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घर का डर - ४ - अंतिम भाग

उस कंडक्टर की इस बात से ही नन्दन की नींद खुली हाफते हाफते माथे का पसीना पोछा और अपने बगल में देखा तो एक पल को सुकून से आँख भर आयी..

नन्दन का ३ महीने का बच्चा नंदन की बीबी से लिपटकर सुकून से सो रहा था नन्दन को रोज रात वक्त पे खाना पहुँचाते हुए ३ साल हो चुके थे जब वहा से भागने के उसके सारे तरीके जवाब दे गये तो आखिरकार नन्दन ने अपने पिताजी यानी सरपंच की खेतीबाड़ी और अनाज का सारा काम काज संभल लिए इसी बिच उसने शादी भी की और अब एक छोटी ३ महीने की नन्ही सी बच्ची थी उसके ज़िन्दगी में..

नन्दन रोज़ सोचता था क्या करे बच्ची के बारेमे सोचकर नन्दन को एक अजीब सा डर सताया जा रहा था !!

नन्दन आज रात खान देने पहोचा तब खाना देकर रो पड़ा

कमरे में अन्दर से किसी के खाना खाने की आवाज़े अचानक से रुक सी गयीं जैसे अपने ग़ुलाम का दर्द सुनने बादशाह रुकते थे

नंदन रो पड़ा और रोते रोते कहने लगा,

"मैंने तुम लोगो का क्या बिगाड़ा है ? मैंने तो कुछ नही किया और तो मै था ही नही जब तुम दोनों के साथ गलत हुआ, मेरी बच्ची है,.. बीबी है, मुझे माफ़ कर दो..माफ़ कर दो मुझे

किसी और से खाना बुलवा लेना कल से मुझे जाने दो..मुझे जाने दो...

अपनी बात का जवाब मिला नन्दन को जब अन्दर से एक आवाज़ ने कहा,

"इस से बचने का सिर्फ एक ही तरीका है, किसी और को अपने साथ ले आओ जो मेरे लिए खाना लायेगा लेकिन बदले में तुझे मरना होगा.. इस से पूरी तरह छुटकारा पाने का तरीका सिर्फ मौत है..

नंदन के आँसू जैसे सुख गये ये सुनकर, पता नहीं कैसे पर अब उसे समझ आ गया था की उसे करना क्या है !! उसे ये सिलसिला रोकना ही था..

मुश्किल घडी में ही हिम्मत के असली ताकत दीखते है और नन्दन में हिम्मत सच में थी वो घर गया और पूरे वक्त चुपचाप ही रहा, दिन भर अपनी बच्ची के साथ खेलता रहा और अगली रात तक खाना तो क्या एक बूंद पानी भी नहीं पिया..

उसने रात होने पर खाने से भरा टिफ़िन बॉक्स उठाया एक हाथ में और दूसरे में अपनी ३ महीने की बच्ची को उठाया चल पडा उस मकान की ओर !!

मकान पर पहोच कर बड़े आराम से प्लेट में खाना निकला और सरका दिया दरवाज़े की ओर

"लो भाई, अब दूसरा कोई तो मिला नही तो मै ३ महीने की बच्ची को ही ले आया हूँ मुझे मारदो अब ये ३ महीने की बच्ची तुम्हें रोज़ खाना पहुँचाएगी.. ये ही तरीका नन्दन को समझ आया..

ये सब कुछ रोकने का, अब बच्ची तो खाना ला नही सकती यानी ये पूरी कहानी ये कौफ और डर का खेल बंद हो जाने चाहिए था.. नन्दन के सामने प्लेट दरवाज़े के नीचे से सरक कर बहार आयी और दरवाज़े से उस पार से किसी का बहुत हल्का सा एक रोना सुना दिया.

इधर नंदन अपनी बच्ची को देखे जा रहा था जिसको कुछ नही पता था की क्या हो रहा है ..

कहते है की बच्चे भगवान का रूप होते है शायद इसलिए उस दिन के बाद उस गाँव में किसी को कोई नुकसान नही हुआ और गाँव की सारी दिक्कते ख़त्म हो गयी एक ३ महीने की छोटी सी बच्ची की वजह से


बस इतनी सी थी ये कहानी

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