मैं तो ओढ चुनरिया
अध्याय 26
उम्मीद तो यह थी कि रात को दिये इंजैक्शन से भरपूर नींद लेने के बाद मामाजी एकदम तरोताजा होकर उठेंगे और बिल्कुल ठीक हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । वे सुबह पाँच बजे दहाङते हुए उठे । उठते ही सामने रखी प्लेट मुक्का मार कर टेढी की फिर मोङकर तह कर दी । एक पीतल का तीन पाव दूधवाला गिलास तोङ दिया । फिर अपना पहना हुआ कुर्ता फाङा और भयानक हँसी हँसते हुए घर से बाहर दौङ गये । नानी और मामी ने शोर मचाया तो अङोस पङोस के लोग उन्हें लौटाने के लिए पीछे दौङे । छ फुट लंबे और एक सौ दस किलो वजन वाले पहलवान मामा क्या सहज ही किसी के काबू आनेवाले थे । वे चौक पर भाग गये थे । एक दो ने उन्हें पकङने की कोशिश की तो उसे मामा ने बुरी तरह पटकनी दे दी । आखिर बङी मुश्किल से दस बारह लोगों ने उन्हें पकङा और किसी तरह उन्हें घर लाया गया । घर की रसोई खाली करके उसमें उन्हें बंद कर दिया गया । अब सुबह शाम डाक्टर आता , उन्हें इंजैक्शन दे जाता । जितनी देर उस टीके का असर रहता , उतनी देर मामा शांत रहते । दवा का असर खत्म होते ही उनका पागलपन फिर से जाग उठता ।
छोटे मामा जब तक घर में रहते , उनका पागलपन काबू में रहता । वे छोटे मामा से डरने लगे थे । जब मामा काम पर जाते तो उन्हें रसोई में बंद कर जाते । मामी जो लङ झगङ कर अलग खाना बनाने लगी थी , इस मुसीबत की घङी में नानी पर निर्भर हो गयी थी । डाकघर से अब आधी तनख्वाह आती जिसमें से बङा हिस्सा मामा की दवा और इलाज पर खर्च हो रहा था ।
माँ अपनी भतीजी पिंकी और भतीजे राम को अपने साथ घर ले आई थी । पिंकी इस संमय साढे पाँच साल की थी और राम चार साल का । उससे छोटे तीन भाई बहन और थे जो मामी के पास रह गये थे । पिंकी और राम थोङा बहुत हालात समझने लग गये थे । वे मामा को बाहर बैठा देखते ही बुरी तरह से रोना धोना शुरु कर देते । चिल्ला चिल्ला कर पूरा घर सिर पर उठा लेते । डाँटे जाने पर सहम कर चुप हो जाते पर देर तक सुबकते रहते । हमारे घर आकर उनका बचपन फिर लौट आया था । अब वे सारा दिन मेरे खिलौनों से खेलते रहते । एक जगह से दूसरी जगह भागते दौङते रहते । दो चार दिन तो मुझे उनका आना अच्छा लगा पर ज्यादा देर शोर की मुझे आदत ही नहीं थी । ऊपर से मेरे सारे फ्राक अब पिंकी पहनने लगी थी । वह अंदर घुस जाती और संदूकची खोलकर मेरे सारे कपङे बिखेर देती फिर उनमें से जो पसंद आता , पहन कर छिप जाती । कभी कभी तो बहुत ढूँढने पर ही मिलती । राम पूरा दिन रसोई में छिप कर कुछ न कुछ खाता रहता फिर उसका पेट खराब हो जाता और पिताजी को उसे दवाई देनी पङती । अक्सर वह सबके हिस्से की चीजें खा जाता और हमें अपनी लालसा दबाकर , मन मारना पङता । मुझे उनका साथ अच्छा लगता पर अपने कपङे और खाने पीने का सामान बाँटना बिल्कुल भाता न था । घर में किसी से शिकायत करने पर हमेशा सुनने को मिलता , बस थोङे दिन की तो बात है , तेरे मामा ठीक हो गये तो ये दोनों अपने घर चले जाएंगे । मैं हर रोज ठाकुरजी से प्रार्थना करती कि हे ठाकुरजी मेरे मामा को जल्दी से ठीक कर दो ।
मामा हर समय बहकी बहकी बातें करते , कभी कहते मैंने लाटरी के सौ टिकट लिए हैं , उनमें से पाँच टिकटों पर मेरी लाटरी निकली है । अब हम एक बङा सारा घर ले रहे हैं । उसमें मैं और तृप्ता रहेंगे । और किसी को वहाँ नहीं ले जाना । कोई मजाक में पूछ बैठता -फिर ये बच्चे कहाँ रहेंगे तो कहते ये बच्चे तो भाभी के हैं । अभी परसों तो मेरी शादी हुई है । तुमने ढोल की आवाज नहीं सुनी । कितनी जोर से तो बजवाया था मैंने ।
कभी कहते – मैं आज फौज में भरती होकर आया हूँ । सीधा कर्नल लगा दिया सरकार ने । अब मैं याहिया खां को बंदूक से गोली मार दूँगा , मेरे घर जाकर बैठ गया है । मैं हनुमान की गदा से उसका सिर फोङने वाला हूँ फिर वो मेरे पैरों पर गिर कर माफी माँगेगा । तभी उन्हें अपनी डाक विभाग की नौकरी याद आ जाती तो कहते – कल मेरी छुट्टी की अरजी पहुँचा आना । फौज में जाने से पहले छुट्टी मंजूर करवानी जरूरी होती है और हाँ किशनलाल , रमेस , बाबू सबको कहना चलने के लिए तैयार रहे । उस रहमते को भी साथ लेकर चलना है । साला मेरे चौरासी रुपये लेकर भागना चाहता है , पाकिस्तान की फौज के ऐन सामने खङा करना है उसे । चारों तरफ से गोलियाँ लगेंगी न तो झट से रुपये निकाल देगा ।
कभी कहते – इंदिरा गाँधी का भतीजा है याहिया खाँ । वो दावत पर बुलाती है उसे । बढिया मुरग मुसल्लम और बकरे खिलाती है । पहले उसे जेल में बंद करना है ।
लोग सुनते । कुछ फीकी सी हँसी हँस लेते और कुछ की आँखें नम हो जाती । नानी अभी तक विभाजन के दर्द को भुलाने की कोशिश कर रही थी । रह रह कर अपने बिछुङ गये भाई जैसे देवर मुंशी को याद कर लेती जो फौजी गाङियों के आने के समय बाङे में दूध दोहने गया था और वहीं पाकिस्तान में रह गया था । या अपने सद्यजात बेटे को याद कर रो लेती जो दुनिया देखने से पहले ही फाजिल्का के शरणार्थी कैंप में चल बसा था और वे टूटा तन मन लेकर यहाँ सहारनपुर आ गयी थी । यहाँ आने के दो साल बाद ही नाना जी की पीलीया से असमय मौत हो गयी । नानी ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी । सोचा था कि ये बेटे बङे हो जाएंगे तो सारे दुख दूर हो जाएंगे । बेटे पढ लिख गये । बङा बेटा डाकघर में नौकर हो गया । मंझला प्राइवेट स्कूल में संगीत सिखाने लगा । छोटा बेटा किसी साबुन बनाने की फैक्ट्री में कारीगर हो गया । बङा बेटा शादीशुदा होकर बालबच्चेदार हो गया और क्या चाहिए था पर अब एक बार फिर से सारा हिसाब किताब गङबङा गया था । मामा की पूरी गृहस्थी नानी को अपने कंधों पर उठानी पङ रही थी । माँ ने दो बच्चों की जिम्मेदारी खुद उठा ली थी और पिताजी अपनी दुकान से अक्सर मामा के लिए दवाइयाँ ले आते पर परेशानी तो थी ही ।
बाकी अगली कङी में ...