आज उमा बहुत उदास है। पति के जाने के बाद दो ही सहारे थे ज़िन्दगी का सूनापन काटने के -- कॉलेज की नौकरी और नेहा। नेहा अब बारहवीं पास करके मुम्बई चली गयी। अब तो उसके कॉलेज का एक सेमेस्टर भी खत्म हो गया। लगभग रोज़ फोन पर बात होती है। पर आज कुछ अजीब सा खालीपन कचोट रहा है।
शुक्र है लेक्चरर की नौकरी है वरना तो यह तन्हाई जान ले लेती। लम्बी सांस खींचकर वो उठी। एक प्याला कॉफी हाथ में थामे नेहा के कमरे का रुख किया। तस्वीर में मुस्कुराती बेटी कह उठी -- चिल ममा ! नो मोर डिप्रेशन !!
उमा हौले से मुस्कुरा दी। टेबल का दराज़ खींचा और भीतर रखी गुलाबी फाइल निकाल ली। नेहा की यादों का खजाना खुल गया। उसकी अनगढ़ हैंडराइटिंग में लिखा पहला कार्ड - हैप्पी बर्थडे ममा ... हैप्पी न्यू ईयर.. हैप्पी मदर्स डे....आई लव यू ...थैंक यू जैसे दर्जन भर कार्ड थे। एक सॉरी कार्ड भी था जिसमे आंसू बहाता एक चेहरा अंकित था। हर सन्देश और छोटी छोटी इबारतें अतीत की खट्टी मीठी यादों की शक्ल अख्तियार करने लगीं। पिछले छह माह में रंग बिरंगे अक्षरों में नेहा केे भेजे कितने ही सन्देश और चिट्ठियां इस उदास शाम में उसकी ऊँगली थामे बैठी थीं। मानो नेहा ही उसके सुकून का सबब बनी उसके पास आ बैठी हो।
अगला दिन खुशगवार था। विदेश से भाई का संदेश आया है कि माँ भारत आ रही है। दस दिन उसके साथ ही रहेंगी। आहा, पूरे चार बरस बाद वो माँ से मिलेगी।
राधा को कहना होगा मेरे कॉलेज जाने पर माँ का पूरा ख्याल रखे। वो भी क्लासेस एडजस्ट करके कॉलेज से माँ के लिए जल्दी आ जाया करेगी।
माँ को देख वो पुलकित थी ...पर माँ इन चार बरसों में कितना झड़ गयी हैं। पचहत्तर तक पहुंचते पहुंचते चाल भी धीमी पड़ गयी है... पर यह क्या , अगली सुबह देखती है माँ चाय का प्याला थामे उसे जगाने आई है।
"अरे माँ ! तुम ...."
" पी ले उमा ! रोज़ तो खुद ही बनाती है " माँ की आवाज़ से शहद झर रहा था।
दोपहर कॉलेज से लौटी तो टेबल सजी थी। माँ आतुरता से खाना परोसने लगी। हाथ धोकर हटी तो माँ तौलिया लिए खड़ी थी। उमा को अपना बचपन याद आ गया। पर अब इस उम्र में माँ इतनी तकलीफ उठाए, ठीक नही लगता। लेकिन वो क्या करे माँ सुनती भी तो नहीं।
यही सिलसिला चल रहा है पिछले एक हफ्ते से। उमा नतमस्तक है बूढी माँ की सेवा और वात्सल्य के आगे। जी चाहता है माँ के सीने से लग जाय, चरणों में लोट जाय, बिलकुल वैसे ही जैसे नेहा उसके गले से लिपट जाती है। माँ के गाल चूम कर कहे "थैंक यू माँ" ठीक वैसे ही जैसे नेहा उसके गालों को चूम चूम कर कहती है।
पर हाय, कैसे कहे ... उसे तो लाज आती है, उसे आदत भी तो नहीं, उसके ज़माने में माँ बेटी में ऐसे लाड़ नहीं लड़ाए जाते थे। ज़िन्दगी भर तो कहा नहीं, अब क्या आज के ज़माने की नक़ल करूँ ? पर मैं कितनी रोमांचित होती हूँ नेहा के आई लव यू पर ...थैंक यू पर... आहा, उस रोमांच उस पुलक पर सारे जहां के सुख कुर्बान... क्या माँ को यह सुख नहीं मिलना चाहिए..
....और फिर कब पलकें नींद से बोझिल हुईं उमा न जान सकी।
अगले दिन कॉलेज से लौटी , खाना खाया। सारा काम खत्म कर रात को अपने कमरे में सोने आई। बिस्तर पर लेटी कि ठकमकाते माँ आ पहुंची। एक डिब्बा सामने रखा और बोली -- "ले तेरे लिए "
ढक्कन खोला तो अवाक्... ढेर सारे छिले हुए चिलगोजे ..बचपन से उसके फ़ेवरिट थे चिलगोजे पर वो छीलने से बहुत चिढ़ती थी। लगता है बीसियों साल बाद किसी ने छीलकर दिए है।
" माँ ! ये कब छीले ? "
" जब तू कॉलेज जाती थी" नेह बरसातीं पलकों ने बिछावन भिगो दिया।
माँ के प्रति उसका मन विह्वल प्रेम से भर गया। डिब्बा देकर लौटती माँ के पीछे गयी और बिना आँख मिलाए पीछे से ही माँ के गले में बाहें डालकर बोली --" थैंक यू माँ "
" अरे पगली... " कहते हुए माँ मुड़ी पर उमा प्रेम की इस अभूतपूर्व अभिव्यक्ति से लाल हुए मुख को छिपाकर बाथरूम में घुस गई।
सुबह इतवार था। वो कुछ देर से उठी। बाहर आई तो देखा माँ रसोई में उसके लिए चावल की कचौड़ियाँ बना रही थी। खुशबू के बवंडर उठ रहे थे.... साथ ही उसके कानों ने माँ की थरथराती आवाज़ में आज चालीस पैंतालीस साल बाद फिर से उनका वही पसंदीदा गीत सुना जो अपनी लरज़ती आवाज़ में वो अक्सर पापा की फरमाइश पर सुनाती थीं। उमा रसोई के बाहर ही ठिठक गयी और सुनती रही --- ढूंढो ढूंढो रे साजना
ढूंढो रे साजना, मोरे कान का बाला...।