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मैं तो ओढ चुनरिया - 27

मैं तो ओढ चुनरिया
अध्याय – सत्ताइस

मामा का पागलपन थमने का नाम ही नहीं ले रहा था । हर रोज वे अपने पागलपन में किसी को पकङ कर पीट देते । घर में तोङफोङ करते या फिर खुद को ही चोट पहुँचा लेते । इस बीच उन्होंने दो बार आत्महत्या की कोशिश भी की पर हर बार बचा लिये गये । बेचारी नानी और छोटे मामा , जहाँ भी कोई बताता , वहीं उन्हें ले जाते । कोई मंदिर , कोई गुरद्वारा , कोई मजार उन्होंने नहीं छोङा । हर रोज नया गंडा ताबीज उनके गले और हाथ में बंध जाता । कई झाङ फूंक करवाये गये । तरह तरह की पूजा की गयी । इस दौरान उन्हें दो बार अमृतसर के बङे पागलखाने में भी दिखाया गया । वहीं नानी को किसी ने बताया कि बाबा वडभाग सिंह बङी करनी वाले हैं । होली पर उनके डेरे पर मेला लगता है जहाँ वे लोग खास तौर पर लाये जाते हैं जिन्हें ओपरी कसर होती है । वहाँ झरने पर नहाने से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं । तो ये लोग अमृतसर से सीधे होशियारपुर आ गये । वहाँ से ऊना और वहाँ से मैङी ।
डेरा बाबा बडभाग सिंह जी मैड़ी में हर साल लाखों लोग अपनी मन्नतें लेकर आते हैं। मान्यता है कि बाबा जी के आशीर्वाद से वीर नाहर सिंह जी भक्तों की सभी मन्नतों को पूरा करते हैं। प्राचीन कथाओं के अनुसार पंजाब के करतारपुर से बाबा बड़भाग सिंह जी पहाड़ी क्षेत्र मैड़ी में आए और एक बेरी के नीचे तप करने लगे। तब यह स्थान जंगल होता था ।
उस वक्त स्थानीय लोगों ने बाबा जी से कहा कि यहाँ एक राक्षस नाहर सिंह रहता है, जो लोगों को खा जाता है।आप यहाँ न बैठें । इस पर बाबा जी ने कहा कि उसे आने दो , मैं उसे काबू कर लूंगा। इसके बाद नाहर सिंह आया और बाबा के तप में विघ्न डालने लगा । बाबा जी ने नाहर सिंह को बच्चे का रूप देकर एक पिंजरे में बंद कर दिया । नाहर सिंह ने बाबा जी से उसे छोड़ने की फरियाद की तो उन्होंने नाहर सिंह से वचन लिया कि जो भी दीन दुखी डेरा साहब में आएगा, वह उनकी मन्नतें पूरी कर उनके दुख-दर्द दूर करेगा। जिस बेरी के नीचे बाबा जी ने तपस्या की थी , वह आज भी डेरा बाबा बड़भाग सिंह जी बेरी साहब में सुशोभित है। इसके अलावा भी बाबा जी के चमत्कारों से संबंधित अन्य भी कई प्रकार की किंवदंतियां क्षेत्र में प्रचलित हैं।
होली के दिन बेरी साहब में निशान साहब चढ़ाए जाने के बाद रात को आटे, गुड़ और देसी घी से बना प्रसाद रखा जाता है। इस पर बाबा जी के हाथ की छाप आ जाती है, जिसे पंजे का प्रसाद कहा जाता है। इसके साथ ही क्षेत्र में गुरुद्वारा मंजी साहिब , कुज्जासर, चरणगंगा धौलीधार और मंदिर वीर नाहर सिंह जी भी भक्तों की आस्था का केंद्र रहते हैं। उनमें भी होली के दिन झंडा चढ़ाने की रस्म अदा की जाती है। उनके यहां बनाए गए पंजे के प्रसाद को संगतों में वितरित किया जाता है।
धौलीधार का झरना जिसे अब चरणगंगा कहा जाता है , को भी शुभ माना जाता है । डेरे में आनेवाला हर प्राणी चरण गंगा में स्नान के लिए अवश्य जाता हैं। मान्यता है कि इस पानी को पीने और नहाने से शरीर के कई विकार स्वत: खत्म हो जाते हैं । लौटते हुए लोग छोटी इलायचियाँ , झंडे का ताबीज , पंजे का प्रशाद और झरने का पानी अपने साथ ले जाते हैं । ऐसी मान्यता है कि इसे चालीस दिन श्रद्धा से लेने से मनोकामना अवश्य पूरी होती है ।
अब यह अमृतसर में लगे बिजली के झटकों का असर था या बाबा वडभागसिंह का कोई चमत्कार कि मामाजी अब ठीक होने लगे । दो महीने बीतते बीतते वे दफ्तर जाने लगे । नानी माँ के लिये भी इलायची और प्रशाद लाई । माँ ने श्रद्धाभाव से चालीस दिन वे इलायची और धौलाधार का पानी लिया । मामा के ठीक होते ही दोनों बच्चों नीलम और राम को मामी लिवा ले गयी । हमारा घर अब सूना सूना लगने लगा । जब तक ये दोनों घर में थे , पूरा दिन रोते या चीखते रहते थे । सैंकङों बार मैंने माँ को उन्हें उनके घर छोङ आने को कहा होगा । पर अब उनके सचमुच चले जाने से मैं उदास हो गयी । घर में मेरा मन ही नहीं लगता था ।
इन्हीं दिनों थियेटर में जय माँ संतोषी फिल्म लगी । इस फिल्म ने बाक्सआफिस के सारे रिकार्ड तोङ दिये । घर घर माँ संतोषी के चित्र लग गये । लोग गुङ चना का प्रशाद लेकर फिल्म देखने जाते । हाल के बाहर चप्पल जूते उतार कर फिलम देखने बैठते । जैसे ही संतोषी माँ स्क्रीन पर दिखाई देती , झुककर प्रणाम करते । भोग लगाते । स्क्रीन पर पैसे चढाते । प्रशाद बाँटते । जब हीरो या हिरोइन माँ की आरती गाते तो लोग भी आरती की थाली घुमा रहे होते । पूरा हाल अपनी संतोषी माँ के गीत से गूँजने लगता । पूरा भक्तिरस बह रहा होता । पूरे शहर में जगह जगह इस चमत्कारी देवी के चर्चे होने लगे । हम भी फिल्म देखने गये । वहाँ से गुङ चना का प्रशाद और व्रतकथा की पुस्तक मिली । घर आकर मैंने भी शुक्रवार के व्रत शुरु कर लिए । तब मैं आठवीं कक्षा में आ चुकी थी और बारहवें साल में प्रवेश कर चुकी थी ।
अभी मैंने दस महीने ही व्रत किये होंगे कि एक दिन मेरे भाई ने जन्म लिया । माँ ने मुझे दिखाया तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि ये इतना छोटा सा दुबला पतला , गोरा चिट्टा निरीह सा प्राणी मेरा भाई है । ये तो बहुत छोटा है सिर्फ एक हाथ जितना । अभी आँखें भी नहीं खुली । अब तक मैं पीतल के मंदिर में धरे ठाकुरजी को ही अपने भाई के रूप में जानती थी । उनसे ही मन की सारी बातें करती । उन्हीं को राखी बाँधती । अब ये भाई नाम का जीव पर माँ ने कहा है तो भाई ही होना चाहिए । एक दिन जब मैं राखी हाथ में लिये माँ को झिझोङकर पूछ रही थी कि मां राखी किसे बाँधू तो माँ मुझे लगभग खींचते हुए घर मंदिर ले गयी थी – ये ठाकुरजी तेरे भाई , सखा सब हैं । ले इनको बाँध राखी । मैंने ठाकुरजी को राखी बाँध दी थी । माँ ने ठाकुरजी के पेटी से पाँच रुपये निकालकर मेरी हथेली पर रख दिये थे । उसके बाद दो तीन दिन मैंने ठाकुरजी से बातकरने की कोशिश की पर वे तो न हिले न बोले । रात को मैंने माँ से ठाकुरजी की शिकायत की – माँ वे तो न मेरे साथ खेलते हैं न बोलते हैं तो माँ ने मुझे मोहन की कहानी सुनाई –
एक था बालक । उसका नाम था मोहन । उसकी बस एक माँ थी । पिता का देहान्त हो चुका था । पंडिताइन दो चार घरों में भीख माँगकर अपना और मोहन का पेट भरती । मोहन पांच साल का हुआ तो उसकी माँ ने उसे पढने के लिए गुरुजी के पास भेजा । रास्ते में जंगल पङता था । मोहन को डर लगता । उसने माँ से कहा – माँ सारे बच्चे अपने बहन भाइयों के साथ पढने आते हैं । क्या मेरा कोई भाई नहीं है । माँ की आँखें भर आई । उसने कहा – है क्यों नहीं गोपाल तेरा बङा भाई है । वहीं जंगल में रहता है । तू जंगल में जाकर उसे पुकार लेना ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...

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