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तृप्ति (सम्पूर्ण भाग)

एक वैभवशाली राज्य में,
"अरे,श्याम! आज तुम ठीक से मृदंग क्यों नहीं बजा रहे,एक भी थाप ठीक से नहीं लग रही,"कमलनयनी बोली।
"आज मेरा मन थोड़ा विचलित सा है राज नर्तकी जी! "श्याम बोला।
"परन्तु क्यों? श्याम! आज तुम्हारा मन इतना विचलित क्यों है? क्या कारण है?" कमलनयनी ने पूछा।
"कुछ नहीं,बस ऐसे ही,"श्याम ने उत्तर दिया।
"यदि नहीं बताना चाहते तो मत बताओं,परन्तु अभ्यास में विघ्न ना डालों,अभ्यास तो भलीभाँति कर लो",कमलनयनी बोली।
"ठीक है" और इतने कहकर श्याम,कमलनयनी के संग अभ्यास में लग गया।
कमलनयनी,पल्लव देश के राजा कर्णसेन की राजनर्तकी है,कर्णसेन हृदय से कमलनयनी को प्रेम करते हैं,उसे अपनी प्रेमिका मानते हैं,परन्तु कमलनयनी उनसे केवल प्रेम का अभिनय करती है,वो इसलिए कि उसका राजनर्तकी का पद बना रहे,उसे केवल धन और वैभव का लोभ है,इतना बड़ा महल और इतने सारे दास-दासियाँ वो त्यागना नहीं चाहती,राजा कर्णसेन उससे विवाह करना तो चाहते हैं किन्तु कमलनयनी ने उनसे कहा कि उनके दो रानियाँ और पाँच पुत्र तो पहले से ही हैं,यदि मैने आपसे विवाह कर लिया तो मैं तो सबसे छोटी और तीसरी रानी कहलाऊँगी और मेरी होने वाली सन्तान को भी उचित स्थान नहीं मिलेगा।
श्याम,कमलनयनी का नृत्य सहायक है और साथ में मृदंग भी बजाता है,वो भी कमलनयनी को हृदय की तलहटी से प्रेम करता है परन्तु कभी कह नहीं पाया,कमलनयनी उसके हृदय की बात ज्ञात होते हुए भी अज्ञात होने का अभिनय करती रहती है।मयूरी,कमलनयनी की सखी,दासी ,सौन्दर्य-चतुरा,नृत्य सहायिका ,बहुत कुछ है,वो कमलनयनी को सच्चे हृदय से अपनी स्वामिनी मानती है,परन्तु वो श्याम से प्रेम करती है।
आज पड़ोसी देश के राजा पधारे हैं,उनके सम्मान में आज रात्रि राजनर्तकी कमलनयनी का नृत्य है,इसलिए कमलनयनी नृत्य का अभ्यास कर रही है,उसके संग श्याम भी मृदंग बजाएगा,परन्तु श्याम का मन आज इसलिए विचलित है कि पुनः राजदरबार में कमलनयनी का नृत्य देखा जाएगा,कोई तो उसकी प्रसंशा करेगा, कोई तो अभद्रतापूर्ण टिप्पणियाँ देगा,इन सब से कमलनयनी को कोई अन्तर नहीं पड़ता ,परन्तु श्याम का हृदय द्रवित हो जाता है।

रात्रि के समय कमलनयनी का श्रृंगार मयूरी ने बड़ी निपुणता के संग किया,बहुत ही सुन्दर दिखाई दे रही थी कमलनयनी लाल वर्ण के परिधान में,घने बालों का जूड़ा बनाकर पुष्प माला से सजा दिया गया था,दोनों गालों को बालों की लम्बी लम्बी अल्के छू रहीं थीं,माथे पर मोतियों की माँग टीका सजा था,सूरज के आकार वाली बिन्दिया माथे की शोभा बढ़ा रही थी,कमलनयनी की आँखें तो कमल के समान सुन्दर थी जो कि काजल लगाने से और भी सुन्दर दिख रहीं थीं,होंठ गुलाब की पंखुड़ियों के समान लग रहे थे,कानों में झुमके,गले में सात लड़ियों वाला मोतियों का हार था,बाजुओं में मोतियों के बाजूबन्द,कलाइयों में सोने की चूडियाँ,पतली कमर खुली हुई थी और नाभि को छूती हुई एक पतली सी सोने की कमरबंद उसने पहन रखी थी,महावर लगे पैंरों में घुँघरू बँधे थे और गोटेदार लाल लम्बी सी चूनर ओढ़ रखी थी,गजगामिनी सी चाल चलते हुए कमलनयनी जब दरबार में पहुँची तो सबकी आँखें चौंधिया गई।
इसके उपरांत कर्णसेन ने आदेश दिया कि नृत्य प्रारम्भ किया जाए,कर्णसेन के आदेश पर कमलनयनी ने अपना नृत्य प्रारम्भ किया___
कमलनयनी की भाव भंगिमा देखकर सब हतप्रभ रह गए,श्याम की मृदंग का और कमलनयनी के नृत्य का जादू सब पर ऐसा छाया कि कोई भी अपनी पलकें भी नहीं झपका पाया,कमलनयनी मोरनी की तरह थिरक रही थी,बिजली सी स्फूर्ति थी उसके भीतर और नृत्य करते समय जो तेज उसके मुँख पर चमक रहा था वो उसके भीतर की आत्मविश्वास को दर्शा रहा था,उसका एक एक अंग नृत्य कर रहा था,सारा पुरूष वर्ग उसे देखकर आहें भर रहा था और ये सोच रहा था कि बस कमलनयनी उसकी हो जाए।
कमलनयनी का नृत्य समाप्त हुआ,तालियों की गड़गड़ाहट से समूचा राजदरबार गूँज उठा,पड़ोसी भी अत्यधिक प्रसन्न हुए,उन्होंने अपने हाथों में पहनी हीरे की अँगूठी कमलनयनी को उपहार स्वरूप भेंट की,श्याम को ये सब ना भाया और वो दरबार छोड़कर वहाँ से चला गया,उसे ये ना भाता था कि कोई इस प्रकार भेंट देकर उसकी कला का अपमान करें,कोई भी अपने शरीर के उतारे हुए आभूषण उसकी ओर फेंके,उसकी कला उसके लिए बहुत अनमोल थी,परन्तु कमलनयनी को इन सबसे कोई अन्तर ना पड़ता था,वो तो बस इसी राग रंग से प्रसन्न थी।
कार्यक्रम समाप्त हुआ और कमलनयनी श्याम को ढूढ़ते हुए अपने महल में पहुँची,परन्तु उसे श्याम कहीं ना दिखा,तभी मयूरी ने कमलनयनी से पूछा____
"कदाचित! आप श्याम को खोज रहीं हैं,हैं ना कमलनयनी!"
"हाँ,ना जाने रूठकर कहाँ चला गया,"कमलनयनी बोली।
"वो यही तो करता है जब कभी किसी से रूठ जाता है तो नदी के किनारे जा बैठता है,वहीं गया होगा,आप चिन्ता ना करें,क्रोध शांत होते ही आ जाएगा,"मयूरी बोली।
"मयूरी! इतना अच्छा कार्यक्रम हुआ और ये महाशय रूठकर चले गए," कमलनयनी बोली।
"अरे,वो तो ऐसा ही है,क्या आप वर्षों से उसे नहीं जानतीं",मयूरी बोली।
"परन्तु,ऐसा व्यवहार! " कमलनयनी बोली।
"चलिए ! स्वामिनी जी ,अत्यधिक मस्तिष्क पर आघात मत कीजिए,वो आ ही जाएगें,आप और मैं चलकर भोजन करते हैं,"मयूरी बोली।
"कितनी बार कहा मैने कि स्वामिनी मत कहा करो,मैं केवल तुम्हारी सखी हूँ,"कमलनयनी बोली।
"अच्छा,ठीक है देवी! अब भोजन करें',मयूरी बोली।
" हाँ,चलो भोजन करते हैं "और इतना कहकर कमलनयनी मयूरी के संग भोजन करने चली गई।
राजा कर्णसेन के राजपुरोहित अब अत्यधिक वृद्ध हो चले थे,राजपुरोहित जी ने स्वयं ही राजा कर्णसेन से इस विषय पर कहा___
"महाराज! अब अवकाश चाहता हूँ,अब इस वृद्ध शरीर में मन्दिर का कार्यभार सम्भालने की क्षमता नहीं रह गई है,मेरी अपनी कोई सन्तान भी नहीं है ,नहीं तो ये पद मैं उसे सौंप देता,अब आप किसी नवयुवक को इस पद पर आसीन करें,"
"राजपुरोहित जी! ये तो आपने हमें दुविधा में डाल दिया,"राजा कर्णसेन बोले।
"परन्तु मैं भी विवश हूँ राजन!" राजपुरोहित जी बोले।
तभी कर्णसेन के पड़ोसी मित्र ने कहा___
"हे मित्र! आप चिन्तित ना हों,मैं एक बहुत अच्छे ज्ञाता युवक से परिचित हूँ,वो आपके राज्य के राज्यपुरोहित बनने के योग्य हैं,यदि आपका आदेश हो तो मैं उनसे इस विषय पर वार्तालाप करूँ।"
"मित्र!आपने तो मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी,आपका बहुत बहुत आभार",कर्णसेन ने अपने मित्र से कहा।

कुछ समय पश्चात उस राज्य में नए पुरोहित का आगमन हुआ,नए पुरोहित कम उम्र के हृष्ट पुष्ट नवयुवक थे ,महल की महिलाएं उन्हें देखकर आपस में वार्तालाप करतीं,कहती कि नए पुरोहित किसी राजकुमार से कम नहीं हैं,अत्यधिक सजीले नवयुवक हैं,संग में बहुत बड़े ज्ञाता भी हैं और किसी भी स्त्री की ओर आँख उठाकर नहीं देखते,अत्यधिक चरित्रवान भी हैं।
उड़ते उड़ते ये सूचना कमलनयनी तक पहुँची,मयूरी ने उसे सारी बात बताई,मैनें अच्छे अच्छो का मोहभंग किया है,इस पुरोहित को भी चुटकियों में वश में कर लूँगीं,कमलनयनी बोली।और कुछ दिनों पश्चात ही मंदिर के प्राँगण में बहुत बड़ा उत्सव होने वाला है और उसमे पुनः राजनर्तकी का नृत्य है,कमलनयनी भी इस ललायित है राजपुरोहित को देखने के लिए,इसलिए वो नृत्य का अत्यधिक अभ्यास कर रही है,पुरोहित को अपनी ओर आकर्षित करने हेतु........

प्रातःकाल का समय और मन्दिर का प्राँगण ____
अभी सूर्य देवता ने अपना प्रकाश चहुँ ओर नहीं बिखेरा है,सभी स्थानों पर साज-सज्जा चल रही है,मंदिर में आज देवी दुर्गा की नयी मूर्ति की स्थापना होनी है जो कि पड़ोसी राजा ने मित्रता-स्वरूप भेंट की है,उसी का उत्सव है,भोज -भण्डारा है,राज्य के सभी वासियों को आमंत्रित किया गया है,राजा कर्णसेन का आदेश है कि किसी भी घर मे आज चूल्हा नहीं जलना चाहिए।।
दिन चढ़ने तक सभी नगरवासी उपस्थित हो चुके हैं,भोजन की तैयारी प्रातःकाल से ही चल रही थी,अब सभी भोजन का आनन्द उठा रहे हैं,तभी घोषणा हुई की महाराज पधारने वाले हैं,सभी अपने अपने यथास्थान पर खड़े हो गए।।
कुछ समय पश्चात महाराज उपस्थित हुए एवं अपने सिंहासन पर विराजमान हो गए,तभी राजा के मंत्री ने घोषणा की अब देवी के स्थापना का समय है एवं देवी की स्थापना हेतु पूर्व पुरोहित जी को आदरपूर्वक बुलाया गया,उन्होंने देवी की स्थापना विधिवत पूर्ण की,साथ में पूर्व पुरोहित जी ने अपना पद त्यागने की घोषणा की और उस पद का कार्यभार नवीन पुरोहित जिसका नाम गौरीशंकर है उसे सौपनें की घोषणा की,सभी ने हृदय से नवीन पुरोहित का स्वागत किया।।
इसके उपरांत मन्दिर के प्राँगण में कमलनयनी का नृत्य प्रारम्भ हुआ,नृत्य करते करते कमलनयनी ने देवी के चरणों में पुष्प अर्पित कर दिए,परन्तु ये सब गौरीशंकर को तनिक भी ना भाया और उसने कमलनयनी को शीघ्र ही टोकते हुए कहा___
"तुम जैसी स्त्री देवी को पुष्प कैसे अर्पित कर सकती है?"
कमलनयनी ने ये सुना तो क्रोधित होकर बोली____
"क्षमा कीजिएगा,पुरोहित जी!परन्तु आज तक मुझे किसी ने भी ये कार्य करने से नहीं रोका,मैं तो सदैव ही मंदिर में देवताओं के दर्शन करने जाती हूँ,परन्तु आज तक कभी किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हुई।"
"परन्तु ,मुझे आपत्ति है,मैं कभी भी नहीं चाहूँगा कि आप जैसी स्त्री कभी भी मन्दिर में प्रवेश करें और देवताओं के दर्शन करें," गौरीशंकर बोला।।
"परन्तु क्यों?" कमलनयनी ने पूछा।।
"क्योंकि तुम एक नर्तकी हो,तुम्हारा यहाँ क्या कार्य?तुम अपने बनाव श्रृंगार पर अधिक ध्यान दो तो अच्छा होगा,क्योंकि तुम्हें तो पुरुषों को प्रसन्न रखना होता है और यही तुम्हारा महत्वपूर्ण कार्य है,"गौरीशंकर बोला।।
इतना सुनकर कमलनयनी ने क्रोधित होकर कहा___
"श्याम! चलो यहाँ से,इतना अपमान" और उसने महाराज से भी कहा__
"क्षमा कीजिएगा महाराज! राजपुरोहित के लिए आपका चुनाव सही नहीं रहा,आपने उचित व्यक्ति को राजपुरोहित नहीं बनाया,जिस व्यक्ति को ये भी ज्ञात ना हो कि स्त्रियों से कैसे बात की जाती है वो भला राजमन्दिर का पद कैसे सम्भाल पाएगा।"और इतना कहकर कमलनयनी नागिन की तरह फुफकारते हुए चली गई।।कमलनयनी के जाते ही महाराज कर्णसेन ने गौरीशंकर से शालीनतापूर्वक कहा____
"पुरोहित जी! हमने आज तक किसी भी नृत्यांगना को मंदिर में जाने से नहीं रोका ,परन्तु यदि आपको ये अनुकूल नहीं लगता तो आज के बाद कोई भी नृत्यांगना मन्दिर में प्रवेश नहीं करेगी।"
"जी बहुत बहुत धन्यवाद महाराज! मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी",गौरीशंकर बोला।।
उधर कमलनयनी मूर्छित नागिन की भाँति फुँफकार रही थी,उसे अत्यधिक क्रोध आ रहा था,उसके आत्मसम्मान पर तीक्ष्ण प्रहार हुआ था,उसने मन में विचार किया कि जहाँ इतने सारे पुरुष उसके एक संकेत पर अपने प्राण त्यागने को तत्पर हो जाते हैं,वहाँ मन्दिर के एक तुच्क्ष से पुरोहित ने उसका इतना अपमान किया,उसकी सुन्दरता पर तनिक भी मोहित ना हुआ और तो और उसे देवी पर पुष्प अर्पण करने से भी रोका,अब कमलनयनी ने हठ पकड़ ली कि वो पुरोहित का ध्यान भंग करके रहेगी और एक ना एक दिन अवश्य ही अपने मोह-पाश में फँसाने में सफल होगी।।
अब कमलनयनी अपनी हठधर्मिता पर आ गई थी ,उसने गौरीशंकर के विषय में सब कुछ ज्ञात करने का प्रयास किया और वो कुछ कुछ सफल भी हुई,उसने ये ज्ञात कर लिया कि गौरीशंकर कब महल आता है?कब मन्दिर जाता है?उसकी दिनचर्या क्या है?गौरीशंकर प्रातः सर्वप्रथम गंगा स्नान के लिए जाता था, इसके उपरांत वो मन्दिर में पूजा-अर्चना करता था,ये कमलनयनी ने सरलतापूर्वक ज्ञात कर लिया था।। उसने मयूरी के साथ मिलकर एक योजना बनाई और मयूरी से कहा कि अब देखती हूँ कि ये पुरोहित और कितने समय तक अपना धर्म और चरित्र बचाता है,वें अपनी योजनानुसार दोनों गंगा तट पर पहुँची और झाड़ियों के पीछे छुपकर गौरीशंकर की प्रतीक्षा करने लगी,गौरीशंकर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कमलनयनी बिल्कुल पारदर्शी रेशमी श्वेत साड़ी पहनकर आई थी,जिससे उसकी छरहरी काया उस साड़ी के भीतर से झलके।।
बहुत ही सुन्दर दृश्य था गंगा नदी का,नदी की कलकल की ध्वनि सुनाई दे रही थी,सीढ़ियों से उतरकर छोटा सा घाट था,केवल स्नान करने हेतु,अगल बगल घनी झाड़ियाँ लगीं थीं,नदी के दूसरे किनारे पर पहाड़ों से सूर्य का हल्का हल्का प्रकाश अपनी लालिमा बिखेर रहा था,अत्यधिक लुभावना दृश्य था,हल्की हलकी ठंड भी थी।।
तभी कमलनयनी को गौरीशंकर आता हुआ दिखाई दिया,उसने मयूरी से कहा कि ___
"अब अभिनय का समय आ गया है,मैं अपना कार्य करती हूँ,बस तुम दर्शक की भाँति मेरा अभिनय देखो।"
कुछ समय पश्चात गौरीशंकर घाट तक आ पहुँचा , उसने अपने संग लाईं वस्तुओं को धरती पर रखा और नदी में उतरकर कुछ मंत्रों का उच्चारण करने लगा,तभी कुछ समय पश्चात नदी के किसी ओर से बचाओ...बचाओ का स्वर गूँज रहा था,गौरीशंकर का ध्यान उस ओर गया और उसने देखा कि कोई स्त्री नदी मेः डूब रही है और सहायता हेतु चिल्ला रही है,गौरीशंकर ने देखा कि वो स्त्री अब डूब चुकी है और गौरीशंकर बिना सोचे समझे ही नदी मे कूद पड़ा और कुछ समय पश्चात ही गौरीशंकर उस स्त्री को बचा लाया,गौरीशंकर उसे अपनी गोद में बाँहों में पकड़कर घाट के बाहर ला रहा था,उस समय कमलनयनी को गौरीशंकर की सुडौल बाँहों में कुछ विचित्र से भाव उत्पन्न हुए,गौरीशंकर के तन से आ रही महक ने कमलनयनी को बेसुध सा कर दिया था,परन्तु वो गौरीशंकर की बाँहों में अचेत होने का निरन्तर अभिनय करती रही,
उसकी गीली पारदर्शी साड़ी में से उसका उसका अंग अंग झलक रहा था,उसके लम्बे खुले बालों से पानी बूँद बूँद करके टपक रहा था,उसके गीले गुलाब से कोमल होंठ लरझ रहे थे और ठंड से उसका शरीर काँप रहा था,तभी गौरीशंकर ने उसे धरती पर लिटाकर उसके पेट पर दबाव डाला,कमलनयनी के मुँख से कुछ जल बाहर आया,परन्तु वो अभी भी अचेत अवस्था में थीं,तत्पश्चात गौरीशंकर ने अपने मुँख से कमलनयनी के मुँख में श्वास भरी,इससे कमलनयनी कुछ विचलित हुई और उसके शरीर में कम्पन हुआ ,धमनियों में रक्त का संचार होने लगा,कमलनयनी ने अपनी आँखें खोली और बोली___
"पुरोहित जी,आप!मैं यहाँ कैसे? मैं तो डूब रही थी,क्या आपने मेरे प्राण बचाएं?"
तभी गौरीशंकर बोला___"क्षमा कीजिएगा, देवी! किन्तु आपके स्थान पर कोई और होता तो तब भी मैं ऐसा ही करता,मानवता ही पहला धर्म होता है और मैने अपना धर्म निभाया है।"और इतना कहकर गौरीशंकर ने धरती पर रखीं अपनी वस्तुएं उठाईं और चला गया।।
गौरीशंकर के जाते ही मयूरी झाड़ियों से बाहर निकली और परिहास करते हुए बोली___"अभिनय तो आपने बहुत अच्छा किया किन्तु पुरोहित जी तो लगता है कि पाषाण हृदय हैं,कोई भी अन्तर ना पड़ा उनको।"
"सही कहती हो मयूरी! ये कैसा पुरूष है?" इसका हृदय है या पाषाण,कमलनयनी बोली।
परन्तु,अब कमलनयनी को गौरीशंकर का स्पर्श विचलित कर गया था,वो गौरीशंकर के होंठों की ऊष्णता को अपने होंठों पर अनुभव कर रही थी,उसके अन्तःमन में तरंगें उठ रही थीं,उसका मन अधीर हो उठा,वो अब पुनः गौरीशंकर का स्पर्श पाना चाहती थी,गौरीशंकर के तन की ऊष्णता उसे बार बार पिघला रही थी और वो पिघल कर अब गौरीशंकर में समाना चाहती थी।।
कुछ समय पश्चात___
अब कमलनयनी की दशा अत्यंत ही व्याकुल सी प्रतीत होती,वो ना अब नृत्य का अभ्यास करती और ना ही बनाव श्रृंगार पर ध्यान देती,ना ही अब वो समय से भोजन करती,अपने विचलित चित्त को शांत करने के लिए उसने मन्दिर जाने का विचार बनाया।और आज वो साधारण तरीके से तैयार होकर मयूरी के संग मन्दिर पहुँची ही थी कि गौरीशंकर क्रोधित होकर बोला___
"तुम! पुनः आ गई,तुम्हारा यहाँ आना निषेध है तो क्यों यहाँ अपना अपमान करवाने चली आती हो,जाओ इसी समय यहाँ से चली जाओ।"
कमलनयनी ने इतना सुना और रोते हुए मन्दिर से भाग आई.....

रोते हुए कमलनयनी मन्दिर से लौट आई, उसने मन में सोचा कि वो तो निर्मल मन से देवताओं के दर्शन करने गई थी किन्तु पुरोहित जी ने मन्दिर के निकट जाने से पूर्व ही उसे मन्दिर से बाहर जाने को कह दिया, क्यों वो मेरा अपमान करते हैं, उन्हें इसमें कौन सा असीम आनन्द प्राप्त होता है, मैं अब इन सबका उत्तर पुरोहित जी से चाहती हूँ वो बार बार ऐसे मेरा अपमान नहीं कर सकते और उसके मन में ये विचार आया कि परन्तु वो उनसे ये प्रश्न किस स्थान पर जाकर पूछेगी? क्योंकि मन्दिर में वो जा नहीं सकती और महल के कक्ष में पुरोहित जी को बुलाना उचित ना होगा।
उसने इस कार्य हेतु पुनः मयूरी से कहा, एक दो दिन में मयूरी ने ज्ञात कर लिया और कमलनयनी से कहा कि पूजा -अर्चना करके वो अपने निवास की ओर निकलते हैं, हम उनके निवास पर जाकर आपके प्रश्नों के उत्तर लेंगें।
अच्छा, तो ये बात है, परन्तु वो पुनः कब मन्दिर की ओर प्रस्थान करते हैं, कमलनयनी ने मयूरी से पूछा।
मन्दिर की पूजा अर्चना करने के पश्चात दोपहर के समय पुरोहित जी अपने निवास स्थान जाते हैं, निवास स्थान पर भोजन करके कुछ समय विश्राम करके, सूर्यास्त से पूर्व ही पुनः मन्दिर लौट आते हैं, मयूरी बोली।
अब कमलनयनी ने निर्णय ले लिया था कि पुरोहित जी से मुझे अपने प्रश्नों का उत्तर चाहिए इसलिए उसने मयूरी के संग मिलकर योजना बनाई कि आज ही हम पुरोहित जी के निवास स्थान पर जाएंगे, मयूरी ने भी कोई आपत्ति नहीं जताई और उसने कमलनयनी के संग पुरोहित जी के घर जाने में अपनी सहमति जता दी।
दोनों मन्दिर के पीछे छुपकर पुरोहित जी के घर जाने की प्रतीक्षा कर रही थीं, पूजा अर्चना करके पुरोहित जी अपने निवास स्थान को निकले और वो दोनों भी छुप छुप कर उनके पीछे पीछे चल दीं, परन्तु कमलनयनी को एक बात पर संदेह हो रहा था कि पुरोहित जी ने राजमहल से इतनी दूर क्यों अपना निवास स्थान चुना, वो चाहते तो राजमहल में ही उन्हें रहने को मिल जाता, हो ना हो इसका कोई ठोस कारण अवश्य है।
दोपहर का समय था, कमलनयनी कभी भी इस समय राजमहल से बाहर नहीं निकली थी, वो कोमलांगी सूर्य के ताप से कुम्हलाने लगी , मार्ग भी कच्चा और धूल मिट्टी से भरा हुआ था, अगल बगल घनी घनी झाडियाँ और बड़े बड़े वृक्ष थे, जिनके पीछे से वो दोनों छुपते छुपाते गौरीशंकर के पीछे चलतीं चलीं जा रहीं थीं।
राज्य के बाहर निकलते ही किसानों के खेत थे , वहाँ अपने अपने खेतों के पास किसानों की झोपड़ियाँ थी और वहीं पर गौरीशंकर का भी मिट्टी से बना खपरैल वाला घर था, घर को चहुँ ओर से छोटी छोटी लकड़ियों के पटरों से वृत्ताकार रूप में घेरा गया था, वहीं पर जल के लिए एक कुआँ था और थोड़ी बहुत फूल फुलवारी लगी थी, घर की खपरैल पर बगल की दीवार से होतीं हुई कुछ लताएं छायीं हुई थीं।
कमलनयनी और मयूरी दूर ही एक वृक्ष की ओट में छुप गईं और उन्होंने देखा कि गौरीशंकर ने घर के द्वार पर जाकर किवाड़ो की साँकल खटखटाई, एक बूढ़ी स्त्री ने किवाड़ खोले और गौरीशंकर घर के भीतर चला गया।
तब मयूरी ने कमलनयनी से कहा___
चलिए ना देवी! अब हम भी चलते हैं।
नहीं!इतनी शीघ्र नहीं, कहीं पुरोहित जी को संदेह ना हो जाए कि हम उनका पीछा कर रहे थे, कुछ समय इसी वृक्ष के तले विश्राम करते हैं, इसके उपरांत चलेंगें, कमलनयनी बोली।
कुछ समय तक दोनों ने वृक्ष के तले विश्राम किया, इसके उपरांत दोनों गौरीशंकर के घर के द्वार पर पहुँची और कमलनयनी ने किवाड़ो की साँकल खटखटाई, सौभाग्य वश गौरीशंकर ने ही किवाड़ खोले और आश्चर्यचकित होकर दोनों से पूछा___
आप दोनों! और मेरे निवास स्थान, कोई विशेष कार्य है क्या?
जी नहीं! ऐसा कोई विशेष कार्य नहीं है, बस हम तो आपका निवास स्थान देखना चाहते थे, मयूरी ने उत्तर दिया।
आइए...भीतर आइए, गौरीशंकर ने दोनों से कहा।
दोनों भीतर पहुँची , गौरीशंकर दोनों को अतिथि कक्ष में बैठाकर चला गया और कुछ समय पश्चात कुछ लड्डू और जल लेकर अतिथि गृह में उपस्थित हुआ और दोनों से बोला____
लीजिए , आप लोग जलपान गृहण कीजिए तब तक मैं आता हूँ और इतना कहकर गौरीशंकर चला गया, दोनों सूर्य के ताप से कुमल्हा गई थीं, दोनों को प्यास भी अत्यधिक लग आई थीं इसलिए दोनों ने संकोच को त्याग कर जलपान गृहण करना प्रारम्भ कर दिया।
कुछ समय पश्चात गौरीशंकर एक वृद्ध स्त्री के साथ उपस्थित हुआ, जिनकी गोद में दो साल का बालक था, गौरीशंकर ने उन स्त्री से दोनों का परिचय करवाते हुए कहा कि___
इनसे मिलिए, ये मेरी माता जी हैं।
तभी मयूरी का ध्यान उस बालक पर गया और उसने गौरीशंकर से पूछा___
और ये बालक कौन है?
तभी गौरीशंकर की माता जी ने उत्तर दिया__
ये देवव्रत है, गौरीशंकर का पुत्र॥
ये सुनकर कमलनयनी के हृदय को आघात सा लगा।
तभी मयूरी ने गौरीशंकर की माता से दूसरा प्रश्न पूछा___
और पुरोहित जी की धर्मपत्नी कहाँ हैं?
तभी गौरीशंकर की माता जी बोलीं___
चलिए, आइए ! मैं आपलोगों की उससे भेंट करवाती हूँ और इतना कहकर गौरीशंकर की माता जी उन दोनों को दूसरे कक्ष में ले गईं।
दोनों ने उस कक्ष में जाकर देखा कि गौरीशंकर की पत्नी पलंग पर लेटी हैं और उन लोगों को देखते ही उसके मुँख पर एक हँसी सी आ गई और माता जी से उन दोनों की ओर संकेत करते हुए पूछा___
आप लोंग पुरोहित जी मिलने आए हैं।
ये तो मुझे भी ज्ञात नहीं है, किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कदाचित गौरीशंकर इन दोनों से परिचित है, माता जी बोलीं।
मैं और मेरी सखी, हम दोनों मन्दिर में भजन गाते हैं, कमलनयनी ने माता जी से झूठ बोलते हुए कहा।
ये बात गौरीशंकर ने भी सुनी परन्तु कहा कुछ भी नहीं और गौरीशंकर ने दोनों को अपनी धर्मपत्नी का परिचय करवाते हुए कहा___
ये मेरी धर्मपत्नी सौभाग्यवती है।
सौभाग्यवती हल्की सी हँसी हँसते हुए बोली___
हाँ, मेरा नाम तो सौभाग्यवती है, परन्तु इनके लिए बहुत बड़ा दुर्भाग्य हूँ, एक वर्ष से लकवे से ग्रस्त हूँ, कमर के नीचे का भाग कार्य नहीं करता, किसी भी वस्तु को इन अंगों पर अनुभव नहीं कर पाती, ये एक वर्ष से मेरी सेवा में लगे हुए हैं, तभी हम राजमहल से इतनी दूर रह रहे हैं, कभी कभी तो मुझे इन पर तरस आता है।
कैसी बातें करती हो ? सुभागी! मैंने कभी तुम्हें कोई उलाहना दिया है कि मुझे तुमसे कोई भी कष्ट है और यदि ऐसा कुछ मेरे संग होता तो क्या तुम मुझे छोड़ देती? गौरीशंकर ने सौभाग्यवती से कहा।
मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, जो आप मुझे मिले, सौभाग्यवती बोली।
इसके उपरांत माता जी बोलीं___
चलिए! भोजन तैयार है, आप लोंग भी भोजन कर लीजिए।
परन्तु , भोजन के लिए कमलनयनी ने मना कर दिया।
तभी सौभाग्यवती ने पूछा___
आप दोनों ने अपने नाम तो बताएं ही नहीं।
मेरा नाम कमल है और ये है मयूरी और अब हमें राजमहल लौटना होगा, बहुत विलम्ब हो गया है, कमलनयनी बोली।
ऐसा भी कोई बिलम्ब नहीं हुआ जा रहा है, आप लोग भोजन करके जाइए, सौभाग्यवती बोली।
क्षमा करें, पुरोहितन जी! किन्तु आज हमें जाना होगा, अब तो परिचय हो गया है, आते जाते रहेंगे, मयूरी बोली।
ठीक है, तो अब नहीं रोकूँगी, परन्तु अब की बार आइएगा तो तनिक समय लेकर आइएगा ताकि कुछ समय बैठकर बातें कर सकें, सौभाग्यवती बोली।
जी, अच्छा! और इतना कहकर दोनों गौरीशंकर के घर से वापस आ गईं।
अब कमलनयनी के सोचने की क्षमता जा चुकी थी, उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि वो क्या करें, कदाचित वो गौरीशंकर से प्रेम करने लगी थी, वो दिन रात बस उसके ही स्वप्नों में खोई रहती, अब जब भी गौरीशंकर से मिलती तो श्रृंगारविहीन होकर मिलती, वो अब आए दिन उसके निवास स्थान पर भी जाने लगी, सौभाग्यवती को भी कमल का आना अच्छा लगता, परन्तु कमलनयनी जिस दृष्टि से गौरीशंकर को देखती थी ये बात सौभाग्यवती ने अत्यधिक गहराई से अनुभव की।
और उधर श्याम भी कमलनयनी की इस दशा को देखकर आश्चर्य में था कि जो कमलनयनी लोभ और माया में जकड़ी थी, एकाएक उसके स्वभाव में ऐसा परिवर्तन किस कारण से हो गया, अब जो उसका रूप था वो पूर्व कमलनयनी से बिल्कुल विपरीत था और उसने इसका कारण मयूरी से ज्ञात करना चाहा___
ये क्या हो गया है? कमलनयनी को, वो इतनी बेसुध सी क्यों प्रतीत होती है, ना साज श्रृंगार, ना ही नृत्य का अभ्यास और अब तो वो राजा के निकट भी नहीं जाती, उनसे भी अन्तर बना लिया है, जब भी राजा उसे बुलाते हैं तो वो ये कहकर टाल देती है कि स्वास्थ्य अच्छा नहीं है।
कमलनयनी को प्रेम हो गया है, जिस प्रकार मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, उसी प्रकार, मयूरी बोली।
परन्तु , मैं तुमसे प्रेम नहीं करता, श्याम बोला।
तो किससे प्रेम करते हो? कमलनयनी से, मयूरी ने श्याम से पूछा।
मैं तुमसे क्यों बताऊँ? श्याम बोला।
मत बताओ, मुझे ज्ञात है कि तुम कब से कमलनयनी से प्रेम करते हो, परन्तु वो तो किसी और से प्रेम करती है, कदाचित तुम्हारे प्रेम की भाँति कमलनयनी के प्रेम का स्वप्न भी अधूरा रह जाएगा क्योंकि वो जिससे प्रेम करती है वो विवाहित है, ना जाने ईश्वर ने ये कौन सा खेल रचा है, मयूरी बोली।
कहना क्या चाहती हो ? मयूरी! तनिक खोलकर बताओ, श्याम ने पूछा।
समय आने पर तुम्हें सब ज्ञात हो जाएगा और इतना कहकर मयूरी चली गई।
एक दिन गौरीशंकर और सौभाग्यवती के विवाह की वर्षगाँठ थी, सौभाग्यवती ने कमल और मयूरी को बुलावा भेजा, अतिथि के रूप में दोनों गौरीशंकर के घर उपस्थित हुईं।
कमलनयनी ने गौरीशंकर से डरते हुए पूछा कि___
क्या मैं माता जी की रसोईघर में सहायता कर सकती हूँ? मेरे छूने से आपकी रसोई अपवित्र तो नहीं हो जाएगी, क्योंकि आपने मेरा मन्दिर में जाना वर्जित कर रखा है।
हाँ! क्यों नहीं? तुम मेरी अतिथि हो और अतिथि तो ईश्वर के समान होता है, रही मन्दिर की बात तो वो मेरा धर्म और कर्तव्य है, मेरी निष्ठा और ईमानदारी सबका विश्वास है, मुझे उन सबका विश्वास बना कर रखना पड़ता है कि मेरे कारण वहाँ कुछ ऐसा ना हो कि सबकी श्रद्धा और आस्था डगमगाने लगे, गौरीशंकर बोला।
इतना सुनकर कमलनयनी प्रसन्न हुई और माता जी के संग रसोई मे जाकर भोजन की तैयारी करवाने लगी, साथ में मयूरी भी लग गई, दोनों ने माता जी को कोई भी कार्य ना करने दिया, इसके उपरांत सबने रात्रि में भोजन किया, अधिक बिलम्ब होने के कारण दोनों गौरीशंकर के घर पर रूक गईं, माता जी और सौभाग्यवती एक कक्ष में, मयूरी और कमलनयनी एक कक्ष में और गौरीशंकर अतिथि गृह में सो गया।
अर्द्ध रात्रि बीत चुकी थी परन्तु कमलनयनी की आँखों से निंद्रा कोसों दूर थी, सबके सो जाने के बाद कमलनयनी उठी और अतिथि कक्ष पहुँची, पूर्णिमा की रात्रि थी, चन्द्र का श्वेत उज्जवल प्रकाश वातायन से आकर सीधे गौरीशंकर के तन पर पड़ रहा था, कमलनयनी उसे ध्यानपूर्वक देखने लगी, गौरीशंकर के घने घुघराले काले बाल, सुन्दर मुँख, गुलाबी होंठ, सुन्दर सुडौल बाजू और चौड़ा सीना, ये देखकर कमलनयनी स्वयं पर अंकुश ना लगा सकीं और गौरीशंकर से प्रेमपूर्वक लिपट गई।
कमलनयनी का स्पर्श पाकर एकाएक गौरीशंकर ने अपनी आँखें खोलीं और इस प्रकार स्वयं से कमलनयनी को लिपटे हुए देखकर उसने उसे स्वयं से बलपूर्वक हटा दिया और गाल में जोर का थप्पड़ दिया।
कमलनयनी क्रोधित होकर बोली___
मेरा दोष क्या है? बस इतना ही कि मैं आपसे प्रेम करने लगी हूँ।
ये प्रेम नहीं वासना है, इसी समय अपने कक्ष में जाओ, गौरीशंकर ने कमलनयनी को आदेश देते हुए कहा......

थप्पड़ खाते ही कमलनयनी रोते हुए गौरीशंकर के चरणों पर गिर पड़ी और रोते हुए बोली____"ये वासना नहीं है पुरोहित जी मेरा प्रेम गंगाजल की भाँतग पवित्र है,बस एक बार....एक ही बार आप मुझे अपने हृदय से लगा लेंगें तो मेरी आत्मा तृप्त हो जाएगी,इसके पश्चात मैं आपसे कभी भी कुछ नहीं माँगूगी।"परन्तु गौरीशंकर बोला___"अभी इसी समय यहाँ से चली जाओ,तुम्हारे मस्तिष्क में ऐसी बात आई भी कैसे
ये सुनकर कमलनयनी का मस्तिष्क शून्य पड़ गया ,उसी समय कमलनयनी ने किवाड़ खोले और बाहर निकल गई।।
प्रातःकाल हुई मयूरी जागी,कमलनयनी को अपने कक्ष में ना देखकर कुछ चिन्तित सी हो उठी,उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि रात्रि को कुछ अवश्य हुआ है,क्योंकि कमलनयनी बहुत देर तक जाग रही थी,उसे निंद्रा नहीं आ रही थी,उसका मन कुछ व्याकुल सा था,मयूरी ने सोचा मुझे इस विषय में पुरोहित जी से ही बात करनी चाहिए और वो अपने प्रश्नों के उत्तर पूछने पुरोहित जी के पास पहुँची____
"पुरोहित जी! कमलनयनी कहाँ हैं? आपको कुछ ज्ञात है,"मयूरी ने पूछा।।
"हाँ ! रात्रि को कमलनयनी क्रोधित होकर चली गई थी,परन्तु इसमें मेरा कोई दोष नहीं है," गौरीशंकर बोला।।
" परन्तु कहाँ,"मयूरी ने पूछा।।
"मुझे ज्ञात नहीं,"गौरीशंकर बोला।।
इतना सुनकर मयूरी भी क्रोधित होकर गौरीशंकर के घर से चली आई और कमलनयनी को ढ़ूंढने लगी,मयूरी ने कमलनयनी को बहुत खोजा किन्तु वो उसे कहीं ना मिली,परन्तु साँझ ढ़ले मयूरी को कमलनयनी एक वृक्ष के तले अचेत अवस्था में मिली,मयूरी ने कमलनयनी के मुँख पर जल के छींटे डाले और कमलनयनी की चेतन अवस्था में आने की प्रतीक्षा करने लगी,कुछ समय पश्चात कमलनयनी जब चेतन अवस्था में आई तो मयूरी उसे राजमहल ले गई।।
परन्तु राजमहल जाकर ज्ञात हुआ कि राजा कर्णसेन ने कमलनयनी को राज्य से बाहर जाने का आदेश दिया है,ये सुनकर कमलनयनी ने मयूरी से कहा कि अन्तिम बार राजा से भेंट करके आते हैं,कमलनयनी राजा से भेंट करने पहुँची और राजा क्रोधित होकर बोले___"तुम्हारे जैसी बिना राग-रंग की स्त्री की इस राजमहल को कोई आवश्यकता नहीं है।"
"ये कहकर आपने मेरी दुविधा हल कर दी,मैं भी यही चाहती थी राजन! मैं इस सांसरिक मोह- माया को त्यागना चाहती हूँ,अब मैं मीरा की भाँति जोगन बन गई हूँ,इस महल और राग-रंग से अब मेरा कोई नाता नहीं है," अच्छा राजन! चलती हूँ,यदि मुझसे कोई भूल हुई हो तो क्षमा करना,ईश्वर सदैव तुम्हारे ऊपर कृपा बनाएं रखें और इतना कहकर दोनों ने महल का त्याग कर दिया,उन दोनों ने देखा कि श्याम भी चला आ रहा है,श्याम दोनों के निकट पहुँचा और बोला___
"मैं भी तुम लोगों के ही संग चलूँगा।" तीनों महल छोड़कर चले आए,मयूरी ने पूछा__
"अब कहाँ चलेंगें?"
" मुझे ज्ञात नहीं,परन्तु यहाँ से जानेसे पहले मैं अन्तिम बार पुरोहित जी के दर्शन करना चाहती हूँ,नहीं तो इन नैनों को चैन ना आएगा," कमलनयनी बोली।।
"देवी! इतना अपमान करवाने के पश्चात भी आपका जी नहीं भरा,अब मैं कुछ नहीं जानती ,आपको जो उचित लगे तो कीजिए," मयूरी क्रोधित होकर बोली।
अब श्याम को अनुभव हो रहा था कि कदाचित कमलनयनी प्रेम की गहराई को समझ चुकी है,अब उसे ये ज्ञात हो चुका है कि प्रेम एक तपस्या है जो कि केवल सच्चे हृदय में ही वास करती है,अब ऐसा प्रतीत होता है कि अब उसने पुरोहित जी के प्रेम में जोगन रूप धर लिया है,कमलनयनी का प्रेम वास्तविक है और मेरें प्रेम से कहीं अधिक ऊँचा है ,कदाचित मैं अब कभी भी अपना प्रेम उसके सामने प्रकट नहीं कर पाऊँगा,क्योंकि ये मुझसे कदापि ना हो पाएगा ,अब ये सम्भव ही नहीं है कि कमलनयनी मेरा प्रेम कभी स्वीकार करेगी,परन्तु उसकी ऐसी दशा देखकर मुझे उस पर दया भी आ रही है।।
अब तीनों गृहविहीन हो गए थे और राज्य की गलियों में भटक रहे थे,ना संग में कोई पूँजी थी और ना ही भोजन बनाने हेतु सामग्री,सबकी स्थिति बहुत ही बुरी हो चली थी,तीनों भूख से भी व्याकुल थे जैसे तैसे एक मंदिर में रात्रि बिताई,प्रसाद खाकर संतुष्टि कर ली और दूसरे दिन सुबह श्याम बोला।।
"बगल वाले गाँव में मेरा एक मित्र रहता है,मैने अपनी कुछ पूँजी उसके पास जमा कर रखी है,मैं उसके पास से अपनी पूँजीं लेकर आता हूँ,तुम लोग मुझे नदी के निकट जो बरगद का वृक्ष वहीं मिलना,मैं सन्ध्या तक लौट आऊँगा,जीवन यापन के लिए कुछ उपयोगी वस्तुओं तो खरीदनी ही पड़ेगी,"इतना कहकर श्याम चला गया।।
कमलनयनी बेसुध सी थी,वो गौरीशंकर की एक झलक पाना चाहती थी,तभी वो ये राज्य छोड़कर जा पाएगी और वो मयूरी के संग गौरीशंकर के घर की ओर चल पड़ी।।कुछ ही समय पश्चात दोनों गौरीशंकर के घर के द्वार पर खड़ी थीं,तभी मयूरी ने कमलनयनी से कहा ___द्वार की साँकल खटखटाने से पहले एक बार और विचार कर लीजिए।।
"अब इसमें विचार करने योग्य जैसा क्या है?मैं अन्तिम बार उनका मुँख देखना चाहती हूँ",कमलनयनी बोली।।
"ठीक है,आप जैसा चाहें,अब मैं क्या कहूँ"और इतना कहकर मयूरी ने किवाड़ की साँकल खटखटाई।।
भीतर से गौरीशंकर ने पूछा__"कौन है?"
"पुरोहित जी! मैं हूँ मयूरी! कृपया कर किवाड़ खोलिए,कमलनयनी इस राज्य से जाने से पहले आपके दर्शन करना चाहतीं हैं",मयूरी बोली।।
"परन्तु मैं किसी से भी मिलना नहीं चाहता,मैं उसका मुँख भी देखना नहीं चाहता,"गौरीशंकर बोला।इतना सुनकर ,कमलनयनी स्वयं पर संयम ना रख पाई और रोते हुए चिल्लाई___
"पुरोहित जी! कृपया किवाड़ खोलिए,मुझे क्षमा कर दीजिए,बस एक बार आपका मुँख देखकर चली जाऊँगीं,भविष्य में कभी आपके जीवन में प्रवेश नहीं करूँगीं।"
परन्तु गौरीशंकर का हृदय तो पाषाण हो चुका था,उसे कोई भी अन्तर ना पड़ा,उसने किवाड़ नहीं खोले।।उधर कमलनयनी किवाड़ खटखटा कर दुर्दशाग्रस्त होती रही,भूखी प्यासी गौरीशंकर के द्वार पर पड़ी रही रो रोकर उसकी आँखें रक्त के समान लाल हो गईं,किन्तु गौरीशंकर का हृदय द्रवित ना हुआ,
सन्ध्या होने को आई किन्तु गौरीशंकर के दर्शन कमलनयनी को ना हुए,तब मयूरी कमलनयनी से बोली___
"चलिए,उठिए! यहाँ से,श्याम आता ही होगा और आपकी ये दशा उससे देखी नहीं जाएगी।"
तब विवश होकर कमलनयनी को गौरीशंकर के द्वार से उठना पड़ा और वे दोनों श्याम की बताएं हुए स्थान पर पहुँच गईं।।कुछ समय की प्रतीक्षा के उपरांत श्याम कुछ सामग्री और पूँजी के संग उसी स्थान पर पहुँचा।।कमलनयनी अभी भी उसी दशा में थी,जिस दशा में वो उसे छोड़कर गया था,उसकी आँखों से अभी अश्रु बह रहे थे,वो मयूरी से बार बार पूछ रही थी ___
"मैने ऐसा कौन सा पाप कर दिया कि पुरोहित जी ने किवाड़ नहीं खोले,वें मेरा मुँख भी देखना नहीं चाहते,मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर अभी तक नहीं मिला और मेरे प्रश्नों का उत्तर मिले बिना मेरा व्याकुल मन सदैव अशांत ही रहेगा।"
इतना सुनते ही श्याम क्रोधित होकर गौरीशंकर के निवास स्थान पर पहुँचा और किवाड़ खटखटाएं,गौरीशंकर ने ही किवाड़ खोले,किवाड़ खोलते ही श्याम ने गौरीशंकर से पूछा___"पुरोहित जी! आप कमलनयनी के संग ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?कमलनयनी आपसे प्रेम करने के पश्चात क्या से क्या बन गई,जिसे स्वयं के साज श्रृंगार से कभी समय नहीं मिलता था कि किसी और पर भी ध्यान दे,जो लोंगो पर हँसा करती थी,अपने घमंड और अहम में खोई रहती थी,वो भला किसी व्यक्ति के प्रेम मेँ इतनी व्याकुल हो सकती है,ये मैनें कभी भी नहीं सोचा था,वो आपसे सच्चा प्रेम करती है,कृपया उसके प्रेम को स्वीकार करें,नहीं तो उसकी आत्मा तृप्त नहीं होगी"
"मैं भी उससे प्रेम करता हूँ,सच्चा प्रेम ! किन्तु अब कदाचित कभी भी मैं उससे प्रेम नहीं कर पाऊँगा क्योंकि अब वो मेरे प्रेम के नहीं,बल्कि मेरी पूजा अर्चना के योग्य है,आपसे प्रेम करके उसकी आत्मा शुद्ध हो गई है,अब वो पहले वाली कमलनयनी नहीं रहीं जो बात बात पर क्रोधित हो जाती थी,अब उसके अन्तरात्मा में देवी का वास हो चुका है,उसका हृदय और उसकी आत्मा दोनों ही पवित्र हो चुके हैं।"
तब गौरीशंकर बोले___"मित्र!मैं विवश हूँ,अत्यधिक लाचार हूँ,आप मेरी मनोदशा को समझने का प्रयास करें,मुझे मेरे बहुत से कर्तव्यों का पालन करना है,मेरी वृद्धा माँ,मेरी लकवाग्रस्त पत्नी और दो वर्ष का पुत्र है,मेरा उनके प्रति भी तो कोई कर्तव्य है,यदि मैं कमलनयनी को स्वीकार कर लूँगा तो ये संसार मुझ पर हँसेगा कि देखों कि ये कैसा व्यक्ति है,जो अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर रहा,एक नर्तकी से प्रेम कर बैठा ,भोग विलास में डूब गया,ऐसा नहीं है कि मैं कमलनयनी से प्रेम नहीं करता,मैं ने जब उसे पहली बार देखा था तो उसे देखते ही अपना हृदय हार बैठा था,किन्तु मुझे अभी बहुत से कर्तव्य निभाने हैं,मैं अभी उसे स्वीकार नहीं कर सकता,उससे कहिए कि वो मेरी प्रतीक्षा करें,एक दिन मैं अवश्य आऊँगा और अपना प्रेम स्वीकार करूँगा।"
श्याम को गौरीशंकर का उत्तर सुनकर संतोष हो गया और वो गौरीशंकर के घर से चला आया और वापस आकर कमलनयनी से सब कह दिया।।
कमलनयनी को श्याम की बातें सुनकर सान्त्वना मिल गई।।
रात्रि को तीनो ने वहीं भोजन पकाया और वहीं वृक्ष तले ही आसरा लिया।।

इधर गौरीशंकर के निवास स्थान पर___
गौरीशंकर और श्याम के मध्य हुईं बातें सौभाग्यवती ने सुन लीं थीं,रात्रि के भोजन के पश्चात सौभाग्यवती ने गौरीशंकर से कहा____
"स्वामी! आपने कमल के लिए किवाड़ क्यों नहीं खोले?आपकी मनोदशा से मैं भलीभाँति परिचित हूँ,आपका प्रेम आपको पुकार रहा है और आप उसे अनदेखा,अनसुना कर रहे हैं,आपके हृदय में जो कमलनयनी के लिए अपार प्रेम है,वो मुझसे छुपा नहीं है,मुझे ये भी ज्ञात है कि कमलनयनी ने आपके प्रेम में वशीभूत होकर ही इस घर में आना प्रारम्भ किया था,क्योंकि कमलनयनी की आँखों में जो प्रेम आपके लिए दिखता है वो पवित्र और शुद्ध है,आपने उसके संग ऐसा व्यवहार क्यों किया?ये देखकर मेरे हृदय को अत्यधिक पीड़ा पहुँची है स्वामी!"
"इस समय कुछ ना पूछो,सुभागी!मैं कुछ भी कहने में असमर्थ हूँ," गौरीशंकर बोले।।
"परन्तु,क्यों स्वामी!आप अपने प्रेम को स्वीकार क्यों नहीं कर पा रहे हैं,मुझे इस बात से ना तो कोई पीड़ा है और ना ही कोई आपत्ति,"सौभाग्यवती बोली।।
"नहीं ,सुभागी!इन सब निरर्थक बातों के लिए मेरे पास समय नहीं है और ना ही तुम्हारे प्रश्नों का मेरे पास कोई उत्तर है,मेरे पास बहुत से कर्तव्य हैं जो अभी निभाने शेष हैं,यदि मैने कमलनयनी का प्रेम स्वीकार कर लिया और कर्तव्यों का पालन नहीं किया तो समाज मेरा परिहास करेगा,इतना सरल नहीं है सबकुछ,जैसा कि तुम समझ रही हो,मैं अभी कमलनयनी का प्रेम स्वीकार नहीं कर सकता,"गौरीशंकर बोला।।
"अच्छा तो आप अपना हाथ मेरे सिर पर रखकर वचन दीजिए कि जब आप अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाएंगे तो तब आप कमलनयनी को अवश्य अपना बनाऐगें",सौभाग्यवती बोली।।
सौभाग्यवती के मुँह से ऐसी बातें सुनकर वो सौभाग्यवती से लिपटकर फूट फूटकर नन्हें बालकों की भाँति रोने लगा और उसने सौभाग्यवती से कहा___
"सुभागी! आज मैनें अपनी आत्मा को अत्यधिक कष्ट दिया है,आज जो मैनें कमल के संग व्यवहार किया है उसके लिए ईश्वर मुझे कभी क्षमा नहीं करेगा,तुम मेरी सच्ची मित्र हो इसलिए तुमने मेरे हृदय की बात समझ ली और मैं ये तुम्हारे समक्ष स्वीकार करता हूँ कि मैं कमलनयनी से प्रेम करता हूँ ,
परन्तु माँ,देवव्रत और तुम्हारा, मेरे जीवन में कमलनयनी से भी उच्च स्थान है,मेरे संस्कार मुझे इस प्रेम को स्वीकार करने से रोक रहे हैं,मैं विवश हूँ,मुझे क्षमा करो,जिस दिन मेरे कर्तव्य पूर्ण हो जाएंगे,उस दिन मैं स्वयं कमलनयनी को अपने हृदय से लगाकर ,अपने जीवन में उचित स्थान दूँगा।"
इसके उपरांत कमलनयनी,श्याम और मयूरी उस राज्य को त्याग कर कहीं और चले गए और गौरीशंकर उसी राज्य में रह गया!
कई वर्षों के पश्चात् किसी गाँव के बाहर बहुत दूर स्थित एक छोटी सी पहाड़ी के निकट बरगद के वृक्ष के तले एक छोटा सा मन्दिर है,मन्दिर के बगल में एक छोटी सी कुटिया बनी है,निकट ही कुआँ भी स्थित है,उसी पहाड़ी से उतरकर नीचे की ओर एक कच्चा मार्ग है,उस मार्ग से चलकर एक आठ दस वर्ष की बालिका उस कुटिया की ओर चली जा रही है,उस कुटिया से एकतारे के संग किसी जोगन स्त्री के मधुर भजन की ध्वनि सुनाई दे रही है।।वो बालिका उस रास्ते से होती हुई ,पहाडी़ पर चढ़कर जाती है,जब बालिका कुटिया के भीतर प्रवेश करती है तो ध्वनि बंद हो जाती है।।
और वो बालिका कहती है___
"अरे,बड़ी माँ!आपने भजन क्यों बंद कर दिया?"उस बालिका ने जोगन से पूछा।।
" मुझे ज्ञात हो गया था कि मेरी कादम्बरी बिटिया आ गई है,"जोगन बोली।।
" परन्तु ,आप तो नेत्रहीन हो ,आपको कैसे ज्ञात हुआ कि मैं कादम्बरी हूँ," बालिका ने पूछा।।
"मेरे पास मन की आँखें हैं जो सबकुछ देख लेंतीं हैं और तू गाँव से इतनी दूर मुझसे मिलने पुनः चली आई,कितनी बार मैने मयूरी से मना किया है कि कादम्बरी को अकेली यहाँ ना भेजा करे,परन्तु मेरी बात ना तो श्याम को समझ आती है और ना ही मयूरी को,बालिका को अकेले भेज दिया,मार्ग में वन्यजीवों का कितना भय है,बालिका के संग कुछ हो जाए तो,"जोगन क्रोधित होकर बोली।।
"परन्तु, बड़ी माँ! आज माँ ने खीर-पूरी बनाई थी ,मैनें ही हठ की उनसे कि मैं आपके लिए ले जाऊँगी,मैं आज आपके संग भोजन करना चाहती थी,इसमें ना तो बाबा का दोष है और ना ही माँ का,परन्तु आप तो इतना क्रोधित हो रहीं हैं,"कादम्बरी बोली।।
"ना !मेरी प्रिय बेटी! मैं क्रोधित नहीं हो रही हूँ,तू यहाँ गाँव से अकेले आ जाती है ना! मार्ग में वन्यजीवों का अत्यधिक भय है इसलिए",जोगन बोली।।
"अच्छा,ठीक है बड़ी माँ,अब इस बात का ध्यान रखूँगी,"कादम्बरी बोली।।
"मेरी अच्छी बेटी! अच्छा अब चल कुएँ पर चलकर हाथ मुँह धो लेते हैं,"इसके उपरांत भोजन करते हैं,जोगन बोली।।
"ठीक है बड़ी माँ!"कादम्बरी बोली।।
और दोनों कुएँ पर गईं,कुएं से जल निकालकर दोनों ने हाथ मुँह धोएँ और भीतर आकर भोजन करने बैंठ गईं,कादम्बरी अत्यधिक वाचाल प्रवृत्ति की है,उसने अपनी बड़ी माँ से पुनः वार्तालाप प्रारम्भ कर दिया और कई भाँति के प्रश्न पूछने प्रारम्भ कर दिए,वो बोली____
"कितना अच्छा भजन गातीं हैं आप,बड़ी माँ!" मुझे सिखाएंगी।।
"हाँ !सिखाऊँगी, क्यों नहीं सिखाऊँगी?" अपनी प्यारी बेटी को ,जोगन बोली।।
"आपको ज्ञात है बड़ी माँ! मयूरी माँ कह रही थी कि पहले आप नृत्य किया करतीं थीं,जब आपकी आँखें ठीक थीं,उन्होंने ये भी बताया कि आप लोंग पहले किसी महल में रहते थें,तब माँ और बाबा का विवाह नहीं हुआ था,माँ ये भी कहती थी कि अधिक रोने से ही आपकी आँखों की ज्योति चली गई है,पहले सब आपको कमलनयनी के नाम से जानते थे ,अब हर कोई आपको जोगन कहता है,"कादम्बरी बोली।।
"अच्छा,पहले शाँत मन से भोजन कर लो ,तब भोजन करने के उपरांत वार्तालाप कर लेना,"जोगन बोली।
"ठीक है बड़ी माँ! जैसा आप उचित समझें,"कादम्बरी बोली।।
"परन्तु,अब तू अकेली घर कैसे जाएगी,"जोगन ने पूछा।।
"बड़ी माँ! आप बिल्कुल भी चिन्ता ना करें,मैं आज रात्रि आपके संग ही रूकूँगी,माँ-बाबा कह रहे थे कि कल एकादशी है तो वे दोनों भी मन्दिर आएंगे,तब मुझे साथ में ले जाएंगें,इसलिए तो माँ ने इतना सारा भोजन बाँध दिया है,"कादम्बरी बोली।।
इसी तरह समय बीतता रहा,और आठ वर्ष ब्यतीत हो गए,अब कादम्बरी अठारह की हो चुकी थी।।

गौरीशंकर के निवास स्थान पर___
वर्षो हो गए,गौरीशंकर की माता जी को स्वर्ग सिधारे हुए और आज सौभाग्यवती का स्वास्थ्य बिल्कुल भी ठीक नहीं है,उसकी श्वास ऊपर नीचे हो रही है,उसकी नाड़ी भी शिथिल पड़ती जा रही है,उसके सिराहने बैठे गौरीशंकर को सौभाग्यवती ने मद्धम स्वर मे पुकारा......
स्वामी...।
हाँ,सुभागी । कहो क्या बात है ? गौरीशंकर ने पूछा।
आप मेरे समीप आकर बैठिए, सौभाग्यवती बोली।
और सौभाग्यवती के कहने पर गौरीशंकर उसके समीप आकर बैठ गया।
एक अन्तिम इच्छा है स्वामी,सौभाग्यवती बोली।
हाँ, कहो,गौरीशंकर ने कहा।
मुझे धरती पर लिटा दीजिए और आप खड़े हो जाइए,मैं आपके चरणों की रज अपने माथे से लगाना चाहती हूँ,मै जबसे लकवाग्रस्त हुई हूँ, मैंने आपके चरण स्पर्श नहीं किए,पिछले बीस वर्षों से आप मेरी निरंतर सेवा कर रहे हैं,आपने मेरे लिए अपने प्रेम को भी त्याग दिया,उन्नीस वर्ष हो चुके हैं कमलनयनी को आपके जीवन से गए हुए, परन्तु आपने कभी भी उसकी खोज करने की आवश्यकता नहीं समझी और ना ही उसे एक क्षण के लिए बिसराया,
आप धन्य हैं स्वामी । आपने अपने प्रेम के कारण कभी भी अपने कर्तव्यों से मुँख नहीं मोड़ा,मैं तो धन्य हो गई,आपको पाकर, ईश्वर से यही कामना करती हूँ कि हर जन्म में आप ही मुझे मिलें, मेरे जाने के पश्चात्, कृपया कमलनयनी को खोजकर उससे विवाह कर लीजिएगा,मेरी अन्तिम इच्छा पूर्ण करेंगें ना आप। ,सौभाग्यवती बोली।
सौभाग्यवती की बात सुनकर गौरीशंकर की आँखें छलक पड़ी और सौभाग्यवती से कहा....
नहीं,सुभागी। ऐसा मत कहो।
मेरे पास समय नहीं है स्वामी। आप कृपया शीघ्रता करें, मुझे वचन दीजिए कि आप कमलनयनी को ब्याहकर मेरा स्थान देगें,सौभाग्यवती बोली।
मैं वचन तो नहीं दे सकता किन्तु ऐसा करने का प्रयास अवश्य करूँगा,सौभाग्यवती से इतना कहकर गौरीशंकर ने अपने इक्कीस वर्षीय पुत्र देवव्रत को संकेत किया कि वो अपनी माँ को धरती पर लिटाने के लिए उसकी सहायता करें।
गौरीशंकर और देवव्रत ने जैसे ही सौभाग्यवती को धरती पर लिटाया,गौरीशंकर के चरणों को स्पर्श करते ही सौभाग्यवती का शरीर निर्जीव हो गया।
और उधर एक दिन गाँव के मुखिया ने जोगन से आकर कहा.....
भक्तिन। यदि आपको कोई आपत्ति ना हो तो किसी जाने माने पुरोहित के पुत्र हैं,वो बड़े पुरोहित बनने से पूर्व इस मन्दिर में आकर, मन्दिर का कार्यभार सम्भालकर पूजा-पाठ सीखना चाहते हैं,यदि आपका आदेश हो तो क्या वें यहाँ आ सकते हैं? क्योंकि आप यहाँ वर्षों से रहकर भजन कीर्तन कर रहीं हैं,इससे आपकी भक्ति में कोई बाँधा तो उत्पन्न नहीं होगी।
ये आप कैसीं बातें कर रहे हैं मुखिया जी। इस गाँव के लोगों ने और उस समय जो गाँव के मुखिया जी थे, बड़ा उपकार किया था मुझ पर इस मन्दिर में शरण देकर,उस समय मेरे पास रहने का कोई साधन नहीं था,मैं श्याम और मयूरी के गृहस्थ जीवन में सम्मिलित नहीं होना चाहती थी, तब उनका नया नया विवाह हुआ था,मुझे भी सांसारिक जीवन से अरूचि एवं नीरसता हो गई थी,ऐसे में इन गाँववालों ने मुझे इस मन्दिर में शरण दी थी, मैं आपलोगों की उदारता भला कैसे भूल सकती हूँ?मुझे कोई आपत्ति नहीं है आप उन्हें मन्दिर में रख सकते हैं,मेरी जैसी नेत्रहीन के लिए एक आसरा हो जाएगा,जोगन बोली।
उधर कादम्बरी के घर पर.....
माँ। आज मैं भोजन पकाऊँगी, कादम्बरी बोली।
परन्तु क्यों ? मयूरी ने पूछा।
आज बड़ी माँ से मिलने का मन कर रहा है,आज अपने हाथों से भोजन पकाकर उनके लिए ले जाऊँगी,कादम्बरी बोली।
तू अकेले कैसे जाएंगी,मार्ग में वन्यजीवों का भय है,तेरी बड़ी माँ पुनः मुझे डाँटेगीं कि कादम्बरी को अकेले भेज दिया,मयूरी बोली।
मैनें बाबा से पूछ लिया है,कादम्बरी बोली।
ठहर मैं अभी तेरे बाबा से पूछतीं हूँ और इतना कहकर मयूरी ने श्याम को पुकारा......
सुनते हो जी। क्या तुमने कादम्बरी को मन्दिर जाने की अनुमति दी है ?
तभी श्याम बाहर आकर बोला___
हाँ। मैने उसे अनुमति दे दी है।
देखो जी। अब बेटी सयानी हो गई,उसकी सारी इच्छाओं को पूरी करने का प्रयास मत किया करो,कल को उसका ब्याह होगा तो ससुराल में क्या करेगी? लोंग तो ये कहेगें ना । कि माँ ने कुछ नहीं सिखाया,मयूरी बोली।
चिंता मत करो,मयूरी। हमारी बेटी सब कुछ सीख जाएगी और जाने दो उसे अपनी बड़ी माँ से मिलने,हमारी बेटी बहुत बहादुर है,किसी से नहीं डरती,श्याम बोला।
ठीक है जब तुमने अनुमति दे ही दी है तो भला मैं क्या कर सकती हूँ? मयूरी बोली।
दोपहर का समय, सूर्य का कड़ा ताप,आस पास घनी झाड़ियाँ और घने घने वृक्ष___
एक नवयुवक घोड़े पर सवार, किसी वृद्ध व्यक्ति से मन्दिर जाने का रास्ता पूछ रहा है।
वृद्ध व्यक्ति ने कहा___
बेटा। सीधे इसी मार्ग पर चलते चले जाओं,एक पहाड़ी दिखेगी,बस उसी पर मन्दिर स्थित है,उसके बगल में एक कुटिया है,उसमें एक जोगन रहती है,उसके मधुर भजन तुम्हें दूर से ही सुनाई पड़ जाएंगें।
नवयुवक ने वृद्ध व्यक्ति को धन्यवाद दिया और आगें बढ़ गया वृद्ध की बताई हुई दिशा की ओर किन्तु बहुत समय चलने के उपरांत भी उस नवयुवक को पहाड़ी नहीं दिखी,उसे बहुत जोर की प्यास भी लग रही थी,तभी मार्ग में उसे एक नवयुवती जाती हुई दिखी जिसके हाथ में बहुत सी वस्तुएँ थी।
उस नवयुवक ने उस नवयुवती से पूछा___
ऐ लड़की। क्या पहाड़ी वाले मन्दिर का यही मार्ग है ?
उस लड़की ने अपनी बडी़ बड़ी आँखों से क्रोधित होकर उस नवयुवक की ओर देखा और बोली___
किसी लड़की से ऐसे बात करते हैं, क्या यही तुम्हारा शिष्टाचार है? नहीं बताऊँगीं, ज्ञात भी होगा तब भी नहीं बताऊँगी,वो लड़की कोई और नहीं कादम्बरी थी जो अपनी बड़ी माँ से मिलने जा रही थी।
उस नवयुवक ने कादम्बरी का ऐसा उत्तर सुना तो हँस पडा़ और पुनः कादम्बरी से निवेदन करते हुए बोला____
अच्छा। देवी जी। कृपया करके बताएंगी कि पहाड़ी वाले मन्दिर का मार्ग कौन सा है?
हाँ। अब ठीक है,अब तुम शिष्टतापूर्वक बात कर रहे हो,तुम ठीक मार्ग पर जा रहे हो, मैं भी वहीं तक जा रही हूँ,मेरे पीछे पीछे चले आओ,कादम्बरी बोली।
अगर आपको कष्ट ना हो तो आप अपने हाथों की वस्तुएं मुझे दे सकतीं हैं,मैं घोड़े पर रख लेता हूँ,उस नवयुवक न कहा।
ठीक है, यदि तुम्हें आपत्ति नहीं है तो ये लो,रख लो अपने घोड़े पर,कादम्बरी बोली।
यदि तुम्हें कोई आपत्ति ना हो तो तुम्हें भी मैं घोड़े पर बिठा सकता हूँ,उस नवयुवक ने हँसते हुए कहा।
ऐ,सुनो। अत्यधिक परोपकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है, लाओं मेरी वस्तुएं मुझे दे दो,मैं चली जाऊँगी, कादम्बरी बोली।
अरे,मैं तो परिहास कर रहा था,तुम तो बुरा मान गईं,नवयुवक बोला।
मुझे ऐसा परिहास अच्छा नहीं लगता, कादम्बरी बोली।
वैसे तुम बहुत सुन्दर हो और साथ में नकचढ़ी भी,नवयुवक बोला।
कादम्बरी लजाते हुए इधर-उधर देखने लगी।
अच्छा,ये बताओ तुम इतनी सामग्री इतनी दोपहर में मन्दिर लेकर क्यों जा रही हो?नवयुवक ने पूछा।
वहाँ मेरीं बड़ी माँ रहतीं हैं,वो वहाँ भजन गातीं हैं,कादम्बरी बोली।
तो क्या तुम्हारी बड़ी माँ,तुम्हारे घर में नहीं रहतीं ? नवयुवक ने पूछा।
वो मेरी माँ की सखीं है,हमलोगों के सिवाय उनका और कोई नहीं है और वो नेत्रहीन भी हैं,वो सांसारिक जीवन से ऊब चुकीं हैं इसलिए मन्दिर में रहती हैं,कादम्बरी बोली।
और बातों ही बातों में मन्दिर आ गया, कादम्बरी बोली वो रहा मन्दिर।
दोनों मन्दिर पहुँचे, कादम्बरी की बड़ी माँ वहीं बैंठीं थीं,गाँव के मुखिया जी के साथ और मुखिया जी नये पंडित की प्रतीक्षा कर रहे थे,,
उस नवयुवक ने अपना परिचय मुखिया जी को दिया___
मेरा नाम देवव्रत है,मुझे इस मन्दिर में नए पंडित जी के लिए नियुक्त किया गया है।
जी । आपकी ही प्रतीक्षा हो रही थी,मैं इस गाँव का मुखिया और ये हमारे मन्दिर की भक्तिन हैं,वर्षों से यहाँ रहती हैं और भजन गातीं हैं,मुखिया जी बोले।
देवव्रत ने कमल के चरण स्पर्श किए तो कमल ने रोकते हुए कहा___
अरे। ये क्या कर रहे हैं आप ? आप तो देवी देवताओं के चरण स्पर्श कीजिए,उनके चरण स्पर्श करने से आपका भला होगा,मेरे चरण स्पर्श करने से भला आपको क्या मिलेगा?
आप मेरी माँ समान हैं और हर पुत्र का कर्तव्य होता है अपनी माँ के चरण स्पर्श करना,देवव्रत बोला।
बहुत भाग्यशालीं हैं वो माता पिता जिनकी तुम सन्तान हो,कमल बोली।
देवव्रत की प्रशंसा सुनकर कादम्बरी को अच्छा नहीं लगा और वो भी बोल पड़ी।
बड़ी माँ। मैं भी यहाँ हूँ।
तू कब आई? कादम्बरी बिटिया। कमल ने पूछा।
इन्हीं के संग आई हूँ,आपके लिए भोजन ला रही थी तो ये मार्ग में मिल गए,कादम्बरी बोली।
अच्छा। तो कुछ जलपान देवव्रत को भी कराओ,कमल बोली।
ठीक है बड़ी माँ। कादम्बरी बोली।
तभी मुखिया जी बोले__
अच्छा पंडित जी। चलता हूँ। अब आपसे परिचय हो चुका है,मैं आपके आने की सूचना गाँव वालों को भी दे दूँ और आपकी आवश्यकता की वस्तुएं साँझ के समय गाँववालें आपके लिए ला देंगें और इतना कहकर मुखिया जी चले गए।
और कादम्बरी ने देवव्रत से कहा कि पहले कुएँ पर चलकर हाथ मुँह धो लो, मैं भी हाथ मुँह धोकर भोजन लगाती हूँ।
और सबने मिलकर भोजन किया।

भोजन करने के उपरांत, जोगन विश्राम करने के लिए कुटिया में लेट गई और कादम्बरी एवं देवव्रत कुटिया के बाहर आकर मन्दिर के चबूतरे में बैठकर वार्तालाप करने लगे____
अच्छा!तो तुम्हारा नाम कादम्बरी है, तुमने मार्ग में तो नहीं बताया, देवव्रत ने कहा।
हाँ, क्यों मेरा नाम कादम्बरी है, इसमें कोई बुराई है क्या? और तुमने भी तो अपना नाम नहीं बताया था, कादम्बरी बोली।
ना ! तुम्हारे नाम में कोई बुराई नहीं है, बहुत ही सुन्दर नाम है तुम्हारा, कादम्बरी का अर्थ होता है कोयल, परन्तु तुम्हारे स्वर तो बिल्कुल भी मीठे नहीं हैं, तुम्हारे मुँख से तो केवल कड़वें बोल ही निकलते हैं, देवव्रत बोला।
हाँ....हाँ....महाशय! क्यों नहीं? आपके बोल तो मधु में लिप्त रहते हैं, कादम्बरी क्रोधित होकर बोली।
कमलनयनी सोई नहीं थी और कुटिया के भीतर लेटे लेटे उन दोनों के वार्तालाप को सुन कर मन ही मन प्रसन्न हो रही थी।
साँझ का समय हो चला था, गाँव वालें देवव्रत के दिनचर्या में प्रयोग होने वाली वस्तुएँ लेकर आ चुके थें, गाँववालों ने देवव्रत के मन्दिर में रहने की ब्यवस्था की और गाँव वापस चले गए, कादम्बरी को कमलनयनी ने अपने संग कुटिया में ही रोक लिया था, रात्रि का भोजन कादम्बरी ने ही पकाया, रात्रि को पुनः तीनो भोजन करने बैठे, तब वार्तालाप करते हुए कमलनयनी ने देवव्रत से पूछा____
पंडित जी! आपकी आयु क्या होगीं?
सर्वप्रथम तो आप मुझे पंडित जी कहकर ना पुकारें, क्योंकि आप मेरी आदरणीया है और आप मेरी माँ समान हैं, इसलिए मैं आपको भक्तिन माँ कहकर ही पुकारा करूँगा एवं कृपया आप मुझे मेरा नाम लेकर ही पुकारा करें और रहीं मेरी आयु की बात तो मेरी आयु यही कोई इक्कीस वर्ष होगी, देवव्रत बोला।
अच्छा, ठीक है मै तुम्हें देवव्रत ही कहकर पुकारा करूँगी, इतनी कम आयु में तुमने इतना ज्ञान अर्जित कर लिया, अत्यधिक अच्छा लगा, ऐसे ही सफलता अर्जित करो , मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे संग है, परन्तु एक बात बोलूँ, तुम्हारा नाम कुछ सुना सुना सा लग रहा है किन्तु कुछ याद नहीं आ रहा, कमलनयनी बोली।
कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है भक्तिन माँ! कोई और भी होगा मेरे नाम जैसा, देवव्रत बोला।
कमल ने मन में सोचा कि कितना शिष्ट और ज्ञानी बालक है, कितना अच्छा हो यदि कादम्बरी का ब्याह इस बालक से हो जाए, किन्तु ये तो अत्यधिक अच्छे परिवार से लगता है, क्या ये कादम्बरी से ब्याह के लिए सहमत होगा?
कुछ ही दिनों में देवव्रत ने मन्दिर का कार्यभार सम्भाल लिया और ऐसे ही दिन बीत रहे थें____
मुखिया जी ने बड़े बरगद के तले और मंदिर के निकट देवव्रत की कुटिया भी , कमलनयनी की कुटिया के बगल में बनवा दी, कभी देवव्रत स्वयं भोजन पकाकर भक्तिन माँ के संग खा लेता तो कभी कमल ही कुछ पकाकर देवव्रत को खिला देती तो कभी कादम्बरी ही दोनों के लिए भोजन पकाकर ले आती, परन्तु देवव्रत सदैव अपनी भक्तिन माँ के संग ही भोजन करता।
इस तरह कादम्बरी और देवव्रत एक दूसरे के समीप आते जा रहे थे, दोनों के हृदय में एक दूसरे के लिए प्रेम अंकुरित हो रहा था, परन्तु दोनों में से किसी ने भी अपने हृदय की बात एक दूसरे को नहीं बताई।
इधर मयूरी को कादम्बरी पर कुछ संदेह हो चला था क्योंकि कादम्बरी अब आए दिन मंदिर जाने लगी थी, उसके स्वाभाव में भी कुछ अन्तर दिखाई दे रहा था, अब वो गम्भीर दिखाई पड़ने लगी थी, अब ना वो पहले की भाँति अधिक हँसती और ना ही हठ करती, जो कह दो तो शांत होकर मान लेती, ये बात मयूरी ने श्याम को बताई।
तो तुम मन्दिर क्यों नहीं चली जाती?कदाचित कमलनयनी को कुछ ज्ञात हो, श्याम बोला।
हाँ! कदाचित तुम ठीक कह रहे हो, कल ही मैं अकेले ही मन्दिर जाऊँगी, कादम्बरी को घर पर ही छोड़ दूँगी, मयूरी ने श्याम से कहा।
और दूसरे दिन ही मयूरी ने कादम्बरी को घर में रहने का आदेश दिया और स्वयं वो कमलनयनी के पास मन्दिर चली आई, उसने कमलनयनी से कहा___
आजकल कादम्बरी के स्वाभाव में अत्यधिक परिवर्तन आ गया हैं, क्या आपको इसका कारण ज्ञात है?मयूरी ने पूछा।
हाँ, हमारी कादम्बरी को प्रेम हो गया है, ये मैं अपने अनुभवों से कह रही हूँ, जब मैं मन्दिर के पंडित जी और कादम्बरी के मध्य हो रहे वार्तालाप को सुनती हूँ तो मुझे इसका अनुभव होता है कि कदाचित दोनों के मध्य प्रेम का अंकुरण हो रहा है, मैं देख तो नहीं सकती किन्तु मन के भावों को भलीभाँति अनुभव कर सकतीं हूँ, हो ना हो मयूरी के गम्भीर होने का यही कारण है, कमलनयनी बोली।
तभी वहाँ देवव्रत आ पहुँचा और उसने कमलनयनी से कहा____
चलिए, भक्तिन माँ! भोजन कर लीजिए, आज दोपहर का भोजन मैने पकाया है, जी और आप, देवव्रत ने मयूरी की ओर संकेत करते हुए पूछा___
ये....ये कादम्बरी की माता जी हैं, कमलनयनी बोली।
इतना सुनते ही देवव्रत ने शीघ्र ही मयूरी के चरणस्पर्श किए और कहा____
काकी जी! चलिए आप भी हम लोगों के संग भोजन कीजिए।
कुछ भोजन मैं भी लाई थी अपनी सखी के लिए, चलिए सब संग में भोजन करते हैं, मयूरी बोली।
मयूरी ने सबके लिए भोजन परोसा और सब संग मिलकर खाने बैठे, इसके उपरांत आपस में कुछ वार्तालाप भी हुआ।
कुछ समय उपरांत जब मयूरी को कमलनयनी के संग एकांत का अवसर मिला तो उसने कमलनयनी से कहा___
बालक तो बहुत ही अच्छा है, अत्यधिक संस्कारों वाला भी लगता है, मुझे तो अत्यधिक भा गया ।
वही तो मैं कहना चाहती थी, मैने उसकी सूरत तो नहीं देखी किन्तु इतना अवश्य कह सकती हूँ कि बालक हृदय का अत्यन्त ही अच्छा है, वो हमारी कादम्बरी को सदैव प्रसन्न रखेगा, कमलनयनी बोली।
मैं आज ही श्याम से इस विषय पर बात करती हूँ, कुछ ही समय में नवरात्रि प्रारम्भ होने वाली है, इसी के मध्य यह शुभ कार्य हो जाए तो अति उत्तम रहेगा, मयूरी बोली।
हाँ! मयूरी! बिलम्ब मत करना, कभी कभी अधिक बिलम्ब हो जाने से हाथों से सब छूट जाता है और उसका जीता जागता उदाहरण तुम्हारे समक्ष है, कमलनयनी उदास होकर बोली।
इतनी ब्यथित ना हो सखी! तुम्हारे मन की इच्छा एक ना एक दिन अवश्य पूर्ण होगी, एक दिन पुरोहित जी के दर्शन पाकर तुम्हारे मन को अवश्य तृप्ति मिलेगी, मयूरी बोली।
मयूरी! मैने तो अब इसकी आशा ही छोड़ दी है, ये तो मेरे लिए एक अधूरा स्वप्न बनकर रह गया है, मुझे अब अन्तर भी नहीं पड़ता, बस मैं तो उनको मीरा की भाँति अपने मन मन्दिर में बसा कर दिनरात उनकी ही भक्ति करती हूँ, कमलनयनी बोली।
परन्तु सखी! तुम्हारी प्रतीक्षा कभी भी ब्यर्थ ना जाएगी और ये अधूरा स्वप्न एक ना एक दिन अवश्य पूर्ण होगा, मयूरी बोली।
बस, इसी आशा में तो अब तक जीवित हूँ नहीं तो कब के प्राण त्याग चुकी होती, कमलनयनी बोली।
ऐसे अशुभ शब्दों का प्रयोग ना करो सखी, सकारात्मक सोचों, पुरोहित जी के दर्शन तुम्हें शीघ्र ही होगें, मयूरी बोली।
तुम्हारा कथन सत्य निकले मयूरी! कमलनयनी बोली।
अच्छा, सखी! अब मैं जाती हूँ, साँझ होने वाली है श्याम और मयूरी मेरी प्रतीक्षा कर रहे होगें, मयूरी बोली।
अच्छा, मयूरी! अब तुम जाओ और इस विषय पर श्याम से अवश्य पूछ लेना, कमलनयनी बोली।
हाँ अवश्य और इतना कहकर मयूरी चली गई।
घर जाकर मयूरी ने श्याम से देवव्रत के विषय में कहा___
सर्प्रथम इस विषय में कादम्बरी से पूछ लो, यदि उसकी इच्छा देवव्रत से विवाह की है तो उसकी ही इच्छा हम सबकी भी इच्छा होगी, श्याम बोला।
इसके उपरांत मयूरी ने इस विषय पर कादम्बरी से पूछा तो कादम्बरी ने हाँ में उत्तर दिया, आप श्याम को पूर्णतः विश्वास हो गया था और इस विवाह की लिए उसने सहमति दे दी एवं एक दिन श्याम और मयूरी की योजना मन्दिर जाने के लिए बनी क्योंकि श्याम भी देवव्रत को देखना चाहता था और दोनों देवव्रत से मिलने मन्दिर पहुँचे।
श्याम ने जैसे ही देवव्रत को देखा तो वो उसे भा गया और विवाह के विषय में श्याम ने देवव्रत से कुछ वार्तालाप किया, देवव्रत बोला___
जैसा आप उचित समझें, आप लोगों लगता है कि यदि मैं आपके पुत्री के लिए योग्य वर हूँ तो मुझे भी इसमें कोई आपत्ति नहीं है, कादम्बरी जैसी सुशील और सुन्दर कन्या से भला कौन ब्याह ना करना चाहेगा, इस ब्याह के लिए मेरी सहमति है किन्तु इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले मुझे अपने पिताश्री की भी अनुमति चाहिए होगी, यदि आप लोगों को कोई आपत्ति ना हो।
अवश्य! उनकी सहमति के बिना तो ये कार्य पूर्ण ही नहीं हो सकता, आप नवरात्रि में अपने पिताश्री को हमारे निवास स्थान पर लाइए, वो हमारी पुत्री को देखकर संतुष्ट हो जाएं तभी ये कार्य सम्पन्न होगा, तो ऐसा कीजिए आप नवरात्रि की अष्टमी को अपने पिताश्री के संग हमारे निवास स्थान पर पधारें, किन्तु आप कल ही हमारे घर जलपान हेतु आमंत्रित हैं, कृपया अपने चरण स्पर्शों से हमारे घर को पवित्र करें, श्याम बोला।
जी अवश्य! मैं कल ही दोपहर के भोजन के लिए आपके घर पर मुखिया जी के संग उपस्थित हो जाऊँगा, देवव्रत बोला।
जी, हम प्रतीक्षा करेंगें, श्याम बोला।
और कुछ देर के वार्तालाप के पश्चात् श्याम और मयूरी वापस अपने घर लौट गए, दूसरे दिन देवव्रत भी जलपान हेतु दोपहर के समय कादम्बरी के घर पहुँचा, मयूरी और श्याम ने देवव्रत को बड़े आदर सत्कार के संग भोजन कराया, देवव्रत को भी कादम्बरी के माता पिता भा गए , वो प्रसन्नतापूर्वक मन्दिर लौटा और कमलनयनी को सारा वृत्तांत सुनाया, ये सुनकर कमलनयनी भी अति प्रसन्न हुई।
बस, ऐसे ही मिलने मिलाने में नवरात्रि भी आ गई, इसी मध्य देवव्रत अपने घर अपने पिता को इस बात की सूचना दी और उनसे कहा कि उन दोनों को नवरात्रि की अष्टमी के दिन कादम्बरी के परिवार ने अपने घर पर आमंत्रित किया है, विवाह की बात करने के लिए।
देवव्रत के पिता ये सुनकर अति प्रसन्न हुए कि उनके पुत्र ने स्वयं ही पुत्रवधु ढूढ़ ली, वो इस विषय में विचार ही कर रहे थे और ये कार्य देवव्रत ने पूर्ण कर दिया , उन्होंने अष्टमी के दिन कादम्बरी के घर चलने की अनुमति दे दी, देवव्रत को अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि उसके पिता इस बात से सहमत हैं।
कमल ने नवरात्रि का व्रत रखा है, दिन में एक समय जल और कुछ फल ग्रहण करती है, ऐसा करने से उसका स्वास्थ्य बिगड़ रहा है, परन्तु उसने अपना नियम नहीं तोड़ा, जब वो अत्यधिक जीर्ण हो गई तो उसने अपनी देखभाल के लिए कादम्बरी को बुलवा लिया क्योंकि देवव्रत भी उस समय अपने घर गया हुआ था,
आज अष्टमी है और अत्यधिक दयनीय अवस्था है कमलनयनी की, सुबह उसने कुछ जल एवं फल ग्रहण किए थे और तब से कुछ और भी ग्रहण नहीं किया, उसकी अवस्था देखकर कादम्बरी उससे बार बार विनती कर रही है किन्तु कमलनयनी उसकी एक नहीं सुन रही है____
बड़ी माँ! कुछ तो ग्रहण कर लीजिए, आपकी दशा अत्यन्त दयनीय हो रही है, कादम्बरी बोली।
नहीं मेरा व्रत पूर्ण नहीं होगा, मेरी वर्षों की तपस्या भंग हो जाएगी, कमलनयनी बोली।
कादम्बरी के इतना आग्रह करने के पश्चात् भी कमल ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया, कादम्बरी चिन्तित होकर कमल के सिराहने बैठ गई।
और उधर गाँव में,
जैसे ही देवव्रत अपने पिता को लेकर कादम्बरी के घर के द्वार पर उपस्थित हुआ तो श्याम ने ही किवाड़ खोले और अपने समक्ष पुरोहित गौरीशंकर को देखकर आश्चर्यचकित हो उठा____
पुरोहित जी! आप! वो भी इतने वर्षों के उपरांत, श्याम बोला।
जी, श्याम जी! तो क्या आप ही कादम्बरी के पिता हैं?गौरीशंकर ने पूछा।
और देवव्रत आपका ही पुत्र है, श्याम बोला।
हाँ! मेरा ही पुत्र है, किन्तु ये सब बातें बाद में कीजिएगा, पहले मुझे ये ज्ञात करना है कि कमलनयनी कहाँ हैं? गौरीशंकर बोला।
अब क्या कहूँ? पुरोहित जी!आपके कहने पर वो आपके जीवन से दूर तो हो गई परन्तु, वो जीवित होकर भी निष्प्राण थी, आपके प्रेम ने उसकी दशा को अत्यन्त दयनीय बना दिया, अत्यधिक रोने से उसके नेत्रों की ज्योति चली गई और अब जोगन बनकर मन्दिर में भजन गाती रहती है और आपकी प्रतीक्षा करती है, श्याम बोला।
तो क्या? भक्तिन माँ ही आपकी कमलनयनी है, जैसा कि प्राण त्यागते समय माता ने बताया था, देवव्रत ने कहा।
हाँ! पुत्र !वो ही कमलनयनी है और उसकी अवस्था अत्यधिक जीर्ण हो चली है, परन्तु उसने व्रत रखना नहीं छोड़ा, इसी कारण उसकी स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि कदाचित कोई अशुभ समाचार ना आ जाए, आप आने वाले थे , इसलिए आज हम दोनों उससे मिलने नहीं जा पाएं, श्याम बोला।
मेरे कारण इतनी बुरी अवस्था हो गई है कमलनयनी की, मैं ही उसका अपराधी हूँ, ईश्वर मुझे कभी भी क्षमा नहीं करेगा, मैं अभी इसी समय उसे देखना चाहता हूँ, कृपया आप मुझे वहाँ लें चलें, गौरीशंकर बोला।
और सब निकल पड़े मन्दिर की ओर कमलनयनी से मिलने, वहाँ पहुँचकर गौरीशंकर ने कुटिया के बाहर से पुकारा____
कमल.....कमल....देखों मैं आ गया।
कमलनयनी ने जैसे ही गौरीशंकर का स्वर सुना तो आश्चर्यचकित हो उठी,
और इतना कहते ही गौरीशंकर जैसे ही कुटिया के भीतर पहुँचा, तो कमल बोली___
पुरोहित जी ! आप आ गए, ईश्वर को मेरे अन्तिम समय में आखिर दया आ ही गई मेरे ऊपर,
ऐसा ना कहो कमल ! गौरीशंकर ने कमल का सिर अपनी गोद मे रखते हुए कहा___
बस, पुरोहित जी!एक बार मुझे अपने हृदय से लगा लीजिए, मेरी वर्षों से प्यासी आत्मा को तृप्त कर दीजिए, कमलनयनी बोली।
और कमलनयनी के इतना कहने पर गौरीशंकर ने कमलनयनी को अपने हृदय से लिया___
किन्तु, ये क्या? गौरीशंकर ने जैसे ही कमलनयनी को अपने हृदय से लगाया , कमलनयनी के हृदय की गति रूक गई, उसने श्वास लेना बंद कर दिया, कदाचित गौरीशंकर को पाकर वो तृप्त हो चुकी थी।
गौरीशंकर फूट फूटकर रोते हुए बोला____
इतने वर्षों बाद मिली थी, इतनी घनघोर तपस्या की तुमने मेरे लिए और आज जब हमारा संगम होने वाला था तो तुम मुझे छोड़कर चली गई, मेरे संग बहुत बड़ा विश्वासघात किया तुमने कमल!जितनी अधीर और व्याकुल तुम थी मेरे लिए मैं उससे अधिक अधीर और व्याकुल था तुम्हारे लिए, ईश्वर साक्षी है कि कैसे मैने इतने वर्ष मृत के समान बिताएँ हैं, तुम मेरे जीवन से चली गईं तो ऐसा प्रतीत हुआ कि इस शरीर से मेरे प्राण भी चले गए, तुम मेरी आत्मा थीं, मैनें जब पहली बार तुम्हारे होंठो को स्पर्श किया था तो उसी समय मुझे तुमसे प्रेम का अनुभव हो गया था किन्तु मेरे कर्तव्य मेरे प्रेम के आड़े आ गए, आज मैं पुनः तुम्हारे मृत होंठों का स्पर्श करके उस अनुभव को पुनः पाना चाहता हूँ, क्या पता मैं पुनः भविष्य में तुम्हारा स्पर्श ना पा पाऊँ____
और रोते हुए गौरीशंकर ने अपने होंठों से कमलनयनी के होंठों का स्पर्श किया, गौरीशंकर का स्पर्श पाकर कमलनयनी के शरीर में कम्पन हुआ, उसमें चेतना का संचार प्रारम्भ हो गया और वो जीवित हो उठी, कमलनयनी को जीवित देखकर गौरीशंकर ने कमलनयनी को प्रसन्नतापूर्वक अपने हृदय से लगा लिया, आज वर्षों के पश्चात एक दूसरे के प्रेम को पाकर दोनों को तृप्ति मिल गई थी।

समाप्त____
सरोज वर्मा___🙏🙏❤️



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