संधिपत्र
----------
खिड़की से आती हवा के झोंके दीवार पर टंगे कैलेंडर के पन्नों को फडफड़ा देते मानो उसे याद दिला रहे
हों कि चार दिन हो गये हैं, आखिर कब तक सच्चाई को छुपा पायेगी वो। सामने पलंग पर सिमटी कृशकाया पर निगाह पड़ी तो जी भर आया।
कैसी तिनके सी हो गयी है आई, कब से जूझ रही थी बीमारी से, मैं न आती तो जाने क्या होता, कैसी
सिकुड़ गयी है पीली देह, तीन बोतल खून चढ़ा है, तब कही जाकर हिमोग्लोबिन कुछ बढ़ा है| चाहकर भी वह आई को मुंबई नहीं ले जा सकी, भेद जो खुल जाता सो यहीं कोल्हापुर के एक नर्सिंग होम में भरती करा दिया। बीमारी गंम्भीर नहीं मगर पुरानी है, वही दमा, सांस फूलना और खून की कमी|
इस बार उसकी मां (आई) अपनी बीमारी से इतना डर गयी थी कि उसे फ़ोन कर तुरंत बुला लिया और खुद
ही बोली , रमा तू मुझे मुंबई ले चल, वहीं मेरा ठीक से इलाज़ होगा| जब तक कहेगी, तेरे घर रहूंगी, जब
भेजेगी तभी कोल्हापुर वापस जाउंगी... कहते कहते सांस उखड़ गई और खांसते खांसते रमा की आई हाल बेहाल हो गयी, शरीर सूखे पत्ते-सा कांपने लगा था |
अपरिचित अपरिचित हैरान थे कि संपन्न बेटी अपनी मां को मुंबई ले जाने की बजाय कोल्हापुर में ही क्यों रखे हुए है| जिस सच को छुपाए रखने के लिए उसने यह कदम उठाया था अब लगता है चटके घड़े से रिसते पानी सा वो उजागर हो ही जायेगा | अस्पताल आने के दो दिन पहले से ही उसकी मां अमर से मिलने की रट लगाये हुए है। दामाद को देखने के लिए तड़प रही है।
“"अरी रमा, तू अमर को खबर कर दे, उसके बिना मै अस्पताल नहीं जाउंगी, आखिर तू मुझे अकेले कैसे
संभालेगी, कहीं कुछ हो गया तो मरने से पहले उसका मुंह तो देख लूं। "
“आई, वो आ जायेंगे, अभी दौरे पर गए है, फिर आने में एक-दो दिन तो लगेंगे न | तब तक क्या यूं ही पड़ी रहोगी ...कहीं कुछ हो गया तो ?”
“न.... न... मैं जाने वाली नहीं .... जब तक अमर का मुंह न देख लूं मैं कहीं नहीं जाऊंगी।"
"आई ! बच्चों की तरह ज़िद मत करो मैंने उन्हें खबर कर दी है। " और उस झूठ से आई को बहलाकर वह उसे अस्पताल ले आयी थी। आते ही इलाज शुरू हो गया वरना शायद न बचती पर अगले ही दिन उसे अपने झूठ को सच में बदलने की कवायद में जुटना पड़ा। लेकिन क्या फायदा... आज चार दिन हो गए, उसके खबर करने के बाद भी अमर नहीं आये | आई जब तक सोती है शांत रहती है, जागते ही राग अलापना शुरु कर देती है --
“अमर, अमर..... रमा ! क्या अमर को ज़रा भी माया ममता नहीं .... आखिर वो अब तक आया क्यों नहीं !”
मां क्या जाने कि बेटी ने ही अमर को माया-मोह के बंधन से मुक्त कर रखा है|
कैलेंडर से निगाह हटाकर वह खिड़की पर जा खड़ी हुई और दूर आसमान में अपने छितराए अतीत को टटोलने लगी | याद है जब कोल्हापुर की चंचल हिरनी मुंबई के माहौल में एकबारगी घबरा उठी थी। सुबह अमर को दफ्तर भेजकर जरूरी काम निपटा कर वो खिड़की के पास आ बैठती। बारहवें माले के इस फ्लैट से सड़क पर चीटियों की कतार सा मोटर गाड़ियों का काफिला दिखता, और दिखती लोगों के हुजूम के रूप में भागती मुंबई - ये मंज़र उसके खालीपन में इजाफा ही करते। पत्रिकाएं पढने, टी.वी. देखने और पलंग तोड़ने से भी जी न बहलता | रात आठ बजते-बजते अमर घर लौटते थके हारे | टी. वी. पर मैच देखते-देखते खाना खाते, रमा कुछ कहती तो नज़र घुमाये बगैर हां हूं में जवाब देते | उसे उकआहट होने लगती |
"अमर चलो न! मुझे बहुत नींद आ रही है।"
“रमा! तुम सो जाओ, मुझे आज जागकर एक प्रेजेंटेशन तैयार करनी है। मेरा लेपटॉप ड्राइंगरूम में ही
निकालकर रख देना।'
रमा के मन का जंगल और भी सूना हो जाता। सप्ताहांत घर के लिए खरीददारी करना और किसी मॉल में घूमना या कोई फिल्म देखना ही दोनों की दिनचर्या थी। रमा अमर के साथ वक्त गुजारना चाहती थी न कि फिल्म के हीरो हीरोइन के साथ। सिनेमाहॉल में पास होकर भी उसे अमर का साथ न मिलता।
यूं उसके जीवन में कोई दुःख न था, न कोई बाधा, भरपूर आजादी मयस्सर थी | वह जो कहती अमर मान जाता, जो मांगती ला देता, जहां चाहती ले जाता। यह कोई सुखरोग भी नहीं था, बस एक ही ढर्रे पर चलने वाले जीवन की ऊब मन में जंग लगाने लगी | उमंगो की पौध को भरपूर पानी तो मिल रहा था पर सूरज की ऊष्मा का नितांत अभाव इस पौधे को गला रहा था, पाला मार रहा था | अमर ही उसका सूरज था पर कैसा ठंडा, मानो एक बड़ा सा ग्लेशियर ...न कोई संवेग न आवेग.... न अनुभूति न अभिव्यक्ति.... जैसे जमी हुई मोम का पिंड, यह मोम का पुतला कभी क्यों नहीं समूचा पिघल जाता, रमा के सामने अपनी तरलता क्यों नहीं बहाता | रमा उसकी संवेदनाओं के ज्वार में डूबना चाहती थी, पर अमर के रेतीले वजूद से कोई सोता न फूटता। रमा का प्यासा मन प्यासा ही रह जाता |
अमर जैसा शांत मितभाषी और गंभीर पति उसे खुद से बांध नहीं पा रहा था। उसके हृदय की क्यारी सूखने लगी, प्रेमतंतु कुम्हलाने लगा। उसकी वाचालता पर पहले चुप्पी और फिर चिड़चिड़ाहट की परत चढ़ने
लगी। ऐसा नहीं कि अमर यह बदलाव नहीं देख रहा था पर वह रमा से इस विषय पर किसी चर्चा से बचता था। उसने रमा के कहे बिना खुद को बदलने की कोशिश की, उसे ज्यादा वक्त देने के लिए ऑफिस से जल्दी आने लगा पर उसके रहते भी उस फ्लैट की दीवारों में चुप्पी का घनत्व कम ना होता। रमा अमर में बस एक ही चीज खोजती - तरुणाई। वह उससे मात्र पांच छह साल बड़ा था पर दोनों के मिजाज में मानो एक युग का फासला था। न उसकी आंखों में युवा सपनों की उड़ान दिखती, न हसरतों का मेला, न चुहलबाजी, न कोई शरारतें, न मीठी शिकायतें, न उलाहने, न रूठना न मनाना। रमा को रिझाने के लिए वह कोई चुहल करता तो रमा बिदककर कहती --
" तुम्हें तो मजाक करना भी नहीं आता।
अमर मायूस होकर बाहर चला जाता, सचमुच वह प्रेम के रसायन से रिक्त था। कहते हैं हर व्यक्ति का व्यवहार उसके परिवेश और परवरिश का प्रतिबिंब होता है। अपने पिता की इकलौती संतान अमर दस बरस
की अल्पायु में मां को खो बैठा था। पिता का साथ भी कम ही मिला। पढ़ायी लिखाई के पंद्रह बरस तो
उसने स्कूल कॉलेज के छात्रावासों में ही गुजारे। पिता भी दो वर्ष पूर्व चल बसे। अब तक के एकाकी जीवन-
ने उसे निपट शांत और मूक बना दिया था।मल्टीनेशनल कंपनी में मोटी तनख्वाह पाने वाला अमर दफ्तर के कामों में खूब व्यावहारिक और सफल था, पर रमा के आगे बिल्कुल विफल। एक बार वह गुस्से से चीख पड़ी थी --
" अमर, मैं तुम्हारी पत्नी हूं कोई क्लाइंट नहीं और हमारी शादी प्यार का बंधन है कोई डील नहीं।"
"रमा! मैं तुम्हें प्यार करता हूं पर मुझे कहना नहीं आता, तुम महसूस करोगी तो जानोगी।"
"ओ अमर ! काश यह संवाद तुम मुझे बाहों मे भरकर मेरे होंठों को चूमकर कहते... काश....।" मन ही मन दोहराती घुटती कसमसाती रमा सोफे के दूसरे कोने पर बैठे अमर को तड़पकर देखती और रोते हुए दूसरे कमरे में चली जाती। अमर देर तक यूं ही बैठा रहता अपराधी भाव से।
"हैलो रमा! कैसी हैं आई?"
रमा चौंक पड़ी। पलटकर देखा तो अवाक, सामने अमर खड़ा था।
"अरे तुम! कब आये?"
" बस, अभी।"
रमा को ख्वाब में भी उसके आने की उम्मीद नहीं थी, बहुत अचंभित हुई उसे देखकर। उसकी देह कुछ छंट गयी थी। पहले से दुबला और अच्छा लग रहा था। वही भारी आवाज वही गहरी आंखें, माथे पर गिरे बाल, लीवाइस जींस पर यू सी बी की कत्थई टी शर्ट उसके गोरे रंग पर खूब फब रही थी।
"बहुत थके लग रहे हो, थोड़ी चाय पी लो " कहकर वह तिपाई की ओर मुड़ी और फ्लास्क से मग में चाय उडेलने लगी। इस बीच आई की आंख खुली, फटी फटी आंखों से वह अमर को देखने लगी।
"कैसी तबीयत है आई ?" पांव छूते हुए उसने पूछा।
"कौन ? अमर! बेटा अमर ... तुम आ गये." कहकर फफक पड़ी।
"आई । शांत हो जाइए, वरना तबीयत बिगड़ जायेगी।" अमर ने अपनी सास के ठंडे माथे पर हाथ रखा और हौले हौले सहलाने लगा। हाथ में प्याला थामे रमा अमर का नर्म व्यवहार देखती रही। एक लंबे अंतराल के बाद वो सामने था जिससे वो कब से किनारा किए बैठी है।
शादी के सात महीने बाद भी रमा अमर से जुड़ नहीं पायी थी। मीडिया ग्रेजुएट तो वह थी ही, घर की
घुटन से निकलने के लिए आखिर नौकरी कर ली। छह माह से एक मीडिया हाउस में काम कर रही है। पढ़ाई के दौरान एक मीडिया कंपनी में इंटर्नशिप की थी। वह अनुभव काम आया, अब नए काम से मन बहलने लगा है पर दांपत्य का सूत्र हाथ से फिसलता जा रहा है। यूं भी वह रिश्ता एकतरफा सा था। अमर तो तटस्थ ही रहा रमा ही जुड़ती और टूटती रही। शादी की पहली वर्षगांठ को ही रमा ने गठबंधन को खोल दिया था। न कोई वाद- विवाद ना आरोप-प्रत्यारोप.... बस कुछ लंबी सांसे .... लंबी चुप्पियां...सर्द रिश्ते के बीच जमते एहसास और एक तल्ख फैसला.....।
"अमर ! मैं जा रही हूं।"
"......."
"पूछोगे नहीं, कहां ?" रमा ने अमर की खामोशी तोड़ने के लिए ....खुद से प्रश्न पूछने के लिए उसे खुद ही
उकसाया। उस समय अमर का मौन उसे नाग-सा डस रहा था। इतने संवेदशील मौके पर उसकी चुप्पी से
रमा को कोफ्त हो रही थी। एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह अमर ने पूछा -"कहां?"
"पता नहीं?"
सचमुच रमा का कोई गंतव्य नहीं था। चार दिन वह अपनी एक सहकर्मी के यहां रही। वर्किंग वुमन हॉस्टल में शिफ्ट होने की योजना बना ही रही थी कि ऑफिस के एक नये प्रोजेक्ट पर टीम के साथ खजुराहो जाने का प्रस्ताव आया। उसने तुरंत हामी भर दी। वो खुद को काम में डुबो देना चाहती थी ताकि वक्त ही ना मिले किसी मातम का किसी पछतावे का। उहापोह की स्थिति वह आने नहीं देना चाहती थी। नाम मात्र सामान लेकर अमर के घर से निकली थी और अगले एक वर्ष उसने कुछ जोड़ा भी नहीं। एक खानाबदोश का जीवन जीती रही। कभी बनारस के घाट से लेकर वृंदावन तक फैली विधवाओं की जिंदगी ,कभी दालमंडी की वेश्याओं की दास्तान, कभी कांच की फैक्ट्रियों में घुटते बचपन को तो कभी बर्फीली सीमाओं पर तैनात सैनिकों की जद्दोजहद को अपने कैमरे में कैद करती रही।
रमा अब रिमी बन चुकी थी। मीडिया के उन्मुक्त माहौल में पुरुषों के साथ उठना बैठना, दूर दराज सड़के नापना, जरूरत पड़ने पर रेलवे स्टेशन के वेटिंगहॉल और सरायों से लेकर फाइव स्टार होटलों में रातें काटना -- यह सब उसके काम का हिस्सा थे।
सिगरेट के कश और शराब के प्याले कब उसकी ज़िंदगी में शुमार हो गए उसे एहसास ही ना हुआ। जीवन में दो पुरूष भी आये जिन्होंने उसके मन के घाट पर अपनी नाव बांधनी चाही। उनके साथ वक्त गुजारना उसे अच्छा लगता था पर अपने हृदय की उत्ताल तरंगों में किसी नाव को किनारा न दिया। कई बार अपने पुरुष मित्रों खासकर नाथ और जॉन को अमर से तौलने की कोशिश की, कभी यह पलड़ा भारी होता कभी वह। उसे लगता वो ठीक से तराजू थाम ही नहीं पा रही।
घर छोड़ने के बाद तीन चार बार अमर उससे मिला। वो चाहता था कि रमा वापस आ जाये पर एक ठंडी संवादहीनता संवेदना की आंच को फूंक न पाती। छह माह पूर्व उसका अंतिम फोन आया था --
"रमा! जब भी तुम्हारी भटकन खत्म हो तुम घर आ सकती हो। "
अतीत में कही गई उसकी बात आज अचानक कानों में गूंज उठी। तभी प्रकट में कही गई अमर की बात ने पुरानी बात को गड्डमगड्ड कर दिया और उसका ध्यान भंग हुआ।
"रमा ! मैं पास के गेस्ट हाउस में ठहरा हूं, आज और कल की छुट्टी लेकर आया हूं। कल रात सहयाद्री एक्सप्रेस से लौटना है, निकलता हूं ...सुबह आउंगा।"
"चलो, वहां तक साथ चलती हूं।"
"कैसा चल रहा है तुम्हारा काम ?" साथ चलते हुए अमर अनायास पूछ बैठा।
प्रश्न अनसुना कर रमा बोली --" थैंक्स अमर ! मुझे बिल्कुल नहीं लगा था तुम आओगे।" उसके मन की गांठ ढीली पड़ रही थी।
"इट्स ओके..... लगता है आई कुछ नहीं जानती, उन्हें ऐसे में कोई सदमा देना ठीक नहीं।"
"हूं !"
"पर तुम बड़ी कमजोर लग रही हो, लगता है आई की तीमारदारी में ....."
"क्या आज भी तुम्हें मेरी इतनी फिक्र है... आई की भी इतनी परवाह .... तुम न आते तो मैं आई को क्या
कहती.... कब तक सच छुपाती .... अगर उन्हें पता चल जाता तो वो यह सदमा कैसे झेलती... ओह अमर, आज भी तुम वैसे ही हो संजीदा शांत संयत और तटस्थ।"
कितना कुछ कह गई रमा अपने आप से। अमर इनमें से एक लफ्ज भी न सुन पाया। रमा के संवाद उसके अपने ही मन की गुफा में विचरते रहे, खुद से ही गुफ्तगू करते रहे। आज उसी शख्स पर मान हो आया है जो शादी के एक साल बाद तक रेगिस्तान में कैक्टस की चुभन की तरह उसे सालता रहा।
"बाय रमा, सुबह हॉस्पिटल आउंगा।"
अमर की आवाज रमा को वर्तमान में खींच लायी। वे दोनों गेस्ट हाउस के द्वार पर खड़े थे। उसे सीढ़ियों तक छोड़ रमा लौट आयी। रास्ते भर मन का जंगल सांय सांय करता रहा। आई के पास लौटी तो वह चहक रही थी।
" रमा ! आज जी हलका लग रहा है, अमर को देख लिया तो चैन पड़ गया। अब डॉक्टर से पूछकर मुझे घर ले चल और हां, मुंबई का टिकट कटवा दे। अबकी जी भर के तुम दोनों के साथ रहूंगी।"
रमा चुप रही। आई की चहक उसे एक ओर सुकून दे रही थी मगर दूसरी तरफ परेशानी का सबब भी थी।
अमर से अलगाव की उसने किसी को भनक भी न लगने दी थी।
"अरी चुप क्यों है ? क्या मुझे ले जाना नहीं चाहती ?" आई का संशय भरा मीठा उपालंभ उसे उत्तर देने को विवश कर गया।
"आई जरूर ले जाना चाहती हूं....( तुम्हें भी और खुद को भी) ।" मौन थे आगे के शब्द।
आज चार दिन बाद रमा हॉस्पिटल की बजाय घर के बिस्तर पर पड़ी है। डॉक्टर ने कहा था मरीज की सेहत
में तेजी से सुधार हो रहा है, आज रात हॉस्पिटल में रूकने की जरूरत नहीं , फिर नर्स तो ड्यूटी पर रहती ही है। रमा को भी अच्छी नींद की दरकार थी थकान मिटाने के लिए पर घर के इस बिछौने पर पलभर को
भी वह सो न पायी। रात भर तीन चेहरे एक दूसरे को ओवरलैप करते रहे -- नाथ जॉन और अमर। उसने गौर किया कि आज फोटो क्लिप्स की तरह अमर का अक्स नाथ और जॉन की छवियों को बार बार धूमिल कर रहा था।
पिछले एक साल में आकाश में उड़ान भर आये पंछी की तरह रमा के विचारों के डैने खासे मजबूत हो चुके
थे। एक बरस के आजाद लम्हों के दरिया में डूबते उतराते उसे किनारों से लेकर भंवर तक का तजुरबा हो
गया था । देस परदेश के सफर को निकला राजा हो या फकीर लौटकर अपने आशियाने में ही सुकून पाता है -
आज पहली बार उसे भी ऐसा ही महसूस हुआ रमा से बनी रिमी आसमां से अपनी जमीं पर उतरने को अकुला रही थी।
अमर की फोन पर कही बात उसके ज़हन में कौंध रही थी, उसे भी बार बार याद करने में अजीब सा सुकून मिल रहा था बिल्कुल रिपीट मोड पर डाले गए पसंदीदा गीत की तरह --
"रमा, जब भी तुम्हारी भटकन खत्म हो घर आ सकती हो।"
यह संवाद चोरी चोरी रफ्ता रफ्ता पलती ख्वाहिशों को हवा दे रहा था। एक रोमांच उसकी नसों में भरने लगा, अनायास उनींदी पलकें बंद हो गयीं। नींद और उसके बीच कल की हजारों रंगीन कल्पनाएं तैरने लगीं। रोम रोम में मादकता छाने लगी। आंखों ही में रात कटी।
भोर की ऐसी अगवानी उसने कभी न की थी, उठकर जल्दी से तैयार हुई। नीली शिफॉन की साड़ी पर मोतियों की माला पहन सूने ललाट पर छोटी सी लाल बिंदी लगाई, आईने में साल भर बाद लौटी रमा को देख रिमी मुस्कुरा दी और मीठे अरमान संजोए हॉस्पिटल की ओर चल दी।
"रमा, आज तू बड़ी सुन्दर लग रही है, मेरी वजह से तो तेरा साज सिंगारी ही बिगड़ गया था।"
आई की बात सुन रमा सकुचाई फिर मुस्करा दी। आंखें बार-बार खिड़की के उस पार के कॉरीडोर की ओर उठ जातीं। कानों को एक आहट की तलब थी। आधे घंटे बाद परदा हिला और अमर दाखिल हुआ। उसकी नीली टी शर्ट का रंग रमा की साड़ी से कितना मेल खा रहा था। वह मन ही मन बोली - " क्या संयोग है, नीली टी-शर्ट! किसी शुभ का संकेत...।
धड़कन तेज हो गयी, दिल खिल खिल उठा। "ए दिल, उछल मत!" उसने घुड़की दी, फिर कनखियों से अमर को देखा, जैसे अपने महीने भर की कोर्टशिप में देखा करती थी। लगा अमर भी कुछ तरंगित है। शादी के बाद रमा ने एक मोटी दीवार खड़ी कर दी थी अपने और अमर के बीच, पर बीती रात एक छोटा सा दरवाजा उग आया है उस दीवार में । उसी पर खड़ी वह इंतजार में थी, नए ख्वाब डोर बेल बजा चुके थे, किसी भी पल दरवाजा खुलेगा और अमर उसे बाहों में भर कर ड्योढी के भीतर ले जाएगा। अचानक दरवाजा खुला।
"रमा।"
वह अचकचाई, प्रकट में अमर ने एक बार फिर उसे पुकारा।
"हूं" मानो उसकी चेतना लौटी।
"तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है, जरा रिसेप्शन में चलो।" लंबी यात्रा के बाद यात्री की जैसी दशा अंतिम
रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म छूने जा रही गाड़ी में होती है वैसी ही रमा की भी थी। जल्दी ही सारी अनिश्चितताओं
का पटाक्षेप होने वाला है, लहर -लहर भटकती नाव किनारे पर लगने वाली है।
संवेगों को नियंत्रित करती वह उसके साथ रिसेप्शन में चली आयी। वहां का सूनापन अच्छा लग रहा था। शीतयुद्ध के बाद संधि पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए माकूल माहौल। दोनों लंबे सोफे के दो कोनों पर आसीन हुए, कुछ पल का मौन.... अमर मानो भूमिका तैयार कर रहा था। रमा को कोई जल्दी नहीं थी, पहले की तरह झुंझलाने की बजाय आज वो इन पलों का मजा लेना चाहती थी।
"हुं , देखें जनाब कैसे अपनी बात कहते हैं!"
"रमा तुम मेरी जिंदगी में आयी, मुझे अच्छा लगा, मुझे अपनों का साथ बहुत कम मिला सो मन का एक कोना सूना ही रह गया। तुमने चाहा उसमें हजारों फूल खिलते पर यह हो न सका, तुम्हारे जाने के बाद मैंने बहुत सोचा, गलती मेरी ही थी, तुम जैसी जिंदादिल लड़की मेरे पास आकर मुरझा गयी....।"
" अच्छा, तो मेरे गूंगे तोते को इतने डायलॉग बोलने आ गए हैं .... चलो मुझसे बिछड़ कर बच्चू को मेरी वैल्यू तो पता लगी। "
रमा की नस नस में शरारत और रोमांच भर गया। आज उसकी बात काटकर कुछ कहने की जल्दी न थी, वो सिर्फ और सिर्फ सुनना चाहती थी उस अमर को जिसकी अनबोली बातें उसे तड़पाती रहीं, रुलाती रहीं। जिसके मौन तले उसकी भावनाएं दफ़न रहीं। वो चाहती थी कि अमर बोलता रहे घंटों और वो सुनती रहे यूं ही खामोशी से।। आज उसने अमर का रूप अख्तियार कर लिया था- शांत और संजीदा, एक समझदार श्रोता का।
" बोलो अमर ..बोलते रहो, आज मैं बस सुनूंगी...।"
वो डूब गई उसके लफ्जों में, जो समन्दर की शांत लहरों की तरह उसके कानों में मिठास घोल रहे थे।
"....वन की हिरनी को क्या कोई बांध सका है, यूं भी हम दोनों बहुत अलग हैं. इसलिए तुम्हारे घर से जाने
के फैसले को मैंने स्वीकारा था। छह-सात माह तक जब तुम नहीं लौटी तो मैं समझ गया, तुम्हें अपनी मंजिल मिल गई है। पिछले कुछ महीनों खुद को तैयार करता रहा उस जिंदगी के लिए जो अब तुम्हारे बगैर काटनी है.." कहकर अमर ने एक लंबी सांस ली। रमा तो सांस लेना ही भूल गयी.... अचानक गाड़ी अपने ट्रैक से हट
रही है .... उसे दुर्घटना का अंदेशा हो रहा है।
अमर ने हाथ में पकड़े एक बड़े लिफाफे में से कागज निकालकर सोफे पर रख दिया। रमा अचरज से अपने और अमर के बीच सोफे पर रखे उस संधिपत्र को देख रही थी।
"रमा ! मैं तुम्हें आजाद कर रहा हूं, ये हैं डाइवोर्स पेपर्स, मैंने दस्तखत कर दिए हैं तुम भी ....।
अमर ने कलम रमा की ओर बढ़ा दी। वो अमर का चेहरा न देख पायी। बस कलम पर आकर निगाह
जम गयी। आज वो भी अमर की तरह अमर के पास आकर उसका हाथ थामकर कह न पायी कि नहीं
अमर मैं तुम्हारे पास लौटना चाहती हूं। तब तुम्हें समझ नहीं पायी ..... अब पूरी तरह समझना चाहती हूं , तुम्हारे मन की मरूभूमि पर बरसना चाहती हूं....अब पाना नहीं लुटाना चाहती हूं .....तुम्हारे सूने मन को जिलाना चाहती हूं...."
उसकी जुबान पर कील गड़ी थी। धीरे धीरे उसका दायां हाथ आगे बढ़ा और कांपती उंगलियों से उसने कलम थाम ली।