।बच्चों के मानसिक विकास के बारे में न तो उसे जानकारी थी और न ही उसकी चिंता।यही कारण था कि हम सब बच्चे अपनी स्थिति -परिस्थिति व माहौल के अनुरूप स्वयं अपना व्यक्तित्व गढ़ते रहे।लड़कियों में माँ की विशेषताएं ज्यादा आईं लड़कों में पिता के।मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि हम बच्चों के मानसिक विकास में कुछ कमियाँ रह गयीं।माता- पिता से विरासत में क्रोध, जिद, अभिमान, आत्मश्लाघा जैसे अवगुण भी मिले थे ।एक -दो लोग ही उच्च -शिक्षा हासिल कर उसका कुछ हद तक परिमार्जन कर पाए, पर सबके भीतर उसके जिंस मौजूद रहे।विरासत में सुंदरता, दया, ईमानदारी, परोपकार, उद्यमशीलता भी मिली, जिससे सभी अपने जीवन में काफी आगे बढ़ गए।
गुण-दोषों की समानता के बावजूद सबका अलग व्यक्तित्व बना।कोई एक -दूसरे जैसा नहीं था।
घर में शिक्षा की अलख मैंने ही जलाई, जिसके आलोक में भाई-बहन कुछ दूर चले, पर फिर वे अलग दिशा में मुड़ गए।मैं अकेली ही आगे बढ़ती गयी ।मैं उच्चतर शिक्षा हासिल कर शिक्षिका बन गयी।नाम, यश खूब कमाया पर पैसा न कमा सकी।यही कारण था कि भाई -बहनों से मेरी उस तरह नहीं बन पाई जैसी उनमें आपस में बनती थी।सभी घोर पारम्परिक, पूजा -पाठ करने वाले, अर्थ -केंद्रित थे और मैं आधुनिक और प्रगतिशील विचारधारा वाली शिक्षिका और लेखिका।हमारा मानसिक स्तर, सोच बिल्कुल अलग ।उनके जीवन में अमीरी का दिखावा, प्रदर्शन, बनावटीपन ज्यादा था।वे पैसे को ही सब कुछ समझते थे, जबकि मैं भावना और विचार को, फिर भी मुझे उनसे बहुत लगाव था।मैं उनसे छछाकर मिलने जाती पर मेरे "नेह से चिकने चित्त पर वे रज-राजस" मल देते।मैं आहत होकर लौट आती।महीनों दुःखी रहती।अपनी कमियाँ ढूँढती रहती।एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे समझाया कि आप उन्हें भाई -बहन समझकर मिलने जाती हैं पर वे आपको सिर्फ रिश्तेदार समझते हैं और रिश्तों का आधार अब सिर्फ लेन- देन, पैसा हो गया है।इस मापदंड पर खरी न उतरने से ही आपके साथ दुर्व्यवहार होता है।आपकी और उनकी दुनिया बिल्कुल अलग है।
भाई-बहनों में वह आत्मीयता का सूत्र नहीं था ।किसी का बुरा न चाहते हुए भी दूसरों की उन्नति से ईर्ष्या थी।कोई किसी को समझने के लिए तैयार नहीं था ।सबको एक-दूसरे से शिकायत थी ।मैं भी तो आखिर उन्हीं में से एक थी, पर मैं उनसे भिन्न इस मायने में थी कि मैं उनको उसी रूप में समझती थी, जबकि वे इतनी मशक्कत की जरूरत नहीं समझते थे ।वे एक-दूसरे से शिकायत रखते हुए भी आपस में मेल-जोल बनाए रखते थे, पर मैं सबसे अलग-थलग पड़ जाती थी ।कारण भी था कि मैं नौकरीपेशा थी अन्य बहनें सिर्फ गृहस्थिन ।सभी तीज-त्योहार, शादी-ब्याह में जुट जाते थे और मैं छुट्टी न मिल पाने के कारण कम ही जुड़ पाती थी ।अपनी उच्च- शिक्षा, नौकरी, विचारशीलता के कारण मैं उनकी हद तक न उठ पाती थी न गिर पाती थी ।दिखावा, प्रदर्शन मेरे वश का नहीं था ।मन में कपट, नफरत, शिकायत रखते हुए मैं किसी के गले नहीं लग सकती थी, फिर भी मैं उनके बीच हमेशा सामान्य बनी रही जबकि वे मौके पर चौका मारने से कभी चुकते नहीं थे ।
जिंदगी अजीब -सी कशमकश में गुजर रही है।कोविड 19 का प्रकोप अभी खतम नहीँ हुआ, ऊपर से कड़ाके की ठंड।घर से बाहर निकलना मुश्किल है। नौकरी से मुक्त होने का अवसाद मेरे रात -दिन पर हावी है।कोविड ने घर में अकेले रहना सीखा तो दिया, पर अकेले में खुश रहना नहीं सिखाया।नौकरी थी तो खुश होने के अवसर मिल जाते थे।आत्मनिर्भरता अपने आप में ही बड़ी खुशी है....।
मेरे भाई- बहन बुला रहे हैं कि दो -चार दिन घूम जाओ, मन बहल जाएगा पर मौसम का बहाना बनाकर अभी तक नहीं गयी हूँ।मुझे याद है कि उन लोगों ने एक -दूसरे के बहाने  मुझ तक यह संदेश पहुँचा दिया था कि कहीं रिटायर होने के बाद उनके घर आकर न रहने लगूँ।मैंने कभी नहीं चाहा है कि किसी पर बोझ बनूँ।वैसे भी किसी के घर ज्यादा दिन मुझे अच्छा नहीं लगता।हर घर की अपनी दिनचर्या होती है...अपने तौर -तरीके होते हैं।उसके साथ एडजस्ट करना आसान नहीं होता।उससे भी ज्यादा कठिन तब होता है जब लोग आपकी ज़िंदगी की समीक्षा करने लगते हैं।यह समझाने लगते हैं कि आपने अतीत में जो-जो किया, वह ठीक नहीं था।हर व्यक्ति का अपना एक अतीत होता है।अतीत, जो अब ठीक नहीं किया जा सकता। अतीत, जो एक ऐसा समय- विशेष होता है जो उसी समय के उपयुक्त था।जिसमें स्थितियाँ- परिस्थितियां अलग थीं, जिसमें अपने हिसाब से सभी ने ठीक ही करने की कोशिश की होगी।उस अतीत की तुलना वर्तमान से नहीं की जा सकती और न भविष्य ही उसके जैसा हो सकता है। इसलिए मुझे किसी के अतीत की बातें विशेषकर उस समय की गईं भूलों की चर्चा करना अच्छा नहीं लगता।पर अधिकतर लोगों को गड़े मुर्दे उखाड़ने का शौक होता है।मेरे हिसाब से अतीत से सबक लिया जा सकता है पर उसे ढोना कतई उचित नहीं है।
पर सबकी सोच तो ऐसी नहीं होती।किसी का वर्तमान सुगन्धित है तो लोग उसके अतीत के मुर्दे की चीर -फाड़ करके उससे उठने वाली दुर्गंध का मज़ा लेते हैं ।
घरेलू स्त्रियों में यह बात प्रमुखता में देखती हूँ।कामकाजी स्त्रियाँ भी इसकी अपवाद नहीं ।कोई भी स्त्री अगर उनसे अलग तरह का जीवन जी रही है तो वह सही नहीं है।उसे गलत सिद्ध करने की जैसे होड़ लग जाती है।उसके बारे में नई- नई जानकारियाँ हासिल करने की कोशिश की जाती है।कुछ गलत- सही किस्से गढ़े जाते हैं, फिर उसकी चर्चा करके आनंद लिया जाता है।कभी- कभी तो एक साथ मिल-जुल कर पर- चर्चा में रस लेने वाली स्त्रियाँ आपस में ही एक- दूसरे से भिड़ जाती हैं और फिर ऐसे -ऐसे कारनामों के जिक्र उजागर होते हैं कि तौबा! 
स्कूल आते -जाते कॉलोनियों में अपने घरों के सामने बैठी ऐसी स्त्रियों की मंडली अक्सर दिख जाती थी, जो सिलाई -बुनाई करती किसी रस -चर्चा में लीन होती थी।शायद मनोरंजन का यही साधन उन्हें उपलब्ध है।तब अध्यापिकाएं टिप्पड़ी करतीं कि इन्हें कोई काम नहीं।न घर ठीक से रखती हैं न बच्चों को, बस बैठकर किसी न किसी की बुराई करती रहती हैं।
क्या अब समय बिताने के लिए मुझे भी ऐसी ही मंडलियों में बैठना होगा?उनकी बातें सुननी होगी?
डर भी लगता है कि तमाम बातें सुनते -सुनते कोई ऐसी बात न कह जाऊँ, जिसे मेरे मत्थे मढ़कर वे महाभारत की भूमिका तैयार कर लें।अभी तक पड़ोसिनों से दूर से ही दुआ-सलाम रखती रही हूँ।ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं ।शादी- ब्याह या पार्टी आदि में शामिल हो जाती हूँ । हाँ, उनके यहां पूजा -पाठ, प्रवचन आदि में नहीं जाती।एक तो पूजा की पद्धति लम्बी, ऊबाऊ और आडम्बर पूर्ण लगती है, दूसरे पूजा में पीछे बैठकर स्त्रियों का दूसरी बातें करना अच्छा नहीं लगता।पहले तो नौकरी का बहाना था, अब तो शामिल होना ही पड़ेगा।वैसे भी मैं अधार्मिक ही मानी जाती हूँ।पूजा -पाठ, व्रत -उपवास कम ही करती हूँ।जाड़े में सुबह -सुबह नहा -धोकर बिना कोई गर्म कपड़ा पहने हाथ में पूजा की थाल लिए आस- पास के मंदिरों में पूजा करने जाती स्त्रियों को देखकर मैं काँप जाती हूँ।किसके लिए स्वयं को इतना कष्ट देती हैं ये?अपने लिए तो कदापि नहीं।क्या अपने उन्हीं पति -बच्चों के लिए, जो आराम से गर्म कमरे में लिहाफ़ ओढ़े सो रहे हैं।गर्भावस्था में, बीमारी में.. सौर में भी पति और बेटे के लिए तीज -करवा चौथ, जिऊतियाँ, छठ जैसे कठिन व्रत- उपवास, पूजा-अर्चना करती स्त्रियाँ मुझे मानवी कम पत्थर की देवी ज्यादा लगती है। मानवी स्वेच्छा से इतना कष्ट कैसे झेल सकती है?पति की तानाशाही, मार -पीट, गाली -गलौज, बेवफाई सहकर भी उसके लिए समर्पित स्त्रियां मेरे लिए आश्चर्य का विषय है। वैसे आश्चर्य का विषय वे स्त्रियाँ भी हैं, जो दूसरे पुरूषों से रिश्ता रखते हुए भी पति के नाम का सिंदूर व मंगलसूत्र पहने हुए सुहाग वाले सारे व्रत करती हुई दिख जाती हैं ।
एक बात जरूर अच्छी लगती है कि पूजा- पाठ करने वाली, रीति- रिवाज और परम्परा निभाती ये स्त्रियाँ संतुष्ट, खुश और तनाव रहित रहती हैं।खुद को परम्परा या धर्म के हवाले कर वे निश्चिंत हो जाती हैं।लड़- झगड़ कर, शिकवे- शिकायत कर अपनी भड़ास निकाल लेती हैं।ज्यादा सोचती -विचारती नहीं।ज्यादातर न अखबार पढ़ती हैं न किताबें ।न देश से मतलब है न दुनिया से ।ये सोई हुई स्त्रियाँ हैं।इनकी दुनिया अपने परिवार तक सीमित है।इन्हें जगाने की कोशिश अपनी शामत बुलाना है।
पर स्त्रियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो ज्यादा पढ़ा- लिखा, विचारशील, जागरूक और संवेदनशील है और शायद इसीलिए तनावग्रस्त भी।मैं भी इसी श्रेणी में हूँ इसीलिए चिंतित हूँ कि रिटायर हो जाने के बाद समय कैसे व्यतीत करूँ?
अब तक के जीवन में इतना तो समझ गयी हूँ कि कोई मुझे प्यार नहीं करता और मैं हूँ कि सबसे प्यार कर बैठती हूँ।पूरे जीवन मैं प्यार में रही और आज भी अगर ये कहती हूँ कि प्यार में नहीं हूँ तो खुद को ही छलने का प्रयास करती हूँ।शायद मेरा स्वभाव ही यही है और यही कारण है कि कोई भी मुझे आसानी से ठग लेता है।ठगे जाने से दुःखी होती हूँ फिर भी खुद को बदल नहीं पाती।यहाँ मैं सिर्फ स्त्री पुरुष वाले प्यार की बात नहीं कर रही, हर तरह के प्यार की बात कर रही हूँ।अपनी माँ, भाई-बहनों, विद्यार्थियों, मित्रों सबसे मेरा जितना गहरा प्यार रहा, उतना उनका नहीं रहा।सभी ने बस मेरा इस्तेमाल किया ।कोई मेरे बुरे वक्त में मेरे साथ नहीं खड़ा हुआ।कोई मेरे अकेलेपन को नहीं भर सका।कोई ऐसा नहीं रहा, जिस पर मैं अधिकार जता सकूं या आंख मूंदकर विश्वास कर सकूं।किसी से मुझे यह इतमीनान नहीँ मिला कि वह मेरे साथ है और जब भी मुझे उसकी जरूरत होगी, वह साथ खड़ा होगा।अक्सर यही हुआ कि जब मुझे किसी की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ी, वह मेरे साथ नहीं खड़ा हुआ।
सभी मुझसे चालाकी करते रहे ।मुझे मूर्ख बनाते रहे ।मेरा इस्तेमाल करते रहे और मैं होती रही क्योंकि उनसे प्यार करती थी पर ज्यों ही मुझे ठगे जाने का आभास हुआ मैं उनसे दूर छिटक गयी, फिर भी उन्हें प्यार करना नहीं छोड़ा।कभी उनका बुरा नहीं चाहा।उनसे कोई शिकायत नहीं की।शायद मेरे भीतर की स्त्री जरूरत से ज्यादा भली और भोली है वह इस दुनिया के लायक है ही नहीं ।
ज्यों -ज्यों जीवन की सांध्य बेला निकट आ रही है मैं और भी अकेली होती जा रही हूँ।मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकती कि इसकी वज़ह मैं ही हूँ।मैंने ही एक- एक कर सबको खुद से दूर किया है।पर तब, जब मुझे एहसास हो गया कि कोई मुझे प्यार नहीं करता बस किसी न किसी लोभ- वश मुझसे जुड़ा दिखाने की कोशिश कर रहा है। ऐसे लोगों को मैं कब तक ढोती रहती?और वे लोग भी कैसे रूकते, जब उनका स्वार्थ ही पूरा नहीं होता?प्रेम- रहित रिश्ता मैं नहीं निभा सकती तो स्वार्थ -रहित रिश्ता वे  कैसे निभा सकते थे!
प्रेमचंद की 'बूढ़ी काकी' कहानी मुझे बहुत पसन्द है।मैंने उसका नाट्य रूपांतर किया था और स्कूल में उसका मंचन भी कराया था।बूढ़ी काकी का अभिनय भी खुद ही किया था।नाटक देखकर सभी रो पड़े।बूढ़ी काकी की भाव-भंगिमा में मैंने अपनी माँ की भंगिमा को ही ढाल दिया था।उसी तरह चलना, बोलना, रोना, दुःखी होना सब।उस रोल में मैं बिल्कुल अपनी माँ -सी ही दिखी थी।बचपन से ही माँ को अपने भीतर ढालती आई थी, इसलिए मेरा अभिनय भी उतना ही जीवंत था, जिसे सभी ने सराहा।
पर किसे पता था कि रिटायर होते ही मैं सच ही बूढ़ी काकी की परिस्थिति और भूमिका में आ जाऊँगी।नाटक में कुछ परिवर्तन भी है, पाठक विचार करिए।
बूढ़ी काकी से उसके एक रिश्तेदार ने कहा कि आप अपने इस दरबे जैसे घर में बीमार हो जाएंगी।मेरे घर चलकर रहिए।वहाँ पारिवारिक माहौल मिलेगा।काकी को पता है कि रिश्तेदार की पत्नी ये बिल्कुल नहीं चाहती।वह उसकी सेवा नहीं करेगी, अपनी सेवा भले करवा लेगी। नौकरी में रहते काकी ने उसकी पहचान कर ली है।
रिश्तेदार किराए के घर में रहता है।काकी ने कई बार अपने इस घर में आकर रहने को कहा, पर वह तैयार नहीं हुआ कि यह घर छोटा है उसकी बीबी को पसंद नहीं।सही बात यह है कि उन्हें लगता है कि काकी के रहने से उनकी आज़ादी में ख़लल पड़ेगा, जबकि ऐसी कोई बात नहीं ।एक बार उसने यह भी कहा था कि आपके घर रहेंगे तो अपना खर्च आप देंगी न।काकी उसी समय हतप्रभ रह गयी थी।उसे पता चल गया था कि रिश्तेदार और उसकी पत्नी को काकी के लिए  खाना पकाना ही भारी नहीं होगा, खाना खर्चा करना भी भारी होगा।
और अब तो वह घड़ी भी आ गयी है जब काकी को उसकी जरूरत पड़ सकती है।अब उसकी चिंता है कि काकी जाने कब तक जीयेगी?कब तक इसे खिलाना पड़ेगा ?और बदले में बस काकी का यह छोटा- सा घर ही हाथ आएगा।वह भी उसके मरने के बाद!पर वह किसी और को घर न दे दें, इसलिए आना- जाना रखना पड़ेगा।कभी -कभार कुछ राशन दे देना भी ठीक रहेगा, ताकि दबाव बना रहे।
काकी को उसकी मंशा समझ में आ रही है क्योंकि यह काकी अभी बूढ़ी नहीं हुई है और न इतनी बेवकूफ है कि जीते- जी सब-कुछ उसके नाम कर खुद सड़क पर आ जाए।
दोनों तरफ से दांव खेला जा रहा है ।काकी दुनिया देखकर चुप है और रिश्तेदार उसको इमोशनल करके सब कुछ अभी हासिल कर लेना चाहता है।
आज उसने कहा है कि एक बड़ा घर आपके नाम से खरीदते हैं जिसमें दोनों पैसा लगाएं और सभी साथ रहें।यानी प्रकारांतर से वह चाहता है कि काकी अपना घर बेचकर सारा पैसा उसे दे दे, फिर वह कुछ पैसा और लगाकर नया घर खरीद सके, पर काकी उसके बाद का दृश्य देख रही है।क्योंकि प्रेमचंद की बूढ़ी काकी उसके भीतर सांसें ले रही है।
कितनी अजीब बात है कि कोई अकेलेपन से परेशान है तो कोई अकेले होने के लिए।अकेला व्यक्ति सोचता है कि कोई साथ होता तो जिंदगी कितनी ख़ूबसूरत होती।पर जो परिवार के साथ है वह सोचता है कि मेरे लिए कोई अकेला कोना ही नहीं, हर जगह लोग घुसे पड़े हैं ।वह अपने होने को महसूस करना चाहता है, पर एकांत के लिए उसके पास न समय है न जगह।
स्त्री के सम्बंध में मैं ये बातें विशेष रूप से कह रही हूँ क्योंकि स्त्री होने के नाते स्त्रियों के मन तक पहुंचना मेरे लिए ज्यादा आसान है।
मेरी बहनें बहुत टैलेंटेड हैं ।सभी किसी न किसी क्षेत्र में माहिर हो सकती थीं पर सभी की 9 वीं में शादी कर दी गईं और दसवीं पास करते ही वे माताएं बन गई।उसके बाद घर- गृहस्थी में ऐसी उलझीं कि उनका सारा टैलेंट धरा का धरा रह गया।जो गलती हमारे माँ -बाप ने की यानी कम उम्र में लड़की की शादी, कमोवेश वही गलती परिवार के दबाव में उन्होंने भी की।यही कारण है कि अब जब वे यौवन के शीर्ष पर पहुँची हैं दादी -नानी बन चुकी हैं ।मैं जब भी उनकी भरी -पूरी गृहस्थी, ऊपरी चमक -दमक और संपन्नता के आवरण को भेदकर उन तक पहुंचती हूँ उनको उदास और अकेला ही पाती हूँ।जैसे वो अपनी शख्शियत की तलाश में हों।वे भीतर से खुश नहीं हैं।उन्हें लगता है उन्होंने खुद को खो दिया है।वे जो करना चाहती हैं, नहीं कर पाती हैं।जो बनना चाहती थीं, नहीं बन पाई।उनके साथ बहुत अन्याय हुआ। पति और और बच्चे भी उनको कहाँ समझ पाते हैं!सबको उनके काम से मतलब है।सुबह से रात तक चकरघिन्नी -सी नाचती रहती हैं, फिर भी उन्हें शिकायतें ही रहती हैं ।
यह सिर्फ मेरी बहनों की बात नहीं है, मेरी बहुत सारी दोस्तों, रिश्तेदारों की व्यथा भी यही है कि वे अलग से कुछ नहीं हैं उनकी पहचान उनके परिवार से ही है।वे मुझे ख़ुशक़िस्मत समझती हैं कि लड़ -झगड़कर, संघर्ष करके अकेली होने के शर्त पर भी मेरी एक शख्सियत है, अलग पहचान है।आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता है।अब मैं कैसे बताऊँ कि अकेले जीवन जीना न तो आसान है, न सहनीय।कभी- कभी दम घुटने लगता है।हारी- बीमारी में चाह होती है कि कोई मेरे माथे पर अपना स्नेह -भरा हाथ रख दे, कोई हमारी भी चिंता करे।पर ऐसा नहीं होता।
तो भी क्या मुझे संतोष है कि मैंने जिंदगी को अपनी शर्तों पर और भरपूर जीया है।जिंदगी के सांध्य पहर का स्वागत है।मैं इसे भी पूरे उल्लास, उत्साह और जिंदगी के साथ जीने को सज्ज हूँ।