टीका-टीका-टीका!! आज सभी जगह एक ही चर्चा है। आपने टीका लगवा लिया? जिसने लगवा लिया है वह अपनी बत्तीसी दिखाता है तथा जिसने नहीं लिया है वह मुंह फुलाया हुआ चेहरा दिखाता है। साथ ही में सरकार को घेरने का अवसर नहीं जाने देता। नहीं लेने वाले व्यक्ति के अनुसार वह तो टीका लेने के लिए तैयार है, मगर टीका-केन्द्रों पर टीका उपलब्ध ही नहीं है। सब सरकार की नाकामी है। यह सरकार इस महामारी का प्रबंधन ठीक से नहीं कर पा रही है। अगले आम चुनाव में जनता सबक सिखाएगी.....।इत्यादि बातों से कोसना प्रारंभ हो जाता है।
इस कोरोना महामारी के इतने टीके आ गए हैं कि याद रखना भी कठिन है। पहले तो याद करने की कोशिश कर रहे थे बाद में यह दायित्व गूगल को दे दिए। जब आवश्यकता होगी-गूगल से प्राप्त कर लेंगे।
पति के घर में प्रवेश करते ही श्रीमती जी अपनी मांग के टीकों को प्रस्तुत कर देती हैं। आपने यह नहीं लाया, वह नहीं लाया। घर में सामान नहीं है। आपको कुछ चिंता भी है या नहीं?
पति यदि श्रीमती जी के मांग के टीकों को पूरा करता है तो उनकी असली वाली ‘मांग-टीका’ की मांग शुरू हो जाती है। वैसे श्रीमतीजी सब ख़ास पर्वों में ‘मांग-टीका’ में नजर आती हैं तथा खूबसूरत भी दिखती है। अन्य दिनों में तो वे ‘सिंहनी’ नजर आती हैं।
श्रीमतीजी एकदम से मधुर आवाज में कहती हैं, “सुनिए न! अगली बार आप टीका ही दिला दीजिए।”
पति महोदय भी भोले बनते हुए कहते हैं, जब मोदीजी टीका की व्यवस्था करेंगे तो लेते आयेंगे।
अरे! मैं वो वाली टीकों की मांग नहीं कर रही। मैं तो माथे पर पहनने वाले टीकों की बात कर रही हूँ। श्रीमतीजी समझाने का प्रयास करती हैं।
आजकल देश में बहुत-सी राज्य सरकारें राज्य में आनेवालों के लिए टीका लेने का प्रमाणपत्र साथ में लाने को कहते हैं। यदि टीकाकरण का प्रमाणपत्र नहीं है तो वापस लौटना होगा या टीकाकरण करवाना होगा। मतलब टीका अभी आवश्यक आवश्यकताओं की श्रेणी में आ गया है।
यदि टीकाकरण नहीं हुआ है तो सगे-सम्बन्धी, हित-कुटुम्ब, रिश्ते-नाते, सहकर्मी-मित्र सभी एक विचित्र-सा मुंह बनाकर पेश आते हैं।
टीका अपने देश में कोई नयी बात नहीं है। प्राचीनकाल से यह परंपरा चली आ रही है। प्राचीनकाल में मस्तक पर टीका लगाने की परम्परा थी। हमारे देश में पंडितजी सब नित्य स्नान कर, माथे पर चंदन का टीका लगा लेते थे। उस वक्त चंदन की वह सुगंध उन्हें सब प्रकार की व्याधियों से दूर रखती थी। पंडितजी तो स्वयं लगा लेते थे लेकिन उनकी वह नक़ल समाज के अन्य लोगों ने नहीं की तथा पंडितजी क्यों लगाते हैं – यह जानने की कोशिश भी नहीं की।
दुर्गापूजा या अन्य त्योहारों के अवसर पर माताजी, नानीजी-मौसीजी, चाचीजी-बूआजी आदि कान में या ललाट पर टीका लगाती थी। जिसे ‘दीयाटेमी’ या ‘दीयाटीका’ भी कहा जाता है। वह दीयाटीका भी बुरी नज़रों से बचाने में बहुत कारगर सिद्ध होता था। आजकल की नयी-नवेली दुल्हनों को तो विदेशी भाषा की एक पंक्ति केवल याद है और केवल उतनी-सी पंक्ति को ही खूब जोर-शोर से गाती हैं। वह पंक्ति बच्चे के जन्मदिन के अवसर पर गाती है – हैप्पी बर्थडे टू यू....। इसके अलावे और कुछ भी याद नहीं रहता है। अपने संस्कार को छोड़कर वह एकमात्र अंग्रेजी की पंक्ति बोलने को विकास कहते हैं। साथ ही दुल्हनों को लगता है कि वे विकसित हो गयी हैं।
टीका के विकास यात्रा में हमारे प्रवचनकर्ता भी पीछे नहीं हैं। वे गीता-टीका, रामायण-टीका आदि की खोज करते रहते हैं। उन्हीं टीकों के आधार पर उनकी रोजी-रोटी चलती है।
छात्र समुदाय भी पाठ्यपुस्तकों के टीकों की खोज में लगे रहते हैं। अपने दोस्तों से मिलजुलकर टीका खरीदते हैं। कोई गणित तो कोई अंग्रेजी का टीका खरीद लाता है। वैसे पुस्तकों के टीकों को ‘कुंजी’ भी कहा जाता है।
अंत में इतना ही कह सकते हैं कि आज के समय में टीका बहुत ही आवश्यक है। टीका सभी को चाहिए। बिना टीका यह धरती शून्य ही नजर आती है। टीका की महिमा ही निराली है।