नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 10 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 10

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अब गाड़ी झाबुआ के बाज़ार में से निकलकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी | बाज़ार में से गुज़रते हुए समिधा की दृष्टि वहाँ के वातावरण का जायज़ा लेने लगी | उसके पास रैम बैठा था |, दामले के पास्स मि. दामले और वह युवक जो उनके साथ आया था और पीछे की सीट पर झाबुआ में शोध करने आए हुए दो और युवक बैठे थे |

जैसे ही गाड़ी झाबुआ के मेन बाज़ार के बीचोंबीच पहुँची समिधा ने देखा वहाँ पर भी सड़कों पर वैसा ही बाज़ार लगा था जैसा शहरों में सप्ताह में एक विशेष दिन लगता है, उसे पैंठ कहा जाता है |ऐसे बाज़ार के लिए विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न दिन तय होते हैं |कहीं ये बाज़ार मंगल को लगता है तो कहीं शनिवार को और कहीं रविवार को !

समिधा को यहाँ का बाज़ार कुछ वैसा ही लगा |छींट के रंगीन और सादे कपड़े डोरियों पर लटक रहे थे |छोटी, बड़ी दुकानें भी खुल चुकी थीं | कुछ मर्द और औरतें फुटपाथ पर कपड़ा बिछाए उस पर थोड़ी-थोड़ी सब्जियाँ रखे बैठे थे | कुछ खरीदार झुककर सब्ज़ी छांटते हुए मोलभाव करते दिखाई दे रहे थे | लगभग पौने ग्यारह का सामी रहा होगा | दामले बोले ;

“आज काफ़ी देर हो गई है, कल से हमें सुबह नौ बजे निकल जाना होगा |”

वह देर का कार्न पूछना चाहती थी लेकिन चुप रही | दामले का स्वभाव था।वे बहुत बातें करते थे पर साथ ही हँसोड़ भी थे अत:आसानी से कहीं भी चिपककर छूटने का नाम ही नहीं लेते थे | उनके साथ कम करने वालों ने उनका नाम ‘FC ‘ यानि फ़ेविकोल रख दिया था, जिससे चिपक जाते उससे उन्हें बड़ी मुश्किल से छुड़ाना पड़ता था | बाद में कहते ;

“यहाँ के लोग हैं ही इतने प्यारे –और –यू नो, मैं इनके साथ कितने वर्षों से जुड़ा हूँ |”

और भी न जाने क्या-क्या –सब उनकी इस आदत से परिचित थे और मन ही मन मुस्कुराते रहते थे | वे बार-बार अपनी सफ़ाई देते नज़र आते ---

“रोक्न बंसी ज़रा –“दमले ने अचानक बंसी को आदेश दिया |

“अब क्या हुआ ?”समिधा ने सोचा –“दामले ने एक दुकान की ओर इशारा किया –

“मैडम ! देख रही हैं टी. वी –वो, सामने पेड़ पर –“

समिधा ने देखा एक पेड़ पर टेलीविज़न को जैसे-तैसे करके लटकाया गया था, जो टेलीविज़न से अधिक टीन का बड़ा डिब्बा सा लग रहा था, जिसे पीछे से न जाने कैसे रस्सियों से बाँध दिया गया था |

“इसी पर आपका सीरियल देखेंगे झाबुआ के लोग –वो जो उस पेड़ के पीछे दुकान है न, उसी के मालिक को कौंट्रेक्ट दे दिया गया है, कार्यक्रम चालू करने का –अभी जो प्रोग्राम चलते हैं, वे इसी मालिक के सहयोग से चलते हैं और आपका तो सीरियल होगा | दर्शक मनोरंजन की दृष्टि से देखने आएँगे, उन्हें चेंज मिलेगा | आपको रात में लेकर आऊँगा, देखिए कितनी भीड़ जमा हो जाती है |”

‘कितना सच है !’ समिधा ने सोचा ।दुनिया में सभी को तो बदलाव की ज़रूरत महसूस होती है | ज़िंदगी में एक सी साँसें लेते हुए लोग कैसे ऊबने लगते हैं ! संभावत: दुनिया बनाने वाले ने भी भाँति-भाँति के अद्भुत रंग इसीलिए भरे हैं, ऋतुओं में बदलाव किए हैं –बस, मनुष्य जिसके पास सबसे सुंदर व उपयोगी मस्तिष्क है, वही एक मशीन की भाँति निरंतर कभी-कभी एक ही दिशा में चलता रहता है |

“न--न –सर, आपको पता है –मैडम को रात में यहाँ नहीं लाने का –“रैम शीघ्रता से बोल उठा | “कितनी चिंता करता है रैम –मैडम की –मैं हूँ न –“दामले ने मुस्कुराए |

समिधा ने सम?”झने की मुद्रा में सिर हिलाया फिर धीरे से कहा |

“अब चलें ?”

उसे भय था अभी कोई और परिचित आकार दामले से चिपक जाएगा |

बाज़ार से गुज़रते हुए समिधा आरएनजी-बिरंगे कपड़ों में मर्द और औरतों को देख रही थी –किसी किसी की काँख में बच्चे भी लटके हुए थे जिनका एक पैर पेट और पीठ पर चिपका हुआ था|कोई अकेला चल रहा था तो कोई अपने साथी के साथ ! अधिकांश मर्दों की लुंगियाँ घुटनों तक चढ़ी हुईं थीं और शरीर के ऊपरी भाग में किसीने बंडी जैसी और किसीने ऊँचा कमीज़नुमा कुर्ता सा पहन रखा था |

स्त्रियों ने घाघरा व पेटीकोट के बीच का सा कोई परिधान, उस पर ब्लाउज़ या कुर्ती के समान कोई वस्त्र पहना हुआ था | हाँ, एक परिधान सबका समान था और वह था उनके सिर ढकने का जो या तो किसी सूती धोती में से बनाया गया होगा या फिर कोई लंबे दुपट्टे जैसे कपड़े से ! समिधा सोच रही थी कि मनुष्य की जाति या धर्म चाहे कुछ भी हो, वह गरीब हो -अमीर हो, शिक्षित हो-अशिक्षित हो –एक बात सबमें ‘सामान्य’ है और वह है कि सब अपने सौंदर्य के प्रति जागरूक हैं | सुंदर दिखना सबको अच्छा लगता है |भूख के लिए दिन भर दहाड़ी पर निकालने वाले ये लोग मैले कपड़ों में लिपटे होने पर भी आभूषणों से स्वयं को सजाए हुए थे |

स्त्रियों ने कानों में झुमके, टॉप्स या लटकन जैसा कान में कुछ जेवर पहना हुआ था, उनके कानों के ऊपरी भाग भी बिंधे हुए थे उमेन भी पीतल या गिलट की बलियाँ शोभायमान थीं |गले में या तो काले मोतियों की या रंग-बिरंगे मोतियों की मालाएँ थीं | किसी-किसी के गले में सोने का भ्रम देतीं, पीतल या चाँदी का भ्रम पैदा करते गिलट के हार या लंबी माला जैसा कुछ लटक रहा था जो चलते हुए उनके वक्षस्थल पर इधर-उधर डोल रहा था |स्त्रियों के हाथों पर रंग-बिरंगी प्लास्टिक की चूड़ियाँ भी साजी हुईं थीं और वे अपने साथियों जो संभवत: उनके पति थे, उनसे मुस्कुराते हुए बातें करते हुए जा रही थीं |अपने सुख के केएसएचएन बाँटते हुए वे अपने साथियों के साथ प्रसन्न मुद्रा में डोलती सी चल रही थीं |

इसी प्रकार के सामी को हम तथाकथित उच्चस्तरीय शिक्षित लोग ‘क्वालिटी टाइम ‘से नवाज़ते हैं |

मर्दों ने भी अपने शरीर पर आभूषण धारण किए हुए थे जो उसकी समझ के अनुसार गिलट या ताँबे के रहे होंगे |उनके एक हाथ या पैर या किसी के हाथ-पैर दोनों में चाँदी का भ्रम देता हुआ गिलट का मोटा सा कड़ा दिखाई दे रहा था | हाँ ।मर्द और औरतों –दोनों के शरीर पर गोदने गुदे हुए थे जो काफ़ी मात्रा में हाथों पर थे औरतों की ठोड़ी पर टीन काले बिंदु बने हुए थे जो दूर से दिखाई दे रहे थे |

कुछ मर्दों ने अपने हाथों में और किसीने अपने गले में डोरी से बाँधकर ‘ट्रांज़िस्टर’लटकाए हुए थे जिनमें से गीतों की धुनें प्र्वहमान हो रहीं थीं और वे गाते हुए, मुस्कुराते हुए या षड गीत की लय के साथ मस्ती करते हुए गुंगुनाते दिखाई दे रहे थे |

समिधा ने उनके भीतर ऐसी सहभागिता देखी जो उसे शहर में कम ही देखने को मिली थी |किसी भी बनावट से बेख़बर इन लोगों में उसे सही मानों में ‘कंपेनियनशिप’दिखाई दी |

कहने को शहर शहर में रहने वाला व्यक्ति सभ्य है, सुसंस्कृत है पर क्या वह अपने साथी के साथ इस योग जैसी मस्ती के साथ जीवन व्यतीत कर पाता है ?एक अजीब प्रकार का मुलम्मा, आवरण चढ़ा रहता है उसके व्यक्तित्व पर !बनावट का पारदर्शी आवरण ओढ़े हम क्या वास्तव में इस सहजता से जीवन व्यतीत कर पाते हैं?उन्हें तो हर सामी यही भय लगा रहता है कि अपने बनावटी आवरण को कैसे सहेजकर आरकेएच सकें ? उनके जीवन की वास्तविकता जग-ज़ाहिर न हो !इस पर वे कितना समय, धन व ऊर्जा नष्ट करते हैं !

‘एक अजीब से पाशोपेश में अपनी ज़िंदगी जीने वाला सभ्यता के आवरण में लिपटा सभ्य, सुसंस्कृत कहलाने वाला व्यक्ति कितनी-कितनी मनोवैज्ञानिक उलझनों में घिरा रहता है ! उसका मन खूब जानता है कि वह भीतर से कितना खोखला है फिर भी वह आवरण पर आवरण के मुलम्मे चढ़ाए फिरता है | कितना अश्ज है शहर का वह तथाकथित शिक्षित सभ्य व्यक्ति ! और जब कभी उसकी असलियत सामने आ जाती हैतो वह बगलें झाँकता है, परेशान होता है, रोता है, दूसरों को दोषी ठहराता है |

समिधा को अपनी लिखी हुई ग़ज़ल का एक शेर याद आ गया ---

खुल गया भेद कौन क्या-क्या था

जब कभी बेनकाब चेहरा हुआ !