मोक्ष Pratap Singh द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मोक्ष


आस-पास के चालीस गावों के सबसे बड़े जमींदार उदय प्रताप के यहां बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा था।। बाहर से आये स्वामी जी यज्ञ के बाद कथा भी बांचते। जमींदार साहब ने यज्ञ में हो रहे उच्चारण को गांव वालों को सुनाने और अपनी कीर्ति की पताका चहुँ ओर लहराने के लिए बड़े-बड़े लाउडस्पीकर लगाए थे। ताकि उनके यहां होने यज्ञ की सुगंध के साथ मंत्रोच्चार भी अन्य गावों तक पहुँचे। आज सत्संग में आये स्वामी जी मोक्ष का महत्व और उसे प्राप्त करने के उपाय बता रहे थे। जमींदार साहब चहुँ ओर फैल रही अपनी कीर्ति से अभिभूत हो रहे थे। परन्तु एक चिंता उन्हें खाये जा रही थी। कि कहीं उनके यहाँ पीढ़ियों से काम कर रहा मरणासन्न भोला इस बीच कहीं प्राण न छोड़ दे। इसलिए उन्होंने अपने घोड़ों को बांधे जाने वाले अहाते में उनका बिस्तर लगवा दिया था। जहां वह इस बीच प्राण छोड़ भी दे तो, किसी को कानो-कान खबर न हो। उन्होंने भोला की ही तरह उनके घर में पल रहे या यूँ कहें पीढ़ियों से बंधुआ मजदूरी कर रहे,एक और बंधुआ मजदूर सरबन को, भोला के देखभाल से ज्यादा वह कहीं इस हालात में इस शुभ काम में कोई विध्न न डालने आ जाये इसीलिए उसे वहां रख छोड़ा था। आज भोला यदि स्वथ्य होता तो वह भी की इस काज को पूर्ण कराने का सक्रिय सहभागी होता।
बिस्तर पर आखिरी सांसे ले रहा भोला आज बड़ा खुश था। सामने मौत, उसके प्राण पखेरू होने को तैयार थे। और वह एक अनुपम आनंद से अभिभूत था। आज अपनी इस जीत पर आसमान के ओर ऐसे ताके जा रहा था जैसे इन पलों के उसे कबसे इन्तज़ार था। भोला के परदादा से शुरू हुए एक अंतहीन सफर जिसे भोला ने विराम दे उसका पटाक्षेप कर दिया था।
करीब डेढ़-सौ साल पहले की बात है। भोला के परदादा ने इकलौती लड़की का विवाह अपनी औकात से ज्यादा करने की सोची और गांव के जमींदार के कर्ज के जाल में ऐसा फंसा। जिसमें न सिर्फ उसकी खुद की जिंदगी जमीदार की गुलामी में कटी बल्कि उसके बाद कि तीन पीढियां भी उसी कर्ज को चुकाते-चुकाते गुजर गई। परन्तु गांव के जमींदार का कर्ज था कि वो खत्म होने को तैयार ही नहीं था। चौथी पीढ़ी भी आज इस मकड़जाल में उलझी ही रह जाती, अगर भोला को एक दिन जब वह चौदह साल का था, इस बात का एहसास न होता कि वह एक बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
जवानी अभी भोला में फूटने को आतुर थी। बाप और दादा के साथ जमींदार के खेतों मैं काम करते-करते उसका शरीर उम्र के हिसाब से बलिष्ठ हो आया था। ऊपर अब कुछ पहलवान दोस्तो का साथ। कई दाव-पेंच सिखा दिए थे। उन्ही सीखे दांव-पेंचों से भोला ने कितनी कुश्तियां जीत मारी थी। चार गॉवों में खूब नाम हो आया था। परन्तु अभी जमीदार को खबर न लगी थी।
मानसून के बाद खेतों में धान की बुवाई का समय हो आया था। खेतों में काम पूरे जोरों था। आज जिल्ले के उस छोटे कस्बे जोगनग्ला में दंगल था। आस-पास के पचीस गॉवों के पहलवानों में मुकाबला था। भोला के दोस्तो को भी उस पर पूरा विश्वास था। सो भोला के नाम का दांव खेल डाला था। और भोला ने भी निराश नहीं किया। अपने बाप और दादा को बिना बताए दंगल में शामिल हो गांव के नाम ट्रॉफी जीत ली।
गांव का बड़ा जमींदार उदय प्रताप , अपने सामने अपने बंधुआ मज़दूर को शक्तिशाली होते कैसे देख सकता था। इस बात से अंजान बेचारा बाप ट्रॉफी हाथों में लेकर बेटे को आशीर्वाद दिलाने ले गया।
"देखिये सरकार... हमरा लल्ला कुश्ती में मेडल जीत कर लाया है।" ख़ुशी से सराबोर शिब्बन ने अपनी सारी खुशी उड़ेल दी।
"हूँ...!" तिल्ली से दांतो को कुरेदते जमीदार ने ज्यादा प्रतिक्रिया नहीं दी और बोला।" अरे मुंशी जी देखिये तो शिब्बन का कितना और कर्जा बचा है?"
"यही कोई बीस-एक हज़ार है हज़ूर!" मुंशी ने बिना बही खाता देख जमींदार को मोटा-मोटा हिसाब बता दिया।
"अबे शिब्बन..!अभी कितने साल और लगेंगें तुझे अपना कर्जा चुकाने में?"
बाप के चेहरे से सारी खुशी काफ़ूर हो चुकी थी।
"जल्द चुका देंगे सरकार और अब तो हमरा बिटवा भी जवान हो गया है। दोनों लगेंगे तो जल्द आपका कर्जा खत्म कर देंगे।" शिब्बन ने अपने बेटे भोला से आशा रख जमीदार को भरोसा दे डाला।
हालाँकि ये शिब्बन को भी पता था कि वह अपने जीते जी इस कर्जे को नहीं चुका पाएगा। जो पचास रुपया उसके दादा ने लिया था। वो हज़ारों में बदल चुका था। जबकि इन रूपयों को चुकाने के एवज में उसका दादा और उसका बाप जमींदार के यहां बंधुआ मजदूरी करते-करते जमींदोज हो गए थे। अब उसकी बारी थी। और शायद कभी न खत्म होने वाली दासता।
उसी दिन भोला ने सोच लिया कि पीढ़ियों से चली आ रही इस दासता को वह आगे नहीं बढ़ने देगा। इसलिए उसने जीवन भर कुंवारा रहने की ठान ली। जमींदार के घर वाले यज्ञ में स्वामी जी मोक्ष का रास्ता बता रहे थे। और भोला ने मृत्यु को ओढ़ते हुए पीढ़ियों से चली आ रही अपनी दासता से मुक्ति पा ली थी। मोक्ष को सामने पाता देख भोला की सांसो जरूर बंद हो चुकी थी परन्तु आंखे खुली रह गयी थी। उसके लिए यही मोक्ष था।
स्वरचित
प्रताप सिंह
वसुंधरा गाज़ियाबाद
9890280763