मृगतृष्णा तुम्हें देर से पहचाना - 1 Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मृगतृष्णा तुम्हें देर से पहचाना - 1

(अपनों को लिखे गए वे पत्र जो भेजे नहीं गए)

अध्याय एक

बाबू जी

मैं जब भी आपके बारे में सोचती हूँ तो महात्मा गाँधी की शक्ल सामने आ जाती है। बुढ़ापे में आप लगभग उन्हीं की तरह लगते थे। खल्वाट सिर, लम्बी नासिका, छोटी आँखें, पतले होंठ और लम्बा दुबला-पतला शरीर। आप बड़े गुस्से वाले थे, बहुत कम हँसते-मुस्कुराते थे।आपकी विचारधारा पुरानी थी। आप लड़कियों को पढ़ाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे। हमेशा यही कहते-'लोटा -थाली देकर लड़की का पाँव पूज देंगे।
उन दिनों गाँव में गरीब लड़कियों का विवाह लोटे- थाली दान मात्र से हो जाता था, पर माँ के समझाने पर आपने मुझे हाईस्कूल तक पढ़ने की इजाजत दे दी, पर जब मैंने आगे पढ़ना चाहा, तो नाराज हो गए। आपके अनुसार ज्यादा पढ़ने पर लड़कियाँ बिगड़ जाती है। आपके गुस्से की सबसे ज्यादा शिकार मैं ही हुई। मेरे पैदा होने पर आप मुझे देखने अस्पताल इसलिए नहीं आए कि मैं लड़की थी। बड़े होने पर जब गाँव-मोहल्ले से मेरी शरारतों की शिकायत आती, तो आप छड़ी उठा लेते थे। मेरी लड़कों जैसी हरकतों से आपको चिढ़ थी | मैं या तो पेड़ों पर होती या फिर गोटी-कबड्डी के खेल में। घर में रहती तो हर वक्त किताबों में डूबी रहती। आपको आम लड़कियों से अलग मेरी आदतें बिल्कुल नहीं भाती थी। आपके हाथ जो भी आता, उसी को चलाकर मुझे मारते। माँ से आपको मोह की हद तक प्रेम था। उसके आगे बच्चों की कोई पूछ नहीं थी। माँ जो कह दे, वही सही था। माँ के कहने पर आप मुझे डाँटते-मारते और कलूठी कहकर जलील करते। अक्सर कहते कि तुम मेरी बेटी नहीं हो अस्पताल में बदल दी गई हो। हालांकि आपकी लम्बाई व नाक-नक्श मैंने ही पाया था। बस अंतर था तो यह कि आप अंग्रेज की तरह गोरे थे और मैं गेहुंए रंग की ।
आप सीधे-सादे, सच्चे, पर अव्यवहारिक व्यक्ति थे, इसलिए माँ पर ही सारी गृहस्थी और घर-बाहर की जिम्मेदारियाँ थीं। यहाँ तक कि आप बीमार होने पर स्वयं अस्पताल नहीं जाते थे, माँ ही ज़बरन आपको रिक्शे पर ले जाती थी। सुई देखते ही आप बच्चों की तरह चिल्लाने लगते | आप बस कमाना जानते थे और कमाकर माँ को खर्चा दे देते थे, वह भी जरूरत भर का। माँ बताती है कि जब आपका होटल खूब चल रहा था। आप अण्डरवियर के नाड़े में गल्ले की चाभी बाँधकर घूमते थे| पर माँ भी कम न थी, जब आप बाजार चले जाते तो नौकर जो भी बेचते, सारा पैसा खुद ले लेती। बंद गल्ले से भी पतली तीली के सहारे रूपए निकाल लेती। इन रूपयों का उपयोग वह बच्चों की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए करती। आप खाने-खर्चे के अलावा कुछ देना नहीं चाहते थे। तीज-त्योहार पर कपड़े की थान खरीदकर सारे बच्चों के लिए एक-सा कपड़ा सिलवा देते। बच्चों की स्कूल की फीस तक आपको खलती थी। गनीमत था कि हम बच्चों की महत्वाकांक्षाएँ आजकल के बच्चों की तरह नहीं थीं।हम मँहगे कपड़ों, खिलौनों और फास्ट फुड की तरफ नहीं भागते थे। हमारी जरूरतें सीमित थी या फिर हम अपनी सीमा समझते थे। मुझे याद है कि बचपन में मुझे कपड़े से बनी गुड़िया, गोटियाँ, गोलियाँ ही खेलने को मिली। सभी भाई-बहन मिलकर इकट्ट -दुकट्ट, आइस-पाइस, चोर-सिपाही जैसे खेल खेलते थे। लड़के-लड़कियों के खेल में ज्यादा अंतर नहीं होता था। लड़के भी गोटियाँ खेलते और लड़कियाँ भी कबड्डी, खो-खो और गोलियाँ। मैं तो ज्यादातर लड़कों के साथ ही रहती और खेलती थी, जिसके कारण मुझे अक्सर आपसे डाँट और मार मिलती। पेड़ों पर चढ़ना और कच्चे-पक्के फल तोड़ना मेरा शगल था। देह से दुबली- पतली, कमजोर होने के कारण खेल में मैं कभी-कभी हार जाती| बच्चे चिढ़ाते तो मैं उन्हें लड़कों की तरह ही गालियाँ देती। वे मारते तो दाँत काटकर भाग जाती। लड़कियों की तरह घर-गृहस्थी के कामों, यहाँ तक कि सजने-सँवरने का भी मुझे शौक ना था। हाँ, पढ़़ाई में मैं हमेशा अव्वल रहती थी।
आपका व्यवहार मेरे साथ सौतेला-सा था, इसलिए मैं माँ के दुरदुराने के बाद भी उसी से ज्यादा जुड़ी थी। मुझे अच्छा नहीं लगता था कि आप माँ को मादा समझे। माँ बच्चे पैदा करने की मशीन बने, यह मैं नहीं चाहती थी, पर मेरा वश नहीं चलता था | एक तो मैं छोटी थी, दूसरे लड़की। आपको मेरा पढ़ना-लिखना भी पसंद नहीं था। उन दिनों घर में बिजली नहीं थी।रात के आठ बजे के बाद ढ़िबरी या लालटेन जलाकर मुझे पढ़ते देख आप गुस्से से भर जाते। आपका दाँत पीसकर गुस्से से चिल्लाना मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ। आज जब भाई गुस्से में दाँत पीसता है तो आप जीवंत हो उठते हैं । आठ बजते ही आप खाना खाकर सोने के लिए घर के एकमात्र कमरे में चले जाते ।कमरे में आपको माँ मिलनी ही मिलनी चाहिए। एक कमरे और बारांडे वाले घर में लड़के गर्मियों में छत पर सोते, लड़कियाँ बरांडे में। बरांडे में रोशनी रहने पर आपकी निद्रा बाधित होती, इसलिए आप मुझसे और भी नाराज होते। मजबूर होकर मैं प्रातः चार बजे उठकर छत की सीढ़ियों पर बैठकर पढ़ती।
आज मैं अपने विद्यार्थियों के समझाती हूँ कि आप लोगों को कितनी सुविधाएँ, संसाधन प्राप्त हैं। माता-पिता सबका कितना सहयोग है। फिर भी आप लोगों का मन पढ़ाई में नहीं है। सोचिए हमारी पीढ़ी ने पढ़ने के लिए कितनी मुश्किलें झेली हैं। जब मैं उन्हें अपनी कहानी बताती है तो बच्चे आश्चर्यचकित रह जाते हैं और मेरा और ज्यादा सम्मान करने लगते हैं।
मैं आपसे ज्यादा नहीं जुड़ पाई। आपका गम्भीर स्वभाव मेरे हँसमुख स्वभाव से बिल्कुल अलग था| पर जब आप भीषण रूप से बीमार पड़े, तब मैं आपके काफी करीब हो गई । मैं आपकी मन लगाकर सेवा करती | उन दिनों आप एक शिशु की तरह हो गए थे | मुझसे रसोईघर से खाने-पीने की चीजें चुराकर लाने को कहते और मैं ले आती | आपको खाने-पीने में परहेज करना था, पर आप शुरू से ही अच्छा खाने के शौकीन थे| मुझे याद आता है कि सामान्य आर्थिक स्थिति के बावजूद आप बाजार से खाने-पीने की महंगी चीजें लाते | माँ झल्लाती तो हँसकर टाल देते | मैं आपको हँसता देख एकटक देखती रह जाती | उस वक्त आप बहुत -ही मासूम लगते थे | आप बहुत अच्छी मिठाइयाँ बनाते थे | आपके हाथ के बनाए खोएँ के लड्डू मशहूर थे | दुकान पर मिठाइयाँ बनते ही बिक जाती थीं | आप भी मीठे के बड़े शौकीन थे | उसी शौक ने एक दिन आपको बिस्तर पर ला पटका था | 
जब शुगर लास्ट स्टेज पर था, तब आपकी बीमारी का पता चला। उस समय शुगर का इलाज इतना सुलभ नहीं था | उसके इलाज के लिए बड़े शहर जाना पड़ता था। आर्थिक स्थिति डांवडोल थी। नौ बच्चों वाले परिवार का खर्चा चाय-मिठाई की छोटी- सी दुकान से चल रहा था ।आप जब बिस्तर से जा लगे तो छोटे भाई ने दुकान सँभाला। हम सब मिल-जुलकर उसका सहयोग करने लगे। आर्थिक अभाव के कारण आपका बेहतर इलाज नहीं हो पाया ।आपकी हालत बिगड़ती ही गई। आपको बेडसोर हो गया था ।आपकी पीठ से भयंकर बदबू आती। कोई भी भाई-बहन आपके पास नहीं फटकता था, पर मैं कॉलेज से लौटकर आपके पास बैठती। आप मुझे अपने बचपन की बातें बतातें। कहानियाँ सुनाते। सबसे अच्छी तो मुझे आपकी ही कहानी लगती।
ग्रामीण परिवेश का एक बालक मात्र दस वर्ष की उम्र में ब्याह हो जाने व अपने से बड़ी पत्नी की माँगों से परेशान होकर दक्षिण भारत की तरफ भाग जाता है। वहाँ एक होटल में नौकरी करता है और खूब तोहफे लेकर अपने घर वापस आता है, पर वहाँ सब कुछ बदल चुका है। पत्नी ने दूसरा 'घर' कर लिया है। उदास होकर लड़का वापस नौकरी पर चला जाता है। कई वर्षों बाद उसका दूसरा विवाह होता है और वह नये जीवन में प्रवेश करता हैं। पर जब दूसरी पत्नी दक्षिण नहीं रहना चाहती तो वह पत्नी के ही कस्बे में दुकान खोलकर वहीं बस जाता है। अब उसके लिए पत्नी व बच्चे ही पूरी दुनिया हैं।
मीठा बनाने व खाने के कारण आप शुगर की चपेट में आ गए, पर गम्भीर स्वभाव के कारण माँ तक को अपनी तकलीफ न बता सके। वो तो माँ ने एक दिन आपकी पेशाब की जगह पर चींटियों को जमा देखकर डॉक्टर को दिखाया और इलाज शुरू करवाया, पर सब कुछ यानी छोटा-सा मकान व किराए की दुकान बेचकर आपका इलाज कैसे करवाती? बच्चे छोटे थे और आय का अन्य कोई साधन नहीं था।
मकर संक्रान्ति की सुबह आपका देहांत हो गया। जब लोग आपको चादर में लपेट कर सीढ़ियों से नीचे ला रहे थे, तो मैंने देखा कि आप एक गठरी की तरह लग रहे हैं । दुबले-पतले, खूब लम्बे और दबंग से आप, जिनको देखते ही हम बच्चों की हवा निकलती थी, उस समय एक निर्जीव गठरी की तरह लग रहे थे। मैं उस  दृश्य को कभी नहीं भूल पाई। सभी रो रहे थे और आपकी सच्चाई, ईमानदारी, सीधेपन की चर्चा कर रहे थे, पर मेरी आँखों के आंसू सूख गए थे | मैं आपको बचाना चाहती थी, पर बचा नहीं पाई थी | यह तकलीफ़ मुझे जला रही थी | मैं छात्रा थी, मेरे पास पैसे नहीं थे | अभावों और गरीबी ने आपकी जान ले ली थी बाबूजी | पचासवें में भी कोई मरता है क्या ?
वैसे भी आप मरे कहाँ ? आप मेरे भीतर आज भी जिन्दा हैं। आपका गुस्सैल स्वभाव मुझे ही ज्यादा मिला है। बाबू जी, बेटी होने के नाते मुझे आपने कभी पसंद नहीं किया था पर मरने के बाद आप मेरे पास से कहीं गए ही नहीं| आज भी जब मैं आपको याद करती हूँ। मेरे सामने कुर्ते -पाजामे में एक दुबला-पतला शख्स आ खड़ा होता है और मैं बिलख उठती हूँ-काश, उस वक्त मेरे पास पैसा होता बाबू जी!काश, आप कुछ दिन और जिंदा रहते बाबूजी | काश, आपने एक बार भी मुझे सीने से लगाकर बेटी कहा होता बाबूजी, तो मेरी जिंदगी यूं अधूरी नहीं होती | जानते हो बाबूजी एक बेटी की जिंदगी का पहला पुरूष पिता ही होता है फिर वह अन्य पुरूषों में उसी पिता को ढूंढती है और न पाकर दुखी होती है | आप तब इस बात को नहीं जानते थे अब तो जान गए होंगे बाबूजी | 

ओ माँ

मुझे अकेले डर लगता है माँ ...बच्ची से प्रौढ़ होने को आई पर यह डर कभी खत्म नहीं हुआ | शायद तुम्हारे गर्भ में भी मैं अकेली ही थी क्योंकि तुम तो कल्पना में किसी बेटे को पाल रही थी और जब मैंने जन्म लिया तो मुझे देखते ही तुमने मुंह फेर लिया | मैं जानती हूँ माँ... समझती हूँ कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं था | तुम जिस व्यवस्था में पली-बढ़ी थी, वहाँ बेटी को जन्म देना अभिशाप था और दूसरी बेटी को जन्म देना तो महा -अभिशाप | तुम तो पढ़े-लिखे समाज से भी नहीं थी पर आज के पढ़े-लिखे लोग भी तो दूसरी बेटी नहीं चाहते | किसी तरह लिंग का पता कर उसे गर्भ में ही मार डालते हैं| दूसरी बेटी होने की खबर से पिता और नानी दोनों ही इत्ते नाराज हुए कि उस दिन उस सरकारी अस्पताल में मुझे ही नहीं, तुम्हें भी देखने नहीं आए | तुम्हारे बेड के सामने वाली  मारवाड़ी महिला ने तुम्हारी मदद की और मेरा नामकरण भी | उन दिनों जन्म के बाद बच्चे को शहद चटाया जाता था | मुझे शहद भी उधार का मिला ....दया का मिला ...उधार का मिला और शायद तभी विधाता ने मेरे भाल पर लिख दिया कि जीवन में मुझे कुछ भी अपने हक का नहीं मिलेगा | हक भी दया ...अहसान और उधार जैसा मिलेगा | 
तुमने तो मुझे कभी प्यार नहीं किया माँ ...किया होता तो मेरा भाई मुझसे सिर्फ दस महीने छोटा नहीं होता | नहीं समझी न इस गणित को माँ | अस्पताल से लौटते ही पिता जी को मनाने के लिए तुम उन्हें समर्पित हो गयी | तुम्हें एक बार भी अपनी दुधमुंही बच्ची का ध्यान नहीं आया | तुम तो अपनी उपजाऊ कोख के बारे में जानती थी, फिर क्यों ?तुम ये भी जानती थी कि गर्भवती होने के बाद तीन महीने तक तुम कुछ भी खा-पी नहीं पाती | तुम्हें लगातार उल्टियाँ होती हैं और दूध टूट जाता है | मैं अपने हक-भर का माँ का दूध भी नहीं पा सकी | ऊपर के दूध पर पलने के कारण मैं शैशवावस्था से ही पेट की मरीज हो गयी | दुबली और चिड़चिड़ी भी, जिसे मेरा ही दोष माना गया | भाई के जन्म के बाद तो मैं और भी उपेक्षित हो गयी | तुम बताती थी कि मैं बचपन में बहुत जिद्दी और शैतान थी ...भाई से मेरी नहीं पटती थी | मेरे इस स्वभाव के कारण की तह तक तुम नहीं पहुँच सकी न माँ | प्यार न पाने वाले बच्चे ऐसे ही हो जाते हैं | जिस बच्ची ने अबोधवस्था से ही सिर्फ उपेक्षा...गाली और मार सही हो ...उसका जिद्दी हो जाना लाजमी था, पर बच्चों के मनोविज्ञान को समझने लायक शिक्षा तुम्हें न स्कूल में मिली थी न ही घर-परिवार में | 
पर माँ तो अनपढ़ होने के बावजूद अपने बच्चों के मन को पढ़ लेती है ...उन्हें सबसे ज्यादा समझती है, फिर तुम मुझे क्यों नहीं समझ सकी माँ ?क्या इसलिए कि मैं तुम्हारी बेटी थी और वह भी दूसरी और अनचाही बेटी | 
धीरे-धीरे तुम्हारा परिवार बढ़ता गया था माँ ...छह बेटियों और तीन बेटों का बड़ा –सा परिवार | अब तुम किस-किस बच्चे का मनोविज्ञान समझती, फुरसत कहाँ थी तुम्हें ?आमदनी कम ...खर्च ज्यादा ...जिम्मेदारियाँ ही जिम्मेदारियाँ !इतने बड़े परिवार में भी मैं अकेली थी ....मैं उसमें फिट नहीं बैठती थी | नौ भाई-बहनों में सबका स्वभाव अलग ...सोच अलग ....| सब एक-दूसरे से लड़ते भी और एक होकर भी रहते थे, पर मैं सामंजस्य नहीं बैठा पाती थी | मैं तुम्हारी और पिता जी की परेशानियों से परेशान रहती थी | अपनी जरूरतों को इतना कम रखती थी कि तुम पर अतिरिक्त बोझ न पड़े | रूखा-सूखा भी खा लेती | दीदी की उतरन भी पहन लेती | तुम जो भी कहती उसको दिल से मानती | फिर भी तुम मुझे हमेशा कोसती रहती, इसलिए मेरा कहीं मन नहीं लगता था | यही कारण था कि मैंने पढ़ने और पूजा-पाठ में मन लगा लिया | बाहरी बच्चों के साथ खेलती ...पेड़-पौधों से बतियाती | प्रकृति के बीच मैं खुद को पा लेती थी | चिड़िया मुझे अपनी सहेली की तरह लगती थी | घर में रहती तो किसी अकेले कोने या फिर छत पर किताबें लेकर बैठी रहती .....पढ़ती या फिर अपनी कल्पना की दुनिया में विचरण करती | घर में बिजली नहीं थी और लालटेन एक ही था इसलिए रात को मेरा पढ़ना मुश्किल ही होता था | पिता जी के सख्त निर्देश के कारण आठ बजे तक खाना खाकर सबको सोना पड़ता | पिता जी आठ बजे के बाद कहीं भी रोशनी नहीं देख सकते थे | दिन भर दुकान पर खटने के बाद वे देर रात तक जागने की स्थिति में नहीं होते थे | घर में बस एक कमरा था, जो पिता जी के घर में रहने पर सिर्फ उनका ही रहता था| मुझे जल्दी नीद नहीं आती थी इसलिए मैं अपनी कल्पना में खो जाती | तुम्हारी कहानियों के एक राजकुमार के साथ प्यार के सपने देखती | घर या बाहर जब किसी से कोई दुख मिलता, उससे कहती | वह मुझे समझता ...समझाता | तुमने तो कभी मेरे सिर पर प्यार से हाथ नहीं फेरा...अपने सीने से नहीं लगाया, पर वह हर बात पर मुझे सीने से लगा लेता ...खूब प्यार करता | मेरी आँखों के सारे आँसू उसके विशाल वक्ष में समा जाते | मैं उसकी साँसों की गर्मी साफ महसूस करती थी पर दिन में मुझे डर लगता कि पता नहीं मुझे वह राजकुमार मिलेगा या नहीं, क्योंकि तुम कहती थी कि मैं राजकुमारी जैसी नहीं हूँ | पूरे परिवार के सफ़ेद रंग के बीच मेरा गेहुंआ रंग काला माना जाता था | सबसे पहले नानी ने मुझे काली कहा फिर तुमने और फिर तो छोटे भाई-बहन भी मुझे इसी सम्बोधन से पुकारने लगे | मैं इस सम्बोधन से बहुत आहत होती थी | घर के पास वाले कृष्ण के मंदिर में जाकर घंटों रोती | उनसे शिकायत करती कि उन्होंने मुझे अपना रूप-रंग क्यों दे दिया ?आज जब मनोविज्ञान की दृष्टि से अपने बचपन को देखती हूँ तो मुझे लगता है कि जरूर मैं किसी मनोरोग से ग्रस्त थी जो उम्र के साथ बढ़कर एक ग्रंथि बन गयी | इस ग्रंथि ने मुझे आत्मकेंद्रित और अकेला बना दिया | मैं दुनिया के साथ सामंजस्य नहीं बैठा सकी | मैं दूसरे बच्चों की तरह नहीं थी, न हो सकती थी माँ | 
बचपन में जब किसी से मेरी लड़ाई होती, तुम उसके पक्ष में खड़ी हो जाती | हर हाल में मुझे ही दोषी ठहराती | मैं इस बात से दुःखी होती थी जबकि तुमने हमेशा यह कहा है कि मैं तुम्हारे सभी बच्चों में सबसे ज्यादा ईमानदार, सच्ची, नैतिक व प्रतिभाशाली हूँ | मैंने तुम्हारे खानदान में शिक्षा की मशाल जलाई है | पूरे खानदान में हाईस्कूल पास करने वाली मैं पहली लड़की हूँ | मैं कॉलेज से कढ़ाई-बुनाई के नमूने सीखकर आती तो तुम बहुत खुश होती | तुम्हें कविता-कहानियाँ पढ़ने का बहुत शौक था | जब मैंने लिखना शुरू किया तो तुमने मुझे प्रोत्साहित किया | मुझे तमाम कहानियाँ सुनाई | तोता-मैना, रामायण की कहानियों के अलावा तमाम लोक-कथाएँ मैंने बचपन में ही तुमसे सुन ली थी | औरतों की दुर्दशा की कहानियाँ सुनकर मैं मर्दों के प्रति इतनी घृणा से भर गयी कि मैंने लड़कों से बात करना भी छोड़ दिया था | तुम्हारी बातें ...तुम्हारे अनुभव तुम्हारी कहानियाँ मेरे व्यक्तित्व का निर्माण कर रही थीं | 
तुम भाई को बहुत प्यार करती थी | भाई के साथ हुई लड़ाई में तो हर हाल में मुझे ही दोषी ठहराती | एक –दो बार भाई मौत से बचा | एक बार पेड़ से गिर गया तो दूसरी बार चीनी मिल के सीरे वाली हौद में| दोनों बार वह मेरे साथ मेरी नकल करने के कारण खतरे में पड़ा था ।था भी तो बहुत बदमाश, मेरे मना करने पर मानता ही नहीं था पर तुम्हें लगता था कि मैं भाई से ईर्ष्या करती हूँ और उसे जान-बूझकर मारना चाहती हूँ | मैं तुम्हारी इस बात से कहीं गहरे आहत होती थी | मैं अपने भाई से बहुत प्यार करती थी माँ | तुम्हें तो याद भी नहीं होगा, अपने बुरे वक्त में जब तुम मुझे जौ की रोटियाँ देती और भाई को गेहूं की, तो क्या मैं नहीं समझती थी ?तुम कहती कि भाई को जौ की रोटियाँ अटकती हैं | मुझे भी अटकती थी माँ पर मैं उन्हें पानी से नरम करके खा लेती | मैं तुम्हें परेशान नहीं करती थी | मैं जानती थी गेहूँ का आटा तुम पड़ोस से मांगकर लाई हो और राशन- कार्ड पर सिर्फ जौ ही मिलता है | अच्छे दिनों में भाई को दूध मिलता और दूसरी पौष्टिक चीजें भी, तब भी तो मैंने कभी कोई जिद नहीं की !मैंने तुम्हारी इस बात को सच मान लिया कि लड़कियां तो यूं ही घास-फूस सी बढ़ जाती हैं | भाई की बदमाशियों पर पर्दा डालने के लिए तुम कहती कि ‘देशी घी का लड्डू टेढ़ा भी अच्छा’ होता है | कुल का नाम तो उससे ही आगे बढ़ता है | लड़कियां तो पराया धन हैं | ये सच था कि न पटने के बावजूद भाई को मैं पढ़ना-लिखना सिखाती थी | अपने साथ बाग-बगीचे में ले जाती | पेड़ों पर चढ़ना उसने मुझसे ही सीखा था | अब इसमें मेरी क्या गलती थी कि उसे अक्सर चोट लग जाती ?उसके चोट लगने पर मुझे ही मार पड़ती | भाई को बिगाड़ने का दोष मुझ पर मढ़ा जाता | क्या मैं इतनी बुरी थी माँ ?मैं दूसरे बच्चों से थोड़ी अलग जरूर थी, पर बुरी तो नहीं फिर क्यूँ मेरे साथ तुम दुहरा व्यवहार करती थी | मेरे रट्टा मारने की आदत से ही भाई पास होता था | मेरी कविताएँ चुराकर स्कूल के मैगजीन में अपने नाम से छपवा लेता | 
भाई ही क्यों बहनों से विवाद में भी तुम मुझे ही दोषी मानती | एक बार छोटी बहन ने मेरे सिर पर सिल का बट्टा मार दिया | खून देखकर मैंने भी उसे बट्टे से मार दिया | भाई दोनों को पड़ोस के अस्पताल ले गया| मरहम-पट्टी के बाद जब हम लौटे तो तुमने कहा कि जिद में मैंने बहन को ज्यादा ज़ोर से बट्टा मारा होगा | पहले बहन ने मारा तो कुछ नहीं| उसने मेरी सुंदर सीधी मांग को हमेशा के लिए दागदार कर दिया था | बस ढाई-तीन साल का ही तो अंतर था दोनों की उम्र में, पर मैं बड़ी थी तो सारी गलती मेरी मान ली गयी थी | एक बार मैं और उदास हुई, जब तुमने मेरी किताबों की छोटी- सी आलमारी मुझसे छीनकर भाई को दे दी| वह आलमारी मुझे बहुत प्रिय थी | मेरे रोने पर तुमने कहा कि इस घर की हर चीज का असली मालिक भाई ही है, तुम्हारा तो यह घर ही नहीं है | उस दिन मैं अपने काल्पनिक राजकुमार के सीने पर सिर रखकर बहुत रोई और उससे जल्द से जल्द आने को कहा | 
मैं अब बड़ी हो रही थी और कक्षा सात में पहुँच गयी थी | समय पंख लगाकर उड़ता रहा | अब बहुत कुछ बदल रहा था | दीदी की नौवी कक्षा में ही शादी कर दी गयी थी, पर वह बहुत खुश थी | अपने सम्पन्न ससुराल में वह इस घर के अभाव, दुख व कोलाहल को भूल गयी थी | मेरे लिए अच्छे कपड़े भी भिजवाती रहती और जब यहाँ आती तो मुझे साथ घुमाने व पिक्चर दिखाने ले जाती थी, जो मेरे लिए अब तक एक सपना था | काल्पनिक दुनिया से यथार्थ की दुनिया में मेरे कदम उतर चुके थे | अब मैं घर में सबसे बड़ी थी और मेरी जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी थीं | वैसे भी मैं अपनी उम्र से ज्यादा गंभीर थी | 
झूठ नहीं कहूँगी माँ तुम्हारी बातें ...तुम्हारे अनुभव ....तुम्हारी कहानियों ने ही मेरे व्यक्तित्व का निर्माण किया था | सतियों की कहानियाँ मेरे चित्त पर इतनी अंकित हो गयी कि मैंने सोच लिया था की भविष्य में मैं भी एक सती बनूँगी | सतियाँ अपने बीमार और अत्याचारी पति के प्रति भी सत का पालन करके इतनी शक्तिशाली हो गई थीं कि त्रिदेवों को भी बच्चा बना सकती थीं | मैं भी शक्तिशाली बनकर चमत्कार करना चाहती थी ताकि सभी मेरा लोहा माने | अजीब बात थी माँ तुम कहानियाँ तो सारी बहनों को सुनाती थी पर प्रभाव मैं ग्रहण करती थी | मैं चूड़ी वाले से चूड़ी नहीं पहनती थी कि वह पराया मर्द होकर मेरा हाथ छू देगा और हाथ छूने वाला पति हो जाता है | बाजार में खड़े होकर चाट-पकौड़े खाना भी मुझे गंवारा नहीं था | प्रेम-प्यार तो दूर की बात थी मैं किसी लड़के को भर -निगाह देखती तक न थी | मैं तन के साथ मन कि पवित्रता का ध्यान रखती थी | मेरी सहेलियाँ और मेरी बहनें मेरा मज़ाक बनातीं, पर तुम्हें मेरी ये आदतें अच्छी लगती थीं | मेरे चरित्र पर तुम्हें पूरा विश्वास था | मैं तुमसे कोई बात नहीं छिपाती थी | रास्ते में कोई लड़का छेड़ दे, कोई रिमार्क कर दे, तुम्हें सब बता देती | तुम मुझे नसीहत देती कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए?तुम्हारी नसीहत पर मैं अमल करती और नतीजा सकरात्मक होता | ’हाथी चले बाजार कुत्ता भूँके हजार’, ’एक चुप्पा हजार बोलते को हरा देता है’ –जैसे अनगिनत मुहावरे व लोकोक्तियों का जीवन में प्रयोग मैंने तुमसे सीखा था माँ | शायद मैं तुम्हारे अंत:करण का नवीन संस्करण थी | तुम जो बनना चाहती थी ...मैं बन रही थी | तुम्हारी अतृप्त इच्छाएँ ....कल्पनाएँ मुझमें साकार हो रही थीं | अब तुम मुझसे पहले की तरह नाराज नहीं रहती थी | 
फिर भी हम दोनों में बहुत अंतर था माँ | तुम सामंती मूल्यों को छोड़ नहीं पा रही थी | बेटी-बेटे में भेद करती थी | जब मैं कोई पुरस्कार लेकर आती तो तुम मुंह बनाकर कहती-भाई ने जीता होता तो खुशी भी होती | तुम कहती -बेटा कोठे से भी बहू लाएगा तो स्वीकार कर लूँगी पर बेटी को कुल की लाज रखनी चाहिए | 
इसीलिए मैंने अपने काल्पनिक राजकुमार की बात तुमसे छुपाकर रखी थी और अपनी डायरी भी, जिसमें अपने साथ हो रहे सारे व्यवहारों का जिक्र था| एक दिन मेरी अनुपस्थिति में छोटी बहन ने मेरी डायरी चुराकर तुम्हें सब पढ़कर सुना दिया | फिर तो मुझे जो कुछ सुनना पड़ा, उसका जिक्र न ही करूं तो बेहतर | 
अभी मैंने दसवीं में एडमीशन लिया ही था कि तुमने मेरी शादी तय कर दी | मैंने विरोध किया कि मुझे अभी पढ़ना है, तो तुमने कहा शादी के बाद भी पढ़ सकती हो | लड़का भी तो अपने शहर में तुम्हारी ही क्लास में पढ़ रहा है | दोनों अपने-अपने घर पढ़ेंगे | लड़का जब काम करने लगेगा तब तुम्हें ले जाएगा | ये कैसी शादी कि दोनों अलग-अलग रहें ?मुझे यह मंजूर नहीं था पर तुमने लड़का पसंद कर लिया था | तुम्हारी मजबूरी मैं समझ रही थी | अविवाहित पाँच बेटियों की चिंता, पिता की खराब सेहत और गरीबी ने तुम्हें मजबूर कर दिया था।वैसे भी उस समय के समाज की नजर में मैं शादी के लायक हो चुकी थी | दहेज देने के लिए तुम्हारे पास पैसा नहीं था | लड़के ने मुझे देखा था और दीवाना हो गया था, इसी बात का तुम फायदा लेना चाहती थी | तुमने लड़के का न घर-द्वार देखा ...न उसके बारे में कुछ पता करना ही जरूरी समझा | मुझे लड़का बिलकुल पसंद नहीं था | वह बहुत चंचल था | मुझे देखते ही हँस देता, जिधर जाती उधर ही आ जाता | मेरी कल्पना का राजकुमार तो धीर-गंभीर था | मैंने तुम्हें मना किया कि वह मेरी पसंद के राजकुमार -सा नहीं है तो तुमने कहा -अपनी भी तो शक्ल देखो | कौन राजकुमार तुम्हें पसंद करेगा ?तुम्हारी इस बात से मैं बुझ गई कि जिस काल्पनिक राजकुमार के साथ मैं इतने दिनों से  मगन थी, वह मुझे नहीं मिल सकेगा ।तो अब जो भी मिले | मैंने समझौता कर लिया | मेरे मन में विवाह का कोई उल्लास नहीं था | बस सोच लिया था कि जो मिल रहा है उसी को अपना राजकुमार समझकर सती -धर्म का पालन करूंगी | 

माँ का जाना

फोन की घंटी फिर बजी थी | मैं झल्ला गयी | घड़ी की तरफ देखा वह ठीक बारह बजा रही थी | इस समय कौन फोन कर रहा है  ?किसकी शामत आई है ?दो बार टाल चुकी थी | अभी-अभी तो जरा –सी आँख लगी थी | जाने क्यों इधर कुछ दिनों से मुझे नींद नहीं आ रही | दाहिनी आँख भी लगातार फ़ड़क रही है | सगुन-असगुन में मेरा विश्वास नहीं है, इसलिए मुझे किसी अनहोनी का अंदेशा भी नहीं है | मुझे लगता है व्यस्तता के कारण खुद पर ध्यान न दे पाना इसका कारण है | खान-पान में वैसे भी तो बहुत लापरवाह हूँ | हो सकता है शरीर में किसी चीज की कमी हो गयी हो | 
फोन की घंटी फिर बजी | मैंने झटके से बिस्तर छोड़ा और फोन उठा लिया | चिल्लाने ही वाली थी कि उधर से भाई की आवाज आई –माँ बहुत बीमार है | सुबह होते ही घर आ जाना | मैं लखनऊ में हूँ उधर से सारी बहनों को लेकर आ रहा हूँ | 
मैं संकेत समझ गयी | इस तरह का बुलावा सामान्य परिस्थिति में नहीं आ सकता | मैं बेचैन हो गयी | इतने दिनों के पूर्वाभासों की उपेक्षा करने के कारण खुद पर गुस्सा आया कि बड़ी प्रगतिशील बनती हो।अरे, सगुन -असगुन अवैज्ञानिक है तो टेलीपैथी तो वैज्ञानिक है, उस पर क्यों नहीं विश्वास किया ?तुम्हारी छठी इंद्रिय भी तो जागृत है वह बराबर संकेत दे रही थी कि कहीं कुछ ठीक नहीं है पर तुम समझ ही नहीं पा रही थी | 
दरअसल मेरी जिंदगी में इतना बुरा हो चुका है कि लगता था कि अब और क्या बुरा होगा | मैं भूल गयी थी कि अभी तो मेरे सभी प्रिय –जन जीवित हैं और इससे अच्छा क्या हो सकता है | मैं किसी अपने की मौत के बारे में सोचती ही नहीं थी और माँ, तुम्हारी मौत की तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकी थी | एक महीने पहले ही तो छुट्टियाँ तुम्हारे साथ बिताकर आई थी | तुम अस्सी की हो चुकी थी, पर अभी पूरी तरह ठीक-ठाक दिखती थी | 
अब एकाएक क्या हो गया | जी चाहा उड़कर तुम्हारे पास पहुँच जाऊं, पर मेरे पास कोई गाड़ी भी तो नहीं है और न कोई ऐसा घनिष्ठ मित्र कि उसे अर्धरात्रि में फोन करूं और वह आकर मुझे तुम्हारे पास पहुंचा दे | तुम्हारा घर मेरे शहर से मात्र दो घंटे की दूरी पर ही है, पर इस समय कैसे आऊं ?अपने स्त्री होने पर गुस्सा आया कि रात-बिरात कहीं निकल भी नहीं सकती | भोर होने का इंतजार हर हाल में करना ही होगा | मैं उसी समय घर के दैनिक कार्य निपटाने लगी | दो बजे तक नहा-धोकर तैयार हो गयी | एक-दो जोड़ी कपड़े भी बैग में रख लिए | पता नहीं वहाँ क्या स्थिति हो और कितने दिन रूकना पड़ जाए | एक बार दरवाजा खोलकर बाहर देखा ...बाहर सन्नाटा था, पर कुत्ते भूँके जा रहे थे | उनका भूँकना सामान्य नहीं था, वे जैसे रो रहे थे और ऐसा कई दिन से हो रहा था | कहते हैं कि किसी आपदा के आने का यह पूर्व संकेत है | भूकंप से पहले भी कुत्ते भौंकते हैं और किसी की मृत्यु के पूर्व भी | पहले मैंने ध्यान नहीं दिया था | अब ध्यान दे रही हूँ कि कुत्ते रो रहे हैं ।
तो माँ, क्या तुम नहीं रही ?इस विचार से मेरे दिल पर घूसा –सा लगा | नहीं –नहीं ...तुम ज्यादा बीमार हो गयी होगी ...इसलिए ...अभी तुम्हारी मृत्यु नहीं हो सकती | तुम्हारी उम्र तो हो गयी है पर तुम पूर्ण स्वस्थ और सुंदर दिखती हो | इस उम्र में भी जैसे संगमरमर की तराशी प्रतिमा-सी | दूध में गुलाब की मिलावट जैसा रंग | दिन-प्रतिदिन तुम और सुंदर होती जा रही हो | हम सभी भाई –बहन तुम्हारा बहुत ध्यान भी रखते हैं | हालांकि तुम्हें ब्लडप्रेशर और शुगर दोनों है पर तुम नियमित दवा खाती हो | इधर तुम्हें हृदय संबंधी कुछ शिकायत भी हो गयी है, पर बाकी सब ठीक है | 
सुबह के चार बजे तो मैं निकलूँ | उस समय लोग प्रात:-भ्रमण के लिए निकलने लगते हैं | समय काटना मुश्किल लग रहा है, इसलिए तीन बजे ही दरवाजे में ताला लगाकर बाहर निकल आई हूँ | कुत्ते अभी भूँक ही रहे हैं।
मैंने हाथ में एक डंडा ले लिया है और गली से निकलकर मुख्य सड़क पर आ गयी हूँ| रोड लाइट का धुंधला प्रकाश अंधकार को दूर करने में असमर्थ है | वैसे भी इधर दृष्टि- दोष के कारण मुझे कम ही दिख रहा है | मेडिकल रोड होने के कारण इस सड़क पर गाड़ियां चलती रहती हैं, पर आज एक भी गाड़ी दिखाई नहीं दे रही है | एकाध निकली भी हैं तो पूरी भरी हुई | घंटे भर वहीं खड़ी रही | चार बजे के करीब एक टैक्सी सिर्फ एक सवारी के साथ आती दिखी | मैंने रूकने के लिए इशारा किया है | ड्राइवर ने कहा-रिजर्ब है | मैं गिड़गिड़ाई हूँ तो भीतर बैठे विदेशी यात्री ने ड्राइवर से मुझे बैठा लेने का इशारा किया है | टैक्सी स्टेशन की तरफ ही जा रही है | मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया है और सकुशल स्टेशन पहुँच गयी हूँ| संयोग से तुरंत बस मिल गयी है| छह बजे तक मैं तुम्हारे पास  आ गई हूं।
तुम भाई के कमरे में जमीन पर एक कंबल के ऊपर लेटी हो और तुम्हारा शरीर एक चादर से ढंका हुआ है | पास ही छोटी भाभी व उनकी एक पड़ोसन बैठी हुई है | मैं तुम्हारे पैरों के पास बैठ गयी हूँ और अपने हाथों से तुम्हारी पिंडलियों को सहलाने लगी हूँ| पैर ठंडा पर नरम है | मैं चादर हटाकर तुम्हारा चेहरा देखती हूँ बिलकुल ताजा ..खिला हुआ चेहरा, पर आँखें बंद हैं | एकाएक तुम्हारे होंठों के किनारों से बुलबुले निकलने लगे | माँ जिंदा है-मेरे मन से आवाज उठी है | मैंने भाभी से पूछा –डॉक्टर को दिखाया था ?या खुद ही डिसाइड कर लिया कि मर गयी | 
पड़ोसन बोली-अब जिंदा कहाँ हैं?शरीर ठंडा हो गया है | मैंने गुस्से में कहा है-तुम ही डॉक्टर हो क्या ?हार्ड अटैक में भी कभी-कभार प्राण छिपे रहते हैं | भाभी ने कहा-तो आप ही बुला लाइये डॉक्टर को | आज पंद्रह अगस्त है सब बंद है | तुमने कहा था कि किसी छुट्टी के दिन ही मरूँगी ताकि तुम्हारे बच्चों को छुट्टी न लेनी पड़ी।अलविदा माँ!